युवा कवि। एक ग़ज़ल संग्रह ‘चीखना बेकार है’।
१
भूख से हैं त्रस्त आंतें, बिलबिलाता पेट है
ज़िंदगी जैसे कोई जलती हुई सिगरेट है
आदमी तन्हा यहां क्यों जबकि हरदम साथ-साथ
ह्वाट्सएप है, फेसबुक है और इंटरनेट है
हर जरूरत के लिए हर सिम्त है इक मार्केट
किंतु खाली जेब है तारीख़ ट्वेंटी-एट है
कब न जाने लौटकर आ जाए तू ये सोचकर
इस मकाने दिल पे चस्पा आज तक ‘टू-लेट है’
मैं यहां की भव्यता को देखकर हैरान हूँ
आदमी बौने घरों में किंतु ऊंचा गेट है
वो जमाना और था, ईमान जब बिकता न था
ये जमाना और है, अब हर किसी का रेट है
‘नज़्म’ दिल जुड़ता भी कैसे,‘अर्थ’आड़े आ गया
क्या करे लड़की अगर थोड़ी-सी ओवरवेट है|
२
चील-कौवे, बाढ़, लाशें, नाव, पानी देखिए
आंकड़ों में देश की स्वर्णिम कहानी देखिए
सूखते तालाब में जिंदा हैं कैसे मछलियां
केचुओं के जिस्म पर चस्पा निशानी देखिए
राष्ट्र की इस नींव को दीमक लगी है चाटने
आप आतिशबाजियां ही आसमानी देखिए
कुर्सियों की कामना मातम धुनें फिर से बजें
खिलखिलाती ड्रैकुला की राजधानी देखिए
मैं उजाले के निकट आ कर के भी हैरान हूँ
स्याह रातों की बुनी सच्ची कहानी देखिए
कोर्ट से वह छूट आया बन नपुंसक ही सही
आप बेबस पेट में पलती निशानी देखिए
हिंदू-मुस्लिम से इतर मुद्दे यहां खामोश हैं
ये हमारे वक्त की मुर्दा जवानी देखिए।
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