सुपरिचित कथाकार, संपादक और लोकइतिहास के गंभीर अध्येता और लेखक।लोकरंगवार्षिकी का १९९८ से निरंतर संपादन।अद्यतन पुस्तक भील विद्रोह’ (संघर्ष के सवा सौ साल), ‘टंट्या भील’ (द ग्रेट इंडियन मून लाइटर)

‘पिता जी के दिल के दोनों वाल्व खराब हो गए हैं, ठीक से पंप नहीं कर रहे’, भैया ने भारी मन से हम दोनों भाइयों को जानकारी दी थी।साथ में यह हिदायत भी, ‘बहुत चर्चा करने की जरूरत नहीं।पिता जी से कतई नहीं।’ भाभी जी ने अपनी ननदों को फोन कर संकेतों में बता दिया और यह सुझाया भी, ‘आकर मिल लेना ठीक होगा।’

यह जानकारी परिवार पर व्रजपात की तरह थी।भैया औैर भाभी डॉक्टर हैं।वे बीमारी की गंभीरता और संभावित नतीजे को जानते थे।इसलिए हम सुने तो आशंकित हो गए।खुर्पी और हंसिया के संघर्ष से बेटों को उच्च सरकारी पदों तक की यात्रा, पिता जी के जीवन की स्वप्नदर्शी मुकाम थी।ऐसे मुकाम पर पहुंचकर वह, आखिरी पड़ाव की ओर बढ़ रहे थे।

भैया-भाभी का अपना अस्पताल है, घर से सटा हुआ।वहां चिकित्सा की जरूरी सुविधाएं उपलब्ध हैं।जल्द ही पिता जी के कमरे को अस्पताल में तब्दील कर, बेहतर देख-रेख शुरू कर दी गई थी।

भैया ने कुछ सीनियर डॉक्टरों से राय ली।मेडिकल कॉलेज के कई सीनियर डॉक्टर, जो भैया के साथ पढ़े थे, या जिन्हें भैया ने पढ़ाया था, पिता जी को देखने आए।भैया और उनके बीच घंटों विचार-विमर्श चला।कुछ विदेशी डॉक्टरों से भी राय ली गई।

पिता जी का कमरा, भूतल पर, ड्राइंगरूम के बगल में है।कमरे का एक दरवाजा अंदर, खाना खाने की मेज की ओर और दूसरा बाहर, बरामदे में खुलता है।पिता जी, ज्यादातर अंदर वाले दरवाजे का प्रयोग करते हैं।अंदर वाले दरवाजे के बगल में वॉशबेसिन और बाथरूम हैं।कमरे के कोने में एक मेज है।मेज के ऊपर पहले की तरह कुछ जरूरी दवाइयां और कुछ सामान, पिता जी की स्मृतियों की तरह बिखरी पड़ी रहती हैं।दमा की पुरानी बीमारी के कारण दो इन्हेलर और फेफड़ों की कसरत के लिए, सांस फूंकने और खींचने की छोटी सी मशीन मेज पर रखी रहती है।पहले मेज की दराज में चूने की एक छोटी सी ट्यूब, सुर्ती की पुड़िया, गांव के मकान की चाबी और जमीन के कागज रखे रहते थे।अब चूना और सुर्ती तो नहीं दिखते पर बाकी चीजें यथावत हैं।चुनौटी के दिन लद गए हैं, फिर भी पिता जी की पुरानी चुनौटी, मेज की दराज में, इधर-उधर लुढ़कती रहती है।सर्दी में कमरे को गर्म रखने के लिए हीटर, मच्छरों से बचाव हेतु रिपलेंट, टॉर्च और सामने की आलमारी में पिता जी के कपड़े रखे हुए हैं।

दिल के वाल्वों के ठीक से पंप नहीं करने से खून में ऑक्सीजन की मात्रा कम होने लगी तो कन्सेंट्रेटर से ऑक्सीजन देने का काम शुरू हुआ।कमरे में पल्स ऑक्सीमीटर लगा दिया गया, जो हृदय की धड़कनों और ऑक्सीजन स्तर को मापता रहता।कन्सेंट्रेटर के अलावा, ऑक्सीजन सिलिंडर भी रिजर्व में रख दिया गया।कभी-कभी कन्सेंट्रेटर से ऑक्सीजन लेवल नहीं रुकता तो सिलिंडर का प्रयोग होता।

भैया ने पिता जी को सुर्ती खाने से मना किया है।इस मनाही में पिता जी और पुत्र के बीच अपेक्षा और उपेक्षा का द्वंद्व आड़े आता है।बेटों की मनाही, गंवई अनुभव और पढ़ाकू ज्ञान के बीच फंस जाती है।पिता जी वही करते हैं, जो उन्हें करना होता है।उन्हें किस्से तो बहुत याद हैं पर शेरो-शायरी नहीं।अगर शायरी आती तो उनका मन कहता- ‘उम्र तो सारी कटी इश्क़-ए-बुताँ में ‘मोमिन’/आख़िरी वक़्त में क्या ख़ाक मुसलमाँ होंगे’, तो सुर्ती की आवक जारी थी।अस्पताल में काम करने वाले चेले, चापलूसी को सलामत रखने के लिए चोरी-छिपे सुर्ती की सप्लाई जारी रखे हुए थे।गेट पर रहने वाला बूढ़ा गार्ड, जो सिर्फ पिता जी की इच्छा पर तैनात था, दवा की दुकान का मोटा आदमी, जो सुबह-शाम पैर छूने और अखबार बांच कर सुनाने की वजह से कृपापात्र बना हुआ था और एक्सरे कक्ष का एक हेल्पर, जो पिता जी की गालियों को आशीर्वाद समझ, मुस्कुराता रहता, सभी पिता जी की आवश्यकता समझते थे।वे जानते थे कि पिता जी उनकी सेवा से खुश होते हैं।पिता जी जिस पर खुश हों, वह काम कम करे या न करे, उसकी नौकरी पर कोई खतरा नहीं होता।पिता जी के ये सभी खिदमतगार तभी सक्रिय होते, जब भैया अस्पताल में होते।छिप-छिपाकर तंबाकू की खेप पहुंचाने की दिलचस्प जासूसी कहानी है।

पिता जी को सुर्ती खाने की आदत कब पड़ी, मुझे नहीं पता मगर बचपन से हम उन्हें खाते देख रहे हैं।बिना उसके, पिता जी के जीवन में कोई रस नहीं रहता।जबसे हमने होश संभाला था, सुर्ती उनके जीवन का अंग थी।हाट-बाजार में धान-गेहूं बेचकर खरीदी जाती।माई को डांट कर खरीदी जाती या नून-तेल में कटौती कर खरीदी जाती।

भुखमरी से उलझते बच्चों को रोटी खिलाने में स्वयं को खपाती माई, अक्सर पिता जी की इस फिजूलखर्ची पर उलझती, पर माई की झुंझलाहट और फुसफुसाहट, बेनतीजा रहती।

‘बकलोल कहीं की?’ पिता जी के कठोर स्वर, माई की सहनशीलता पर मूर्खता का मुलम्मा चढ़ा देते।पुरुष का अहं, पिता जी में भरपूर रहा है।उनके किस्से, मुहावरे और गालियां, उस अहं को समझदारी में बदलने का हथियार बनते।

‘किस्सा मत सुनाईं?’ माई झुंझलाती और चुपा जाती।चुप रहना परिवार की शांति के लिए जरूरी होता।

सुर्ती केवल खरीद कर नहीं खाई जाती? उधार और मांग कर भी खाई जाती थी।सुर्ती मांगने में कोई लाजशर्म नहीं? गंवई संस्कृति, सुर्ती से समाजवादी बन जाती है।इसमें राजा और रंक का भेद मिट जाता है।बापदादा के इशारे पर बेटेपोते भी मांग लाते हैं।बचपन में पिता जी ने हम भाइयों का भी इस काम में इस्तेमाल किया था।बहनों के बारे में ठीकठीक याद नहीं पड़ता।

‘नाना!’ अस्पताल का मैनेजर और बड़ी बहन का बेटा योगेंद्र, जांच के लिए खून निकालते हुए पिता जी से बतियाता है।पिता जी की देख-रेख में योगेंद्र का बहुत योगदान है।

‘हूँ!’ पिता जी गंभीरता ओढ़े बोलते।

‘सुर्ती छोड़ दीजिए।फेफड़े खराब हो रहे हैं।’ योगेंद्र के शब्दों में अनुरोध और अनुराग है।

‘चुप, मूरख कहीं का? बड़का डॉक्टर बन गए हो तुम! …छोट लड़िका काहें बीमार होते हैं? उ सूर्ती खाते हैं? …सुर्ती छोड़ दीजिए… सुर्ती छोड़ दीजिए… कौन देखा है जी, सुर्ती खाते हुए? …तुम देखे हो?’ पिता जी नाराज हो जाते।उनका तर्क, सुर्ती के साइड इफेक्ट को नकार देता।उनकी नाराजगी का आर.पी.एम., ऊंचाई पर पहुंचकर हलचल मचा देता।पल्स ऑक्सीमीटर की तरंगे बेतरतीब तैरने लगतीं।

‘यह क्या है?’ बिस्तर के नीचे छिपाकर रखी पुड़िया को निकालकर योगेंद्र, हँसते हुए दिखाता।पिता जी अपने को गिरफ्त में पाते।कुछ झेंपते।फिर गरदन उठाकर बोलते-

‘इ कहां था जी?’

‘आपके बिस्तर के नीचे।’

‘पहले का रखा होगा।अब नहीं खाता हूँ।’ आवाज में नरमी होती।

पिता जी को अपनी सफाई कमजोर लगती।वह अपराधबोध से चुप्पी लगा लेते मगर देर तक नहीं।ऐसी चुुप्पियों के बाद वह ऊर्जा बटोर कर फिर हमलावर होते।पराजित होना उन्हें पसंद नहीं था इसलिए थोड़ी देर बाद वह योगेंद्र पर बमक पड़ते- ‘तुम सब हरामखोर हो! हमारे पीछे पड़े रहते हो? जासूसी करते हो? …चांडाल कहीं का?’ और फिर गालियों का प्रवाह, तरह-तरह की उपमाएं… कहावतें, किस्से देर तक मन के अलिखित किताब से निकलते रहते। ‘मामा का धन खा रहे हो तो उन्हीं की बात मानोगे? नाना की बात पर विश्वास क्यों करोगे?’ पिता जी, योगेंद्र को सुनाते रहते।

पिता जी की गालियां चर्चा का विषय रहती हैं।बिना गाली, शायद ही कोई दिन गुजरता हो।जब गांव में होते हैं तो गांव वाले कहते हैं, ‘भगत जी की गालियां आशीर्वाद होती हैं।जिस दिन उनकी गालियां सुनाई नहीं देतीं, गांव उदास लगता है।’

ऐसा नहीं कि लोगों को पिता जी की गालियां बुरी नहीं लगतीं।लगतीं थीं।कुछ लोग उलझते भी थे मगर ज्यादातर उसे हँसी-मजाक ही मानते।पिता जी की गालियों के साथ कहावतें और मुहावरें खूब इस्तेमाल होते।कुछ फूहड़ भी, जिन्हें गांव वाले सामान्य रूप में लेते।

एक बार होली के अवसर पर, गांव के लड़कों ने ‘बुरा न मानो होली है,’ शीर्षक से एक कविता लिखी- ‘हमरा रहन के इहे विचार/बेटा सार, गांव सार, सरवा त ह सारे सार।’ जाहिर है यह कविता पिता जी के लिए लिखी गई थी।पिता जी सुने तो देर तक हा… हा… कर हँसते रहे।फिर बोले, ‘कवन सरवा लिखा है रे!’

आज अतीत और वर्तमान, गुत्थम-गुत्था कर रहे हैं।पिता जी गंभीर रूप से बीमार हैं मगर उन्हें लगता है, बेटे के हाथ से लाखों लोग नीरोग हुए हैं, वह भी हो जाएंगे।हम चाहते थे, यह विश्वास बना रहे, मगर हालात ऐसे थे कि वह विश्वास जल्द टूट जाता।कभी-कभी उन्हें उलझन होती।बिस्तर, बरामदा, बरामदे से बिस्तर और बाथरूम… नाक में पाइप, कपार पर कसाव, …चिड़चिड़ा मिजाज।वह सभी पर झुंझलाते रहते।उन्हें लगता, बेटे ठीक से देखभाल नहीं कर रहे।किसी बड़े अस्पताल में इलाज नहीं करा रहे।

‘जियादा पढ़ा देने से लड़के सेवा नहीं करते हैं?’ पिता जी बरामदे में बैठे-बैठे, गांव से आए एक मरीज से शिकायत दर्ज करते हैं।वह सिर पर लटकते पंखे की ओर निहारते रहते हैं।निहारते-निहारते उनकी आंखों की पुतलियां नम हो जाती हैं।

मुझे देखकर कहते हैं-‘तोहर माई कहां है हो? तनी ले आइये यहां?’ मैं माई को ह्वील चेयर पर बैठाकर, पिता जी के कमरे में लाता हूंँ।पिता जी माई को और माई, पिता जी को निहारते हैं।कोई बोलता नहीं।माई के चेहरे की उदासी, बहुत कुछ व्यक्त कर देती है।

अक्सर बाहर के बरामदे में दोनों को अगल-बगल बैठा दिया जाता है।ऑक्सीजन की पाइप इतनी बड़ी है कि बाथरूम से लेकर बरामदे तक आसानी से चली आती है।कांस्ट्रेटर लगातार चलता रहता है।

कुछ लोग पिता जी को देखने आए हैं।एक सज्जन कह रहे हैं- ‘बाबू जी! आप भाग्यशाली हैं।इतना बड़ा परिवार आपकी सेवा में है।बेटे-बेटियां सभी आप के पास हैं।सब आपकी सेवा कर रहे हैं।आपके तीनों बेटे योग्य निकले।सब सुख तो मिला है आपको… आप जल्द स्वस्थ हो जाएंगे।’

‘लड़के लोग योग्य हैं, साजने से? इन लोगों को मैंने साजा नहीं होता, तो बदमाश हो गए होते?’ पिता जी अपनी जवानी के दिनों को याद करते हैं।

‘जी बाबू जी’ आगंतुक हां में हां मिलाते हैं।

‘पैना और खड़ाऊं से बहुत मारे हैं पिता जी?’ मैं उन्हें छेड़ता।

‘मार ना खाए होते तुम लोग, तो लायक ना बनते? समझे?’ पिता जी ने लायक बनाने का नुस्खा बता दिया।पिता जी की बात सुन, सभी हँसने लगे थे।रोग का आतंक कुछ देर के लिए कम हुआ था।

‘पिता जी के हाथ-गोड़ में अभी बहुत ताकत है।जल्द ठीक हो जाएंगे।’ देखने वाले कह रहे थेे।

‘हाथ झटक देेते हैं तो हम लोग ढह जाते हैं।’ मैं बताता।

‘अरे ये वही हाथ हैं जो हम लोगों की पीठ पर धम्म-धम्म पड़ते थे।’ पिता जी को हँसाने के लिए भैया ने कमरे में आते ही सुनाया।पिता जी सुने तो गुस्सा के मारे करवट बदल लिए थे।

जीवन के आखिरी बीस वर्ष, पिता जी ने गोरखपुर में बिताया है।मजबूरी वश।यह उनके लिए विस्थापन से कम न रहा है।गांव पर कोई देखरेख करने वाला होता तो वह किसी भी कीमत पर शहर नहीं आते।गांव, उनके पोरपोर में बसा था।हालांकि बदलते गांव और गांव की संस्कृति से वह बेहद खफा रहते थे।

वह हमेशा कहते, ‘अब गांव में आदमी नहीं, दानव रहते हैं।’ इसके बावजूद पिता जी का मन गांव जाने के लिए बेचैन रहता।गांव जाते तो सुबह-सुबह एक छोर से दूसरे तक, एक चक्कर लगा आते।खेत बटाई पर थे फिर भी मेंड़ निहार आते।वह अक्सर कहते- ‘जो अपना मेंड़ ना निहारेगा, वो खेती ना कर सकेगा।’

गांव की हर शादियों में पिता जी उपस्थित रहते।गांव जब जाते, बगीचे में अपने लगाए पेड़ों से बतिया आते।जब तक वहां रहते, सबसे बोल-बतियाकर ज्यादा तंदुरुस्त और गदगद नजर आते।हर दस-पंद्रह दिन पर वह गांव निकल जाते।अंतिम बार अगस्त में गए थे, तब लॉकडाउन लगा था।अपनी गाड़ी से जाना था, तो चले गए।गांव जाने पर, खाने-पीने की व्यवस्था पटीदारी के चचेरे भाई रामकिशुन के यहां हो जाती थी।पिछले अगस्त में जब गांव से लौटे, तब बीमार थे।उसी बीमारी की जांच से पता चला कि दिल के वाल्व खराब हो गए हैं।

सीनियर डॉक्टरों की राय थी कि ९३ वर्ष की उम्र में दवा के सहारे ही पिता जी को रखा जाना चाहिए।इस उम्र में ऑपरेशन का विकल्प ठीक नहीं।ऑपरेशन के बाद भी अधिकतम एक से डेढ साल जिंदगी बच पाएगी।दवाओं से भी उन्हें लगभग एक साल तक बचाया जा सकता था।यही सोच-विचार कर ऑपरेशन का विकल्प छोड़ दिया गया।कुल मिलाकर पिता जी का आखिरी पड़ाव करीब जानकर हम सभी सदमें में थे।

हालात को पिता जी से छिपाया गया। ‘आप जल्द ठीक हो जाएंगे, बस सुर्ती खाना छोड़ दीजिए।फेफड़े की कसरत करते रहिए।गुस्सा कम कीजिए’ भैया ने समझाया था।यह सुनते ही पिता जी के चेहरे का खिंचाव बढ़ गया।उन्हें लगा, अब हर कोई उपदेश देने लगा है? क्या खाएं, क्या बोलें? कब नहाएं? वह बमक पड़े थे- ‘तुम सब हरामी हो।शैतान हो।अब कहां सुर्ती खाता हूँ जी? तुम लोग खाली बदनाम किए रहते हो? डाकडर, बात का बतंगड़ बना देते हैं।अरे गुस्सा होता हूँ, तुम लोगों की नालायकी पर? लायक होते तुम लोग तो काहे गुस्सा करता?’

भैया को पिता जी ‘डाकडर’ या ‘बाबू’ नाम से ही बुलाते हैं।

पिता जी की बात सुन, सभी हँसते।भैया जानते थे कि तंबाकू की सप्लाई कहां से हो रही है।वह अस्पताल से गार्ड को डांटकर पूछते- ‘पिता जी के लिए तंबाकू कहां से लाते हो?’ गार्ड पहले चुप रहता फिर सच बता देता- ‘साहब! बाबू जी बहुत नाराज हो रहे थे तो एक पुड़िया…चौराहे से… ।’

सोने के अलावा कमरे में एक पल न बैठने वाले पिता जी की जिंदगी, अब कमरे में सिमटी रहती है।वह खुद को पिजड़े में कैद पाते हैं।एक छटपटाहट उनके चेहरे पर दिखाई देती है।वह जब नहीं बोलते हैं तो कमरे की दीवारों, अपनी आलमारी, गांव की चाबी, सभी को घूरते, कहीं खो जाते हैं।कभी-कभी कमरे से बाहर, बरामदे में आकर धूप में बैठना चाहते हैं।

पिता जी की शरीरिक हालत तेजी से बिगड़ती जा रही है।तीन माह पूर्व तक, बिना किसी सहारे के आराम से दो-तीन किलोमीटर पैदल चल लेते थे।अपने अस्पताल के बगल वाले प्लॉट में, बीस साल से साग-सब्जी लगाते हुए, गंवई जिंदगी को जिंदा रखे हुए थे।प्लॉट में फावड़ा चलाते।पौधों को सींचते।तैयार हो चुकीं सब्जियां तोड़ कर घर लाते।कभी-कभी अपने साथ गार्ड को रखते और कभी अकेले।गर्मी के मौसम में भी सुबह आठ-नौ बजे तक पसीने-पसीने होकर कमरे में लौटते।

यह उनकी दिनचर्या थी।

अब वह बरामदे से बैठे-बैठे अपनी लगाई सब्जियों को निहारते हैं।वहीं से गार्ड को ऊंची आवाज देते हैं- ‘गार्ड! खेत में पानी दिए हो?’

‘जी पिता जी’, गार्ड जोर से बताता है।

‘तुम कामचोर हो।मुझे विसवास नहीं हो रहा।’

‘ना पिता जी! मैनेजर साहब से पूछ लीजिए।’ गार्ड सफाई देता।

पिता जी की आशंका गहरी होने लगी थी कि वह बचेंगे नहीं।

वह रोज भावुक हो जाते।हम दोनों भाइयों से कहते- ‘ऐ बाबू! अपना भाई को तुम लोग देवता समझना।उन्हीं की बदौलत, खुर्पी-कुदाल वाला यह घर, डॉक्टर का परिवार बना है।खानदान आगे बढ़ा है।’

हम दोनों सुनते और सिर हिलाते।कहने को शब्द नहीं निकलते।

‘उनके किसी बात का बुरा मत मानना तुम लोग।वह आगे न बढ़े होते तो तुम लोग भी पढ़-लिखकर अफसर न बने होते?’ पिता जी, बोलते-बोलते कभी बाथरूप जाने के लिए उठते, तो कभी पांव पसार कर ऊंघने लगते।

हम सब पिता जी की हर बात का समर्थन करते।पिता जी अभी जीना चाहते हैं।दिल के वाल्व खराब न हुए होते तो उनकी शारीरिक स्थिति ठीक थी।पांच वर्ष तक आराम से चल सकते थे पर अब स्थिति नियंत्रण से बाहर थी।इसलिए परिवार के ज्यादातर सदस्य, उनके पास बैठे रहते।

‘ए बाबू! तोहरा माई के पहले हम मर जाएब!’ एक दिन पिता जी ने कहा था।

‘आप क्या-क्या बोलते रहते हैं?’ हम नाराज होते।

माई लगभग बीस वर्षों से बीमार है।वह अब खुुद चल नहीं पाती है।सहारे की जरूरत पड़ती है।एक नर्स चौबीसों घंटे सेवा में रहती है मगर पिता जी तो बिल्कुल ठीक-ठाक थे?

पिता जी का मन बेचैन रहता है।वह दिन भर बिस्तर से उठते-बैठते रहते हैं।नाक में लगी ऑक्सिजन पाइप से उलझन महसूस करते हैं।

‘ए बाबू! अपना खेत में से पांच कट्ठा, रामकिशुन को दे देना तुम लोग।गांव जाने पर मेरी सेवा करता है।’

‘जी पिता जी।’

‘सिकंदर ने पचास हजार रुपया लिया है।हरामी लौटाता नहीं।’

‘अब उसकी चिंता मत कीजिए।गरीब आदमी है, कहां से देगा?’

‘अरे मांग लेना तुम लोग।उधार लेकर न देना, गांव वालों की आदत बन गई है।हम लोग ब्याज नहीं लेते पर ठाकुर कहां छोड़ते हैं? एक का तीन लेते हैं?’

भैया, पिता जी की बातों पर ध्यान देने के बजाय, उनके ऑक्सीजन लेबल को देखकर चिंतित नजर आ रहे थे।

‘एक शीशम का पेड़ ढह गया है।कटवा लेना तुम लोग नहीं तो गांव वाले काट ले जाएंगे।’ दुनियाभर की चिंताएं, कमजोर हो रहे पिता जी को घेरती जा रही थीं।

एक दिन पिता जी ने योगेंद्र को बुलाया।

‘ए योगेंद्र! आज मेरे बैंक एकाउंट से एक लाख रुपया निकाल लाओ तो?’ पिता जी ने कहा था।

‘नाना! का करेंगे इतना रुपया? अगर कोई जरूरत हो तो मामाजी को बता दीजिए।वह दे देंगे?’ योगेंद्र ने कहा था।

‘अरे यार! सवाल मत किया करो? जवन मन करेगा, उ करेंगे? बाबू से का पूछना है?’

‘आप बीमार हैं।गांव जा नहीं सकते।कुछ पैसे की जरूरत हो तो मामाजी दे देंगे?’

‘अरे यार, चेक ले जाओ, खोलो आलमारी।खोलो, निकालो हमारा बैग?’

पिता जी जिद्द करने लगे थे।योगेंद्र ने भैया को फोन लगाया, जो उस समय अस्पताल में थे।भैया बोले, ‘लंच में बात करूंगा।’

जब भैया लंच में घर आए तो सीधे पिता जी के कमरे में गए।सबसे पहले पल्स ऑक्सीमीटर को निहारे।खाने-पीने की जानकारी ली फिर पिता जी की ओर मुखातिब हुए।

‘पिता जी! आपको एक लाख रुपये चाहिए?’ भैया ने पूछा था।

पिता जी चुप रहे।कुछ बोले नहीं।भैया ने जानना चाहा, ‘कोई खास जरूरत हो तो बताइए?’ पिता जी सुने-अनसुने रहे।बोले नहीं।

भैया पेरशान थे।आखिर पिता जी क्यों पैसा निकालना चाहते हैं? वह भी इस हालत में?

अगले दिन पिता जी ने फिर योगेंद्र को बैंक जाने को कहा।रुपये निकालने की जिद्द पर अड़ गए।योगेंद्र को कस कर डांटे भीतू नाना की बात नहीं मान रहे हो? आज मैं बीमार हूँ तो तुम सब मनमानी कर रहे हो? उगते सूरज को नमस्कार कर रहे हो।

ना नाना! आप ऐसा काहे सोच रहे हैं।आप सभी के लिए पूजनीय हैं।जब पैसा घर में है, तब काहे आप निकालना चाहते हैं? मामा यही जानना चाहते हैं।आपको कोई दिक्कत हो, कोई चीज खरीदनी हो तो बताइए, हम लोग खरीद लाएंगे।

‘चुप हरामी कहीं का! बकर-बकर लगाए हुए हो।मैं मूरख हूँ का? तुम सब साले हरामखोर हो? अब मैं मर रहा हूँ तो कोई साला हमारी बात नहीं सुनना चाहता?’ पिता जी का गुस्सा आसमान पर जा पहुंचा।गुस्से की प्रतिध्वनि पल्स ऑक्सीमीटर पर दिखाई दे रही थी।दिल की धड़कनों का ग्राफ बेतरतीब ढंग से उछाल मार रहा था।

‘कह रहा हूँ कि चेक ले जाओ, रुपया निकालकर ला दो, तो बहस कर रहे हैं? …अरे जवन मन करेगा उ करूंगा? का बहस कर रहे हो जी? मैं अपने खाते से रुपिया निकाल रहा हूँ? तुम्हारे खाते से तो नहीं? तुम नहीं जाना चाहते तो गाड़ी बुलाओे, मैं चलता हूँ बैंक।’ पिता जी गुस्से में कांप रहे थे।दिल की धड़कनों को पल्स ऑक्सीमीटर का ग्राफ, ऊपर-नीचे होते, डरा रहा था।

योगेंद्र ने अपने नाना की जिद्द के बारे में फिर अपने बड़े मामा को बताया था।भैया परेशान थे कि पिता जी किसी से कुछ बता नहीं रहे हैं।उन्होंने अस्पताल से रुपये मंगवाए और पिता जी को देने कमरे में गए- ‘लीजिए एक लाख रुपए!’

‘इ का हो?’ पिता जी चिंताभाव में सिर उठाकर बोले थे।

‘आपको एक लाख रुपये चाहिए थे न?’

‘हम तोहसे मांगे हैं?’ पिता जी ने सख्त जवाब दिया था।

‘अरे हमसे नहीं मांगे हैं तो क्या, योगेंद्र को परेशान कर रहे थे, बैंक से रुपया निकालने के लिए?’

‘हम उसको परेशान कर रहे थे?’ पिता जी फिर नाराज होने लगे थे।भैया वहीं चुपचाप बैठे रहे।पिता जी ने रुपये नहीं लिए।

अगले दिन योगेंद्र खून का सैंपल लेने आया तो पिता जी ने फिर जिद्द किया।योगेंद्र पर बिगड़े।योगेंद्र ने भैया से बात की।भैया ने कहा, ‘ठीक है।जैसा कह रहे हैं, वैसा कर दो।’

योगेंद्र बैंक गया और पिता जी के खाते से एक लाख रुपए निकालकर उन्हें दे दिया।

पिता जी विस्तर से उठे।पाइप के साथ आलमारी तक गए।अपना बैग निकाला और उसमें रुपये रखने के बाद, ठीक से आलमारी बंद कर दिए।चाबी अपने कमीज की जेब में रख, टटोल कर देख लिए और फिर विस्तर पर आकर लेट गए।कुछ बोले नहीं।

उस समय से पिता जी की आलमारी बंद रहती थी।यहां तक कि सुबह, नहलाने के बाद जब कपड़े बदलवाने होते, तब पिता जी से आलमारी की चाबी मांगी जाती।

पिता जी सुनते।उठते।आलमारी तक जाते।अपने सामने अपने कपड़े निकलवाते और फिर आलमारी बंद कर चाबी, अपनी कमीज की जेब में रख लेते।रखने के बाद एकबार टटोलकर देख जरूर लेते।अस्पताल से वार्डब्याय, नेबुलाइज करने या कंसेंट्रेटर के पानी का लेबल देखने आता तो पिता जी की निगाह आलगारी की ओर रहती।वह अपने बैग की सुरक्षा को लेकर बहुत चिंतित लग रहे थे।

‘कौन है रे? उधर का कर रहे हो?’ आलमारी की डस्टिंग करते नौकर से पिता जी ने बिस्तर से उचक कर पूछा था।

‘बाबू जी, मैं हूँ, राधेश्याम! आलमारी पोछ रहा हूँ।’

‘मत पोछो, छोड़ दो।हम पोछ लेंगे?’ पिता जी का जवाब था।

‘अब आप आलमारी पोंछब!’ राधेश्याम ने पिता जी को प्यार से उत्तर दिया और डस्टिंग का काम जारी रखा।राधेश्याम की द़ृढ़ता देख, पिता जी उठकर बैठ गए और आलमारी पर नजर लगाए रखे।

‘हमरे गटई में इ फांसी लगा दिए हैं डाकडर! हम गांव नहीं जा पा रहे।बहुत दिन हुए गांव गए।धान का बेहन गिराने का समय है।पता नहीं बटाईदार गिराए हैं या नहीं?’ पिता जी की चिंता में गांव था।गांव की खेती-किसानी थी।

‘आप इतना चिंता क्यों करते हैं? हम लोग हैं न देखने के लिए!’ भैया उन्हें समझाते।

‘तू लोग नालायक हो! तू लोग गांव थोड़े देखोगे? अफसर लोग गांव भुला देते हैं।खेत-बारी बेच देते हैं।आपन धरती से नाता तोड़ लेते हैं।उन्हें सुख चाहिए।जहां सुख, वहीं घर।’ पिता जी, भैया की ओर देखे बिना बोले जा रहे थे।

‘आप बेकार की चिंता करते हैं।हम लोग देखेंगे न! जब आप स्वस्थ हो जाइएगा, तब गांव हो आइएगा।’

‘जीएंगे तब न गांव देखेंगे!’ पिता जी की आशंका गहरी हो रही थी।

‘आप जल्द ठीक हो जाएंगे।’ भैया समझाए।

वह हर वक्त आशंका में जी रहे थे।गांव, खेत-बारी, हीत, नाते-रिश्तेदार, सबकी फिक्र कर रहे थे।वह बार-बार नाक से नली निकालने की जिद्द करते।योगेंद्र उनको समझाता- ‘नाना! चिंता मत कीजिए।नली जल्द निकल जाएगी।’

‘का निकलेगी? मूरख कहीं का? देख नहीं रहे हो हाल?’ पिता जी योगेंद्र को सुनाते।

‘ए बाबू योगेंद्र! अपना मामा लोग का साथ कभी मत छोड़ना! मामा लोग ही सभी बहनों की देख-रेख किए हैं।तुम सभी को पढ़ाए-लिखाए, आदमी बनाए हैं।मामा लोग कुछ कह दें, डांट दें, तब भी इन लोगों का साथ न छोड़ना।’ पिता जी, योगेंद्र को समझा रहे थे।

‘तू दूनों लोग, अपना भाई को देवता मानना।वही सब किए हैं।उन्हीं के प्रताप से इ घर की गरीबी दूूर हुई है।तू लोग उन्हीं की बदौलत पढ़े-लिखे।आगे बढ़े।’ पिता जी मुझे और छोटे भाई को समझाते। ‘जी पिता जी!’ हम उनकी बात का समर्थन करते।

‘बड़ भाई की बात को कभी बुरा नहीं मानना तुम दोनों! उनकी इज्जत करना।वह जो कहें, उसे मानना…’ पिता जी लगातार बोलते जाते।बीच-बीच में उनकी आंखें भर आतीं।

‘ऐ किरन! सब बेटी लोग को बुला दीजिए।’ पिता जी ने भाभी जी से कहा था।हमारी पांच बहनों में से चार, पहले ही आ चुकी थीं।सबसे छोटी बहन मुंबई में थी।वह नहीं आई थी।पिता जी ने सारी जिंदगी, अपनी बेटियों से बहुत कम बात किया होगा पर दो दिनों से वह सभी बेटियों को बुला रहे थे।शायद वह सबसे मिल लेना चाहते थे।उन्हें लग रहा था कि जीवन का अंत करीब है।

आखिर मंगलवार को छोटी बहन भी आ गई।जब पिता जी नहाकर, नाश्ता करने बैठे तब सभी बहनें एक साथ पिता जी के कमरे में जाकर बैठ गईं।

देखिए पिता जी, आपकी सभी बेटियां हाजिर हैं।सबसे छोटी बहन ने पिता जी को पानी देते हुए बातचीत करने की कोशिश की थी।पिता जी ने सभी की ओर नजर दौड़ाई।दो बहनें बैठी थीं, तीन उनके बिस्तर के पास खड़ी थीं।पिता जी ने सभी को बैठने का इशारा किया।

नाश्ता करने के बाद पिता जी लेटे नहीं, बिस्तर पर बैठे रहे।

‘देख रही हो तुम लोग इ सांसत? नाक में पाइप?’ पिता जी ने अपने मन की बेचैनी, बेटियों से व्यक्त किया।

‘सब ठीक हो जाएगा पिता जी! भाई लगे हैं।’ बहनों ने सांत्वना दी।

पिता जी कुछ देर चुपचाप बैठे रहे फिर एकाएक बिस्तर से उठने लगे।योगेंद्र को लगा, शायद बाथरूम जाएंगे।उसने लपक कर पकड़ लिया था।

‘हटो! … हटो, कहीं जाना नहीं है।’ पिता जी ने योगेंद्र को हटाते हुए बिस्तर से उतरना चाहा।योगेंद्र उनके पीछे खड़ा, सहारा दिए रहा।पिता जी उतरे।आगे बढ़े और आलमारी खोलकर अपना बैग निकाल लिए थे।बैग को पकड़े, बिस्तर तक आए, सरककर चढ़े और बैग को सामने रख, बैठ गए थे।उसी बैग में उन्होंने बैंक से निकाले गए रुपये रखे थे।उन्होंने पहले से बीस-बीस हजार की गड्डियां बना रखीं थीं।सबसे पहले एक गड्डी छोटी बहन की ओर बढ़ाया।छोटी बहन ने हाथ खींचते हुए कहा, ‘यह क्या कर रहे हैं पिता जी! आपसे कौन पैसे मांग रहा है?’

‘कोई नहीं मांग रहा है।मैं अपने मन से दे रहा हूं।बेटियों को मैं पैसे नहीं दे सकता?’

‘आप बीमार हैं।पहले स्वस्थ हो जाइए।’ 

‘जी पिता जी! किसी को पैसे की जरूरत नहीं है।तीनों भाई हमारी मदद करते हैं।’ सभी बहनें एक साथ बोलने लगी थीं।

‘आप के आशीर्वाद से हम सब सुखी हैं।किसी को कमी नहीं है।कोई तकलीफ नहीं है।बस आपका आशीर्वाद बना रहे।हमें और कुछ नहीं चाहिए।’

‘नहीं, यह पैसा तुम सब को लेना होगा।मैं प्रायश्चित कर रहा हूँ।मुझे प्रायश्चित का मौका बेटियां नहीं देंगी तो बेटे क्या देंगे?’

‘कैसा प्रायश्चित पिता जी?’

‘सुनो तुम लोग।पहले यह पकड़ो।’ पिता जी ने अपना हाथ आगे बढ़ा दिया था।

‘रुकिए पिता जी! ऐसा मत कीजिए।पाइप निकल जाएगी।’ छोटी बहन ने उन्हें रोका था।

‘तो लो न तुम? अपने बाप की बात नहीं मानोगी?’ पिता जी नाराज होने लगे थे।

भाभी जी ने पिता जी के चेहरे के भावों को पढ़ा और अपनी ननदों को पैसे ले लेने का इशारा किया।

पिता जी के चेहरे पर संतोष की इबारतें झलकने लगी थीं।

‘यह पैसा नहीं है।बीस हजार रुपए में आज होता ही क्या है?’ पिता जी की आवाज खड़खड़ा रही थी।

‘मैंने अपनी जिंदगी में बेटियों के साथ बहुत नाइंसाफी की है।पढ़ाया नहीं।तुम तीन तो बिल्कुल न पढ़ पाईं।और तुम दो को बाबू लोगों ने पढ़ा दिया नहीं तो तुम सब अनपढ़ रह जातीं। …इसी बात का प्रायश्चित कर रहा हूँ।मुझे माफ करना तुम सब। …दुनिया कहेगी कि भगत जी ने बेटों को बहुत पढ़ाया, बेटियों को नहीं?’ बोलते-बोलते पिता जी की आवाज भर्राने लगी थी।पश्चाताप का भाव, चेहरे पर बुखार की तरह तपने लगा था।उन्होंने बेटियों के हाथों में पैसे पकड़ाते हुए, गरदन झुका ली थी।’

उसके बाद पिता जी बिस्तर पर लेट गए थे और अपनी डबडबाई आंखों को दूसरी ओर फेरते हुए करवट बदल लिए थे।

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All Paintings : Chandra Bhattacharjee