विगत तीन दशकों से लेखन में निरंतर सक्रिय।  अभी तक  5 कहानी संग्रह और एक उपन्यासमनस्विनीप्रकाशित।

वह मेरे सामने खड़ी थी। काफी समय से उसके आने की आहट हम दोनों की आपसी सरगोशियों में थी। घर में काम करने वाली लाली उसे लेकर आई थी। नाम भी भला सा था, रंजना। शहरी-सा नाम। लगभग 32-33 साल की होगी। दरअसल मेरा सर्वेंट-क्वार्टर काफी समय से खाली पड़ा था और मुझे एक अदद परिवार की तलाश थी। घर में काम करनेवाली लाली मुझे भरोसा देती रहती थी कि बच्चों के इम्तिहान खत्म होते ही वह उसे बुला लेगी। वह आने को तैयार है। मैं संतुष्ट हुई थी, लेकिन उसके तीन बच्चे होने की बात पर थोड़ा कसमसा गई थी।

‘अरे दीदी जी आप फिक्र मत करो…बहुत अच्छी है। फिर आपके उधर की ही है। आप चाहती भी तो पहाड़ी हैं न… तो इसे रख लो। मेरी बहन पहाड़ में ब्याही है, इसके मायके के गांव में। बहुत भली है। खूब सेवा भाव वाली है, मिलेगी नहीं ऐसी…’

‘लेकिन तुम बता रही हो कि उसका पति दिल्ली में रहता है। फिर उसके तीन बच्चों की जिम्मेदारी कौन लेगा। बच्चे बीमार भी तो पड़ते हैं। हम दोनों खुद को देखेंगे कि उसके बच्चों को?’ मैंने अपनी शंका जाहिर की।

‘पति आता-जाता रहेगा दीदी। उसकी एक ननद यहीं शहर में रहती है। वह भी आती-जाती रहेगी। कुछ दिनों में वह खुद होशियार हो जाएगी।’

मुझे काम की इतनी परेशानी नहीं थी, जितनी साथ की आवश्यकता थी। इकलौती बेटी अनाया नौकरी करती थी। हम उसकी पसंद के लड़के से उसका विवाह कर जिम्मेदारियों से निवृत्त हो गए थे। इतने बड़े घर में पति और मैं। घर बहुत सूना-सूना सा लगता। वैसे भी सर्वेंट-क्वार्टर में हमेशा से एक परिवार रखने की आदत थी। लेकिन कोरोना काल बीच में आ गया। बहुत-सी संभावनाएं खत्म हो गईं। पहाड़ के गांवों से बच्चों की अच्छी पढ़ाई की इच्छा रखने वाले शहरों का रुख करते परिवारों के पांव अचानक थम गए थे। क्योंकि न स्कूल खुले थे और न ही बच्चों के पिताओं के लिए नौकरी थी। शहर आने का कोई प्रयोजन शेष न रह गया था।

हां, तो वह मेरे सामने खड़ी थी। लगभग मेरी बेटी अनाया की उम्र की। गुलाबी रंगत लिए पहाड़ी दूधिया गोरा रंग, ठीक-ठाक नैन-नक्श, मध्यम कद, लेकिन काफी दुबली-पतली। चेहरे पर एक आमंत्रित करने वाला स्नेहपूर्ण प्यारा-सा भाव।

‘क्या नाम है तुम्हारा?’ जानते हुए भी मैंने पूछा।

‘रंजना’, वह हँसकर पैर छूती हुई बोली। बड़ों के पैर छूना पहाड़ी परंपरा है। पहली बार में ही उसकी निश्छल हँसी ने मन को कुछ बांध लिया।

‘पहले कभी काम किया है किसी के घर?’

‘नहीं मैम… पहली बार आई हूँ… अपने गांव से बाहर। अभी अपनी ननद के घर आई हूँ। अगर आप इजाजत दोगे तो एक हफ्ते में अपने बच्चों को लेकर आ जाऊंगी।’

‘और तुम्हारा पति…?’

वह थोड़ी देर चुप रही। ‘तुम किसके साथ आई हो?’ मैंने दूसरा सवाल किया।

‘मेरा पति दिल्ली में नौकरी करता है मैम… मैं ननद के साथ आई हूँ। बाहर खड़ी है।’

‘अंदर बुलाओ उसे।’ पलभर में रंजना की ननद मेरे सामने नमूदार हो गई। अच्छी, भरी पूरी तंदुरुस्त। रंजना के मुकाबले मुझे वह कुछ अधिक तंदुरुस्त लगी। मैंने उसे ऊपर से नीचे तक निहारा।

‘अगर तुम और तुम्हारा पति इसके दुख-सुख की जिम्मेदारी लोगे तो मैं इसे रख सकती हूँ। बच्चों से मुझे कोई असुविधा नहीं है। बच्चों का खेलना या शोर करना मुझे अधिक परेशान नहीं करता। लेकिन किसी भी मुश्किल में तुम हाजिर रहना।’ मैं उसके चेहरे के भावों के पीछे की सचाई को पकड़ने का असफल प्रयास करती हुई बोली।

‘बिलकुल दीदी जी। आप फिक्र मत करो। मैं आती-जाती रहूंगी।’

‘ठीक है, अभी तो इसे काम सीखने में एक महीना लगेगा। तब तक कुछ काम लाली ही करती रहेगी। एक महीने बाद मैं इसकी तनख्वाह बढ़ा दूंगी… तब लाली सिर्फ सफाई का ही काम करेगी।’ फिर मैं रंजना की तरफ मुखातिब हुई। ‘ठीक है रंजना…?’

‘जी दीदी जी… मैं कल ही गांव चली जाती हूँ… एक हफ्ते के अंदर बच्चों के साथ आ जाऊंगी।’

‘तेरा पति एक बार भी मिलने नहीं आएगा क्या?’ मैं आश्चर्य से बोली। उसने एक असहज दृष्टि ननद पर डाली।

‘दीदी जी, मेरा भाई कुछ दिनों में आ जाएगा। आप चाहो तो फोन से बात करा दूंगी।’

‘ठीक है, करा दो।’

रंजना की ननद ने फोन मिला कर मेरे हाथ में पकड़ा दिया। मैंने उसके पति से बात की तो सबकुछ स्वाभाविक सा ही लगा।

‘ठीक है, अब तुम जाओ… जितनी जल्दी हो सके आ जाना।’ दोनों ननद-भौजाई चली गईं।

एक हफ्ता बीत गया। मार्च के महीने में जाती ठंड जमकर हुई बारिश ने वापस लौटा दी। पहाड़ी रास्तों पर भू-स्खलन होना आम बात है। उसका आना दो हफ्तों के लिए टल गया। उन ननद-भाभी दोनों का फोन नंबर मैं नहीं ले पाई थी, इसलिए पता भी नहीं कर पा रही थी। जब उसके आने का पक्का हो गया था तो बात बड़ी सहज लग रही थी और मन में अनेकानेक अनजानी आशंकाएं सिर उठा रही थीं। लेकिन अब कोई खबर न होने से दिल कर रहा था ‘काश आ जाए’। मुझे वास्तव में उसकी बहुत जरूरत थी।

ऐसे में एक दिन उसकी ननद आ धमकी।

‘अरे कहां गई तुम्हारी भाभी… कितने दिन हो गए। अब तो बारिश भी बंद हो गई।’ उसे देख मैं उतावलेपन से बोली।

‘दीदी जी… थोड़ा खर्चे की दिक्कत थी। गांव से परिवार उठाना है। भाई पैसा भेजेगा तभी तो आएगी।’

‘तेरा भाई यहां तीन बच्चों को पढ़ाने की बात सोच रहा है और उन चारों का गांव से शहर तक आने का किराया भी नहीं है उसके पास!’ मैं क्षुब्ध स्वर में बोली।

‘ऐसी बात नहीं दीदी जी, गांव में घर ठीक कराया है। जहां काम करता है, वहां से पैसा उधार लेकर। काफी पैसा कट रहा है। इसलिए थोड़ी दिक्कत हो रही है।’ न जाने क्यों, बोलते हुए मुझे वह कुछ असहज सी लगी।

‘यह तो एक अलग मुसीबत है।’ मैं सोच में पड़ गई, ‘तेरी भाभी रहना-खाना तो कमा लेगी लेकिन तीनों बच्चों की फीस तो उसे भेजनी ही पड़ेगी। मेरे भरोसे मत रहना कि अभी पैसा नहीं आया, दे दो। सैलरी में काट लेना।’ झुंझलाहट मेरे स्वर में न चाहते हुए भी स्पष्ट हो उठी थी।

‘नहीं बीबी जी… ऐसा कुछ नहीं होगा। रंजना एक-दो घर बाहर पकड़ लेगी।’

अब बात कुछकुछ समझ में आ गई, ‘रंजना कोल्हू का बैल है क्या? तीन बच्चों का काम करेगी। हमारा काम करेगी। शहर में रहने के लिए उसे बिजली पानी के साथ दो कमरे रहने को मिल रहे हैं, साथ में अच्छी भली तनख्वाह। उसके बाद दो घर बाहर करेगी। मुझे नहीं चाहिए। तुम उसके लिए कोई और घर देख लो।मैं तल्खी से बोली, ‘काम तो मेरा लाली कर ही रही है। जिस कारण मैं यहां पर परिवार रखना चाह रही हूं, वह प्रयोजन मेरा पूरा नहीं होता है तो उसे रखने का क्या फायदा।

रंजना की ननद कुछ सहम गई। अच्छा खासा घर मिल कर छूट जाने का भय हो गया। बात मात्र रंजना के बाहर काम करने की नहीं थी, पर किसी स्त्री को इस तरह अंदर-बाहर मरते-खपते देखकर मेरा स्त्रीवादी मन उछाल मारने लगता है। मुझे पता है इन लोगों के पतियों का ध्येय पत्नी को गुलाम समझने से अधिक कुछ नहीं होता। खुद चाहे वह अपनी आधी तनख्वाह पीने-खाने में खर्च करे, पर बीवी उसे 24 घंटे में से 18 घंटे काम करती दिखनी चाहिए।

वह दुबली-पतली नाजुक-सी लड़की कैसे अपने तीन बच्चों का काम करेगी, उनको समय से स्कूल छोड़ने-लेने जाएगी। हमारा सारा काम करेगी। उसके बाद समय ही कहां बचेगा उसके पास कि वह कहीं बाहर काम करे। खैर मेरा यह सख्त निर्णय ठीक ही रहा।

लगभग एक हफ्ता और बीत जाने के बाद रंजना गांव से अपने बच्चों के साथ आ गई। अपने तथा बच्चों के कपड़े व गैस चूल्हे के अतिरिक्त उसके पास जीवनयापन का कुछ विशेष सामान मुझे नहीं दिखा। लेकिन एक ही दिन में उसकी ननद ने एक क्वार्टर बेड व गद्दा खरीद लिया। गैस सिलेंडर का इंतजाम कर दिया। कुछ बरतन भी अपने घर से ले आई। दो तकिये, दो चादरें व दाल-मसाले रखने के लिए डिब्बे वगैरह मैंने दे दिए। आलमारी तथा कुछ अन्य जरूरत का सामान कमरे में पहले से था। गई रात तक रंजना की गृहस्थी बस गई, जिसमें केवल पति नदारद था। क्योंकि रात तक सास भी जो ननद के घर पर रह रही थी, रंजना के साथ रहने आ गई थी।

रंजना मेरे क्वार्टर में क्या आई, जैसे पूरा ससुराल साथ ले आई। सास तो साथ थी ही। ननद भी जब-तब अपने बेटा-बेटी सहित आ धमकती और गाहे-बगाहे रंजना के ननद का पति भी। कभी-कभी पूरा परिवार ही रात में यहीं रुकने लगा। सर्वेंट क्वार्टर में रहने वालों को मेरे निर्देश रहते थे कि रात नौ बजे तक गेट पर ताला अवश्य लगा दें। उसके बाद जरूरत हो तो खोल लें। लेकिन यहां तो रात 11 बजे तक न ही गेट का ताला बंद होता और न ही बाहर की अनावश्यक लाइट ही। क्योंकि रंजना एक तो बहू-भाभी थी, दूसरा शहर पहले-पहल आई थी। उसे खेतों में एक ही तरह के काम करने की आदत थी। मेरे घर में उसे डस्टिंग से लेकर खाना बनाना, कपड़े मशीन से निकालना फैलाना, प्रेस आदि सारे ही काम करने थे। यूं तो दो लोगों का काम ही कितना होता है, फिर अभी बरतन-सफाई का काम लाली कर रही थी। मैं रंजना को कुछ सिखाना चाहती, लेकिन उसे अपनी ससुराल से फुरसत मिले तब न।

काफी दिन गुजर गए। रंजना को न काम करने का समय मिल पा रहा न सीखने का। तब मुझे सख्ती से कदम उठाना ही पड़ा। उसकी सास को बुला कर मैंने कहा कि यहां पर हमने कमरे सिर्फ अपने यहां काम करने वालों के लिए बना रखे हैं। उनके परिवार का कोई निजी सदस्य दो-चार दिन से अधिक यहां नहीं रह सकता।

पता नहीं बुरा मान कर या मेरी बात समझ कर सास तीसरे दिन गांव चली गई। सास के जाने से ननद के परिवार का रोज-रोज आना कुछ कम हो गया। मेरे साथ ही रंजना ने भी चैन की सांस ली। अब उसे समय मिलने लगा। सुबह उसकी ननद की बेटी सीमा रंजना के बेटे को स्कूल के लिए लेने आती। बाद में पता चला कि बेटा तो पहले से ही अपनी बुआ के पास रह कर पढ़ रहा था। रंजना की बड़ी बेटी 12 साल की और सबसे छोटी बेटी मात्र तीन साल की थी।

‘तुमने बताया नहीं कि तुम्हारा बेटा पहले से ही यहां रह रहा था?’ मैंने रंजना से पूछा। जवाब में कुछ नए रहस्य उजागर हुए।

‘दीदी जी…’ अब वह मेरे कहने पर मुझे मैम से दीदी कहने लगी थी, ‘मेरी बड़ी बेटी गांव में अपनी चाची के पास रह रही थी तीन साल से… मेरे साथ सिर्फ मेरी छोटी बेटी थी। मैं तीन-सवा तीन साल से मायके में थी।’

‘अरे, पर क्यों?’ आश्चर्यचकित मेरी आंखें उसके चेहरे पर टिक गईं। संभवतः उसके कहने से पहले ही सत्य की कुछ पहचान कर लूं। लेकिन उसका चेहरा तकरीबन निर्विकार था, कुछ ऐसा भी कि वह सत्य को झूठ का आवरण अब अधिक नहीं चढ़ा सकती।

‘मेरे पति ने मुझे सवा तीन साल से छोड़ा हुआ था।’

‘सवा तीन साल से छोड़ा हुआ था? लेकिन तेरी छोटी बेटी तो लगभग इतने ही साल की है न…’ मैंने उसकी हां ना में अपनी बात का प्रमाण चाहा।

‘मेरी बेटी, तीन साल की है दीदी…।’ उसकी आंखों के कटोरे कुछ मजबूरी और कुछ अपमान से झुलस कर भर गए। ‘मेरा पति रमेश दिल्ली से दो-दो साल तक घर नहीं आता था। न ही ठीक से खर्च भेजता था। मैंने दसवीं पास की है, वह आठवीं भी नहीं है। ड्राइवर है। अच्छी तनख्वाह मिलती है उसे। जहां रहता है, वहां खाना-रहना फ्री है। फिर खर्च कहां हो जाता है कि अपने पहले दो बच्चों को भी पालने और पढ़ाने-लिखाने के लिए उसके पास पैसे नहीं होते थे। उसके नाम मात्र का खर्च भेजने पर मैंने सड़क निर्माण के काम पर लग कर मजूरी की। गारा-बजरी-पत्थर ढोया। खेत में सब्जी उगाकर बेची। तब जाकर बच्चों का खर्च निकाला। लेकिन घर में तब रमेश की मां-बहन ने मेरा जरा भी साथ नहीं दिया। उल्टा सास ने मुझ पर जब-तब हाथ उठाया। ननदों ने बुरा-भला कहा। गाली-गलौच की। जब पति अपना नहीं होता है न दीदी, तो सारा संसार दुश्मन हो जाता है। उनके लिए तो उनका बेटा परदेश में अकेला रहकर कितनी मुश्किल से कमा कर भेजता है और मेरा कुछ नहीं जो बच्चे पैदा करें। उसके घर वालों की चाकरी भी करें, फिर अपना और बच्चों का पेट पालने के लिए मजूरी भी करें। जब इस बात पर मैंने सवाल उठाया तो हम दोनों में लड़ाई होने लगी। फिर भी उसके खाने-पीने पर ही पैसे फूंकने की बात दिमाग में थी। उन दिनों वह दो साल बाद घर आया था, लेकिन लड़ाई की वजह से 3-4 ही दिन में ही चला गया। सबने मुझे ही जली-कटी सुनाई।’ कह कर वह चुप हो गई।

‘फिर क्या हुआ?’ मैं उसकी कहानी जानने के लिए उत्सुक हो गई थी। वह थोड़ी देर तक अपने अंदर उमड़ आए ज्वार-भाटे के फलस्वरूप बह आए आंसुओं के सैलाब को पोंछती रही। हर वक्त हँसती-मुस्कुराती रहनेवाली वह दुबली-पतली लड़की अपने अंदर काले बादलों का एक पूरा आकाश समेटे बैठी थी। उसे बस थोड़ी-सी सांत्वना के हरे पेड़ों की जरूरत थी, जिनसे टकरा कर वह बरस जाए।

‘कह दो। घबराओ नहीं।’ मैंने उसके कंधे पर भरोसे का हाथ रखा, ‘कहने से तुम्हारा दिल हल्का हो जाएगा।’ स्वच्छ आकाश में ही चंद्रिका छिटकती है। मैंने मन ही मन सोचा। थोड़ी देर बाद वह प्रकृतिस्थ हुई।

‘दीदी जी, गांव से और भी लोग दिल्ली में काम करते हैं। उन्हीं में से गांव के एक लड़के से मुझे पता चला कि वह बहुत समय से एक औरत के साथ रह रहा है। इसीलिए गांव कम आता है।’

‘अरे! तुमने कुछ कहा नहीं…?’ मुझे मन में कुछ ऐसा ही अंदेशा हो चला था, इसलिए आश्चर्य नहीं हुआ।

‘पहले तो विश्वास ही नहीं हुआ दीदी जी…।’ वह फिर आंसुओं के सैलाब में डूब गई। गांव की सरल बाला जिसके लिए पति-पत्नी के रिश्ते सात जन्मों के रिश्ते होते हैं। उसे क्या पता था कि उसका पति गांव की सरलता को शहरी चोले के साथ घोल कर पी गया है।

‘मैंने जब उसे यह बात फोन पर पूछी’, वह आगे बोली, ‘तो गांव के उसी लड़के को गाली देने लगा। उसी को बदमाश बताने लगा। उसी से मेरा रिश्ता जोड़ने लगा, यह कहकर कि वह तुझसे अकेले कब आकर बात करता है। गांव का लड़का है दीदी। भले ही सभी को राखी बांध कर भाई नहीं बनाते हैं, पर क्या श्रद्धा और विश्वास का कोई रिश्ता नहीं होता है? मैंने कहा, दो बच्चे पहले से हैं, तीसरा बच्चा पेट में है…तुम खर्चा भेजते नहीं हो मैं कैसे पालूं इन तीनों को.. तो गाली देते हुए बोला,

‘तीसरा बच्चा कहां से आ गया छिनाल। मैं  2-4 दिनों के लिए ही घर पर था। उसपर एक ही दिन तेरे साथ रहा। रोज तो लड़ जाती थी। पता नहीं किसका है। मेरा बच्चा नहीं है यह। जरूर उसी का होगा। मैं नहीं पालूंगा इसे और तुझे भी देख लूंगा।

‘दीदी यह सच है कि वह सिर्फ चार रोज ही गांव में रहा था और आने के पहले दिन ही हम साथ रहे थे। उसके बाद खर्चे को लेकर हमारी रोज लड़ाई हो जाती थी। मेरे लिए बच्चों को पालना कठिन हो रहा था। लेकिन उस एक दिन का संबंध यह गुल खिला देगा सोचा न था। अपनी बदमाशी छिपाने के लिए वह दूसरे ही दिन गांव आ गया। परिवार वालों के सामने मुझे झूठा ठहरा दिया। मैं गर्भवती थी। मुझ पर हाथ उठाया। बड़ी बेटी से पूछा, कि वह लड़का घर कब आया था, कब बात हुई। छोटी बच्ची क्या जाने इस बात का मतलब। उसने कह दिया। मां और वह चाचा कमरे में बैठ कर बात कर रहे थे। उसके बाद कहने को कुछ रह ही नहीं गया।’

मैं सब समझ रही थी। शक का इलाज तो हकीम लुकमान के पास भी नहीं था। सीता की अग्नि परीक्षा हर युग में होती है। रंजना के पति रमेश के पक्ष में बोलने वाली भी स्त्रियां ही थीं। रमेश की मांबहन के रूप में और रंजना की जिंदगी का नासूर भी ये स्त्रियां ही बनीं और बेटी के एक नाबालिग से बयान ने उसे इतने वर्षों का वनवास दे दिया।

फिर क्या हुआ?’ मेरे प्रश्नों का कोष अभी खत्म नहीं हुआ था।

‘फिर क्या होना था, सब एकतरफ हो गए। मैंने बहुत मिन्नतें की, कसमें खाईं, हाथ-पैर जोड़े। लेकिन कहावत है न दीदी कि औरत का चरित्र आईने की तरह होता है, जिसपर पड़ा बाल क्या उसका साया भी दिखता है। किसी ने भी मेरी एक न सुनी। रमेश किसी औरत के साथ रह रहा था, यह बात कौवों की कांव-कांव में दब गई। मैं सबके मानसिक व शारीरिक अत्याचारों से घबराकर लगभग 6 महीने का गर्भ लेकर बिना किसी को बताए मायके चली गई। सबकी मार-डांट, झूठा लांछन सहती रहती तो घर में नौकरानी जैसी बनी रहती। मेरे दोनों बच्चों को ससुराल वालों ने अपने पास रख लिया। मैं अकेली जान उन्हें पालती भी कैसे। 4 महीने बाद छोटी बेटी पैदा हुई। इस बेटी का पिता कौन है, यह रमेश अच्छी तरह जानता था। लेकिन दूसरी औरत के मोह में अंधा होकर उसने मेरे साथ-साथ हमारे मासूम बच्चों को भी सजा दे दी। बड़े दोनों बच्चों ने मां को लगभग 3 साल बाद देखा। छोटी बेटी अपने सगे भाई-बहन से पहली बार मिली और अपने बाप को उसने अभी तक नहीं देखा।’

मैं किंकर्तव्यविमूढ़-सी उसकी लगभग काल्पनिक सी लगने वाली सच्ची कहानी सुन रही थी। साथ ही मुझे रंजना की तुलना में अपनी बेटी अनाया याद आ रही थी, अनाया की उम्र विवाह के समय 30 साल थी। उसके विवाह को 5 साल हो गए थे। लेकिन प्रेम विवाह होने के बावजूद उसका वैवाहिक जीवन पिछले डेढ़-दो सालों से तनाव में गुजर रहा था। बातें नितांत छोटी-छोटी व बचकानी सी ही थीं, लेकिन अपनी ही बेटी सही, इस नई पौध को कुछ बातों में समझाना टेढी खीर है। उनके दिमाग में स्त्री-सशक्तिकरण की खोखली इमारत हर वक्त बुलंद रहकर जगमग करती रहती है। हमारे जैसे संपन्न घरों की लाडली बेटियां जिन्हें बिन मांगे ही सबकुछ हासिल हो जाता है आखिर जिंदगी से चाहती क्या हैं? कौन से समानाधिकार के लिए लड़ती-फिरती हैं? सारे अधिकार सोने की थाली में परस कर मिल जाने के बावजूद वे सोचती हैं कि जो कानून स्त्रियों के पक्ष में बने हैं, बस उन्हीं के लिए हैं। स्त्री के समान अधिकारों की जितनी भी बातें होती हैं, वे सब उनके लिए ही होती हैं। रंजना जैसी स्त्रियां उनके दिमागों में नहीं आतीं।

उनकी सोच में रंजना जैसी स्त्रियों को अधिकारों से क्या लेना-देना। लोग यह कहकर सिर झटक देंगे, ‘अरे इन लोगों में तो यह सब चलता ही है!’ पर यह कहां नहीं चलता है? यह विराट प्रश्न है। रंजना जैसी स्त्रियां जो मजूरी करके भी बच्चे पालती हैं, स्त्री सशक्तिकरण के खोखलेपन के जबरदस्त उदाहरण हैं। वे भीषण परेशानियों का मुकाबला अपनी सहनशक्ति से करती हैं। बस अगर कमी है इनमें तो अपने लिए लड़ने की भावना। यह सब इन्हें बताएगा कौन? क्या शिक्षा जो इन्हें थोड़ी-बहुत बस किताबी ही प्राप्त होती है।

‘दीदी जी’,  वह मुझे चैतन्य करती हुई बोली, ‘रमेश को तो मुझसे छुटकारा पाने के लिए बहाने की तलाश थी। उसने मुझे तलाक का नोटिस भिजवा दिया। लेकिन दीदी मैंने भी प्रण कर लिया था कि तलाक मैं किसी सूरत में नहीं दूंगी। इल्जाम वह मुझ पर लगा चुका था। बेइज्जत, बदनाम कर चुका था। इसलिए अब मुझे अपनी नहीं सिर्फ अपने तीनों बच्चों के भविष्य की चिंता थी। कोर्ट केस चला। रमेश का केस वकील ने लड़ा, अपना केस मैंने खुद लड़ा।’

‘क्या..?’ उसके खुद केस लड़ने के नाम पर मेरे सामने एक फिल्मी दृश्य चित्रित हो गया था। गांव की एक साधारण भीरू-सी लड़की ने अपने बचाव में क्या बोला होगा।

‘तुमने कैसे बचाव किया अपना वकील के सवालों से..?’ मैं आश्चर्यचकित-सी बोली।

‘मुझे अपना बचाव नहीं करना था दीदी जी… बल्कि आक्रमण करना था। उसके चरित्रहीनता के पुख्ता सबूत मैं जुटा चुकी थी। लेकिन मैंने कहा कि मैं फिर भी तलाक नहीं देना चाहती, क्योंकि मेरे तीन बच्चे हैं जिन्हें पिता की आवश्यकता है। ससुराल में मुझे जिस हाल में भी रहना होगा मैं रहूंगीं’

‘फिर क्या हुआ?’

‘फिर क्या होना था… रमेश तो तलाक देने पर तुला था। मैंने कहा, ठीक है, मुझे अपने लिए कुछ नहीं चाहिए, लेकिन तीनों बच्चों का खर्च इनका पिता उठा ले और बच्चे मेरे पास रहेंगे, क्योंकि इसने दूसरी औरत रखी हुई है और सास बूढ़ी है। कोर्ट ने अपना फैसला सुना दिया। अगर रमेश मुझे तलाक देता है तो उसे भरण-पोषण का खर्च देना पड़ेगा। बस यहीं पर आकर रमेश ने हथियार डाल दिए और मुझसे सुलह कर ली।’ रंजना विजय भाव से मुस्कुराई।

उस भीरू-सी लड़की की मुस्कान मुझे किसी बड़े प्रतियोगी परीक्षा में सफल हुई लड़की या फिर उच्च पदस्थ महिला की गर्वीली मुस्कान से कम नहीं लगी, जिसने अकेले दम पर किला फतह कर लिया था।

‘तुम वास्तव में बहादुर हो। तुमने इतनी विषम परिस्थितियों में भी धैर्य नहीं खोया। पूरा दृश्य ही बदल कर अपने पक्ष में कर लिया।’ उसे देखते हुए मैं प्रशंसात्मक स्वर में बोली।

‘जी दीदी, और अब तो मैं कमा भी रही हूँ। एक अच्छे घर में रह रही हूँ। आपको छोड़कर किसी हालत में नहीं जाऊंगी। मैं एक मां हूँ और कल मुझे अपने बच्चों को जवाब देना है।’

मैं चुपचाप उसकी आंखों में छाए दर्प को निहारती रह गई थी।

समस्या से पलायन तो हमारी बेटी अनाया कर रही थी। न उसका पति किसी दूसरी लड़की के साथ फंसा था और न ही वह अनाया के साथ किसी तरह के अन्याय करने की हिम्मत रखता था। संपन्न आम घरों में आजकल के पति ऐसा कुछ चाह कर भी नहीं कर सकते। हमारी इकलौती लाडली बेटी का मन पढ़ाई में भी अधिक नहीं लग पाया। डिग्री जरूर एमबीए की ले ली। पापा के पैसे के बूते थर्ड क्लास कॉलेज से ही सही। साधारण सी नौकरी है, लेकिन उससे क्यानौकरी में टाइम उसका भी अपने पति शलभ जितना ही लगता था न।

माता-पिता बच्चों की रजामंदी में साथ हो सकते हैं, लेकिन उनकी अपनी जिंदगी का गणित तो उन्हें ही हल करना पड़ता है। रंजना जैसी जीवट वाली लड़की के सामने कितना कमजोर और अविवेकी बना दिया है हमने अपनी बेटियों को। अपने स्तर के परिवारों में मुझे नहीं दिखता कि कहीं लड़की के अधिकारों का हनन हो रहा है। लेकिन तब भी लड़कियां अधिकार-अधिकार के नारे बुलंद कर रही हैं।

अनाया की न नौकरी किसी लायक है न काम करने या करवाने का ही उसे विशेष अभ्यास है। स्वभाव से तुनक-मिजाज हमारी इकलौती कन्या के घर में उसके सास-ससुर अधिक रहना पसंद नहीं करते। 35 की हो गई अनाया, पर उसे मां नहीं बनना है। अभी नौकरी जो कर रही है चाहे जैसी भी… फिर पता नहीं कब बनेगी? शलभ लड़का होकर भी कई घर-बाहर के काम संभाल लेता है लेकिन हमारी नाजुक अनाया से कुछ होता ही नहीं। उस पर तुर्रा यह कि शिकायत वही करती है।

आज अगर शलभ को अकेले रहना पड़ जाए तो वह उसी सेट-अप में अकेले रह लेगा, लेकिन अनाया को अकेले रहना पड़ जाए तो वह बिना माता-पिता की सहायता के इस शान बान से नहीं रह सकती। प्रेम करना है, प्रेम विवाह करना है, लेकिन प्रेम निभाना कब है इस पीढ़ी को!

रंजना के साथ वास्तव में अन्याय हुआ है। उसने अन्याय के खिलाफ आवाज बुलंद की और रिश्ते को भी निभा लिया। अगर रंजना आज अपने पति से तलाक ले ले तो उसके बच्चों के भरण-पोषण का थोड़ा खर्च चाहे भले ही मिल जाए, लेकिन 32-33 साल की युवा रंजना से पति के नाम की सुरक्षा, ससुराल के रिश्तों का साया व बड़े होते बच्चों से पिता का नाम व प्यार दोनों ही छिन जाएगा। उसे जिंदगी से और अपने आस-पास के कलुषित लोगों से और अधिक जूझना पड़ेगा। रंजना जिंदगी की उबड़-खाबड़ सड़क पर चल कर बड़ी हुई है इसलिए अपनी सीमाओं और जरूरतों को अच्छी तरह पहचानती है।

‘क्या हुआ दीदी जी…आप कुछ परेशान सी लग रही हैं।’ मुझे बेचैन देख रंजना की निगाहें मेरे चेहरे पर टिक गई थीं।

‘कुछ खास नहीं।’ मैं फिर से पूर्व मनःस्थिति में आ गई, ‘रंजना, तुम कभी अपने लिए नहीं सोचती। मेरा मतलब इस तमाम कहानी में तुमने मात्र संघर्ष ही किया। तुमने बच्चों के कारण और अपनी सुरक्षा को ध्यान में रखकर रमेश जैसे धोखेबाज लड़के से समझौता तो कर लिया, लेकिन तुम्हें अपने लिए क्या मिला? तलाक ले लेती तो बच्चों को तो रमेश को पालना ही पड़ता, पर तुम इतनी कम उम्र हो, दोबारा शादी कर सकती थी या कम से कम अकेली रहकर रमेश व उसके परिवार के दबाव से दूर रह सकती थी।’

वह हँस पड़ी। हया की कुछ किरणें दूधिया चेहरे पर ठिठक गईं थी। हृदय की चांदनी अभी मंद नहीं पड़ी थी। एक प्यार करने वाले पुरुष का संग साथ मिले तो किसे नहीं चाहिए?

‘दीदी जी, औरत की जिंदगी यूं भी कई टुकड़ों में बंटी होती है। मैं अपनी जिंदगी के, ऐसे उल्टे-सीधे फैसले कर कुछ और टुकड़े नहीं करना चाहती थी। दूर के ढोल सुहावने लगते हैं। मेरी एक तरफ कुआं और एक तरफ खाई थी। मैंने कुएं को चुन लिया।’

मैं उसका चेहरा ताकती रह गई। तभी फोन की घंटी बजी। अनाया का नाम स्क्रीन पर चमक रहा था। इस वक्त फिलहाल मेरा हृदय अनाया के प्रति भावशून्य था। छोटी-छोटी बात पर दो साल से उसका बिसूरना देखकर मैं खिन्न थी।

‘हां बोलो अनाया…।’ मैं रूखे स्वर में बोली। मेरे स्वर का तीखापन भांप कर भी नजरअंदाज कर दिया बेपरवाह लाडली बेटी ने।

‘मम्मी, मैं बिलकुल नहीं रह सकती शलभ के साथ। नौकरी का ऐसा अहसान दिखाता है, जैसे ऑफिस से बस वही थक कर आया है और मैं वहां आराम करके आ रही हूँ। ऊपर से कुछ दिन से उसने और उसकी मम्मी ने नया राग अलापना शुरू कर दिया है कि अब बच्चा होना चाहिए। अरे नहीं करना है मुझे बच्चा…नौकरी छोड़ कर घर बैठ कर बच्चा पालूंगी अनपढ़ों की तरह…! वर्षों से ये सब औरत को अपने मतलब के लिए इस्तेमाल करते आए हैं! आज भी करना चाहते हैं, लेकिन अब समय बदल चुका है, महिला सशक्त हो चुकी है…।’ अनाया का आलाप जारी था। अपनी ही बेटी के बेबुनियाद दुख-तकलीफों से मेरा सिर भन्ना रहा था।

‘सुनो अनाया…’ मैं तल्खी से बोली, ‘तुम कोई भी निर्णय लोगी तो अपने भरोसे लोगी। तुम 35 साल पूरे करने वाली हो। तुमने प्रेम विवाह किया है। सबकुछ तुम्हारी मर्जी से हुआ है। आगे भी जो होगा तुम्हारी मर्जी से होगा। महिला के सशक्त होने का मतलब जुनूनी होना नहीं है। कुछ मेरी भी गलती है तुम्हारे पालनपोषण में जो तुम्हें सशक्त होने का सही मतलब नहीं समझा पाई। लेकिन मैं आज तुमसे कहती हूँ कि तोड़फोड़ के लिए जुनून चाहिए और कुछ बनाने के लिए ताकत। तुम एक नौकरीशुदा और एक जिम्मेदार वयस्क लड़की हो। अपनी जिंदगी शलभ के बिना बिताओगी या शलभ के साथ, इन दोनों पहलुओं पर तुम स्वयं फैसला लेने के काबिल हो, ऐसा मैं समझती हूँ और चाहती हूँ कि तुम जुनून का नहीं अपनी ताकत का इस्तेमाल करो।’ कह कर मैंने बिना उसकी बात सुने फोन ऑफ कर दिया।

मेरी बेटी सिर्फ अपने अधिकारों की भाषा पहचानती है, लेकिन कर्तव्यों तथा साझेपन की भाषा तो उसने कभी पढ़ी ही नहीं, दरअसल हमने पढ़ाया भी नहीं और जब जिंदगी पढ़ाने बैठी तो वह पलायन करना चाहती है।

रंजना अपनी दुश्चिंताओं से मुक्त इस समय कोई पहाड़ी गीत गुनगुनाती हुई किचन से अपने क्वार्टर में जा रही थी।

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