अमेरिका में वरिष्ठ प्रवासी कथाकार। दो उपन्यास और सात कहानी संग्रह प्रकाशित। ‘विभोम-स्वर’ त्रैमासिक पत्रिका से जुड़ीं। अद्यतन उपन्यास ‘दृश्य से अदृश्य का सफर’।
उसके ऑफिस में आते ही गौरव मुखी को पता चल जाता है कि वह आ गई है और वह उसे देखने को बेचैन हो जाता है। ऑफ़िस में प्रवेश करते ही वह अपनी सुमधुर आवाज में जब सबको ‘गुड मॉर्निंग’ कहती है तो सभी के चेहरों पर मुस्कान आ जाती है। उसका ‘गुड मॉर्निंग’ कहना जैसे ही गौरव के कानों में पड़ता है, उसके दिल की धड़कन तेज हो जाती है। वह उसे देखने, उससे बातें करने के बहाने तलाशने लगता है।
रिमॉडलिंग, घरों और दफ्तरों को फिर से बनाने और उनकी साजसज्जा करने के लिए प्रसिद्ध कंपनी ‘गिब्सन स्टेनले’ में वे दोनों काम करते हैं। गौरव मुखी बिक्री विभाग की कार्य प्रभारी है और वह यानी ड्यू स्मिथ आंतरिक सज्जाकार और डिजाइनर है। कोई बहाना या कारण रखकर गौरव उसके दफ्तर में प्रवेश करते ही चला आता है उसकी एक झलक पाने के लिए।
छरहरे बदन, नीली आंखों और सुनहरे बालों वाली अगाध सुंदरी ड्यू स्मिथ को गौरव शबनम कहता है। पहली बार जब उसने ड्यू स्मिथ को शबनम कहा था, वह गौरव से गुस्सा हो गई थी। उसके नाम को बदलकर कहना पसंद नहीं आया था। उसे बेहद बुरा लगा था, पर जब गौरव ने समझाया कि ड्यू को हिंदी में ओस या शबनम कहते हैं और वह उसका नाम बदल नहीं रहा, उसी नाम को हिंदी में कह रहा है तो वह मुस्करा दी थी।
वह उसकी मुस्कराहट और सौंदर्य पर ही तो मर मिटा है। उसका चेहरा हर समय खिला हुआ मुस्कराता रहता है, पर उसकी बड़ी-बड़ी नीली आंखें चेहरे से अलग कहीं खोई महसूस होतीं। पहले-पहल उसने उसकी आंखों की ओर ध्यान ही नहीं दिया था। वह तो बस उसकी मधुर आवाज़, आकर्षित चेहरे और सुनहरे, लंबे तथा घने बालों में ही उलझ गया था। ड्यू का सौंदर्य ही ऐसा है, दफ्तर में रिमॉडलिंग की इच्छा लेकर आने जाने वाले ग्राहकों की आंखें भी उसे देखकर चुंधिया जाती हैं, और वे एक पल रुक कर उसे देखते जरूर हैं।
‘गिब्सन स्टेनले’ कंपनी के मालिक और मुख्य अधिकारी अधेड़ उम्र के रॉबर्ट गिब्सन भी इस बात को समझते हैं, क्लाइंट्स पहले उसके सौंदर्य से प्रभावित होते हैं, फिर उसके डिजाइनों से। जिस तरह वह ग्राहकों के स्वभाव, मूड और रंगों की पसंद से उन्हें परखती है और ग्राहकों की सारी रुचियों को साज-सज्जा के नमूनों में उतार देती है, क्लाइंट्स उसके प्रशंसक बन जाते हैं।
रॉबर्ट गिब्सन ड्यू की सुरक्षा का पूरा ध्यान रखते हैं। उसे क्लाइंट्स से मिलने अकेले कभी नहीं भेजते। विक्रेता विभाग से गौरव हमेशा उसके साथ जाता है। जब कभी गौरव अपने अन्य कामों में व्यस्त हो, तभी किसी और की बारी आती है।
रॉबर्ट गिब्सन हैं शुद्ध व्यापारी। यह कंपनी उनके दादा ने स्थापित की थी और व्यापार उनकी रग-रग में है। हर कर्मचारी की जानकारी रखते हैं। जानते हैं कि उनके दफ्तर के तकरीबन सभी कर्मचारी चाहे वे शादीशुदा हैं या कुंवारे, ड्यू स्मिथ पर जान छिड़कते हैं और ड्यू के प्रति गौरव के आकर्षण को भी जानते हैं। फिर भी वह गौरव को हमेशा ड्यू के साथ क्लाइंट्स के घरों और दफ्तरों में भेजते हैं। गौरव को वह शरीफ और संस्कारी भारतीय मानते हैं। रॉबर्ट गिब्सन यह भी महसूस करते हैं कि गौरव ड्यू को कभी आघात नहीं पहुंचाएगा और किसी को पहुंचाने भी नहीं देगा। अन्य कर्मचारियों के बारे में वह ऐसा नहीं सोचते। वह उनकी आंखों में ड्यू के लिए वे भाव नहीं देखते, जो गौरव की आंखों में महसूस करते हैं।
‘गिब्सन स्टेनले’ कंपनी की सुंदर बिल्डिंग में प्रवेश करते ही एक कलात्मक खुले काउंटर के दूसरी ओर दो खूबसूरत महिलाएं ग्राहकों के स्वागत और उन्हें सही कर्मचारी के पास भेजने के लिए सुबह से शाम तक बैठी रहती हैं। उसके बाद बड़े-बड़े शीशों वाला दरवाजा है।
शीशों वाले दरवाजे के भीतर एक ही छत के नीचे बहुत बड़े हाल में शीशे के ही अलग-अलग केबिन बने हुए हैं। विभागों को शीशे की दीवारों से बांटा गया है और उनमें घूमने वाले दरवाज़े लगे हुए हैं। ड्यू का केबिन हॉल के एक कोने में और गौरव का केबिन हॉल के दूसरे कोने में है। रॉबर्ट गिब्सन का केबिन हॉल से परे उस जगह पर है, जहां से वह सब कर्मचारियों को देख सकते हैं।
गौरव, शबनम से मिलने के लिए उठा ही था कि सबको कांफ्रेंस हॉल में इकट्ठा होने का संदेश मिला। गौरव के केबिन के पास से ही सीढ़ियां ऊपर जाती हैं, जहां कांफ्रेंस रूम, साज-सज्जा का स्टुडियो और ग्राहकों से मुलाकात करने वाला कमरा है। एक छोटी-सी रसोई भी है, जिसमें कॉफी बनाने वाली मशीन, बिस्कुट, कुकीज़ आदि पड़े रहते हैं। साथ ही एक डाइनिंग टेबल भी पड़ी है; जहां बैठकर कर्मचारी लंच या डिनर ले सकते हैं।
कांफ्रेंस रूम में बैठते ही गौरव ने शबनम को देखा। वह मुस्कराई नहीं। उसकी आंखें कहीं खोई हुई हैं। रॉबर्ट गिब्सन भी काफी गंभीर हैं। उसे समझते देर नहीं लगी कि ऑफ़िस में कुछ होने वाला है, जिससे वातावरण में भारीपन आ गया है। कइयों के चेहरे उदास हैं, वह समझ नहीं पा रहा, क्या बात हुई है! कुछ हुआ जरूर है, जिससे वह बेखबर है। यहां का खुशनुमा माहौल इस ऑफिस की पहचान है। रॉबर्ट गिब्सन के चेहरे पर सुबह की खिली धूप सी मुस्कान खिली रहती है और वह बहुत विनम्रता और सहजता से सबसे बात करते हैं और वही वह अपने कर्मचारियों से चाहते हैं। इससे वातावरण बहुत सुखद रहता है पर जब-जब रॉबर्ट गंभीर हुए हैं, कर्मचारियों को बहुत बड़े झटके लगे हैं।
‘फ्रेंड्स’, रॉबर्ट का गंभीर स्वर उभरा।
‘आज मुझे यह आपातकालीन मीटिंग बुलानी पड़ी, क्योंकि कंपनी पर संकट ही ऐसा आया है।’ उनकी आवाज़ रुआंसी हो गई, थरथराती आवाज़ में उन्होंने कहना शुरू किया, ‘मेरे व्यवहार में कहां कमी रह गई थी कि कुछेक कर्मचारियों ने कंपनी द्वारा दी गईं उत्तम सुविधाओं और वेतन की परवाह नहीं की। प्रतिद्वंद्वी कंपनी को हमारे क्लाइंटों की जानकारी दे दी और हमारे प्रोजेक्ट्स तथा हमारे डीलरों की लिस्ट भी उस कंपनी को मुहैया करवा दी। बड़े दुख की बात है, थोड़े से पैसे के लालच में आपने उस कंपनी से बेवफाई की, जिसने आपको अपने परिवार का सदस्य बनाया। खैर, हमारा जो नुकसान होना था, हो गया। अब मैं कंपनी को और नुकसान नहीं पहुंचाने दूंगा। चाहता तो उन कर्मचारियों को पुलिस के हवाले कर सकता था, मेरे पास काफी सबूत हैं। बस वे सब कर्मचारी आधे घंटे के अंदर-अंदर अपना ऑफ़िस खाली कर दें, उनके केबिन में कंपनी से निकाले जाने के पत्र पहुंच गए हैं और ईमेल भी। जो पदाधिकारी और कर्मचारी प्रतिद्वंद्वी कंपनी के लालच में नहीं आए, उन्हें प्रोमोशन, बोनस के इतर मेडिकल और लाइफ इंश्योरेंस के साथ-साथ आवास की पहले से अधिक सुविधा दी जाएगी। उन सबको भी पत्र और ईमेल पहुंच गए हैं।’ कह कर वे उठ गए। गौरव ने अपने इर्द-गिर्द साथियों को देखा, कुछ के चेहरों पर उसने हवाइयां उड़ते देखीं। ज्यों ही उसने शबनम की ओर देखा वह घबरा गया। शबनम की आंखों की नमी छलकने को है। वह डर गया, कहीं वह तो उनमें नहीं! वह अपनी खुशी भूल कर उसकी ओर बढ़ गया। उसे प्रोमोशन का ईमेल मिला है।
गौरव अपने केबिन में नहीं रुका, सीधे शबनम के केबिन में गया। शबनब आंखों की नमी नैपकिन से सोख रही है। उसने गौरव को देखते ही कहा-‘मैं जानती हूँ, तुम क्या पूछना चाहते हो? आज शाम छह बजे मैक्सिकन रेस्टोरेंट हासियांडा में डिनर के लिए आ जाना।’ इतना कह कर ड्यू ने अपनी आंखें कंप्यूटर पर टिका दीं। गौरव सकपका गया, कुछ क्षण उसे देखता वहीं खड़ा रहा। फ़िरोज़ी ड्रेस में उसका सौंदर्य और भी गज़ब ढाह रहा है।
गौरव बड़ी उत्सुकता से उसके पास आता है, वह ऐसे ही करती है। आज तो वह उसके लिए चिंतित हो कर आया है, फिर भी उसकी परवाह नहीं की। वह हर रोज दिल के हाथों मजबूर होकर आता है, सकपका कर चला जाता है।
वह अपने केबिन में आकर बैठा ही था कि कला विभाग से विपिन शर्मा आ गया।
‘तुम सेफ हो?’
‘हां, और तुम?’
‘मैं भी। और तुम्हारी शबनम?’
‘पता नहीं।’
‘अभी तुम उसके पास से ही तो आए हो। फिर भी पता नहीं।’
‘यार, वह ऐसी ही है।’
‘क्या मतलब? तुम तो उसके साथ घूमते-फिरते हो। प्रोजेक्ट्स को पूरा करने के लिए तुम्हीं उसके साथ होते हो। जितने वर्षों से तुम दोनों साथ काम कर रहे हो, उतने वर्षों में तो कुलीग्ज़ के साथ बढ़िया ट्यूनिंग और अच्छी खासी दोस्ती हो जाती है।’
‘विपिन, हम दोनों प्रो़फेशनल हैं, काम के लिए इकट्ठे घूमते हैं, उस सिलसिले में हमारी बेहतरीन ट्यूनिंग है। जब मैं उदास या परेशान होता हूँ तो वह एक अच्छी दोस्त की तरह ख़याल रखती है, लेकिन जब वह किसी बात से दुखी होती है तो अपने खोल में बंद हो जाती है, जहां प्रवेश नहीं किया जा सकता। वह मेरे पूरे परिवार को जानती है, एक दोस्त और कुलीग की तरह उनसे बात भी करती है पर मैं उसके बारे में कुछ नहीं जानता, सिवाय इसके कि वह इसी प्रदेश के किसी गांव से है और रात को नौकरी करके, दिन में उसने पढ़ाई की है।’
‘इसका मतलब है, वह तुम्हारे भावों से अनभिज्ञ है।’
‘शायद।’
‘गौरव, तुम शादी के लिए आए रिश्ते ठुकराते हो और तुम्हारे मम्मी-पापा चिंतित होकर मुझे फोन करते हैं। एक बार जान तो लो कहीं उसके प्रति तुम्हारी एक तरफा भावनाएं तो नहीं।’
‘दिल की बात अगर दिल तक नहीं पहुंची, तो पूछकर जानने का क्या महत्व? क्या फर्क पड़ता है, भावनाएं एकतरफा हैं। हम दोस्त तो बहुत अच्छे हैं।’
‘तुम्हारे साथ बात करना बेकार है।’ कहता हुआ विपिन उठ गया।
दोनों की नज़रें इकट्ठी ड्यू के केबिन की ओर उठीं। वह अपना बैग कंधे पर डाल और कुछ फाइलें बांहों में समेटे केबिन से निकल कर बाहर गेट की ओर जाने को मुड़ गई। गौरव का दिल धक से हुआ और उसके भीतर जैसे कुछ टूटा। विपिन उसके कंधे पर हाथ रख कर वहां से चला गया। जिनको कंपनी छोड़ने के पत्र मिले थे वे एक-एक कर वहां से जाने शुरू हो गए। ड्यू को जाते देख बहुत से कर्मचारी स्तब्ध रह गए।
‘ड्यू भी… नहीं… नहीं ऐसा नहीं हो सकता।’ गौरव का मन मान नहीं रहा। वह वर्षों से उसके साथ काम कर रहा है। काम के प्रति उस जैसी समर्पित, ईमानदार, वफादार लड़की उसने नहीं देखी। ऐसा हो ही नहीं सकता। वह अपने-आपको ही दिलासा देता है। पर उसने जो देखा? तभी वाट्सएप पर ध्वनि हुई। संदेशों का संकेत है। उसका ध्यान बंट गया। उसके मम्मी-पापा, भाई और बहन के बधाई के संदेश हैं।
‘अरे उसने तो अभी उन्हें बताया नहीं, फिर उन्हें पता कैसे चला?’
‘शबनम…।’ खुद ही कह कर मुस्करा पड़ा।
तभी उसे शबनम का वाट्सएप संदेश आया।
‘हासियांडा नहीं, मेरे घर चले आना। पता भेज रही हूँ, अपनी खुशियां मिल कर सेलिब्रेट करेंगे। इंडिया पैलेस रेस्टोरेंट से तुम्हारा मनपसंद फूड आर्डर कर रही हूँ।’ गौरव को यकीन करना मुश्किल हो गया। वह बार-बार उसका संदेश देख रहा है। कुछ देर पहले की शबनम और इस शबनम का इतना अंतर कैसे? इस सोच ने उसके भीतर अंगड़ाई ली, पर उसने उसे झटक दिया। खैर, उसने बुलाया है तो जाना जरूर है। वह अपना ब्रीफकेस लेकर उठ गया। घर जाकर तरोताजा होकर वह उसके घर जाना चाहता है। वैसे भी ऑफिस का माहौल घुटन भरा हो गया है, काम में किसी का मन नहीं लग रहा। एक-दो दिन लगेंगे सभी को संभलने के लिए…
ठीक छह बजे उसने शबनम के घर की द्वार घंटी का बटन दबा दिया। जानता है, वह समय की बहुत पाबंद है। घंटी की आवाज सुनते ही उसने झट से दरवाजा खोला, जैसे वह दरवाजे के पास ही खड़ी हो। आसमानी ड्रेस और सफेद मोतियों के गहने पहने वह सौंदर्य की प्रतिमा-सी लग रही है। इस दुनिया की नहीं, किसी दूसरी दुनिया की।
‘स्वागत है!’ दरवाजा खोलते ही उसने अपनी मीठी आवाज में कहा।
गौरव ने अपने हाथ में पकड़े फूलों का गुलदस्ता और एक उपहार का बॉक्स उसे थमा दिया और उसके माथे पर चुम्मन लेने के लिए उसकी ओर झुका। शबनम ने त्वरित फूल और उपहार एक बाजू में हाथ से समेट कर दूसरे हाथ की हथेली उसके होठों पर रख दी। गौरव ने उसे ही चूम लिया। शबनम की आंखें और भी गहरे समंदर में खो गईं। उसके बदन से उठ रही कलियों की सुगंध और हाथ के स्पर्श से गौरव के बदन में झुरझुरी-सी हुई।
गौरव ने ड्राइंगरूम में प्रवेश करते ही चारों ओर नजर दौड़ाई, बेहद कलात्मक साज-सज्जा है।
शबनम ने उपहार वहीं रख दिया, आंखों का समंदर समेटे फूलों को रसोई में ले गई। गौरव गंभीर हो गया और उसकी आंखों की गहराई नापने को कटिबद्ध। रसोई से आते समय दो गिलासों में फलों का रस लेकर आई।
‘शबनम, तुमने तो आज डरा ही दिया, ठीक आधे घंटे बाद दफ्तर से निकल गई।’
‘सोचा, रेस्टोरेंट के बजाय तुम्हें घर बुला लूं। काम की अधिकता की वजह से घर बहुत बिखरा हुआ था। उसे ठीक करने चली आई।’
‘और ऑफ़िस में इतनी उदास क्यों थी?’ गौरव के इस प्रश्न से उसकी आंखें और गहरा गईं।
‘उत्कृष्ट पैकेज के बाद भी इतनी उदासी और आंसू!’ जूस का घूंट पीते हुए उसने एक और प्रश्न किया ताकि उसकी आंखों की उदासी का राज़ जान सके।
‘बहुत ख़ुशी मिलने पर मेरे आंसू निकल आते हैं और उदासी घेर लेती है।’ शबनम ने बड़ी सरलता से बात को टाल दिया।
‘शबनम, मैं तुम्हारी बेरुखी का आदि हो गया हूँ। तुम अपना दर्द नहीं बांटना चाहती तो ठीक है, मैं ज़ोर तो नहीं डाल सकता। पर तुम्हारी आंखें हर पल तुम्हारे भीतर की पीड़ा उड़ेलती हैं।’ गौरव ने लंबी सांस छोड़ते हुए कहा।
‘गौरव, मैंने जिंदगी से वफा की पर ठगी गई। रिश्तों को दिल से निभाया, खूब चोट खाई। काम को इबादत की तरह किया, सराही गई। भावनाओं की बहुत उथल-पुथल थी, उनका तालमेल बैठा नहीं पा रही थी, इसलिए उदास थी और आंखें नम हो रही थीं।’
तभी द्वार की घंटी बजी।
‘खाना आया होगा।’ कह कर शबनम उठी। खाना देने आने वाले लड़के को विदा करके वह बोली- ‘गौरव, खाना बहुत गर्म है, चलो पहले खा लें। फिर बातें करते हैं।’ गौरव अनमने ढंग से उठा और रसोई में उसके साथ बैठकर चुपचाप खाने लगा। शबनम को शायद भूख लगी है, उसके खाने की तेजी बता रही है। खाना खाकर, हाथ धोकर वह वापिस ड्राइंगरूम के सोफे पर आ बैठा।
शबनम के हाथ में दो वाइन गिलास हैं, जिसमें खाने के बाद की ‘वाइट स्वीट वाइन’ है।
‘गौरव, तुम्हारा मूड उखड़ गया लगता है, लो यह ‘स्वीट वाइन’ लो, मूड ठीक हो जाएगा। तुमने तो यह भी नहीं बताया, खाना कैसा लगा?’
‘ठीक लगा’ उसने उसी मूड में कहा।
‘अच्छा, यह उपहार तो खोलो।’ उसने वाइन का घूंट भरते हुए कहा।
शबनम ने बॉक्स खोला तो उसमें गुलाबी रंग की कीमती ड्रेस निकली। साथ में मैचिंग ज्वैलरी। कुछ पल वह उन्हें देखती रही, फिर उसकी आंखें झर-झर झरने लगीं। उसने टिशू पेपर से आंखें पोंछते हुए कहा- ‘मैं यह उपहार स्वीकार नहीं कर सकती। हालांकि उपहार लौटाना अशिष्टता है। तुम्हारी भावनाएं मुझ से छिपी नहीं। हर रोज़ तुम्हारी आंखें मुझे कुछ कहती हैं, मैं उन्हें अनदेखा करती हूँ ताकि तुम मुझसे चिढ़ जाओ और अपनी सोच का रास्ता बदल लो। पर तुम्हारी फ़ीलिंग्ज़ और भी मज़बूत होती गईं और तुममें अथाह धैर्य है। बेहतरीन इंसान हो। तुमसे झूठ नहीं बोल पाऊंगी, मैं भी तुमसे बेइंतहा प्रेम करती हूँ पर तुम्हारी जीवनसंगिनी, तुम्हारी साथी नहीं बन सकती।’
‘क्यों नहीं बन सकती?’ गौरव का स्वर भीग गया।
‘कहा न, तुम पहाड़ की चोटी पर खड़े हो और मैं नीचे तलहटी में।’ शबनम ने कहकर सिर झुका लिया।
‘ठीक है, अगर तुम ऊपर नहीं आना चाहती, मैं नीचे आ जाता हूँ।’ गौरव ने वाइन का एक घूंट पीते हुए कहा।
‘गौरव, समझने की कोशिश करो।’ शबनम ने गौरव को देखते हुए कहा।
‘समझाओ तो समझूं, तुम तो पहेलियां बुझाती रहती हो। कभी तुमने अपने बारे में कुछ बताया है, जो मैं जान पाता कि हम क्यों नहीं बन सकते जीवन साथी?’ गौरव गंभीर स्वर में बोला।
‘तलहटी में काई जम चुकी है, मैं उसे छेड़ना नहीं चाहती, इसलिए हर बात को टाल जाती हूँ। तुमने आज मुझे तलहटी में जमी काई को खुरचने के लिए मजबूर कर दिया है।’ शबनम ने शून्य में देखकर बोलना शुरू किया, ऐसा लग रहा है जैसे वह वहां कोई दृश्य देख रही है- ‘मेरा जन्म यहां के एक पहाड़ी गांव ब्रूनो में हुआ है। तब गांव की आबादी दस हजार के करीब थी। परंपरावादी, रूढ़िवादी, पिछड़ा हुआ इलाका था और अभी भी है। ‘श्वेत कौम सर्वोपरि’ है, वाली सोच रखने वाले। बड़ी-बड़ी जमीनों पर दूर-दूर घर हैं। मिलने की एक ही जगह है, चर्च। जब मैं बड़ी हो रही थी, शनिवार और रविवार चर्च में खूब रौनक रहती थी। धर्मगुरु का बहुत महत्व था। उसका रुतबा गांव की सत्ता से भी ऊंचा था। कहा यह जाता था कि उसके पास बहुत सी दैवी शक्तियां हैं और आस्थाओं की बेड़ियों ने लोगों को ऐसा जकड़ा हुआ था कि वे उस धर्मगुरु से डरते थे। अब वहां तीन गिरजाघर हैं और लोगों की आस्थाएं भी बंट चुकी हैं। उस समय एक ही चर्च था और एक ही धर्मगुरु।
मैं गांव की सबसे खूबसूरत और बुद्धिमान नवयौवना थी। हाई स्कूल परीक्षा में पूरे स्कूल में प्रथम स्थान प्राप्त किया था और स्कॉलरशिप लेकर यूनिवर्सिटी जा रही थी। गांव में बहुत कम पढ़े-लिखे लोग थे, बस कुछेक युवक ही यूनिवर्सिटी में पढ़ने गए थे। हाई स्कूल के बाद अधिकतर पारिवारिक काम खेतीबाड़ी, बढ़ईगिरी, लोहारगिरी संभाल लेते और लड़कियां शादी कर लेतीं। प्रथम स्थान पाने के बाद मेरी सुंदरता और क़ाबिलीयत गांव में चर्चा का विषय बन गए थे।
हालांकि मैं वहीं जन्मी-पली थी, वहीं युवा हुई थी पर समाचार पत्रों में मेरी तस्वीर और मेरे बारे में लिखा पढ़कर लोगों के नजरिए में घनघोर अंतर आ गया था। यह चर्चा धर्मगुरु तक भी पहुंच गई।
यूनिवर्सिटी जाने के एक सप्ताह पहले धर्मगुरु जो धर्मपिता भी माने जाते थे, उन्होंने मुझे आशीर्वाद देने के लिए बुलाया। बड़ा स्वाभाविक लगा। जो भी युवक शहर गए, उन्हें बुलाया गया था, सबको आशीर्वाद दिया गया था। मैं भी चली गई, प्रार्थना के कमरे में मैंने पूजा की सारी विधियां कीं। पवित्र पानी पिया। पानी पीने के बाद मुझे होश नहीं रहा, जब होश आया तो मैं लुट चुकी थी। प्रार्थना के कमरे के बजाय मैं बाहर लॉन में पड़ी थी, जैसे धूप सेंक रही हूँ। बदन टूट रहा था। किसी तरह खुद को समेट कर घर पहुंची और मां को बताया तो मां ने सहानुभूति या प्यार देने के बजाय कस कर दो थप्पड़ मेरे मुंह पर मारे-‘धर्मपिता के बारे में कुछ मत कह। चुप हो जा। जुबान पर ताला लगा ले, वरना गांव वाले तुम्हें मार डालेंगे और हमें गांव से निकाल देंगे।’ गौरव, सोचो, उस समय मेरे दिल पर क्या बीती होगी? रिश्तों पर से विश्वास उठ गया। मां पर बहुत गुस्सा आया, वह एक औरत होकर मुझे चुप रहने के लिए कह रही थी। थप्पड़ तो धर्मगुरु को मारने चाहिए थे। मैं गॉड से नाराज हो गई और आज तक चर्च नहीं गई।’
गौरव उसकी तरफ उसे थामने के लिए बढ़ा, पर उसने रोक दिया, ‘नहीं गौरव, पहली बार भीतर फैले मवाद को निकास मिल रहा है, दुर्गंध तो आएगी। बस उसे निकल जाने दो।’
‘नया फोन लिया था, अपनी उस सहेली को फोन किया, जिसके साथ हॉस्टल का कमरा साझा कर रही थी। बस एक बार ही मिली थी। यूनिवर्सिटी की एडमिशन के समय। दो नस्लें, दो ध्रुव आकर्षित हुए जैसे जन्म-जन्मांतर से जानते हों। हॉस्टल में कमरा साझा करना पड़ता है तो हमने कमरा साझा करने का निर्णय ले लिया। मेरे डैड को अश्वेत के साथ कमरा साझा करना पसंद नहीं आया, इसलिए उन्होंने पैसे देने से इंकार कर दिया। स्कॉलरशिप मिलने से पहले मुझे पैसे चाहिए थे।
फोन पर मेरी सहेली सहरा की आवाज़ सुन कर मैं रो पड़ी और मेरी आवाज सुन वह रो पड़ी। रोते-रोते दोनों ने दर्द साझा किया, तो वह एक-सा निकला। उसके सौतेले पिता ने उसका विश्वास तोड़ा और माँ को पिता का कुकर्म बताने पर उसके मुंह पर चांटे पड़े। उस रात हम दोनों ने अपना-अपना घर छोड़ दिया और यूनिवर्सिटी आ गईं। एक रात यूनिवर्सिटी के वेटिंग रूम में गुज़ारी। हम दोनों खुशकिस्मत थीं, डोर्म (छात्रालय) का एक कमरा दूसरे दिन मिल गया।
यूनिवर्सिटी के प्रतीक्षागृह में एक रात जो हमने बिताई, उस रात ने हमें अचानक परिपक्व बना दिया। समझ में आ गया, बिना पैसे के सिर्फ स्कॉलरशिप पर कॉलेज की पढ़ाई नहीं हो सकती। उसी रात सहरा ने अपनी एक सहेली को फोन किया, जो बिस्कुट और कुकीज़ बनाने वाली फैक्ट्री में रात की शिफ्ट में काम करती है। उसी से पता चला कि रात की शिफ्ट नौकरी के हिसाब से बेहद सुरक्षित है, क्योंकि लोग रात की शिफ्ट में काम नहीं करना चाहते, इसलिए नौकरी की सुरक्षा के साथ-साथ उसके लाभ भी बहुत मिलते हैं। फैक्ट्री का मैनेजमेंट कर्मचारियों को आकर्षित करने के लिए बढ़िया पैकेज देता है। हम दोनों ने वहां अर्ज़ी दी और चौथे दिन हम लोग काम पर जाने लगे। बेनेफिट्स में जो मेडिकल इंश्योरेंस मिला उसका फायदा मुझे बाद में पता चला। तुम तो जानते हो मेडिकल इंश्योरेंस के बिना इस देश में जिया नहीं जा सकता। यूनिवर्सिटी के क्लास भी शुरू हो गए। रात नौ बजे से सुबह पांच बजे तक हम दोनों कुकीज़ फैक्ट्री में काम करतीं, कमरे में आकर दस बजे तक सोतीं। ग्यारह बजे यूनिवर्सिटी के हमारे क्लास शुरू हो जाते, तो वहां चली जातीं। पांच महीने बहुत सुखद गुजरे।
एक दिन अचानक मेरी तबीयत खराब हो गई। बुखार चढ़ गया। नजला-जुकाम के साथ ही डायरिया शुरू हो गया। सिर दुखने लगा। चक्कर अलग आने लगे। पूरा शरीर दुखने लगा। दो दिन इंतजार किया, सोचा अपने आप ठीक हो जाएगा। शायद फूड पॉइज़निंग हो गई थी। कैफेटेरिया में जो खाया था, वह पचा नहीं। मैं कभी बीमार नहीं पड़ी थी, डॉक्टर के पास गई ही नहीं थी। पर जब सब कुछ बढ़ने लगा तो डॉक्टर के पास गई। डॉक्टर ने कुछ टेस्ट किए और रिपोर्ट आने पर जो बताया सुनकर झटका लगा, कुछ पल तो होश नहीं रहा। मुझे एच आई वी पॉज़िटिव निकला। डॉक्टर ने जिस तरह के प्रश्न किए, तब पता चला कि यह बीमारी सेक्सुअल संबंधों से मिलती है, अगर किसी साथी को यह बीमारी है, और वह इलाज नहीं करवा रहा। अन्यथा यह छुआछूत की बीमारी नहीं। मेरा तो कोई ब्यॉय फ्रेंड भी नहीं था तो मुझे उसे अपने बलात्कार का बताना पड़ा। डॉक्टर ने दावे से कहा, वह धर्मगुरु बीमार है। मैं बहुत रोई, चिल्लाई, तड़पी, बलात्कार के साथ उसने मुझे यह बीमारी भी दे दी। पर कुछ हो नहीं सकता था, बस इलाज के। मेरा एच आई वी जल्दी ही पहचान में आ गया और इलाज शुरू हो गया। मेडिकल इंश्योरेंस के महत्व को तब जाना, इसके बिना इलाज मुश्किल हो जाता। यह सुन गौरव की आंखें भर गईं।
शबनम ने अपनी बात जारी रखी- ‘मैंने धर्मगुरु को गालियां देते हुए अपनी मां को फोन किया। उसकी करतूत से मुझे यह बीमारी लगी है। मेरे फोन से घर में हंगामा हो गया। परिवार ने मुझे बेदखल कर दिया। उन्होंने उल्टा मुझे दोषी ठहराया कि मैं शहर में जाकर बिगड़ गई हूँ, तभी यह बीमारी मुझे लगी है। उस दिन अज्ञानता और अनपढ़ता पर बेहद अफसोस हुआ। धर्मगुरु से कुछ भी कहना किसी ने उचित नहीं समझा। मेरे कहने पर यकीन ही नहीं किया गया, और मुझे परिवार से दूर छिटक दिया गया। उन दिनों मैं बुरी तरह टूट गई थी। सहरा ने मुझे संभाला, वह दोस्त, मां और बहन न जाने क्या-क्या बनी। पहाड़ का कसरती बदन है मेरा, शीघ्र ही संभल गई। काम और यूनिवर्सिटी फिर से शुरू हो गए। सोच लिया था, मुझे कुछ बनना है।
‘सहरा ने मुझे सलाह दी कि हमें यह कमरा छोड़ देना चाहिए। मेरी बीमारी की खबर अगर यूनिवर्सिटी में फैल गई तो पढ़ाई करनी और डिग्री लेनी मुश्किल हो जाएगी। सहरा ने ही हिम्मत करके यूनिवर्सिटी से बाहर एक बेडरूम अपार्टमेंट किराए पर लिया। मैंने उसे बहुत समझाया, वह मेरे साथ न रहे पर उसने मुझे एक ही बात कही, जीना और मरना साथ है, जब यह बीमारी छुआछूत से नहीं मिलती तो तुम्हें अकेला नहीं छोड़ सकती। उसकी सेवा और प्यार ने ही मुझे मज़बूत किया और मैंने अपनी डिग्री ली। हां, इस बीमारी का इलाज तो सारी उम्र करना पड़ता है। दवाइयां तो जीवनपर्यंत लेनी होती हैं। एच आई वी वायरस समाप्त कभी नहीं होता, शरीर में दब जाता है और व्यक्ति बिलकुल नॉर्मल जिंदगी जीने लगता है, वही मैं जी रही हूँ।’
‘शबनम, ऐसे कैसे हो गया कि उस धर्मगुरु की बीमारी का किसी को पता नहीं चला?’ गौरव ने बड़े व्यथित स्वर में पूछा।
‘मेरी बीमारी के एक साल के भीतर ही धर्मगुरु का बीभत्स चेहरा सबके सामने आ गया। उसे एड्स था, जिसका वह छुप-छुप कर इलाज करवा रहा था, और वह बिगड़ गया । एच आई वी वायरस जब बिना इलाज के वर्षों अंदर रहता है और बिगड़ जाता है तो एड्स का रूप धर लेता है। यह घातक रोग शरीर की प्रतिरोधक क्षमता समाप्त कर देता है और पेशेंट बुरी मौत मरता है। वह भी घिनौनी और शर्मनाक मौत मरा। उसकी बीमारी लोगों के सामने आ गई। ज्योंही यह बात पूरे गांव में फैली तो उसके साथ बहुत-सी महिलाओं और पुरुषों की भी यह बीमारी सामने आई, जो उसकी तरह बिना किसी को बताए शहर के डॉक्टर से इलाज करवा रहे थे। उसी डॉक्टर ने प्रेस और प्रशासन को हमारे गांव में फैली इस बीमारी की सूचना दी, क्योंकि इससे समाज और लोगों के लिए खतरा था।
‘हमारे गांव के एड्स पेशेंट्स की चर्चा समाचार पत्रों में भी छपी और धर्मगुरु के कुकर्मों के समाचार भी। उसके बाद ही वहां तीन गिरजाघर और अलग-अलग धर्मगुरु आए। मेरे परिवार ने मुझसे माफी मांगी, मुझे फिर से अपनाने की बात की। सच कहूं तो मैं आज तक उन्हें दिल से अपना नहीं सकी। मैंने बहुत कठिन समय निकाला है। सिर्फ एक सहरा थी, जो मेरे साथ खड़ी रही। अब मेरा परिवार है। सहरा की शादी हो गई है। तुम उसे मिल चुके हो। उसके बच्चे हैं। अब मैं उसके लिए और वह मेरे लिए है। परिवार के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से मैंने कभी मुंह नहीं मोड़ा। हम मां-बाप और परिवार चुन नहीं सकते। कुदरत से जो मिलता है, उसे निभाना पड़ता है। मेरी मां को दिल की तकलीफ हुई, मैंने शहर में उनका इलाज करवाया। डैड की हड्डियों के और दिल के दो बड़े ऑपरेशन करवाए। बहन-भाई की शिक्षा पूरी करवाई। पर मैं गांव नहीं जा सकी और न ही कभी उन्हें आज तक अपनी बाहों में लेकर झप्पी दे सकी। उनकी बाहों में भी नहीं समा सकी। बस दूर से हमेशा ही उनके प्रति अपने कर्तव्य निभाए हैं। अब तुम ही बताओ जिस लड़की को एच आई वी है, वह तुम्हारी जीवन साथी कैसे बन सकती है? मैं तुम्हें बेइंतहा चाहती हूँ और स्वप्न में भी नहीं सोच सकती कि मेरी वजह से तुम्हें कोई तक़लीफ हो।’
गौरव अब तक उसे खामोशी से सुन रहा था। उसने सोफे पर पहलू बदला और बोला- ‘शबनम, हम इक्कीसवीं सदी में जी रहे हैं। इस बीमारी के इलाज के लिए कितने रिसर्च हुए हैं, कई दवाइयां उपलब्ध हैं। फिर ‘तकलीफ’ शब्द कहां से आ गया।’
‘गौरव, इस बीमारी का नाम ही ऐसा है, सुनते ही लोगों के मन में तरह-तरह के अंदेशे पैदा हो जाते हैं। इक्कीसवीं सदी में ही लोग इसके पेशेंट को हिकारत की नजर से देखते हैं।’ शबनब जमीन पर उसके पास आकर बैठ गई।
‘मानता हूँ, अधिकतर को इसकी सही जानकारी नहीं। तुम्हारी बीमारी तो बहुत जल्दी क़ाबू में आ गई। एच आई वी वाले अगर ताउम्र दवाई लें तो गृहस्थी निभा सकते हैं। तुम सब कुछ जानती हो, समझती हो, फिर प्यार में यह ‘डर’ क्यों?
‘तुम्हारे परिवार पर क्या बीतेगी? तुम्हारे मम्मी-पापा को समझाना कितना मुश्किल हो जाएगा? एच आई वी का इलाज है, लोगों को नॉलेज ही नहीं। भारतीय समाज की मान्यताएं यहां के समाज से बहुत अलग हैं। मैं तुम्हारे परिवार के लिए शर्मिंदगी का कारण नहीं बनना चाहती।’
‘परिवार मेरा है। उन्हें कैसे मनाना और समझाना है, मैं जानता हूँ। और समाज यहां बीच में कहां से आ गया?’ गौरव ने बड़ी दृढ़ता से कहा।
‘तुम भावुकता से सिर्फ अपने बारे में सोच रहे हो। एच आई वी की दवाई ले रही बहू को स्वीकारना किसी भी परिवार के लिए मुश्किल होगा। मैं नहीं चाहती, मेरी वजह से परिवार में तनाव आए।’ शबनम ने विनम्रता से कहा।
‘कहा न, मेरा परिवार मेरी ज़िम्मेदारी है। तुम चिंता क्यों करती हो?’ तभी उसने जेब से एक छोटी-सी डिब्बी निकाली, उसे खोला, उसमें डायमंड की अंगूठी थी। उसने उसे शबनम के सामने मेज पर रख दिया और खड़े होते हुए कहा- ‘मैंने निश्चय कर लिया है! तुम्हारा मन और जिस्म जब तैयार हो जाएं, ड्रेस और अंगूठी पहन लेना। नहीं तो उम्र भर यह अंगूठी और मैं इंतज़ार करते रहेंगे…।’ कह कर वह उठकर वहां से चला गया।
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बेहद खूबसूरत कहानी