राशिद जावेद अहमद |
सुभाष नीरव लेखक और अनुवादक। हिंदी में छह कहानी संग्रह, तीन लघुकथा संग्रह, तीन कविता संग्रह, दो बाल कहानी संग्रह प्रकाशित। पंजाबी से 600 से अधिक कहानियों और 70 साहित्यिक पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद। |
संधू साहिब का आज पांचवा दिन था, अस्पताल के बेड पर पड़े। सिर के पिछले हिस्से में लगी चोट पर छोटी-सी सर्जरी करनी पड़ी थी। छह-सात टांके भी लगे थे जो अब सिर की खाल में जज़्ब हो रहे थे, पर उन्हें अभी तक होश नहीं आया था। ब्लॅड-प्रैशर भी ठीक था, दिल की धड़कन भी सामान्य थी, सांस भी अच्छी चल रही थी और खुराक वाली नली से खुराक और दवाई भी दी जा रही थी।
संधू साहिब की एक ही बहन थी – नादरा, पांच साल छोटी। एक घंटे की दूरी पर रहती थी। अपने बाल-बच्चे और घर-गृहस्थी से वक्त निकालकर पिछले पांच दिनों से ही हस्पताल का चक्कर लगा रही थी। डॉक्टरों को यूं तो तसल्ली थी कि चिंता वाली कोई बात नहीं है, पर इतने दिन बाद भी मरीज का होश में न आना, ठीक बात नहीं थी।
कुछ साल पहले संधू साहिब जंगल विभाग से रिटायर हुए थे। किसी अच्छे पद पर थे और नौकरी के दौरान ही उन्होंने एक अच्छी-सी बस्ती में घर खरीद लिया था और वहां बिलकुल अकेले रहते थे। काफी अरसे पहले जब अभी मसें ही फूटी थीं, उन्हें एक डॉक्टरी मुआयना करवाना पड़ा था। पता लगा कि उनकी पेव्लिक फ्लोर की मांसपेशियों में कुछ गड़बड़ है और खून वहां न पहुंचने के कारण एंडोर्फिन हार्मोन सोए पड़े हैं। डॉक्टरों के अलावा हर हकीम, हर ऐलोपैथ और झाड़-फूंक सहित सब कुछ आजमाया गया, पर नतीजा शून्य रहा। इस जन्मजात मर्दाना कमजोरी ने संधू साहिब को बड़ी तकलीफ में रखा, मगर सब्र के अलावा कोई चारा नहीं था। यह एक ऐसी कमी थी जिसको लेकर वह किसी के साथ बात भी नहीं कर सकते थे। जिस्म बनाने वाले का तो कुछ नहीं बिगाड़ सकते थे, अपने ही जिस्म को कोसते रहते थे। दफ्तर के साथियों के साथ बड़ी खुशमिजाजी से पेश आते, पर एक अजीब बेजारी अवश्य नजर आती और दफ्तर के लोग खासकर औरतें समझतीं कि संधू साहिब या तो बड़े शर्मीले हैं या मगरूर। शायद यही वजह थी कि वह स्वयं को अकेला समझने लगे और धीरे-धीरे अकेलेपन के कुएं में उतरते चले गए।
यूं तो उनकी ड्यूटी किसी न किसी जंगल में होती थी और वह वहां बने सरकारी रेस्ट हाउस में रहते, पर जब कभी किसी दफ्तरी फंक्शन में या सोशल गैदरिंग में जाना पड़ता तो सौ बहाने बनाते। एक चुप थी जो उनको लग चुकी थी और वे इंसानों से दूर होते गए। आपसी संबंध रूखेपन से तो नहीं बन सकते न।
नौकरी से फारिग होने के बाद अकेलापन और ज्यादा हो गया। नादरा ने एक-दो बार कोशिश की कि कोई औरत संग-साथ के लिए तैयार हो जाए, पर संधू साहिब किसी का जीवन बर्बाद करना नहीं चाहते थे। बहन को सख्ती के साथ मना कर दिया। बहन में दुबारा यह बात करने की हिम्मत न हुई। अपना खाना-पीना वह खुद ही तैयार कर लेते थे या नजदीक के एक तंदूर से रोटी-सालन ले आते। घर की साफ-सफाई के लिए एक औरत हफ्ते में दो बार आती थी। एक आदमी के साथ घर में गंद भी कितना हो सकता है। अकेलेपन में कोई शगल भी नहीं था। टीवी तो था, पर केबल कनेक्शन नहीं था। आज जब बच्चे-बच्चे के हाथ में स्मॉर्ट फोन है, संधू साहिब के पास पुराने जमाने का एक फोन था, बस कॉल या टेक्सट के लायक। कॉल भी बस नादरा की आती, हाल-चाल, खैर-खैरियत पूछने के वास्ते। न कोई आस, न कोई उम्मीद, न कोई आरजू, न तमन्ना, न आदर्श, बेमकसद जिंदगी। अकेलापन और उसकी उदासी और चुप। हां, अखबार पढ़ना उनका शौक था। पहले सफे से लेकर आखिरी सफे की प्रिंट लाइन तक पढ़ते। पास ही एक डायरी भी रखी होती। पता नहीं उसमें क्या-क्या उतारते रहते। दिन का एक बड़ा हिस्सा यूँ गुजर जाता। एक और आदत थी, घर के करीब वाले पार्क में सैर करने की। दो चक्कर पार्क के लगाकर वह दो पेड़ों के एक जोड़े के नीचे खड़े हो जाते, फिर वहां बैठकर परिंदों को निहारते, उनकी बोलियां सुनते और न जाने उनके साथ क्या-क्या बातें करते रहते। पार्क में आने वाले लोगों का ख्याल था कि जंगल विभाग की नौकरी के बाद संधू साहिब का इंसानों की अपेक्षा पंछी-पखेरुओं से ज्यादा याराना है।
पार्क में आने वाले बुजुर्ग इस इंतजार में कि उनकी बहुएं बच्चों को स्कूल भेजकर उनके लिए नाश्ता बनाएंगी, देश की सियासत पर गर्मागर्म बहस करते और चाहते कि संधू साहिब भी उनके साथ आ मिलें, पर वे तो कन्नी काट जाते। शुरू में तो मुहल्ले के लोगों ने बड़े कयास लगाए, अफवाहें गढ़ीं, पर यह सब जल्दी ही खत्म हो गया। उनके दिल में संधू साहिब के प्रति इज्ज़त तो थी, पर बात कभी दुआ-सलाम से आगे न बढ़ी।
कमरे के बाहर बरामदे में संधू साहिब ने चिड़ियों और मैनाओं के लिए एक बड़ी-सी कुनाली में बाजरा और टुकड़ा चावल रखा होता था। वह उन्हें दाना चुगते देख बहुत खुश होते। साथ-साथ अखबार भी पढ़ते और डायरी भी लिखते रहते। परिंदों की आवाजें उन्हें बड़ी भली लगतीं। धीरे-धीरे वे समझने लग गए कि चूं चूं, चीं चीं और च्च च्च का क्या मतलब है और मैना जब लंबी कू-कू की आवाज निकाले तो समझो नजदीक ही कोई बिल्ली जरूर है। कभी-कभी तो वह स्वयं शीशे के सामने खड़े होकर चूं-चूं, चीं चीं और च्च-च्च की आवाजें निकालने लगते और फिर आप ही मुस्करा पड़ते। अखबार का पन्ना पलटते या कुरसी की दिशा दुरस्त करते तो पखेरू उड़ जाते, पर जल्द ही बाजरा खाने लौट आते।
नादरा अपने बाल–बच्चों के साथ सुकून में थी। दो–तीन महीने बाद भाई के घर का चक्कर लगा लेती और दो–चार पकवान भी बना लाती। बहन भाई के बीच फितरी मुहब्बत थी, पर भाई बस हाल–चाल ही पूछता या किसी भांजे से उसकी पढ़ाई, क्लास के बारे में पूछ लेता। अगर जीजा संग आता तो उसके आने का शुक्रिया अदा करता। नादरा ने अपना मोबाइल नंबर हमसायों को दे रखा था कि बंदे का क्या भरोसा, कब क्या हो जाए।
उस दिन ऐसा ही कुछ हो गया। संधू साहिब रोज की तरह सैर की खातिर पार्क में आए थे। दो-तीन चक्कर लगाकर अपने मनपसंद दरख्तों के जोड़े के नीचे खड़े होकर पखेरुओं का हालचाल पूछते रहे, अपना बताते रहे। उनका यह शगल नौकरी के समय से अब तक जारी था। परिंदों के साथ बातचीत के बाद वह बेंच पर बैठने लगे तो पता नहीं क्या हुआ। पैर मुड़ा या कुछ और हुआ, वह गिर पड़े। सिर संगमरमर की बेंच से जा बजा। हड्डी के तिड़कने की आवाज भी हुई और लहू की लंबी लकीर भी निकली। संघू साहिब को बेहोश हुआ देखकर लोगों ने फौरन रेस्क्यू बुला ली। रेस्क्यू वालों ने बस इतना बताया कि शहर के बड़े सरकारी हस्पताल लेकर जा रहे हैं। किसी पड़ोसी ने नादरा को भी खबर कर दी।
अस्पताल में उस दिन शायद कोई रहमदिल अमला ड्यूटी पर था। सरकारी अस्पताल होने के बावजूद उन्होंने जख्मी की मरहम-पट्टी बहुत अच्छी तरह से की। छोटा-सा आप्रेशन कर के जख्म सिल दिया। खुराकवाली नली भी लगा दी।
आप्रेशन के बाद आज पांचवा दिन था और संधू साहिब अभी तक होश में नहीं आए थे। नादरा रोज की तरह सुबह से आई बैठी थी कि कब भाई को होश आए और खैर-खैरियत का पता चले। मायूस होकर उसने खाने-पीने का सामान नर्सों के हवाले किया और घर लौट गई, क्योंकि उसके बच्चों का स्कूल से लौटने का वक्त हो गया था।
वार्ड की सफाई के बाद बिस्तरों की चादरें बदली जा रही थीं कि नर्स ने देखा, मरीज आंखें खोलने की कोशिश कर रहा है। उसने फौरन हेड-नर्स को बताया और हेड-नर्स ने ड्यूटी डॉक्टर को खबर की। डॉक्टर नर्सों के जमघट के साथ बेड के पास आ पहुंचे। मरीज को होश में आते देख डॉक्टर ने आगे बढ़कर पूछा, ‘कैसा महसूस कर रहे हो?’ मरीज की आंखों में छिपा सवाल बूझकर डॉक्टर ने उसको बताया कि उसको यहां क्यों लाया गया और क्या इलाज किया गया। मरीज ने अपना हाथ सिर के पीछे की तरफ फेरा जहां पट्टी बंधी थी। हल्का-सा दर्द तो महसूस हुआ, पर उसकी आंखों में शुक्रगुजारी थी। डॉक्टर ने मरीज का मुआयना किया और नर्सों को हिदायतें देकर चला गया।
हेड नर्स ने खुराक वाली नली उतारकर संधू साहिब का मुंह गीले कपड़े से साफ किया और पूछने लगी, ‘कैसा फील कर रहे हैं? कुछ खाना-पीना है? बाथरूम जाना है?’ पर इनके जवाब में मरीज जो बोल रहा था, नर्स की समझ में नहीं आ रहा था। बोले जाने वाले शब्द समझ से परे थे। नर्स को यूं लगा जैसे मरीज के गले में से अजीब-सी आवाज निकल रही हो। सारा स्टाफ परेशान हो गया। जिस सर्जन ने जख्म सिला था, उसे बुलाया गया। वह अपने साथ उस डॉक्टर को भी ले आया जिसने एनेस्थीसिया दिया था। मरीज़ के चेहरे पर हल्की कमजोरी तो जरूर थी, पर वह क्या बोल रहा था, किसी की समझ में नहीं आ रहा था।
नादरा को भी मरीज के होश में आने की खबर दी गई। जब वह अस्पताल पहुंची, सारे डॉक्टर एम.एस. के कमरे में बैठे गहन चर्चा कर रहे थे। ऑपरेशन में किसी किस्म की कोई गफलत नहीं हुई थी। डॉक्टर तो इसको ऑपरेशन नहीं, एक छोटी-सी सर्जरी कह रहे थे। उन्हें बात समझ में नहीं आ रही थी कि मरीज के गले में से गैर-इंसानी आवाजें क्यों निकल रही हैं।
फैसला किया गया कि मरीज के सिर का स्कैन किया जाए, पर इस अस्पताल में ऐसी कोई मशीन नहीं थी। यंग डॉक्टर भी ड्यूटी पर थे। उनके लिए यह विचित्र अनुभव था। उन्होंने अपने पल्ले से मरीज के सिर का स्कैन एक बड़े हस्पताल से करवाने का फैसला किया, यह सोचकर कि जो भी नतीजा निकलेगा, वह उनकी डॉक्टरी इल्म में इजाफा करेगा। स्कैन की रिपोर्ट में एक बेहतर होते जख्म के सिवाय कुछ भी नहीं निकला। सभी डॉक्टर की चिंता और बढ़ गई।
नादरा को भी कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि भाई साहिब कौन-सी बोली बोल रहे हैं। एक डॉक्टर ने मनोरोग विशेषज्ञ को दिखाने की सलाह दी, परंतु अन्य डॉक्टरों का विचार था कि इतनी छोटी-सी सर्जरी से कोई साइकोटिक सिंड्रोम कैसे बन सकता है। जख्म अच्छी प्रकार भरकर सिल देने, चार-पांच टांके लगा देने से कोई नस दब गई होती तो स्कैन में नजर आता। डाक्टरों की हैरत की कोई सीमा ही नहीं थी। संधू साहिब की हर हरकत, हर हाव-भाव, हर प्रतिक्रिया नार्मल थी, सिवाय बोली के। विचार-विमर्श करते दो दिन बीत गए, कोई बात समझ में न आई। मरीज यूं तो ठीक था, पर खीझा हुआ-सा था। बेड पर लेटने की बजाय उस बेंच पर बैठा रहता, जो मरीजों से मिलने आने वालों के लिए थे। सरकारी हस्पताल के एम.एस. को अचानक खयाल आया कि मरीज कहीं पाखंड तो नहीं कर रहा? पर उसके पास पाखंड का पता लगाने वाली कोई मशीन नहीं थी। मरीज को इस हालत में डिस्चार्ज करना भी उचित नहीं था, लेकिन जब मरीज से पूछा गया कि क्या वह घर जाना चाहता है, तो उसका जवाब तो समझ में नहीं आया, पर उसके सिर की हरकत से पता लगा कि वह घर जाने का इच्छुक है।
डिस्चार्ज के कागज तैयार हो गए और नादरा ने अपने आदमी को भी बुला लिया। बहन और बहनोई के साथ जब संधू साहिब घर पहुंचे तो सबसे पहले उदास चिड़ियों और मैना की चीं-चीं, चूं-चूं और च्च-च्च करके उनको खुशामदीद कहा। संघू साहिब की खुशी का कोई अंत नहीं था। उन्होंने उनकी बोली में ही शुक्रिया अदा किया और बोरी में से बहुत सारा बाजरा निकालकर कुनाली में डाल दिया। अब परिंदों की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। चीं-चीं, चां-चां, चूं-चूं और पंखों की फड़फड़ाहट की आवाजों से कान बहरे हुए पड़े थे। संधू साहिब का चेहरा सुर्ख और रौशन था।
वह पहेली जो अस्पताल के स्टाफ और अनुभवी डॉक्टरों की समझ में नहीं आई थी, नादरा ने बूझ ली थी। मियां-बीवी ने एक-दूसरे की तरफ देखा और आंखों ही आंखों में फैसला किया और संधू साहिब का जरूरी सामान बाँधते हुए कहा –
भाई जान, आज से आप हमारे साथ हमारे घर में रहोगे।
78/2, शिवालिक अपार्टमेंट, पहली मंज़िल, फ्लैट नंबर–12, के–1 एक्सटेंशन, डी के रोड, मोहन गार्डन, उत्तम नगर, नई दिल्ली–110059 मो.9810534373
उम्दा कहानी। रिवायती ट्रीटमेंट के साथ नयी सी लगती। सुभाष नीरव जी के अनुवाद हमेशा ही अच्छे होते हैं।
नादिरा संधू साहिब से 5 साल छोटी हैं। संधू साहिब को रिटायर हुए कई साल हो गये। यानी नादिरा की भी उम्र इस वक़्त 60 के आसपास ही होगी। तो एक 60 साला औरत के बच्चे इतने छोटे हों कि स्कूल जाते हों, ये बात ज़रा ग़ैर-यक़ीनी सी लगी।