वरिष्ठ कथाकार।अब तक दस कथा संकलन प्रकाशित।चार काव्य संकलन, दो उपन्यास, दो व्यंग्य संग्रह के अतिरिक्त संस्कृति पर विशेष काम।
एक जिद्दी बच्ची
(कारगिल की ग्यारह हजार फुट की बुलंदी पर अंतिम गांव हुंदरमान ब्रुक में एक नन्ही बच्ची हैंडपंप से पानी निकालती हुई खेल रही थी।सामने चोटी पर तिरंगा फहरा रहा था, जो नजरों से नहीं देखा जा सकता था।तिरंगे के आसपास भारतीय सैनिकों की अंतिम पोस्ट।इस गांव से पहले की पोस्ट में भी बाहरी लोगों को चेकिंग के बाद गांव तक जाने की इजाजत है।)
जिद है
अपने हैंड पंप से पिएगी पानी
पहाड़ के उस ओर बेगानी धरती में भी हैं
मीठे पानी के चश्मे
होते रहें अपना तो अपना होता है
नहीं जानती जिद्दी बच्ची
क्यों रह-रह कर कांप उठते
विशालकाय बूढ़े पहाड़
कहां से आतीं घमासान आवाजें
जो भेद जातीं एक पहाड़ से दूसरे
और दूसरे से तीसरे तक
कांप उठता नन्हा कलेजा
इन्हें जगाता कौन इन्हें हिलाता कोैन!
ये चल कर दूसरी जगह क्यों नहीं जाते!
जूले… जूले करते!
क्यों चढ़ते जाते भारी बोझ उठाए सैनिक
ऊपर ही ऊपर
नंगे पहाड़ पर
क्या है वहां!
न पानी न घास न जीव न जंतु
बस तीख़ी धूप, तेज हवा है
जो जला डालती चमड़ी
चोटी पर की छांव में
वीराने में
क्यों बनाया ठिकाना
तुम्हारा कोई नहीं है क्या
घर गांव, सगा संबंधी!
कोई बच्चा भी नहीं है तुम्हारे घर
जो दे जाते कुरकुरे बिस्कुट!
क्यों आ गए बर्फ में गलने!
पहाड़ सोखते हैं बर्फ से पानी यकसां
पहाड़ देते हैं पानी बरोबर
इधर भी, उधर भी
दोनों जगहों पर पानी में
घुलता है आदमी का लहू यकसां
पानी वहां भी वैसा ही है
पानी यहां भी ऐसा ही है
इधर की धरती अपनी है
तो पानी भी अपना है
वह पहाड़ की चिड़िया नहीं कि
उड़ कर चली जाए दूसरी ओर
पता है उसे चोटी पर रहते हैं बारहों महीने
एक सी वर्दी पहने
कोई आदमी जैसे आदमी
वह झूलती है हैंडपंप से बेफिक्र, अलमस्त
जब जितनी बार चाहे।
नहीं मरती कभी घास
वह तिनका तिनका होकर बिखर गया
यह आदमी का मुहावरा है, घास का नहीं
घास नहीं बिखरती तिनका तिनका
इकट्ठी रहती है
गट्ठर में रहती है घास
समूह में जीती है
जड़ों से कोंपल तक
इकट्ठी उगती है, इकट्ठी जलती है
घास तो लहलहाती है नदी की तरह
जैसे बह रही हो लहर लहर
घास का पृथ्वी पर होना
शरीर पर चमड़ी का होना है
घास है मां के शरीर पर रोएं
जिनसे खेलता है बच्चा रोमांच से
ढकती है घास पृथ्वी के नंगेपन को
बेशक घास बिना
नहीं होती पृथ्वी नंगी
घास बीजता नहीं कोई
उगती है खुद हर जगह
घास जलती है तो और उगती है
पृथ्वी ही नहीं, पानी पर भी उगती है घास।
घास बनती बिछौना
घास बनती घर
सूख कर जीवन देती है घास
मर कर और जिंदा हो जाती है
घास चाहे हरी हो या सूखी
जीवन देती है
सूखी घास दूब हो जाती है पूजा के लिए
कुशा हो जाती है पवित्रता के लिए
नहीं डरती घास आंधी तूफांन ताप शीत से
तिनका तिनका होकर नहीं बिखरती घास।
संपर्क :‘अभिनंदन’ कृष्ण निवास, लोअर पंथा घाटी, शिमला–१७१००९ मो.९४१८०८५५९५