ओड़िशा साहित्य अकादमी पुरस्कार से पुरस्कृत कवयित्री। एक निबंध संग्रह और दो उपन्यास प्रकाशित।
वरिष्ठ अनुवादक।
पक्षियों को दाना चुगा सकती हूँ
रसोई में नमक की तरह रह सकती हूँ
गिरते तारों को आंचल में सहेज सकती हूँ
तभी तो
बार-बार कविता तक आती हूँ
तुम पैर पटकते हो
पैंफलेट छापते हो
घर-घर घूमकर
कविता क्या है समझाते हो
लोगों को बाध्य करते हो
उनींदे लोगों को
जरा-सी मुलायम नींद दे सकती हूँ
तभी तो
बार-बार कविता तक आती हूँ
एक अरसा पहले
इतना दुख इतनी खामोशी नहीं थी
लोग बांट-बूंटकर खाते थे
एक-दूसरे का गला नहीं काटते थे
लोग धरती पर तपते समय में
ठंड से कांपते नहीं थे
हमें छल और अभाव के विरुद्ध लड़ना है
तभी तो बार-बार कविता तक आती हूँ
तुम्हें अपना संकल्प याद करा दूंगी
तूफान से जूझ सकूंगी
आनेवाले दिन के एकाकीपन के लिए
दोनों पैर थापे रख सकती हूँ
पीठ पर छुपे चाकू से बतिया सकती हूँ
तभी तो
बार-बार कविता तक आती हूँ
किसी-किसी की उदासी
मुझे बेचैन कर देती है
किसी-किसी का निर्दोष मोह
मुझे मुंह खोलने पर मजबूर कर देता है
किसी-किसी का विरल ऐतिहासिक धैर्य
अधीर कर देता है
अकारण अपमान के बोझ से
कभी भी सिर उठा न पानेवालों के लिए
मैं बार-बार कविता तक आती हूँ
तुम क्या सोचते हो
मेरा गला घोंट दोगे
विश्वास करो
तब भी मेरी सांसें चल रही होंगी
कविता की तरह।
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