सुपरिचित कथाकार, संपादक और लोक–इतिहास के गंभीर अध्येता और लेखक। ‘लोकरंग’ वार्षिकी का १९९८ से निरंतर संपादन।अद्यतन पुस्तक ‘भील विद्रोह’ (संघर्ष के सवा सौ साल), ‘टंट्या भील’ (द ग्रेट इंडियन मून लाइटर)।
‘अंग्रेजों के आने के पहले बिन फाइलों का देश था यह।न फाइलें बनती थीं, न चलती थीं।न कोई नोट्स, न आर्डर्स।’ गंभीर चंद्र प्रजापति जब भी सचिवालय की दहलीज पर कदम रखते, उनके मन में यही विचार उठते।वह जब भी सचिवालय की दहलीज पर पहुंचते, ऊंची-ऊंची बिल्डिंगों के ऊपर मंडराते चील और कौवों को चकरघिन्नी काटते देख, उन्हें लगता, शायद इनकी भी फाइलें यहां अटकी पड़ी हैं।
कहानी की शुरुआत जून उन्नीस सौ इक्यानवे में देहरादून से हुई थी, जब गंभीर चंद्र प्रजापति ने नौकरी ज्वाइन की थी।तब देहरादून, उत्तर प्रदेश का एक जिला था।वहां उनकी नियुक्ति आबकारी निरीक्षक के पद पर हुई थी।
लोकसेवा आयोग की चयनित सूची में उनका नाम ‘गंभीर चंद्र’ टाइप था जबकि हाई स्कूल सर्टिफिकेट में ‘गंबीर चंद्र’।शब्द-व्याकरण का यह खेल, नौकरी की शुरुआत से अंत तक, एक पूरा वृत्तांत लिख गया।यह कहानी उसी वृत्तांत का हिस्सा है।नाम परिवर्तन की एक फाइल १९९२ के प्रारंभ में खुली।नोट्स एंड आर्डर्स, या यों कहें, टीपें और आज्ञाएं बदलती रहीं।फाइल रेंगती, ठहरती, वर्षों आलमारी में पड़ी धूल फांकती, अंधेरे में गुम हो जाती।धूल की पर्तों को साफ करने वाले चपरासी भी बदले।कुर्सियां बदलीं, ऑफिस का हुलिया बदला।कितने अनु सचिव आए-गए।बाबुओं ने अपनी कलमों की स्याही पोती और उसे बदरंग किया।फाइल चलाने के लिए मान मनौव्वल हुइर्ं।चाटुकारिता का खास रोल नहीं रहा तो चाय-पानी की बात हुई।लेन-देन की रस्म निभाई गई, तब जाकर फाइल चली मगर चलते ही बैठ गई।बैठे-बैठे मुटाती रही।उसकी धमनियां सख्त होती गईं।ब्लडप्रेशर बढ़ता गया।उ.प्र. लोक सेवा आयोग में त्रुटि क्या हुई, गंबीर चंद्र को गंभीर चंद्र बनाने में छब्बीस-सत्ताईस साल लग गए।
गंबीर चंद्र, निम्न जाति के अनपढ़ बाप के बेटे थे।उनके लिए गंबीर और गंभीर में कोई खास फर्क न था।प्राथमिक पाठशाला के हेडमास्टर ने उनके बाप, पदारथ से नाम पूछा।पदारथ बोले-‘गंबीर चन।’ ‘गंबीर चन या गंबीर चंद्र?’ हेडमास्टर ने कड़क आवाज में पूछा। ‘आप से जादा हम होसियार ना हैं पंडी जी! जो ठीक समझें, लिख दें।’ बाप ने हाथ जोड़, मूड़ी हिला दी।हेडमास्टर ने नाम लिखा-गंबीर चंद्र।चाहते तो गंभीर चंद्र भी लिख सकते थे मगर ऊंच जाति और निम्न जाति के नाम में फर्क तो होना चाहिए? सूर्य प्रकाश, दिवाकर सिंह, नगेन्द्र या प्रभाकर नाम वाले अलग प्रजाति के होते हैं तो ढेकुल, कुक्कुर, बखोरन, टीमल नाम वाले अलग प्रजाति के।
तब जन्म प्रमाण पत्र का जमाना न था।स्कूल में जो नाम लिख गया, वही सरकारी रिकॉर्ड।तो गंबीर चन, गंबीर चंद्र बने रहे।बीच-बीच में कभी-कभार गंभीर बने भी तो वक्त रहते नाम की टांग खींचकर बाबुओं ने हाई स्कूल सर्टिफिकेट देख फिर से गंबीर बना दिया।बाबू कहते – ‘गरीब की मेहरी, गांवभर की भौजाई।नाम के लिए जब खुद गंभीर न थे तो हम कैसे गंभीर बनाएं? अब ताउम्र गंबीर बने रहिए।हेर-फेर करेंगे तो परेशानी में पड़ जाएंगे।दूनू लोक से गइले पाड़े, न हलुआ मिलल न माड़े।’
गंबीर चंद्र ने तय किया कि जो नाम दर्ज हो गया है, वह हो गया? वही जीवन के साथ रहेगा।हाई स्कूल बोर्ड का फार्म भरते समय नाम सुधार सकते थे, मगर तब किसी ने बताया नहीं।अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत।हाई स्कूल सर्टिफिकेट में भी वह गंबीर चंद्र बने रहे।लोकसेवा आयोग, उत्तर प्रदेश अधीनस्थ सेवा परीक्षा फार्म भरते समय, हाई स्कूल सर्टिफिकेट के अनुसार उन्होंने अपना नाम गंबीर चंद्र लिखा।हिंदी और अंग्रेजी, दोनों वर्णमालाओं को बार-बार चेक किया कि कहीं कोई त्रुटि न रह जाए।
गंबीर चंद्र ने गरीबी में पढ़ाई की।लायक थे, घर की जिम्मेदारी समझ रहे थे।मां–बाप के पसीने की कीमत जानते थे।प्रतियोगिता परीक्षा की जमकर तैयारी की और आखिर उनका चयन आबकारी निरीक्षक पद पर हो गया मगर यहां भी नाम ने बखेड़ा खड़ा कर दिया।आयोग द्वारा चयन सूची जारी हुई।लिपिक की लापरवाही से सूची में गंबीर चंद्र एक बार फिर, गंभीर चंद्र के रूप में अवतरित हो गए।
चयन सूची देख आबकारी आयुक्त कार्यालय, ने समस्या खड़ी कर दी।नियुक्ति पत्र लेने जब आयुक्त कार्यालय पहुंचे तब बड़े बाबू, माता प्रसाद तिवारी ने उनकी हाई स्कूल सर्टिफिकेट और चयन सूची पर बारंबार नजर दौड़ाई।चेहरे के भाव कई बार बदले।मुलायम से सख्त, सख्त से सपाट हुए।अधिष्ठान शाखा के उतार-चढ़ाव के बीच, चपरासी रामरूप राजभर द्वारा वक्त की नजाकत भांपते हुए, संभालने का अभिनय और झट चाय-पानी पर फोकस, रंगमंच की शास्त्रीय व्याख्या से भिन्न अभिनय था।हर्ष से अवसाद तक गोते लगाते गंबीर चंद्र, खुद को गंभीर चंद्र बताते, थके-थके लग रहे थे।
‘अरे यह क्या तमाशा है? आप गंभीर चंद्र हैं या गंबीर चंद्र?’ माता प्रसाद तिवारी ने चश्मे को नाक के नीचे सरकाया और हाई स्कूल सर्टिफिकेट को निहारते हुए, गंभीर प्रश्न खड़ा कर दिया।
‘हाई स्कूल सर्टिफिकेट में गंबीर चंद्र है।आयोग की सूची में गंभीर चंद्र टाइप हो गया है।’ गंबीर चंद्र अपने कागज संभालते, घबराते, बचाव की मुद्रा में दिखे।चेहरे की गोलाई पर बेचारगी की परछाईं तैर रही थी।
‘चयन गंभीर चंद्र का हुआ है।नियुक्ति पत्र, गंबीर चंद्र को क्यों दिया जाए? मामला धोखाधड़ी का हो सकता है?’ माता प्रसाद तिवारी ने मुलायमियत का चोला उतार फेंका और अपनी पुखराज वाली अंगुली को चटका दिया था।वैसे भी सरकारी बाबुओं के चेहरे पर मुलायमियत का चोला देर तक ठहरता नहीं।उब होने लगती है।सख्त चेहरे का रेट ठीक-ठाक होता है।सीधी उंगुली से घी नहींं निकलता, और तिवारी ने सेवा के छत्तीस बैसाख देखे थे।पुखराज उनके लिए फलदायक था।
‘किसी गंभीर चंद्र के स्थान पर आप…?’ बोलते-बोलते रुक गए माता प्रसाद तिवारी।
‘अरे नहीं तिवारी जी! यह देखिए, पुलिस वेरिफिकेशन,….घर का पता… पिता का नाम….।’
‘वेरिफिकेशन तो हो ही जाता है आजकल? पुलिस के सामने गांधी छाप फेंकिए… कुछ भी करा लीजिए।’
‘आयोग की गलती है तिवारी जी।’ बोलते-बोलते हकबका गए थे गंबीर चंद्र।वह प्रवेश पत्र से लेकर इंटरव्यू लेटर तक, तिवारी के सामने रख रहे थे।जैसे अंदर का डर, बाहर निकाल रहे हों।जैसे सफाई देकर अपनी बेगुनाही साबित कर देना चाहते हों।नौकरी मिलने से जो खुशी, महीनों से उछाह मार रही थी, बड़े बाबू की भृकुटी देख, पटा गई।तिवारी मुझे धोखेबाज तो नहीं समझ रहे? मन में एक आशंका ने टीस मारी।
‘हाई स्कूल सर्टिफिकेट का नाम मान्य होता है।अपको आयोग जाना होगा।नाम ठीक कराना होगा।नौकरी का मामला है।सर्विस बुक, ट्रेजरी बिल, जी.पी.एफ., पासबुक और अंत में पेंशन तक नाम पीछा करेगा।हर जगह परेशानी खड़ी होगी।’ माता प्रसाद तिवारी ने नियुक्ति आदेश जारी करने के पूर्व विशुद्ध टेक्निकल सवाल खड़ा कर, फाइल, बंद कर दिया था।
गंबीर चंद्र को लगा, फाइल सदा के लिए बंद हो गई।आसमान से जमीन पर टपक पड़े।
आयुक्त कार्यालय के अधिष्ठान शाखा में ठीक दस बजे दाखिल हुए थे, तब अंदर-अंदर एक फुरहरी शरीर को तरंगित कर रही थी।मेडिकल बोर्ड के प्रमाण पत्र से लेकर शैक्षिक प्रमाण पत्रों को जमाकर नियुक्ति पत्र लेना था।
गंबीर चंद्र के लिए रामरूप चपरासी ने कुर्सी खाली कर दी थी। ‘भगवान की कृपा से अच्छी नौकरी मिली है साहब! माई-बाप का आशीर्वाद समझिए।’ रामरूप ने मासूमियत सा रूप बनाया था।
‘थैंक यू!’ बोले थे गंबीर चंद्र।
‘सालभर में ही गाड़ी, बंगला सब…! इस खुशी के मौके पर हुजूर कुछ….??’
‘धैर्य रखो रामरूप! साहब कहां भागे जा रहे हैं?’ भरतलाल, सेक्शन अफसर ने चपरासी को आंख मारी थी और अपने गंजे सिर पर हाथ फिराने लगे थे।
रामरूप ने दांत चमकाए।वह भरतलाल की भाव-भंगिमा का आदी था।फिर भी गंबीर चंद्र के आसपास मंडराता रहा।गंबीर चंद्र ने तीन सौ रुपए निकाले।
‘इतने में तो सेक्शन के लिए मिठाई आएगी साहब! मेरे बच्चों के लिए?’ रामरूप ने फिर दांतों को होंठ पर दबाया।
गंबीर चंद्र ने सौ रुपये और दिए।
तभी माता प्रसाद तिवारी ने लगभग रंग में भंग डाल दिया था।
अधिष्ठान शाखा के कर्मचारियों में खुसुर-पुसुर होने लगी थी।तिवारी को सब जानते थे। ‘खिचड़ी खात के नीक लागे और बटुली माजत के पेट फाटे? …और तिवारी जी को खिचड़ी शुद्ध घी के साथ पसंद है।’ बोला था रामरूप।
एक महिला चपरासी, सावित्री ने भी पहल की।गंबीर चंद्र के सामने पानी का गिलास रख आई।इस बीच, भरतलाल को एडिशनल साहब ने बुलाया था।एक अन्य बाबू भी फाइल दाबे, एडिशनल के कमरे में गया।थोड़ी देर बाद दोनों वापस अपनी कुर्सी पर लौट आए थे।गंबीर चंद्र चुपचाप बैठे, तिवारी का चश्मा, कलावा और पत्थर जड़ित अंगूठियों को निहार रहे थे।
माता प्रसाद तिवारी, गंबीर के लिए गंभीर बने हुए थे।वह कभी सेक्शन अफसर की ओर देखते, कभी आयोग की लिस्ट और कभी गंबीर चंद्र के हाई स्कूल सर्टिफिकेट को, जो उनकी मेज पर पेपरवेट से दबा, कराह रहा था।उनकी नजर गंबीर चंद्र के मुरझाए चेहरे पर जाती मगर टिकती नहीं।टिकाने के लिए वजन की दरकार थी।
तिवारी ने पानपसंद का डिब्बा खोला।चम्मच निकाला।मुंह में मसाला डाला।मन किया, एक चम्मच गंबीर चंद्र की हथेली पर रख दें, लेकिन ‘प्रजापति’ का ख्याल आते ही, डिब्बा दराज में सरका दिया।
‘का हो तिवारी जी, का समस्या है? ….दिखाइए तो?’ भरतलाल ने मुंह में पनिआए पान मसाले की पीक, डस्टबिन में थूकते हुए हस्तक्षेप किया था और गंबीर चंद्र को अपने पास बुलाकर बगल की कुर्सी पर बैठा लिया था।
चरर ..र……..।बड़े बाबू ने कुर्सी सरकायी।सेक्शन के दूसरे बाबुओं ने तिवारी को तिरछी नजरों से निहारा, जो पानपसंद मुंह में दबाए उठ खड़े हुए थे।रामरूप चपरासी मिठाई ला चुका था।शुभ काम में कोई खलल नहीं पड़नी चाहिए।सभी तिवारी की ओर कान लगाए, समस्या की औकात तौल रहे थे।कुछ टाइपराइटर पर खटर-पटर कर रहे थे तो कुछ फाइलों को गोड़ रहे थे।रामरूप ने अपनी तिरछी चितवन से तिवारी को ताड़ा।तिवारी ने फाइल उठाई।सेक्शन अफसर के पास गए और थस से कुर्सी पर बैठ गए।
‘ये देखिए सर! हाई स्कूल सर्टिफिकेट और आयोग की लिस्ट।’ एक-एक कागज दिखाने लगे थे तिवारी।
तिवारी की बेचैनी रामरूप को पसंद न थी।वह अक्सर कहता, ‘इ तो हवन में हाथ जलाने वाले पंडित हैं।’ उसने सहानुभूति से गंबीर चंद्र को निहारा।
‘गर्म समोसा निकालने के लिए हलवाई को बोल आया हूँ।साथ में चाय लेते आऊंगा।’ रामरूप ने सेक्शन को सुनाया।फिर गंबीर चंद्र की ओर देखते हुए, सौ रुपए की जरूरत बताया।गंबीर चंद्र के बेजान हाथ जेब में गए और चपरासी की ओर बिना किसी उत्साह से बढ़ गए थे।रामरूप ने प्रस्थान किया।
सेक्शन और बरामदे के बीच, बजती कॉलबेल, दफ्तरी संस्कृति से रिझा, उलझा रही थी।गंबीर चंद्र का मन माहुर बना हुआ था।नियुक्ति पत्र जारी न हुआ तो महीनों आयोग के दफ्तर में धक्के खाएंगे।फाइल चलते-चलते चलेगी।नीचे से ऊपर जाएगी।साहब को फुर्सत होगी तो देखेंगे।काम हो गया तब भी डाक से पहुंचते-पहुंचते दस-पंद्रह दिन? तब तक गांव, घर और पिता जी पर क्या-क्या गुजरेगी? वह तो अभी से अगले वेतन का इंतजार कर रहे हैं।मामला सुलझेगा या नहीं? दिल बैठने लगा था।
‘तब?’ चाय पीने के बाद सेक्शन अफसर ने तिवारी को घूरा।
‘आप बताइए? लोक सेवा आयोग से सुधार तो करवाना पड़ेगा?’ तिवारी ने हाथ खड़े कर दिए थे।
‘आप का कहना है कि ये गंबीर चंद्र हैं, गंभीर चंद्र कोई और..?’
‘कागज तो यही कह रहे हैं? जब तक आयोग स्पष्ट न करे, तब तक कुछ भी संभव है?’
‘आयोग के पास सौ काम हैं? समय लगेगा।बिगाड़ना आसान होता है, सुधारना कठिन तिवारी जी।’ सेक्शन अफसर ने अपने गंजे सिर पर हाथ फेरते हुए कहा और गंबीर चंद्र के पकुसाए चेहरे को देख, दयाभाव से द्रवित हुआ।उसके हाथ का कलावा तिवारी से पतला था पर तिवारी का चश्मा मोटा था।
‘का किया जाए?’ तिवारी ने सेक्शन अफसर की आशंका को मजबूत किया और एकबार फिर, पुखराज वाली अंगुली को चटकाया।
‘क्यों साहब! क्या किया जाए?’ सेक्शन अफसर ने गंबीर चंद्र की ओर देखते हुए पूछा।गंबीर चंद्र के पास कोई जवाब न था? वह शब्दहीन लग रहे थे।
‘कोई रास्ता निकालिए।आयोग भेजेंगे तो बहुत परेशानी होगी।मेरी कोई गलती नहीं है।यह आयोग की गलती है।’ गंबीर चंद्र रुककर बोले।वह कुर्सी पर बैठे-बैठे धंस गए थे।चेहरे के बिगड़ते आकार को रुमाल से संभालने की कोशिश करते रहे।
‘क्यों तिवारी जी?… अरे साहब अपने इलाके के हैं! देखिए कुछ? राह निकालिए? आप से बाहर नहीं जाएंगे?’
‘अब रिटायरमेंट के समय सस्पेंड नहीं होना है साहब! तीन-तीन बेटियां हैं।सबकी शादी करनी है? बाहर-भीतर की बात नहीं है, नियम-कानून भी तो…? कुछ गलत-सलत हो जाए तो खुद भुगतो?’
‘का गलत–सलत होगा? अरे, बाप का नाम पदारथ महतो, गांव–अहिरौली, थाना–लाइन बाजार जिला–जौनपुर, सब कुछ तो ठीक है? इ क्लर्कियल मिस्टेक है तिवारी जी, देख लीजिए! थाने से वेरीफिकेशन आया ही है? हाई स्कूल सर्टिफिकेट के अनुसार नियुुक्ति पत्र जारी कीजिए।लोक सेवा आयोग को एक पत्र भेज दीजिए, वह नाम सुधार कर अवगत कराएं।जब बाप का नाम, गांव का पता, पुलिस वेरिफिकेशन से प्रमाणित है, गंभीर चंद्र ही गंबीर चंद्र हैं तो नियुक्ति पत्र देने में क्या परेशानी है?’ सेक्शन अफसर ने तिवारी के सामने स्पष्ट किया।
सेक्शन अफसर के प्रति कृतज्ञता जताई गंबीर चंद्र ने।
‘आप चिड़िया बैठाएंगे?’ तिवारी ने प्रश्नवाचक निगाहों से सेक्शन अफसर को घूरते हुए पूछा था।
‘क्यों ना बैठाएंगे?’
‘तनख्वाह मिली नहीं, कहां से कुछ करेंगे?’ आधा मुंह खोले, चमड़ी को सिकोड़े, गंभीर मुद्रा में भुनभुनाए थे तिवारी।
‘चिंता न कीजिए।विभाग में आ गए हैं तो वेतन भी मिलेगा और मुख्यालय भी आएंगे।न काम खत्म हो जाएगा, न नाता टूट जाएगा।’ भरतलाल ने तिवारी को संभाला।
तिवारी एक बार फिर अपनी कुर्सी पर आ गए थे।सेक्शन अफसर ने गंबीर चंद्र को कुछ इशारा किया था।वह भी उठकर तिवारी के मेज के पास आ गए।
‘इ देखने में छोटी बात है, मगर है बहुत बड़ी बात?’ तिवारी ने गंबीर चंद्र को गंभीरता का अहसास दिलाया।
अपने यहां काम करने से ज्यादा, अहसास दिलाना जरूरी होता है।बिना अहसास दिलाए काम का कोई मतलब नहीं।
‘जी!’ थूक सूख गया था गंबीर चंद्र का।
‘देखता हूं! आपका गांव, जौनपुर से किधर पड़ता हैे?
‘सिकरारा ब्लॉक, …अहिरौली, दक्खिन टोला।’
‘गंबीर जी! मामला तो टेढ़ा है पर रास्ता निकालता हूं।साहब की निगाहों से भी बचाना है।नहीं तो आज लेटर जारी न हो पाएगा? बाल की खाल निकालते हैं एडिशनल साहब!’ फिर पुखराज वाली उंगली से इशारा कर बोले…. ‘कर दीजिए।पहली तनख्वाह के बाद एक और।’
‘हजार!’ गंबीर चंद्र ने पूछा।
‘जी… अरे डीए, एच.आर.ए. मिलाकर ढाई हजार से कम वेतन न बनेगा?’
गंबीर चंद्र को कुछ सूझ न रहा था।घर से चलते समय, जेब में एक हजार-बारह सौ ही रहे होंगेे।उनमें से पांच सौ खर्च हो चुके थे।सरकारी नौकरी का तजुर्बा, ज्वाइनिंग से पहले शुरू हो गया था।
लखनऊ में गांव के शर्मा जी, तहसील में चपरासी थे।कमाई ठीक-ठाक थी।गंबीर चंद्र उनसे उधार मांगने निकल गए थे।माता प्रसाद तिवारी के चेहरे का भाव और ताव बदल गया था।टाइपराइटर की खटखटाहट तिवारी के रंग और ढंग, दोनों का बयान कर रही थी।रामरूप को कुछ संतोष हुआ।पानी का गिलास लाकर तिवारी की मेज पर रख दिया था।
———————————
उसी शाम नियुक्ति पत्र लेकर गंबीर चंद्र देहरादून रवाना हो गए थे।
तिवारी ने अपर आयुक्त, आबकारी के हस्ताक्षर से लोकसेवा आयोग को एक पत्र भेज दिया था-‘कृपया अवर अधीनस्थ सेवा परीक्षा १९८६ के आधार पर आबकारी निरीक्षक पद हेतु जारी चयन सूची का संदर्भ ग्रहण करें।सूची के क्रमांक दो पर चयनित अभ्यर्थी श्री गंभीर चंद्र का वास्तविक नाम उनके हाई स्कूल सर्टिफिकेट के अनुसार गंबीर चंद्र होना चाहिए था।कृपया उपर्युक्त त्रुटि का संज्ञान लेते हुए सूची में आवश्यक सुधार/संशोधन कर, अधोहस्ताक्षरी को अवगत कराने का कष्ट करें।’
नई नौकरी और नई जिंदगी की रफ्तार तेज होती है।कुछ ही माह में गंबीर चंद्र ने अपने बाबुओं को कस दिया था।शराब माफियाओं की सूची, अवैध शराब अड्डों, मॉडल शॉप, सबकी लिस्ट बननी शुरू हो गई थी।दफ्तर की तपिश, शहर, बाजार तक जा रही थी।
‘सावधानी और समझ, दोनों का इस्तेमाल साथ-साथ करना चाहिए।जल्दी क्या है? सरकारी काम, आराम से करो।’ ऊपर वाले साहब ने समझाया था।
समझदार को इशारा काफी होता है।अफसर के अगाड़ी और घोड़े के पिछाड़ी नहीं चलना चाहिए मगर गंबीर चंद्र सुनते कहां? उनकी तेजी की चर्चा, विभाग से बाजार तक होने लगी थी।
‘कोटे वाला अफसर इतना तेज तो नहीं होता है?’ दीक्षित बाबू ने टिप्पणी की।
‘नया मुहल्ला जोर से बांग देता है।’ खन्ना बाबू ने समर्थन किया।
‘स्टेनो बाबू बता रहे थे, ओबीसी हैं।’ गुप्ता बाबू ने राज की बात बताई।
‘तेजी तो फारवर्ड वाली है?’ एक व्यापारी ने आंख मारी।
‘मेरिट लिस्ट में दूसरे स्थान पर हैं, शायद इसलिए।’
‘फंस-फंसा दिए जाएंगे तो शांत हो जाएंगे।’ बाबुओं और व्यापारियों में चर्चा तेज थी।
‘सर! आपके नाम में गलती है क्या? कहीं गंबीर चंद्र, तो कहीं गंभीर चंद्र लिखा हुआ है।’, एक दिन स्टेनो ने झिझकते हुए पूछा था।
‘टाइप करने वाले अक्सर यह गलती कर देते हैं।’
‘सर! इससे बाद में दिक्कत आ सकती है।नाम ठीक करा लेना उचित होगा।’ स्टेनो ने सुझाव दिया था।
एक दिन हरिद्वार से आए एक विभागीय अधिकारी ने जानना चाहा था, ‘ठाकुर साहब हैं आप?’
‘नहीं?’ गंबीर चंद्र ने असमंजस में उत्तर दिया था।
‘…आपके नाम के आगे, कुछ लगा नहीं है।’
‘मैं प्रजापति हूं।’
‘अच्छा! अच्छा! कुम्हार! … ओबीसी में आते हैं आप या एससी में?’
‘जी, ओबीसी में।’
‘कोई बात नहीं… कोई बात नहीं।जात-पात पूछे नहीं कोई, हरि को भजे सो हरि का होई।’ अधिकारी ने जिज्ञासा पूर्ति के बाद संतोष दिखाया और चेहरे का रंग बदल लिया था।
सरकारी नौकरी में सरनेम न हो तो तरह–तरह की कानाफूसी होती है।कुछ ही दिनों में इंस्पेक्टर साहब को ‘गंबीर चंद्र’ अपर्याप्त लगने लगा।फारवर्ड, बैकवर्ड या एससी–एसटी की जानकारी हो तो मान–सम्मान का निर्धारण हो जाता है।बाबा तुलसीदास तो पहले ही लिख गए हैं– पूजहि विप्र सकल गुन हीना, शूद्र न पूजहु वेद प्रवीणा।
‘आप क्रांतिकारी विचारों के हैं या कम्युनिस्ट?’ एक दिन एक पत्रकार ने गंबीर चंद्र से जानना चाहा।
‘नहीं तो?’
‘आपके नाम के आगे सरनेम नहीं है?’
‘बचपन से जो स्कूल में लिख गया, वह चल रहा है।इस बारे में मैंने कभी सोचा नहीं? विभागीय पत्रों में भी कभी-कभी गंभीर चंद्र लिख जाता है।’
‘यह व्याकरण दोष है।गंबीर चंद्र होता नहीं, गंभीर चंद्र होना चाहिए।’
‘वो तो है पर जो लिख गया, सो लिख गया।’
‘कोई बात नहीं? आप इसे ठीक करा सकते हैं?’ पत्रकार ने सुझाया।
‘अच्छा?’
‘आप प्रजापति भी जुड़वा सकते हैं।एक एस.डी.एम. साहब आए थे यहां।नाम था टीमल प्रसाद।शर्मिंदगी से बचने के लिए टी. प्रसाद लिखते थे मगर सरकारी लेटर में तो पूरा नाम चलता है न! तो बाद में उन्होंने अपना नाम तपेन्द्र प्रसाद करा लिया।’ पत्रकार समझदार लग रहा था।
‘इसके लिए क्या करना होगा?’ गंबीर चंद्र ने उत्सुकता से पूछा।
‘सामान्य प्रशासन अनुभाग, मैनुअल ऑफ गवर्नमेंट ऑर्डर्स संख्या २५० के अनुसार कोई भी सरकारी सेवक अपना नाम बदल सकता है या सुधार करा सकता है।इसके लिए आपको दो अखबारों में विज्ञापन प्रकाशित कराना होगा-‘सर्वसाधारण को सूचित किया जाता है कि आज से मुझे गंबीर चंद्र के बजाए गंभीर चंद्र प्रजापति समझा जाए….।’ एक शपथ पत्र-में घोषित करना होगा- ‘मैं गंबीर चंद्र पुत्र श्री …. , निवासी ….. ने आज से अपना नाम परिवर्तित कर लिया है।अब मुझे गंबीर चंद्र के बजाए, गंभीर चंद्र प्रजापति नाम से जाना जाए।’ आप आवेदन पत्र के साथ इन्हें लगाकर उचित माध्यम से मुख्यालय भेज दीजिए।’
गंबीर चंद्र ने पत्रकार के सुझाव पर विचार किया।
एक दिन स्टेनो ने आबकारी आयुक्त के माध्यम से प्रमुख सचिव, आबकारी के लिए पत्र बनाया।शपथ पत्र एवं दो अखबारी विज्ञापन के साथ गंबीर चंद्र के आवेदन पत्र को जिला आबकारी अधिकारी द्वारा अग्रसारित कराते हुए भेज दिया था।
विज्ञापन में लिखा था, ‘अब मुझे गंबीर चंद्र के बजाए, गंभीर चंद्र प्रजापति नाम से जाना जाए।’ उसके बाद गंबीर चंद्र ने अपना नाम, गंभीर चंद्र प्रजापति लिखना शुरू कर दिया।नए नाम ने उन्हें गरिमा प्रदान किया।एक आत्मविश्वास दिखा उनमें।झेंप खत्म हुई।कार्यालय बोर्ड पर भी नया नाम चमकने लगा था।
‘सर! आदेश के बिना नया नाम लिखना उचित होगा?’ स्टेनो ने पूछा था।
‘क्यों नहीं? विज्ञापन का अनुपालन तो करना होगा?’ गंभीर चंद्र प्रजापति का तर्क सॉलिड था।
सरकारी समस्याएं, कमजोर कर्मचारियों के लिए कैंसर होती हैं और मजबूत के लिए सामान्य खुजली।कुछ समस्याओं से बेपरवाह होते हैं, तो कुछ के रिटायरमेंट के बाद भी समस्याएं पीछा करती हैं।जी.पी.एफ. खाता गंबीर चंद्र के नाम खुला था।पे-बिल भी उसी नाम से बनती थी पर गंबीर चंद्र ने आधार कार्ड में गंभीर चंद्र प्रजापति लिखवा लिया था।आधार कार्ड के आधार पर बैंक खाता खुल गया।
मुख्यालय भेजे जाने वाले पत्रों में गंभीर चंद्र प्रजापति और कोष्ठक में ‘गंबीर चंद्र’ लिख दिया जाता।कई बार पत्रों के जवाब गंभीर चंद्र प्रजापति नाम से आने लगे।कुल मिलाकर वह गंबीर चंद्र कम, गंभीर चंद्र प्रजापति ज्यादा दिखने लगे थे।
कुछ साल बाद गंभीर चंद्र प्रजापति ने आयुक्त कार्यालय के अधिष्ठान शाखा से संपर्क साधा।माता प्रसाद तिवारी अभी रिटायर नहीं हुए थे।समय के साथ उनकी दसों अंगुलियों में अंगूठियां विराजमान हो चुकी थीं।चश्मा और मोटा लग रहा था।गंबीर चंद्र उनका ख्याल रखते थे।होली–दिवाली में भूलते नहीं।इससे संबंधों में गर्मी बनी रहती।उसी का परिणाम था कि नाम परिवर्तन वाला आवेदन पत्र जैसे ही तिवारी को मिला, उन्होंने उसे आयुक्त महोदय की संस्तुति सहित, शासन को भेजवा दिया था।
एक साल तक शासन में कुछ हुआ नहीं।आयुक्त कार्यालय के अधिष्ठान शाखा के नए सेक्शन अफसर एम.एम. राशिद ने एक दिन टोका, ‘सर जी, शासन जाइए।लगिए।नाम ठीक करा लीजिए।बाद में दिक्कत आएगी।सेवा निवृत्ति के बाद जी.पी.एफ. भुगतान, ग्रेच्युटी आदि रुक जाएंगी।’
शासन के अधिष्ठान शाखा के चपरासी, बलभद्र श्रीवास्तव ने तिवारी द्वारा भेजा लिफाफा खोला था और सेक्शन अफसर की मेज पर रख दिया था।मेज के सीसे के नीचे सीता-राम का भव्य फोटो लगा था।सेक्शन अफसर ऑफिस आते ही फोटो को दोनों हाथों से छूते, फिर कलम उठाते।
बलभद्र ने सेक्शन अफसर की ओर देखा, फिर धीरे से बोला- ‘सर! यह देहरादून के इंस्पेक्टर साहब का प्रार्थना पत्र है।’
‘हूँ!’ सेक्शन अफसर ने मुंह के किनारों को थोड़ा ताना।फिर कनखियों से आयुक्त कार्यालय से आई डाक को घूरा।एक बार फिर अपना ध्यान प्रभु राम-सीता के चित्र की ओर लगा दिया था।
‘कभी मिलने शासन आए नहीं?’ बलभद्र ने सेक्शन अफसर को कुरेदा।
‘जरूरत न होगी?’ सेक्शन अफसर ने संक्षिप्त उत्तर दिया और डाक को अनुसचिव की मेज पर रख दिया था।
सचिवालय में गंबीर चंद्र के नाम परिवर्तन की पत्रावली खुली।संयुक्त सचिव तक गई।लौटकर आलमारी में बंद हो गई।सचिवालय में फाइलों का खुलना, चलना, बंद होना, पड़े-पड़े हाइबरनेशन में चले जाना सामान्य बात है।सब कुछ पैरवी पर निर्भर करता है।न्यूटन के गति का पहला सिद्धांत, सचिवालय की फाइलों पर लागू होता है।कोई फाइल चल रही है तो चलती ही रहेगी या स्थिर है तो स्थिर ही रहेगी जब तक कि उस पर कोई बाह्य बल आरोपित न हो जाए।गंबीर चंद्र के नाम परिवर्तन की फाइल स्थिर थी।सचिवालय को अपेक्षा थी कि वह आएं।बाह्य बल लगाएं।उनके विरुद्ध कोई जांच होती तो फाइल दौड़ रही होती।तब सचिवालय की अपेक्षा होती कि वह आएं।बाह्य बल लगाएं, अन्यथा दंड भोगें।
गंबीर चंद्र नेे दो अनुस्मारक पत्र भेजे थे।चतुर चपरासी बलभद्र ने उन्हें ठिकाने लगा दिया था।उसका भी तो कुछ मान-सम्मान है।सौ-दो सौ तो अधिकारी बिना काम के पकड़ा देते हैं।
समय गुजर रहा था।इन्स्पेक्टर साहब अफसरी में रमेे थे।पब्लिक डीलिंग वाली नौकरी थी।मान-सम्मान में कमी न थी।इनकम ठीक-ठाक थी।घूमना, सैर-सपाटा, दारू-मुर्गा, दफ्तरी कल्चर सिर चढ़ बोल रहा था।
दो साल गुजर गए।
‘सर! सचिवालय हो आइए! नाम परिवर्तन का ओदश नहीं आया।बिना गए शासन में सुनवाई नहीं होती,’ स्टेनो ने सुझाया था।सहायक आबकारी आयुक्त ने भी मुस्कराते हुए कहा था- ‘चले जाओ इन्स्पेक्टर साहब! शासन में फाइल अपने आप नहीं चलती, चलानी पड़ती है।’
‘जी सर! …वैसे यह कोई बड़ा काम तो था नहीं?’ गंबीर चंद्र ने कहा था।
‘बड़े-छोटे की बात नहीं है? तुम्हारा काम है।सचिवालय के कुछ दस्तूर होते हैं।तुम्हारे पास भी तो वे ही फाइलें आती हैं, जिनकी खोज-खबर लेने वाला कोई होता है? जिन पर वजन ज्यादा होता है।हल्की फाइल उड़ जाती हैं।पेपरवेट चाहिए न!… पेपरवेट समझ रहे हो न!’ हल्के-हल्के मुस्कराने लगे थे साहब।गंबीर चंद्र ने गौर किया, साहब की एक उंगली में मूंगे की अंगूठी चमक रही थी।
‘जी सर! जाता हूँ किसी दिन’, गंबीर चंद्र के कहा।उनके दिमाग में न्यूटन के गति का पहला सिद्धांत उतर आया था।
और एक दिन, गंबीर चंद्र, सचिवालय पहुंच गए।वह उनका पहला अनुभव था।सचिवालय भवन, खूंखार जानवरों का अजायबघर लगा था।शीर्ष गुंबद देखने में भव्य थी मगर डरावनी लग रही थी।सामने के ऊंचे पीपल पेड़ पर चील और कौवे बैठे थे।नीचे उनके बीट की गंदगी थी।शिकारियों के ठिकाने ऊंचे होते हैं।उड़ान ऊंची होती है और चोंच धारदार।पहले वहां गिद्ध बैठते थे।अब नहीं दिखते।
सचिवालय की ऊंची दीवारें।गेट पर पहरा।बिना पास, प्रवेश वर्जित और पास, जब तक अंदर से बुलावा पर्ची न आए बनना मुश्किल।कुल मिलाकर यह घेरेबंदी किसी चक्रव्यूह से कम नहीं लगती।सचिवालय में आठ दरवाजे हैं।सेक्शन में फोन कीजिए।चपरासी गेट पास की स्लिप लाएगा।उसके लिए उसे बख्शीश चाहिए।फिर बनेगा पास।
गंबीर चंद्र के लिए अंदर से बलभद्र श्रीवास्तव पर्ची लेकर आया।पास बना और लिफ्ट के अंदर ही बलभद्र ने सलाम ठोकते हुए दो सौ वसूल लिए।
जब अधिष्ठान सेक्शन में दाखिल हुए गंबीर चंद्र, सुबह के ११ बजे थे।सेक्शन में फाइलों का अंबार, कोनों में पान पीक के निशान, चारों ओर से घूरती निगाहें, भूत घर का आभास दे रही थीं।
मोहन पांडेय, अनुसचिव ने मिलते ही सवालिया निगाहों से घूरा।बैठने का इशारा किया।चेहरे पर गंभीरता को गहराते हुए ब्रिटिशकालीन पंखे की ओर निहारने लगे थे।पंखा कपार पर रेंग रहा था।सुबह-सुबह मुंह भरा हुआ था।पान की पीक डस्टबिन में थूकने के बाद बोले- ‘देहरादून से?’
‘जी’
‘कैसे आना हुआ?’
‘नाम परिवर्तन हेतु एक आवेदन पत्र भेजा था।’
‘कब?’
‘दो-ढाई साल पहले।’
‘अच्छा! खोज-खबर लेने अब?’ घूरा था अनुसचिव ने।सुपारी को जीभ से हिलाते-डुलाते फिर बोले- ‘भेजा होगा! मुझे नहीं मालूम।पत्र तो आते रहते हैं।पहली बार सचिवालय आए हैं!’ गंबीर चंद्र को लगा, सचिवालय न आकर कोई गुनाह किए हों।
‘जी!’
‘देहरादून अच्छी जगह है।पहाड़ हैं वहां।मसूरी तो बहुत सुंदर है! अब आप भी पहाड़ी हो गए होंगे?’
‘जी नहीं! मैं तो यहीं, मैदान का हूँ।’
‘मगर मैदान में आते नहीं?’
‘जी… छुट्टी नहीं मिलती।’
‘खैर छोड़िए, इस बार गर्मी में आना है मुझे।मसूरी में रहने का इंतजाम हो जाएगा…?’
‘जी,…जी।जरूर आइए।हो जाएगा।’ हड़बड़ा कर बोले थे गंबीर चंद्र।
‘परिवार भी आएगा।दो कमरे चाहिए होंगे’
‘कोई बात नहीं।’ आवाज थोड़ी धीमी हो गई थी।
‘हां तो गंबीर चंद्र, गंभीर चंद्र या गंभीर चंद्र प्रजापति जी! यह नाम बदलने की जरूरत कहां से आ पड़ी? अनुसचिव ने मुस्कराते हुए मजाकिया तौर पर सवाल दागा था।गले में रूद्राक्ष की माला, कमीज के खुले बटन के बीच हिलडुल रही थी।दोनों हाथों की एक-एक उंगली में मोटी अंगूठियां चमक रही थीं।शिव भक्त, मोहन पांडेय ने मेज पर शीशे के नीचे शिव का बड़ा फोटो लगा रखा था।उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना वह फिर बोले-‘चलने देते।जैसा चल रहा है, ठीक है।नाम बदलना आसान तो नहीं?’ निगाहें तिरछी हो गइं थीं।उन्होंने दूसरी ओर देखते हुए फाइलों के ढेर से एक फाइल उठा ली थी।सचिवालय के दो बाबू और सेक्शन अफसर, फाइलों को खोल-बांध रहे थे।फ्लैग लगा रहे थे।मार्कर से लाइनों को रंग रहे थे।बलभद्र स्टैप्लर में पिन लगा रहा था।बीच-बीच में कॉलबेल बज रही थी।अधिकारियों के आने, मीटिंग की व्यस्तता, चहलकदमी बढ़ गई थी।एक अन्य चपरासी चाय लेने जा चुका था।
‘आज दो बजे से प्रमुख सचिव की मीटिंग है।एक मिनट की फुरसत नहीं है।ये बनाओ! वो बनाओ…।कल से विधानसभा सत्र शुरू हो रहा है।देख रहे हैं न! पूरा काम यही चार–पांच लोगों के जिम्मे है।’ अनुसचिव बोले जा रहे थे।
‘पहले इस सेक्शन में बारह लोग काम करते थे।अब…? कोई भर्ती नहीं।होगी कहां से? आरक्षण का लफड़ा, कोर्ट–कचहरी।कहां से कोई दूसरा काम देखें? सैकड़ों लेटर आते हैं, पड़े रहते हैं।’ अनुसचिव फिर व्यस्त हो गए थे।
चाय आई।सबने पी।गंबीर चंद्र को मीठी चाय फीकी लग रही थी।बेजान, ठंडी चाय!
‘इंस्पेक्टर साहब! इधर व्यस्तता रहेगी।एक हफ्ते बाद आइए।फिर देखता हूं आपकी फाइल।’ घंटे भर बाद अनुसचिव मुखातिब हुए थे।
‘एक हफ्ते बाद?’ इस उत्तर से गंबीर चंद्र निराश हो गए थे।बहुत मुश्किल से आ पाए थे, सचिवालय।अब फिर हफ्तेभर बाद?… सेक्शन में फोन… गेट स्लिप, पास…।वह हताश, चुपचाप बैठे रहे।
‘अगर आप शाम को समय दें तो घर पर…’ धीमे से बोले थे गंबीर चंद्र।
‘न।संभव नहीं।सात बजे तक तो प्रमुख सचिव बैठते हैं।आज तो भगवान ही मालिक हैं।आठ बजे तक फुर्सत मिलने की उम्मीद नहीं।’
‘आठ बजे के बाद ..?’
‘कुछ कह नहीं सकता’, मोहन पांडेय ने कहा।लटक रहे कलावा के धागे को अंदर घुसेड़ा और फिर दो-तीन फाइलों को नीचे रख दिया।बलभद्र ने उन्हें उठाया और सेक्शन अफसर की मेज पर पहुंचा दिया।गंबीर चंद्र चुपचाप बैठे रहे।सिर पर रेंगता पंखा हांफ रहा था।
‘सचिवालय कॉलोनी, बादशाह नगर आकर फोन कीजिएगा।रात आठ बजे के बाद।’ एक फाइल को निहारते हुए पांडेय ने कहा।
गंबीर चंद्र को कुछ तसल्ली हुई। ‘ठीक है’, कहते हुए वह उठ गए थे।उनका उठना देख, दाएं-बाएं दोनों चपरासी साथ लग लिए थे। ‘साहब ने घर पर बुला लिया है तो काम हुआ समझिए सर!’ बलभद्र के चेहरे पर चापलूसी की रौनक थी।दोनों उन्हें लिफ्ट तक ले गए।बड़ी मुश्किल से सौ-सौ में माने थे।
———————————-
रात सवा आठ बजे गंबीर चंद्र, मोहन पांडेय के घर के बाहर थे।
मात्र दस मिनट की मुलाकात के बाद अनुसचिव से मिलकर लौट आए थे गंबीर चंद्र।चलते-चलते पंद्रह हजार का एक लिफाफा पकड़ा दिया था।सचिवालय के चक्रव्यूह से मुक्त होने के लिए कठिन फैसला लिया था उन्होंने।बार-बार दौड़ने से अच्छा है, एक बार में काम बन जाए।
‘सेक्शन अफसर को भी देखना होगा।’ चलते समय बोले थे पांडेय।
‘आप देख लीजिएगा।बाकी काम होने के बाद।’ गंबीर चंद्र ने दयनीय चेहरा बना दिया था।
————————————-
गंबीर चंद्र की उम्मीदें बहुत जल्द धराशाई हो गईं।विज्ञान का नियम है कि कई बार बाह्य बल लगाने के बाद भी विस्थापन शून्य होता है। ‘नो डिस्प्लेसमेंट मिन्स, वर्क डन इज जीरो’।
सचिवालय से लौटने के अगले महीने ही मोहन पांडेय का सिंचाई विभाग में तबादला हो गया था।गंबीर चंद्र सुने तो धड़कनें बढ़ गईं।सबसे पहले सेक्शन अफसर ने फोन कर बताया था।यह सुन गंबीर चंद्र ने मोहन पांडेय को फोन मिलाया- ‘भाई साहब, काम हुआ नहीं और आपका ट्रांसफर…।’
‘परेशान न होइए।मेरी जगह मेरा मित्र, रविन्द्र द्विवेदी गया है।उससे बोल दिया हूं।काम हो जाएगा।’ मोहन पांडेय ने आश्वस्त किया था।
‘यानी पैसा बेकार नहीं जाएगा’, गंबीर चंद्र की जान में जान आई।
तीन साल गुजर गए।फाइल घुटनों के बल थी या पांवों पर, गंबीर चंद्र को नहीं पता।इस बीच उनका ट्रांसफर देहरादून से मुरादाबाद हो चुका था।एक बार मुरादाबाद से सेक्शन अफसर और अनुसचिव, रविन्द्र द्विवेदी से बात हुई थी जो उत्साहजनक न थी।
गंबीर चंद्र ने एक अनुस्मारक पत्र और भेज दिया था।
‘कभी आएंगे या फोन से ही काम होगा?’ एक दिन अनुसचिव ने गंबीर चंन्द्र के मस्तिष्क के धुंध को साफ कर दिया था।सचिवालय में कोई सगा नहीं होता।लेन-देन में तो कतई नहीं।अपने बाप का उधार पहले वसूला जाता है, फिर बैठने को कुर्सी दी जाती है।
‘मोहन पांडेय जी ने कहा था, बोल देंगे?’ गंबीर चंद्र ने बात पूरी की।
उधर से फोन कट गया था।
तीन साल मुरादाबाद में तैनाती के बाद गंबीर चंद्र का ट्रांसफर बस्ती हुआ।नौकरी में आए छह साल हो गए थे।वह गंबीर चंद्र और गंभीर चंद्र प्रजापति के बीच ओल्हा-पाती खेल रहे थे।वह अनुस्मारक भेजते और इंतजार करते।एक बार सेक्शन अफसर के घर गए भी।पांच हजार दिए, मगर वह अनुसचिव से मिलने पर जोर देता रहा। ‘काम करा दीजिए, उनसे भी मिल लूंगा’, गंबीर चंद्र ने कहा था।
आखिर एक दिन शासन का पत्र प्राप्त हुआ था।उस पत्र से लगा कि फाइल मरी नहीं है, जिंदा है।पत्र में लिखा था-‘आपने नाम परिवर्तन वाले प्रार्थना पत्र के साथ अखबारों की विज्ञप्ति संलग्न नहीं की है…।’
‘हें!’ गंबीर चंद्र्र चौंक पड़े थे।उन्हें समझते देर न लगी कि यह अनुसचिव, बलभद्र या दोनों की कारस्तानी है।
गंबीर चंद्र ने शासन के पत्र के जवाब में अखबारों में प्रकाशित विज्ञप्तियों की फोटो प्रति, रजिस्टर्ड डाक से भेज दिया था।वह चाहते तो विज्ञप्तियों को लेकर खुद जा सकते थे मगर गए नहीं।लकुसी से घास टार रहे थे गंबीर चंद्र।सोच रहे थे, फाइल ने चलना शुरू कर दिया है तो चलेगी ही।सेक्शन अफसर मदद करेगा ही।जब मुकाम तक फाइल पहुंच जाएगी, तभी जाएंगे।क्या पता फिर लुट–पिट जाएं।
उधार प्रेम की कैंची होती है।नकद याद रहता है।वही बाह्य बल होता है।गंबीर चंद्र को कौन समझाए कि बिना बाह्य बल के विस्थापन शून्य और विस्थापन शून्य का मतलब वर्क डन इज जीरो!
लगभग दस साल व्यतीत हो गए।वर्ष २००४ में गंबीर चंद्र का प्रमोशन जिला आबकारी अधिकारी के पद पर हो चुका था।
२००५ में सूचना का अधिकार कानून सामने आया।गंभीर चंद्र प्रजापति को लगा कि आर.टी.आई. एक हथियार है।उन्होंने आव देखा न ताव, उसका इस्तेमाल कर डाला।दस रुपए का पोस्टल आर्डर लगा कर पूछ डाला- ‘महोदय, मेरे पत्र संख्या दिनांक…… १९९१/ १९९५/ २००१/२००२/२००३/ २००४ आदि का संदर्भ ग्रहण करें।सामान्य प्रशासन अनुभाग, मैनुअल ऑफ गवर्नमेंट ऑर्डर्स संख्या २५० के अनुसार कोई भी कर्मचारी अपने नाम में परिवर्तन कर सकता है।इस संबंध में मैंने अपने नाम सुधार/परिवर्तन हेतु विगत १२-१३ सालों से जो पत्र भेजे हैं, उस संबंध में क्या निर्णय लिया गया है, कृपया अवगत कराएं।
गंबीर चंद्र के आर.टी.आई. पत्र ने शासन के अधिष्ठान शाखा में सरगर्मी बढ़ा दी थी।
‘सर, यह देखिए! गंबीर चंद्र तो आर.टी.आई. इस्तेमाल कर दिए?’ सेक्शन अफसर, महेश सक्सेना ने डाक निहारते हुए उचक कर बताया था।
‘देखें…’ अनुसचिव, रामसुख द्विवेदी ने डाक को अपने हाथ में ले लिया था।फिर बोले- ‘अरे भाई, जब पैसा आ जाता है तब गीदड़ भी खुद को शेर समझने लगता है?
वह २००६ का साल था।गंबीर चंद्र कौशांबी में तैनात थे।नया जिला था तो कमाई भी कुछ खास न थी।कुछ चिड़चिड़े होने लगे थे गंबीर चंद्र।आर.टी.आई. पत्र का जवाब ड़ेढ महीने बाद मिला था।लिखा था- ‘आपके पत्र संख्या… दिनांक… के बारे में लॉ सेक्शन से राय मांगी गई थी।लॉ सेक्शन की राय के क्रम में अवगत कराना है कि आपके नाम परिवर्तन का कोई औचित्य नहीं पाया गया।’
मामला खत्म।उम्मीद खत्म।गंबीर चंद्र उदास हो गए।ऊपर सब वही भरे पड़े हैं।ओबीसी और दलित अधिकारियों से जलते हैं।परेशान करते हैं।वह बड़बड़ाने लगे थे।
एक दिन वह फिर सचिवालय गए।सेक्शन में जाने के बजाए, प्रमुख सचिव से मिलने की पर्ची भिजवाई।मिलने का नंबर शाम को आया।प्रमुख सचिव ने सुना और संयुक्त सचिव के पास भेज दिया था।संयुक्त सचिव ने अनुसचिव को बुलाया।फाइल मंगवाई।देखा।अनुसचिव से वार्ता की। ‘लॉ सेक्शन की राय के बाद अब क्या किया जा सकता है?’ उन्होंने हाथ खड़े कर दिए थे।
‘सर! क्या मुझे लॉ सेक्शन की रिपोर्ट देखने को मिलेगी?’ गंबीर चंद्र ने पूछा था।संयुक्त सचिव ने अनुसचिव की ओर देखा।अनुसचिव ने आंखें दबाईं।मुडी हिलाई। ‘नोटिंग्स और कमेंट्स, गोपनीय होते हैं।उन्हें नहीं दिखाया जा सकता।’
शासन में गंबीर चंद्र की छवि, कानूनबाज अधिकारी की बन चुकी थी।अब कोई उनसे बात करना पसंद नहीं करता।जहां पैसा फेंक तमाशा देखने का रिवाज हो, वहां आर.टी.आई. प्रभावी नहीं होती।इसलिए गंबीर चंद्र ने इस मामले को भुला देना बेहतर समझा।सब कुछ भविष्य पर छोड़, नौकरी करने लगे थे।इस बीच प्रदेश की सत्ता ओबीसी से दलित, दलित से ओबीसी नेतृत्व तक आई और चली गई।
२०१९ में उनका रियाटयरमेंट था।२०१७ में उन्हें पी.ए.सी. की बैठक में शासन जाने का मौका मिला।तब आबकारी विभाग में हेमंत प्रसाद अनुसचिव के पद पर तैनात थे।साहित्यिक अभिरुचि के अधिकारी थे, स्पष्टवादी और व्यवहार कुशल।उनके हाथ में न कलावा दिखा, न अंगूठियां।गंबीर चंद्र के लिए यह एक नया अनुभव था।मौका देखकर उन्होंने बातों ही बातों में अपनी पीड़ा सुनाई।
‘अरे! नाम तो बदला जा सकता है।ऐसा कैसे हुआ कि आपका आवेदन अस्वीकार कर दिया गया।’ हेमंत प्रसाद ने पूछा।
‘लॉ सेक्शन ने मना कर दिया था।’
‘नहीं, लॉ सेक्शन कैसे मना कर सकता है? नाम बदलने की प्रक्रिया है।शासनादेश है।…. खैर, आपकी फाइल देखकर बताऊंगा।’
‘देख लीजिए।कृपा होगी।रिटायरमेंट करीब है।आपसे बाहर नहीं जाऊंगा।’ गंबीर चंद्र के चेहरे पर दयनीयता की छाप दिखाई दे रही थी।
‘एक हफ्ते का समय दीजिए।बताता हूँ।’ हेमंत प्रसाद ने आश्वस्त किया था।
‘जी, शुक्रिया।’
हेमंत प्रसाद ने गंबीर चंद्र की पत्रावली ढुंढवाई।पत्रावली की मोटाई बता रही थी कि लगभग तेईस-चौबीस सालों में अनेक टिप्पणियों और नोट्स से पत्रावली गंधा रही थी।एक बार संयुक्त सचिव ने आदेश करने का प्रयास किया था मगर अनुसचिव की टिप्पणी ने मामला उलझा दिया था।फाइल लॉ सेक्शन जाकर उलझा दी गई थी।हेमंत प्रसाद की निगाह लॉ सेक्शन को भेजी गई टिप्पणी पर अटक गई।
तत्कालीन अनुसचिव ने २००६ में सचिव के सम्मुख पत्रावली प्रस्तुत करते हुए नोट्स लगाए थे- ‘आबकारी निरीक्षक और वर्तमान जिला आबकारी अधिकारी, गंबीर चंद्र ने अपना नाम बदलकर गंभीर चंद्र प्रजापति करने का आवेदन दिया है।हाई स्कूल सर्टिफिकेट में उनका नाम गंबीर चंद्र है।लोक सेवा आयोग ने त्रुटिवश गंभीर चंद्र लिख दिया था।इस आधार पर वह लगातार दबाव बनाकर अपना नाम गंभीर चंद्र प्रजापति करना चाहते हैं।उन्होंने बिना अनुमति के नए नाम का प्रयोग शुरू कर दिया है।यह एक विधिक मामला है।इससे सेवा संबंधी कई समस्याएं पैदा हो सकती हैं।उचित होगा कि इस संबंध में लॉ सेक्शन से राय ले ली जाए।’
‘सहमत।’ सचिव ने टिप्पणी की थी।
उसके बाद रामसुख द्विवेदी ने अपनी टिप्पणी के साथ लॉ सेक्शन को पत्रावली भेज दी थी।उनकी टिप्पणी का अंतिम वाक्य था- ‘क्या किसी सरकारी कर्मचारी का नाम परिवर्तन करने हेतु शासन बाध्य है?’
लॉ सेक्शन ने अंतिम टिप्पणी को अंडरलाइन करते हुए राय दी थी- ‘किसी सरकारी कर्मचारी का नाम परिवर्तन करने हेतु शासन बाध्य नहीं है।’ उसी आधार पर गंबीर चंद्र के प्रार्थना पत्र को निरस्त कर दिया गया था।
हेमंत कुमार को पूर्व अनुसचिव की टिप्पणी शरारतपूर्ण लगी थी।उन्होंने गंभीर चंद्र को फोन मिलाया।एक बार फिर नया आवेदन, दो अखबारों में नाम परिवर्तन के विज्ञापन और शपथ पत्र भेजने का सुझाव दिया।
गंबीर चंद्र ने नए सिरे से इतिहास को दुहराया।पहली शुरुआत देहरादून से हुई थी, अब आजमगढ़ से हो रही थी।एक पश्चिमी छोर, एक पूर्वी छोर।
नाम परिवर्तन की नई फाइल, नए अनुसचिव द्वारा चलाई गई।
हेमंत कुमार के नोट्स इस प्रकार थे-
‘सचिव
महोदय, गंबीर चंद्र, जिला आबकारी अधिकारी आजमगढ़ के संलग्न प्रार्थना पत्र का अवलोकन करने का कष्ट करें।प्रार्थी ने अपने नाम की विसंगति दूर करने के उद्देश्य से नाम परिवर्तन का आवेदन किया है।इस संबंध में दो राष्ट्रीय अखबारों में विज्ञापन छपवाया है जो पताका-क पर संलग्न है।सामान्य प्रशासन अनुभाग, एम.जी.ओ. संख्या २५० के अनुसार सभी औपचारिकताएं पूर्ण हैं (पताका ख)।प्रार्थना पत्र, आयुक्त आबकारी, उत्तर प्रदेश शासन द्वारा संस्तुति सहित अग्रसारित है।सरकारी सेवक के नाम परिवर्तन की प्रक्रिया स्पष्ट है।फिर भी महोदय चाहें तो इस संबंध में लॉ सेक्शन से भी राय ली जा सकती है।’
‘सहमत।’ सचिव ने आदेश दिया।
और गंबीर चंद्र की पत्रावली एक बार फिर लॉ सेक्शन भेज दी गई थी।
हेमंत प्रसाद ने लॉ सेक्शन को अपनी टिप्पणी सहित जो पत्रावली भेजी, उसमें अंतिम पंक्तियां थीं- ‘कोई कर्मचारी सामान्य प्रशासन, एम.जी.ओ. संख्या २५० के अनुसार अगर अपना नाम संशोधन/परिवर्तन हेतु आवेदन करता है और निर्धारित प्रक्रिया का अनुपालन करते हुए इस आशय से दो राष्ट्रीय अखबारों में सार्वजनिक विज्ञापन निकलवाता है, साथ में एक शपथ पत्र भी देता है तो क्या उसके नाम परिवर्तन में कोई विधिक बाधा है?’
‘कोई बाधा नहीं है।’ लॉ सेक्शन की राय थी।
और इस प्रकार गंबीर चंद्र, गंभीर चंद्र प्रजापति बनने में कामयाब हो गए थे।
संपर्क : बी ४/१४०, विशालखंड, गोमतीनगर, लखनऊ–२२६०१०, मो. ९४१५५८२५७७