अक्क महादेवी 12वीं शताब्दी में कर्नाटक की एक विलक्षण संत कवि रही हैं। उनके वचनों में अद्वितीय भाव संपन्नता है। कन्नड़ और अंग्रेजी में उनपर विपुल काम हुआ है। उनके वचनों का ए. के. रामानुजन, एम एम कलबुर्गी, एच. एस. शिवप्रकाश, विनय चैतन्य सहित अनेक विद्वानों ने अंग्रेजी में अनुवाद किया है। हिंदी में भी उनके अनुवाद हुए हैं। केदारनाथ सिंह, गगन गिल, यतीन्द्र मिश्र और कन्नड़ एवं हिंदी के विद्वान काशीनाथ अंबलगे ने इस दिशा में महत्वपूर्ण योगदान किया है। वरिष्ठ कवि एवं पत्रकार सुभाष राय ने हिंदी में पहली बार उनके वचनों के लयात्मक भावांतरण की कोशिश की है। इनका संकलन छपने जा रहा है। यहां उनके द्वारा भावांतरित महादेवी अक्क के कुछ वचन पहली बार प्रस्तुत हैं।
वरिष्ठ कवि-पत्रकार। चार दशकों से पत्रकारिता। संप्रति लखनऊ में ‘जनसंदेश टाइम्स’ के प्रधान संपादक। एक काव्य संग्रह ‘सलीब पर सच’ प्रकाशित। |
1.
अगर कोई जानता हो
नियंत्रित कर सांप का फन
काल को अपनी चुनी धुन पर नचाना
तो सरल है व्याल को संगी बनाना
अगर कोई जानता हो
देह की माया कि केवल देह ही है
जो मनुज को दानवी पथ पर
पटक कर मार सकती है
तो सरल है देह को संगी बनाना
हे शिवा, जो भी तुम्हारे प्रेम में है
मत कहो वह देह में है।
2.
क्या हुआ जो
जिंदगी के पाठ सारे याद तुमको
मृत्यु का अंतिम सबक
पीछा न छोड़ेगा तुम्हारा
क्या हुआ जो अन्न लेते हो नहीं तुम
कुछ नशा करते नहीं तो क्या हुआ
सिद्ध कर ली सांस तो भी क्या हुआ
मग्न हो उपवास में तो क्या हुआ
हे शिवा! जब स्वयं पृथ्वी संतरी हो
भोर चारो ओर
खुद को तब छिपा सकता कहां कोई चोर
3.
आंख का सौंदर्य
संतों को, बड़ों को देखने में
कान का सौंदर्य पुरखों
का मधुर संगीत सुनने में
सत्य भाषण में छिपा
सौंदर्य वाणी का
शब्द भक्तों के सुखद
संवाद का सौंदर्य रचते
वंचितों को दो उन्हें जो चाहिए
हाथ का सौंदर्य है यह
और जीवन का सहज सौंदर्य केवल
भगत जन के साथ रहना
ध्यान से हर बात सुनना।
4.
पढ़ते-पढ़ते वेद गले की फांस बन गए
सुनते-सुनते शास्त्र
हृदय में संशय उपजा
आगम जो दावा करता है तर्क-बुद्धि का
कहता है वह मात्र सबक लेना ही रास्ता
उसे समझकर भी रह गई अधूरी प्रज्ञा
सदा पुराणों ने पिछली गलती दुहराई
उलझन ‘मैं’ की, ‘वह’ की बनी रह गई
ब्रह्म नहीं कुछ भी है प्यारे शिवा!
हमारे ‘पूर्ण शून्य’ में ही विलीन
सारे के सारे।
5.
प्रेम बंधन में बंधे तो
जाति के क्या मायने हैं
प्रेम में पागल हुए तो
शर्म के क्या मायने हैं
प्रेम जिनको शिव!
तुम्हारा मिल गया
उन्हें जग की प्रतिष्ठा में क्या धरा।
6.
छाया बनकर तन का
पीछा करती माया
मन बनकर सांसों का
पीछा करती माया
स्मृति बनकर मन का
पीछा करती माया
विस्मृति बन चेतन का
पीछा करती माया
तरकश में अपने
डरावने शस्त्र संभाले
वह सारी दुनिया के
पीछे पड़ी हुई है
हे प्रभु! तुमने यह
माया का खेल रचा है
कोई जीत न पाया
इससे कौन बचा है।
7.
कोख से जन्मा नहीं वह
जाति का गौरव नहीं है
दुश्मनी पाली न मन में
शक्ति का गौरव नहीं है
शुद्ध तन-मन से रहा वह
गर्व वैभव का नहीं है
कृपा तेरी मिल गई तो
पा लिया उसने असंभव
हे शिवा! बिन देह तेरे
भक्त के मन में किसी भी
बात का गौरव नहीं है।
8.
चांद को मालूम है
आकाश की गहराइयां
परिधि पर जो उड़ रहा कौवा
उसे कैसे पता होगा
कमल को मालूम होगी
नदी की गहराइयां
किनारे पर
लहलहाती घास को कैसे पता होगा
गंध फूलों की
पता मधुमक्खियों को
दूर उड़ती मक्खियों को
क्या पता होगा
सिर्फ तुम ही जानते हो
भक्त मन की अपरिमित गहराइयां
भैंस पर मंडरा रहे इन
पिस्सुओं को क्या पता होगा।
9.
रत्नों की जंजीर अगर हो तो क्या
वह बंधन न बनेगी?
जाल मोतियों से निर्मित हो तो क्या
वह बंधन न बनेगी?
सोने की तलवार अगर हो और किसी के
गर्दन पर वह चल जाए तो
क्या वह जिंदा बच पाएगा?
चेन्न मल्लिकार्जुन बोलो तुम
दुनिया के सुख में
जिसका मन रमा हुआ है
जन्म-मरण के बंधन से क्या बच पाएगा?
10.
ज्ञान सूरज की तरह है
भक्ति उसकी किरण जैसी
बिना सूरज के
नहीं अस्तित्व किरणों का
और किरणों के बिना सूरज कहां
मल्लिकार्जुन, फिर बताओ
ज्ञान बिन है भक्ति कैसी
भक्ति बिन है ज्ञान कैसा।
(1. वीरशैव मानते हैं कि इष्टलिंग की दीक्षा के बाद ही भक्त का जन्म होता है, मां की कोख से नहीं)
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