युवा आलोचक। ‘मीडिया और आधी आबादी का सच’ पर पोस्ट डॉक्टरल रिसर्च।
जॉन स्टुअर्ट मिल की रचना ‘द सब्जेक्सन ऑफ़ विमेन’ के अनुसार, स्त्री और पुरुष के बीच शारीरिक विषमताएं अवश्य हैं, किंतु बौद्धिक क्षमता में दोनों बराबर हैं। सीबीएससी, प्रादेशिक बोर्ड या सिविल सेवाओं के रिजल्ट देखें तो टॉपरों में लड़कियों की संख्या बढ़ रही है।खेल, राजनीति और मीडिया-सिनेमा में उनकी प्रतिभा को देखा जा सकता है।जब लड़कियों के पढ़ने और आगे बढ़ने के प्रतिबंधों और जड़ मान्यताओं में कमी आई तो उनकी क्षमता समाज के सामने प्रकट हुई।सिमोन द बोउआ ‘द सेकेंड सेक्स’ में अकारण नहीं लिखती हैं, ‘स्त्री पैदा नहीं होती, स्त्री बना दी जाती है।’ यह भी एक सचाई है कि समाज में जिस गति से शिक्षा, समानता जैसे लोकतांत्रिक मूल्यों का विकास हो रहा है, उससे तीव्र गति से पुरुषवादी क्रूरता भी बढ़ रही है।ऐसे परिवेश में, युवतियों को आगे बढ़ने के लिए सौंदर्य से अधिक ध्यान शारीरिक मजबूती और शिक्षा पर देना चाहिए।मीडिया और साथ-साथ समाज भी चाहता है कि वह मजबूत न होकर सुंदर और स्लिम हो, ताकि पुरुषों के इशारे पर नाचती रहे, उसमें प्रतिरोध की सोच एवं क्षमता का अभाव बना रहे।इस पर भी ध्यान रखना जरूरी है कि विरोध पुरुष का नहीं, पितृसत्तात्मक सोच का होना चाहिए।दुखद यह है कि पितृ सत्तात्मक सोच महिलाओं के अंदर भी है।
अनामिका अपनी पुस्तक ‘स्त्री विमर्श की उत्तरगाथा’ में विमर्श और विमर्शकारों के दायित्व पर गंभीरता से प्रकाश डालती हैं, ‘कुल मिलाकर स्त्रीवाद के दो दायित्व हो जाते हैं- पहला, जेंडर-स्टीरियोटाइप पर प्रहार तथा दूसरा, स्त्री-मन और शरीर की सही समझ का विकास।’ स्त्री-विमर्श की पृष्ठभूमि साहित्य तो तैयार करता ही है, किंतु समाजशास्त्र और मनोविज्ञान के महत्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता।साहित्येतिहास में जिन कृतियों को महान बतलाया गया है, उनमें स्त्रियों के व्यक्तित्व का समग्रता से मूल्यांकन नहीं है।तथाकथित महान रचनाकारों द्वारा भी स्त्रियों की परंपरागत छवि और पुरुष वर्चस्व को स्थापित करने का प्रयास किया गया है, जिस पर स्त्री-विमर्श सवाल खड़ा करता है।भक्तिकालीन संत कवियों की प्रगतिशीलता का बखान करने वाले उनके संकीर्ण स्त्री-चिंतन पर मौन साध लेते हैं।नवजागरण काल में स्त्री के जीवन में सुधार और उसे शिक्षित करने का प्रयास किया गया है।इसके बावजूद आज भी उसकी स्वतंत्रता, स्वावलंबन और पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर चलना किसी को स्वीकार्य नहीं है।
स्त्रियों को मिले लोकतांत्रिक अधिकार वस्तुतः शिक्षा और स्वावलंबन का परिणाम है।स्त्री-विमर्श ने नारी जीवन के उन पक्षों को प्रस्तुत किया है, जिनकी चर्चा से साहित्य और समाज-विज्ञान में परहेज किया जाता था।लेस्बियन और बिस्तर के प्रसंग लोगों को मनोरंजक लग सकते हैं, किंतु मासिक धर्म और प्रसव पीड़ा की प्रामाणिक अभिव्यक्ति किसी पुरुष के बूते की बात नहीं।गोपनीयता और लज्जा के कारण किशोरियां अनेक यौन रोगों से पीड़ित हैं।उनकी चिकित्सा की समुचित व्यवस्था का हमारे समाज में अभाव है।
यह समस्या सिर्फ भारतीय महिलाओं की नहीं, बल्कि वैश्विक है।मासिक धर्म के मुद्दे को उठाने वाली डाक्यूमेंट्री ‘पीरियड : एंड ऑफ़ सेंटेंस’ को सर्वश्रेष्ठ शॉर्ट फिल्म का ऑस्कर अवार्ड (2019) प्रदान किया गया।यहां स्त्रियां अपनी पीड़ा, समस्या को ही नहीं व्यक्त कर रही हैं, बल्कि अपनी शक्ति की समीक्षा भी कर रही हैं।
स्नोवा बार्नों की लंबी कविताएं संघर्ष का चलचित्र हैं और मानवता की रक्षक भी, ‘जब तक ताकतवर मुल्कों में/साहसी और इंसाफ पसंद लड़कियां पैदा होती रहेंगी/तब तक कोई भी बम, कोई भी बुलडोजर/और कोई भी प्रोपेगंडा/मनुष्यता को अंधा नहीं कर पाएगा।’ इजराइल की कवयित्री रशेल ब्लूस्टीन का आह्वान है, ‘बहुत जरूरत है तुम्हारी जैसी लड़कियों की/जो अपने हर कातिल की शिनाख्त करना जानती हों/फिर चाहे कश्मीर की लुटी-पिटी लड़की हो/या गुजरात की ….या गाजा या इसराइल की/उन्हें सबसे पहले अपनों के खिलाफ खड़ा होना है/यहां तक कि हर उस औरत के खिलाफ भी/जो संगठित धर्म और संगठित राष्ट्रीयता की गुलाम है।’ नारीवादी लेखन घर, परिवार एवं स्त्री जीवन से आगे बढ़कर राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मुद्दों को अपने आगोश में ले चुका है।राजनीतिक-सामरिक मसलों पर बोलने, लिखने वाली महिला पत्रकारों की संख्या बढ़ रही है, मगर मंद गति से।
भूमंडलीकरण ने स्त्री को कुछ स्वतंत्र, आत्मनिर्भर और शक्तिशाली बनाया है।फिल्म, मॉडलिंग, मीडिया के साथ सेना में इनकी संख्या बढ़ रही है।किंतु, इसका दूसरा पक्ष भी है।उपभोक्तावाद ने कुछ युवतियों को कालगर्ल रैकेट का हिस्सा बनाया।फिल्म और मीडिया में औरतों को किन शर्तों पर काम करना पड़ता है, वह ‘मी-टू’ अभियान में उजागर हो चुका है।मीडिया की निगाह में युवती विज्ञापन की वस्तु है, अब किशोरियों को भी उसी श्रेणी में लाने का प्रयास जारी है।विज्ञान और तकनीक से बहुत कुछ बदल सकता है, किंतु समाज की पुरुषवादी सोच नहीं।
कम उम्र में सफल-परिश्रमी युवतियों के चरित्र को संदिग्ध मान लिया जाता है।संरक्षण देने वाले और समाज की दृष्टि में वह मानव नहीं ‘रखैल’ है।वैश्विक स्तर की चमड़ा व्यवसायी प्रभा खेतान ‘अन्या से अनन्या’ में इस पीड़ा को मार्मिक ढंग से व्यक्त करती हैं, ‘मुझे कोई सजा नहीं मिली, किसी दैहिक पीड़ा का अहसास कभी नहीं हुआ, लेकिन एक चरम मानसिक यंत्रणा को भोगते रहने को, एक स्थायी आतंक को झेलते रहने को मैं बाध्य थी।’ स्त्रियों की आत्मकथाएं बेधक जीवनानुभवों का सच हैं।अपने परिश्रम और लगन से शिखर पर पहुंची महिलाएं प्रायः अविवाहित हैं या वैवाहिक संबंध टूट चुका है।बचा है तो सिर्फ कहने के लिए।पुरुषों का अहं पत्नी की योग्यता और सफलता को स्वीकार नहीं कर पाता है।पितृसत्ता स्त्री की आजादी और मुक्ति में बाधक है।सत्ता कोई भी हो वह यथास्थितिवाद की समर्थक होती है, परिवर्तन को रोकना उसका स्वभाव है।
स्त्री जीवन की विडंबना, अंतर्विरोध और उसकी तड़प को एक स्त्री स्वर देती है तो उसमें अनुभूति की आंच होती है।वह लेखिका, गायिका हो या अन्य कलाकार, उसके प्रति आलोचक की संवेदना जुड़ना स्वाभाविक है और मानवता का परिचायक भी।कुमुद शर्मा की पुस्तक ‘आधी दुनिया का सच’ स्त्री जीवन के संपूर्ण सच की अभिव्यक्ति है।
एक औरत के लिए यौन-हिंसा के मामलों में कोर्ट का चक्कर लगाना उसी मानसिक यंत्रणा से बार-बार गुजरना है, ऊपर से मीडिया ट्रायल और सोशल मीडिया पर ट्रोल।पुलिस की कार्य शैली सभी लोग जानते हैं, किंन्तु न्याय के मसीहा की चाल, चरित्र, चेहरा से कम लोग वाकिफ़ होंगे- ‘एक (न्यायिक) मजिस्ट्रेट के ड्राइंग रूम में किसी के साथ वह बैठी हुई थी।कुछ इंतजार के बाद उसे बेडरूम का रास्ता दिखाया गया।इससे पहले कि वह कुछ समझती, दरवाजा बंद हो गया।इस घटना के एक दशक बाद उसी स्त्री ने अपनी आत्मकथा लिखी, जिसमें उसने पुरुष की बर्बर वासना और उससे जुड़ी लोमहर्षक वारदात का कारुणिक चित्र खींचा था।’ (आधी दुनिया का सच) यह एक मराठी रंगमंच से जुड़ी फिल्म अभिनेत्री के जीवन का सच है।
भारत के मुख्य न्यायाधीश की जूनियर असिस्टेंट ने उन पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया, वर्ष 2014 में एक महिला जज ने मध्य प्रदेश के हाई कोर्ट के जज पर यौन शोषण का आरोप लगाते हुए अपने पद से त्यागपत्र दे दिया था।सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कार्य स्थल पर लैंगिक एवं यौन उत्पीड़न रोकने के लिए विशाखा दिशा-निर्देश (1997) बनाए गए थे।फिर भी, लैंगिक उत्पीड़न कम नहीं हुआ।अंततः भारत सरकार को कार्य स्थल पर महिलाओं के साथ यौन-उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम 2013 बनाना पड़ा।ऐसे मामलों के अधिकांश अभियुक्त सबूत के अभाव में बरी हो जाते हैं।आजादी के सत्तर वर्ष बाद भी हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट की महिला जजों को उंगुलियों पर गिना जा सकता है।महिला जज आधी आबादी से जुड़े मामले के विविध पहलू को पुरुष जज की अपेक्षा अधिक गंभीरता और संवेदनशीलता के साथ समझ सकती हैं।
पिछले कुछ वर्षों में तेजाबी घटनाएं विकासशील से लेकर विकसित देशों में देखी गईं।इस जघन्य अपराध पर बॉलीवुड से लेकर हॉलीवुड तक फिल्में बनीं।भारत में ‘छपाक’, पाकिस्तान में ‘सेविंग फेश’ और ब्रिटेन में ‘एसिड अटैक माई स्टोरी’ इस दर्द को दृश्यमान करने वाली प्रमुख फिल्में हैं।हिंसा की शिकार केवल निम्न, मध्य वर्ग की महिलाएं ही नहीं, अपितु सभी वर्गों की शिक्षित-अशिक्षित, आत्मनिर्भर महिलाएं भी हैं।यौन-हिंसा की जिस प्रकार की घटनाएं मानव समाज में घट रही हैं, वैसी जंगली जानवरों के बीच भी नहीं है।यह समाज के लिए शर्म का विषय है तो मनोवैज्ञानिकों के लिए शोध का।
विज्ञान के विकास ने मानव जीवन को सुखमय बनाया है।किंतु लोगों ने विज्ञान और उससे जुड़ी तकनीक का प्रयोग मानवता के खिलाफ भी किया।हथियारों का विकास मनुष्य की रक्षा के लिए किया गया था।किंतु इसका प्रयोग राजतंत्र में साम्राज्य विस्तार के लिए किया गया तो लोकतंत्र में राजनीतिक लाभ के लिए युद्ध किए जा रहे हैं।
युद्ध में किसी देश के सैनिक मारे जाएं पीड़ा सबसे अधिक शहीद की माँ, पत्नी और बेटी को होती है।भ्रूण रोगों के उपचार के लिए अल्ट्रा साउंड मशीन का विकास किया गया था।चिकित्सा क्षेत्र में उसका सबसे अधिक दुरुपयोग लिंग परीक्षण और मादा भ्रूण हत्या के लिए किया गया।
समकालीन मीडिया और पत्रकारिता में स्त्री-सशक्तिकरण के स्थान पर खुशनुमा पार्टियों, यौन-हिंसा से जुड़ी सनसनीखेज खबरों और उसकी उत्तेजक आकर्षक छवि को प्रस्तुत किया जा रहा है।विज्ञापनों में वस्तु गौण हो गई है और युवती के अंगों को प्रमुखता से पेश किया जा रहा है।धारावाहिकों की कहानियों की आधारभूमि विवाहेतर संबंध हैं।जहां औरत दिन-रात फैशनेबल पार्टियों के लिए सज-संवर कर पति, पुत्र की प्रेमिकाओं की निगरानी कर रही है।स्त्री समाज की पत्रिकाएं ड्रेस और मेकअप के माध्यम से पति या प्रेमियों को वश में करने का नुस्खा सिखा रही हैं।कहीं-कहीं तो तंत्र-मंत्र का सहारा भी लिया जा रहा है।स्त्री की वास्तविक संघर्षशील छवि को छिपाकर केवल मोहक-भोगवादी रूप को प्रस्तुत किया जा रहा है, खास तौर पर आइटम सांग में।इसे देखकर मध्ययुगीन दरबारी नृत्यांगनाओं एवं गणिकाओं की याद आना स्वाभाविक है।जबकि हिंदी पत्रकारिता के आरंभिक काल में नारी-समाज के वास्तविक मुद्दों को स्थान मिलता था।
स्त्री-विमर्श में शिक्षित-शहरी, कामकाजी महिलाओं के लिए पर्याप्त लेखन हुआ है।किंतु ग्रामीण औरतें उपेक्षित हैं।इन कुपोषित औरतों को पीने के पानी, ईंधन और पशु के चारे के लिए मीलों की पैदल यात्रा मजबूरी है।मजदूर औरत के विरोध की परिणति काम से हटाए जाने या सामूहिक बलात्कार में होती है।मामला सिर्फ उपेक्षा-उत्पीड़न तक ही सीमित नहीं है, गरीबी के कारण किडनी, कोख और बेटियां भी बेची जा रही हैं।कुपोषण के कारण किशोरियां अनेक बीमारियों की चपेट में हैं।ग्रामीण समाज में परिवार नियोजन को लेकर तरह-तरह की भ्रांतियां हैं।कम उम्र में शादी और बच्चा पैदा करने पर शारीरिक कमजोरी स्वाभाविक है।उम्मीद की जानी चाहिए कि लड़कियों की शादी की न्यूनतम उम्र18 से 21वर्ष करने वाला ‘बाल विवाह संशोधन विधेयक’ (2021) उन्हें शिक्षा, स्वावलंबन का अवसर प्रदान करेगा।
संपर्क: एसो.प्रोफेसर–हिंदी विभाग, केजीके पीजी कॉलेज, मुरादाबाद–244001 मो.8171065695
विचार पूर्ण लेख एवं समसामयिक विश्लेषण
Excellent work
सादर प्रणाम सर
स्त्री विमर्श पर बहुत ही सार्थक लेख ……………. बहुत ही सार्थक विमर्श !
बहुत सारगर्भित लेख …….!