सुपरिचित कथाकार। विभिन्न पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित। संप्रति स्वतंत्र लेखन।
दरवाजे के ताले को खोलने के लिए मैं जेब से चाबी निकाल ही रहा था कि सहसा मेरी नजर ताले पर लगी पर्ची पर पड़ी। पर्ची देख मैं चौंक गया। चाबी निकालना छोड़, मैंने पर्ची को निकाला, उसे खोला, उस पर लिखा था- लखनऊ वापस चले जाओ।
पर्ची पर किसी का नाम न होने के बावजूद मुझे क्षण भर न लगा, जनरल मैनेजर फाइनेंस एंड एडमिनिस्ट्रेशन वी.के. मिश्रा की हेंड राइटिंग को पहचानने में। हैरान-परेशान मैंने संदेश को फिर पढ़ा। किसी तह तक जाने के लिए मैंने कागज को उलट-पलट कर भी देखा। कुछ नहीं मिला। असमंजस में मैंने ताला खोला। कमरे की लाइट खोली, बैग नीचे रखा और कुर्सी पर बैठ गया। घड़ी रात के बारह बजा रही थी। अभी परसों शुक्रवार को ही तो मैं लखनऊ गया था। वापसी में यह संदेश? किसी अनहोनी की आशंका मुझे घेरने लगी। वह अस्सी का दशक था। मोबाइल फोन तब जन-जीवन से कोसों दूर था। लैंड लाइन फोन तक मेरे पास नहीं था। भाग कर पास के पी.सी.ओ. पर गया। वह भी बंद। आधी रात का वक्त। मैं झुंझला गया। इतनी रात किसी कुलीग के घर भी जाते नहीं बन रहा था। वापस कमरे में आकर बैठने के अतिरिक्त और कोई विकल्प मेरे पास नहीं बचा। सोचा था कि रामपुर पहुंच कर, फ्रैश होकर संग लाई हुई आलू की सब्जी और पूरी खाकर आराम से सो जाऊंगा। लेकिन, इस एक लाइन के संदेश ने भूख के साथ-साथ मेरी नींद भी उड़ा दी। सच्चाई जानने के लिए छटपटाने लगा। तभी दरवाजे की घंटी बजी. इतनी रात घंटी बजते देख पहले मैं चौंक उठा, फिर एकदम से दरवाजा खोला। कंपनी का ड्राइवर प्रमोद सामने खड़ा था।
‘क्यों भई, सब ठीक है यहां?’ मैंने व्यग्रता से पूछा।
‘सा’ब कुछ ठीक नहीं है।’
‘क्यों क्या हुआ?’ अपनी धड़कनों को काबू करते हुए मैंने पूछा।
‘सा’ब, कंपनी पर कल ताला लग गया।’
‘क्या?’
‘हां साब, प्लांट बंद हो गया। हम तो सड़क पर आ गए…।’
इस अप्रत्याशित खबर ने मेरे होश उड़ा दिए। पांवों तले मेरी जमीन खिसकने लगी। मैं अवाक ड्राइवर को देखता रह गया।
‘मैं यहां से गुजर रहा था, आपके कमरे में लाइट देखी, तो चला आया..।’ ड्राइवर कुछ न कुछ बोले चला जा रहा था, जिसको सुनने की मेरी शक्ति क्षीण हो चुकी थी।
उस झन्नाटेदार खबर ने मुझे हक्का-बक्का कर दिया।
‘प्लांट ऐसे कैसे बंद हो गया?’
‘साब, मुझ जैसे ड्राइवर को क्या पता होगा…।’
अपनी अज्ञानता पर मुझे कोफ्त होने लगी। जब मुझ जैसे जूनियर मैनेजमेंट वाले को कुछ पता नहीं, तो इसको क्या पता होगा।
प्लांट ऐसे कैसे बंद हो सकता है! परसों तक तो मैं यहीं पर था। सब कुछ सामान्य था। इस एक दिन में ऐसा क्या हो गया! नहीं…यह एकाएक नहीं हो सकता! इसकी योजना पता नहीं कब से चल रही होगी! वी.के. मिश्रा को अवश्य पता रहा होगा! वे तो टॉप मैनेजमेंट में हैं। कभी कोई संकेत तक नहीं मिला मुझे उनसे। इतना बड़ा विश्वासघात! दिमाग में चल रहा तूफान मुझे बैठने नहीं दे रहा था।
मैं एकदम से कुर्सी से उठ खड़ा हुआ और प्रमोद को आदेश दिया, ‘चलो।’
‘सर, कहां?’ वह असमंजस से बोला।
‘प्लांट…’
‘इस समय?’
‘सर, कल चले जाना। रात के एक बजे आपके लिए वहां जाना सुरक्षित न होगा।’
‘क्यों?’ मैंने खीजते हुए कहा।
‘सारे मजदूर वहां धरने पर बैठे हुए हैं। वे सब मैनेजमेंट से बहुत खफा हैं।’
‘मैंने क्या किया?’ उत्तेजना में मेरा स्वर ऊंचा हो गया।
‘साब, आप भी तो मैनेजमेंट से ही हो…’
जिस कंपनी में मैं पिछले तीन साल से नौकरी कर रहा हूँ… जिसके कोने-कोने में बेखौफ घूमता था…जिन मजदूरों को रोज देखता था। वह जगह…वे मजदूर… एक ही दिन में मेरे लिए असुरक्षित हो गए। मेरा खून खौलने लगा…एक जुनून सा दिलो-दिमाग में सवार होने लगा।
‘चलो…’ मैं सख्ती से बोला।
रात के एक बजे हम दोनों कार में रामपुर की सुनसान सड़कों पर थे। पूरे रास्ते न मैं कुछ बोला और न प्रमोद।
जैसे-जैसे कंपनी नजदीक आ रही थी, वैसे-वैसे शिराओं में मेरा रक्त प्रवाह तेजी से बढ़ रहा था। और जब दूर से हरे रंग का कंपनी का जगमगाता विशाल बोर्ड ‘टाइटेनोर कॉम्पोनेंट लिमिटेड’ दिखाई दिया, तो मेरे हृदय में कहीं कुछ दरक-सा गया।
कंपनी के गेट के पास ड्राइवर ने गाड़ी रोक दी। वहां का पूरा दृश्य ही बदला हुआ था। चौबीस घंटे खुले रहने वाले प्लांट के गेट पर बड़ा सा ताला लटका देख मैं धक रह गया। गेट के बाहर लाल रंग का साम्यवाद को रेखांकित करता तंबू दूर तक फैला हुआ था। उसके नीचे पचास-साठ के करीब मजदूर धरने पर बैठे हुए थे। मजदूरों के पांचों नेता सबसे आगे विराजमान थे। दूसरी कंपनियों के यूनियन के लीडर्स को उनके समर्थन में बैठा देख मैं भौचक्का रह गया।
जब मैं उनके थोड़े नजदीक जाने लगा, तो ड्राइवर ने मुझे रोकने की असफल कोशिश की।
‘आप, यहां इस समय?’ एक नेता ने प्रश्न किया।
‘ये सब क्या?’ मेरे मुंह से बस इतना ही निकला।
‘आप को तो सब पता होगा?’ सशंकित नजरों से मुझे देखते हुए वह व्यंग्य से बोला।
‘अरे, होगा कोई मैनेजमेंट का चमचा’, दूसरी कंपनी का नेता बोला।
और भी कई आवाजें उनके समर्थन में उठने लगीं।
मैं स्तब्ध रह गया। इतने दिनों का साथ, आत्मीयता, विश्वास भरभरा कर गिरता हुआ मुझे दिखाई दे रहा था। मैंने एक नजर धरने पर बैठे मजदूरों पर डाली, थके-हारे चेहरों पर घोर निराशा के भाव चिपके हुए थे। रातों-रात नौकरी चले जाने की पीड़ा, अपमान, छटपटाहट स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रही थी। हम एक-दूसरों को नाम से नहीं, सिर्फ चेहरों से पहचानते थे। मुझे देख किसी के चेहरे पर कोई भाव नहीं उभरा। मजदूरों के इस रवैये ने मुझे आहत नहीं किया, ऐसा नहीं कह सकता!
इस समय मुझे वहां पर सिर्फ और सिर्फ दो भागों में विभक्त प्लांट दिखाई दे रहा था- मैनेजमेंट और मजदूर।
उनके पास और रुकना मेरे लिए दुसह्य हो गया। वहां से चलता हुआ मैं गेट के पास गया। चकाचौंध करती रोशनी में प्लांट पहले की भांति अपनी पूरी शान के साथ जगमगा रहा था। पूरी कंपनी छावनी में तब्दील हो रखी थी। सिक्योरिटी इंचार्ज से लेकर सारे गार्ड रातों-रात बदल दिए गए थे। कमांडो जैसे दिखते गार्ड मुस्तैदी से अपनी ड्यूटी निभा रहे थे। सिक्योरटी इतनी सख्त थी कि परिंदा भी पर नहीं मार सकता था।
‘साब, बहुत रात हो गई है, घर चलते हैं।’
विकल्प भी क्या रह गया था सिवाए वापस जाने के। मैं बिना कुछ खाए बिस्तर पर लेट गया। नींद आंखों से गायब थी। पर्ची पर लिखी वह एक लाइन… अकस्मात कंपनी का बंद होना…जनरल मैंनेजर वी.के. मिश्रा का कुछ न बताना… कंपनी का लटकता ताला… मजदूर यूनियन के लोगों के शक के दायरे में आना…। मैं अपने को ठगा सा महसूस करने लगा। नौकरी के यूं चले जाने का सदमा मुझसे बरदाश्त नहीं हो रहा था। सिर फटा जा रहा था। व्यथित हृदय ने बिस्तर पर लेटना मुश्किल कर दिया। बिस्तर से उठा, कॉफी बनाई और सुबह का इंतजार करने लगा।
सुबह हुई, लेकिन मुझे वह सुबह रात की कालिमा से भी ज्यादा अंधेरी लग रही थी। जीवन में इतना टूटा हुआ… इतना हारा हुआ… मैंने कभी महसूस नहीं किया। यहां बचा ही क्या है? कंपनी तो फिर खुलेगी नहीं! यहां रुकने का कोई औचित्य मुझे दिखाई नहीं दे रहा। मैंने उसी दिन लखनऊ वापस जाने का निर्णय ले लिया। एकाएक मुझे अपने महत्वपूर्ण कागजात जिसमें बैंक की पासबुक, चैकबुक से लेकर मेरे शैक्षिक प्रमाणपत्र तक थे, याद आ गए। मैंने अपने ऑफिस की अलमारी में रखे हुए थे। मुझे अपने उन कागजों की चिंता होने लगी। मैं एकदम से तैयार हुआ और प्लांट के लिए निकल गया।
मुझे फिर से प्लांट के पास देख यूनियन के नेताओं की शक की सुइयां तेजी से घूमने लगीं। मैंने उनकी कोई परवाह नहीं की। मेरे दिमाग में तो अपने कागजात घूम रहे थे। मैं सीधे सिक्योरिटी इंचार्ज के पास गया और कंपनी का ताला खोलने के लिए कहा।
‘मुझे सख्त आदेश है किसी को अंदर न जाने देने का’, वह सपाट स्वर में बोला।
मैं इस कंपनी का एम्प्लॉय हूँ, मुझे अंदर जाने से कोई नहीं रोक सकता’, उस नए सिक्योरिटी गार्ड की हिमाकत पर मुझे गुस्सा आने लगा।
‘कंपनी बंद हो चुकी है।’
उसकी बात मुझे एक जोरदार तमाचे की तरह लगी और मैं बिलबिला गया।
‘अभी… इसी समय… कॉरपोरेट ऑफिस गोवा फोन लगाओ।’ मैंने तेज स्वर में उसे आदेश दिया। मुझे पता था कि यहां की सारी खबर टॉप मैनेजमेंट के लोग इसी सिक्योरिटी इंचार्ज से ले रहे होंगे।
‘नायर सर को?’
‘हां…’
उसने मुझे तौलती निगाहों से ऊपर से नीचे तक देखा, मेरा परिचय लिया और अंदर चला गया।
‘साब आपको फोन पर बुला रहे हैं, लेकिन इनमें कोई भी अंदर नहीं आएगा’, वह मेरे पीछे इशारा करते हुए बोला।
यूनियन के नेताओं को अपने पीछे खड़े देख मैं अपना आपा खोने लगा।
‘मैं यहां पर किसी मैनेजमेंट के कहने पर नहीं आया हूँ। अपने व्यक्तिगत कागजात लेने आया हूँ। जब मैं अपने पेपर लेकर आऊंगा तो तुम्हें दिखा दूंगा, लेकिन तुम में से कोई भी मेरे पीछे नहीं आएगा’, मेरे सख्त तेवर देख वे वहीं खड़े रहे।
मैंने जल्दी से एंट्री रजिस्टर पर साइन किए और तेजी से अंदर चला गया।
‘तुम्हें सूचित कर दिया गया था, फिर तुम रामपुर में क्या कर रहे हो?’ फोन के दूसरी तरफ से प्लांट के प्रेसिडेंट जयकृष्ण नायर मुझसे प्रश्न कर रहे थे।
‘ये क्या सर? अचानक प्लांट…’
मेरी बात को बीच में ही काटते हुए वे बोले, ‘ये बातें फोन पर नहीं हो सकतीं। तुम तुरंत लखनऊ वापस चले जाओ। आगे की सूचना का इंतजार करो।’
उनकी बात सुनकर मैं कसमसा कर रह गया।
‘मैं आज रात की ट्रेन से वापस घर जा रहा हूँ। मैं यहां अपने सर्टिफिकेट और बैंक के पेपर लेने आया हूँ।’
मेरी बातों को सुनकर उन्होंने इंजार्च को आदेश दिया- ‘ये जो पेपर ले जान चाहते हैं, इनको ले जाने दो।’
उसने फाइनेंस विभाग के ऑफिस का दरवाजा खोल दिया। मैं शीघ्रता से अपनी टेबल के पास गया, दराज के नीचे रखी चाबी को उठाकर अलमारी खोली, अपने सारे पेपर उठाए और आदतन चाबी वापस दराज के नीचे की खाली जगह पर रखने लगा।
‘चाबी मुझे दे दीजिए’, इंजार्च पूरे समय मेरे साथ रहा। मेरी प्रत्येक गतिविधि पर उसकी कड़ी नजर थी।
मैंने जल्दी-जल्दी अपने पेपर चेक किए। उनको सही सलामत देख मैंने राहत की सांस ली। अनायास ही मेरी निगाहें अपनी टेबल… अपनी कुर्सी… अलमारी से होते हुए पूरे कमरे में घूम गई। मन में बहुत सी बातें उमड़ने-घुमड़ने लगीं। अपने एकाउंट सेक्शन से बाहर निकल कर मेरे पांव खुद ब खुद एच. आर. सेक्शन, कॉन्फ्रेंस रूम से होते हुए प्रोडक्शन प्लांट की ओर चल पड़े। मेरी पहली नौकरी… यहां पर व्यतीत किए वो तीन साल… अनगिनत यादें… अनायास ही मेरी आंखें नम होने लगीं। वहां अब और रुकना मेरे लिए मुश्किल हो गया। मैं तेजी से बाहर निकल गया। सिक्योरिटी रूम में जाकर रजिस्टर में साइन करते हुए अचानक मेरी नजर वहां रखे बहुत सारे बैंक ड्राफ्ट्स पर पड़ी।
‘ये क्या?’ मैंने आश्चर्य से सिक्योरिटी इंचार्ज से पूछा।
‘मजदूरों के तीन महीने की सेलरी के ड्राफ्ट हैं… कोई ले जा नहीं रहा है… बेवकूफ कहीं के… नेताओं के कहने पर धरने पर बैठे हुए हैं… देखना पछताएंगे…।’
उन ड्राफ्ट्स को देख कर मेरा दिमाग घूम गया। इतने सारे ड्राफ्ट एक रात में तो नहीं बन सकते! और, एच. आर. असिटेंट मैनेजर विनय के बिना बनना तो असंभव। मजदूरों की सेलरी, छुट्टियां और फाइनल लेखा-जोखा विनय के अतिरिक्त तो और कोई कर नहीं सकता था। मतलब… विनय को सब पता था! कंपनी में मेरे चंद करीब लोगों में विनय सबसे ऊपर था। मुझे महसूस होने लगा कि जनरल मैनेजर वी.के. मिश्रा के साथ-साथ विनय ने भी मुझे अंधेरे में रखा। दोनों के प्रति मेरा हृदय आक्रोश से भर गया। मैंने उसी समय विनय के घर जाने का निर्णय ले लिया।
अपनी ही सोच में डूबा हुआ मैं कंपनी के गेट से कब बाहर निकला मुझे स्वयं पता नहीं चला। जैसे मैं बाहर निकला तो कंपनी के पांच नेताओं के अलावा दूसरी कंपनी के नेता गण मेरे नजदीक आ गए।
‘ये देख लो पेपर…’ घोर निराशा से मैंने पेपर उनके सामने कर दिए।
दूसरी कंपनी के एक नेता ने जब एक जासूस की तरह पेपर की तहकीकात करनी चाही तो हमारी कंपनी का नेता बोल पड़ा, ‘हमें आप पर पूरा विश्वास है।’
‘हां, ये साब बहुत अच्छे हैं’, एक बुलंद आवाज उभरी।
मेरी नजर उस आवाज की ओर उठी। पतली–दुबली काया, पिचके गाल, गहरे सांवले रंग के उस एकमात्र मजदूर– दीपक को ही बस मैं नाम से जानता था। कारण था खाना। कई बार मैंने उसको कंपनी में देर से आने पर मैनेजमेंट के कोप का भाजन बनते हुए देखा था। एक दिन मुझसे रहा न गया। चेतावनी देते हुए पूछ बैठा– ‘समय से क्यों नहीं आते हो? नौकरी से हाथ धो बैठेगो।’
‘क्या करूं साब… घर बहुत दूर है… खाना बनाने में समय लग जाता है।’
‘घर में कोई नहीं है खाना बनाने वाला?’
‘नहीं साब… घर वाले गांव में रहते हैं।’
दस किलोमीटर साइकिल चला कर वह आता है। सुबह साढ़े पांच बजे घर से निकलने के बावजूद वह समय से नहीं पहुंच पाता। सोच कर मेरा हृदय पसीज गया। एकाएक एक विचार मेरे मस्तिष्क में कौंधा। लंच के समय मैं सीधे कैंटीन सुपरवाइजर के पास पहुंच गया।
‘एक मजदूर को खाना खिलाना है’, मैंने सीधे उससे कहा।
‘ये प्रोटोकॉल के खिलाफ है’, उसने साफ इंकार कर दिया।
‘इतना खाना तो बचता ही है… एक मजदूर को खिलाने से क्या फर्क पड़ता है!’
‘सर, मैं ऐसा नहीं कर सकता। यह सुविधा केवल मैनेजमेंट के लोगों के लिए है, मजदूरों के लिए नहीं। आज एक मजदूर आएगा… कल और मजदूर आ जाएंगे। मेरी तो नौकरी चली जाएगी।’
‘ठीक है, मैं अपने खाने का कूपन उसे दे दूंगा। तुम उसे चुपके से खाना दे देना’, कहते हुए मैंने कूपन पर साइन किया और उसे पकड़ा कर जाने लगा।
‘सर, आप तो मुझे शर्मिंदा कर रहे हैं।’
और इस प्रकार से दीपक के खाने की समस्या हल होते ही वह समय से प्लांट में पहुंचने लगा।
‘नमस्ते साब’, हमेशा की तरह सलाम ठोकते हुए दीपक मेरे सामने आ गया।
‘कैसे हो?’ स्वत: ही मेरे मुंह से निकला।
‘साब, आप देख ही रहे हो!’ फिर एक आशा भरी नजरों से मुझे देखते हुए बोला, ‘साब, फैक्ट्री खुल जाएगी न?’
मेरा गला रुंध गया। उसके कंधे को हल्के से छूकर मैं वहां से निकल पड़ा। वहां से गुजरते हुए बरबस ही मेरी नजर धरने पर बैठे मजदूरों पर चली गई। मैनेजमेंट से ज्यादा नैतिकता तो मुझे उनमें दिखाई दे रही थी। कम से कम उन्होंने एक-दूसरे के साथ विश्वासघात तो नहीं किया। एकाएक मेरा मन कड़वाहट से भरने लगा।
रात ग्यारह बजे की ट्रेन का टिकट मैंने लखनऊ के लिए बुक करवा लिया। लंबा समय मेरे पास था। कमरे में न जाकर मैं सीधे विनय के घर चला गया। मुझे देख वह चौंक गया।
सीधे मुद्दे पर आते हुए मैं बोला- ‘विनय, ये क्या?’
‘यही, मैं तुमसे पूछना चाहता हूँ!’
‘मतलब?’
‘भई, तुम हर समय जनरल मैंनेजर वी.के. मिश्रा के साथ रहते थे। वे हर जगह तुम्हें साथ लेकर जाते थे। कभी कुछ तो उन्होंने तुम्हें बताया ही होगा?’ उसकी वाणी में अविश्वास की तल्खी थी।
‘अगर मुझे कुछ पता होता, तो मैं यहां इस समय तुम्हारे सामने न होता’, तमकते हुए मैंने कहा।
‘ओह! तो तुम भी मेरी तरह बेवकूफ बन गए।’ वह जोर-जोर से हँसने लगा।
उसका हँसना मुझे जख्मों में नमक छिड़कने के समान लग रहा था।
बड़ी मुश्किल से अपनी हँसी पर काबू करते हुए वह बोला, ‘यार, मुझे गोवा में बैठे एच. आर. के सीनियर वाइस प्रेसिडेंट एंड बिजिनेस डेवलेपमेंट रोहित खन्ना बेवकूफ बना गए और तुम्हें यहीं पर बैठे फाइनेंस के जनरल मैनेजर।’
‘मजदूरों के फाइनल सेटेलमेंट की जानकारी दिए बिना, ड्राफ्ट्स कैसे बन सकते थे? उसकी बात को नजरअंदाज कर मैंने प्रश्न दागा।
‘अरे यार… यहीं तो मैं गच्चा खा गया। वह रोहित खन्ना, एक नंबर का चालबाज निकला’, दांत भींचते हुए वह बोला।
‘कैसे?’
‘अरे यार… वह ठीक शनिवार को गोवा से आ जाता था। कभी मुझसे मजदूरों की अटेंडेंस फाइल मांगता, कभी वेजेज फाइल, तो कभी उनकी पर्सनल फाइलें मांग कर मुझे रफा-दफा कर देता था। मैं भी खुश… छुट्टी वाले दिन ऑफिस आने से बच गया…। मुझे क्या पता था कि वो सा..ल्ला ऐसा करेगा’, बोलते-बोलते विनय का चेहरा तमतमाने लगा।
अचानक मुझे ध्यान आया कि वी.के. मिश्रा ने फाइनेंस से संबंधित फाइलें मुझसे भी अपने चेंबर में रखवाई थीं। बहुत सारी बातें दिमाग में घूमने लगीं। मजदूरों की शिफ्ट तीन से दो फिर दो से एक करना… उनको फुटबॉल, वॉलीबॉल खेलों में उलझाए रखना। वो वेल्डिंग मशीन, जेनरेटर, फेब्रिकेशन मशीन का गोवा भेजना। ओह! वो स्टॉक ट्रांसफर इसलिए हो रहा था!
‘अनुराग, बस एक बात को देखकर कलेजे में ठंड पड़ती है।’ विनय टेबल पर हाथ ठोकते हुए बोला।
‘कौन सी बात?’
‘यार… वो पांच पांडव…’, पांच पांडव के नाम से मशहूर यूनियन के नेताओं की खिल्ली उड़ाते हुए वह बोला।
‘उनका वह स…ल्ला यूनियन का जनरल सेक्रेटरी जब-तब भीम की तरह गदा उठाए आ धमकता था। और वह प्रोडक्शन मैनेजर हर बात के लिए, उसे मेरे सिर पर मढ़ देता था। शिफ्ट चेंज करानी तो एच.आर… सेलरी एडवांस लेनी हो तो एच.आर… कोई शादी समारोह के लिए लोन हो तो एच.आर…। मुझे तो उस यूनियन के सेक्रेटरी ने उल्लू का पट्ठा बनाया हुआ था। मजदूरों की हड़ताल के डर से जितनी पूजा मैंने उस पट्ठे की की, उतनी तो मैंने भगवान की भी नहीं की। अब देखो कैसे धरने पर बैठा हुआ’, कह कर विनय जोर का ठहाका लगाने लगा।
इतना कम मत आंकना उन नेताओं को। देखना वे मामले को लेबर कोर्ट लेकर जाएंगे’, मेरी बात सुनते ही विनय की सारी हँसी काफूर हो गई।
बड़ी देर तक हम आपस में बातें करके अपने-अपने मन का गुबार निकालते रहे। कंपनी के टॉप मैंनेजमेंट को कोसते रहे।
रात में भारी मन से मैं ट्रेन से लखनऊ के लिए निकल पड़ा। पिता जी की अस्वस्थता के कारण मुझे हमेशा लखनऊ जाने की एक जल्दी सी लगी रहती थी। शनिवार को मैं अपना बैग कमरे से उठाकर ऑफिस में ले आता था। लंच के बाद बैग उठाकर मैं सीधे रेलवे स्टेशन निकल पड़ता था। मेरी नौकरी लगने के बाद यह पहला अवसर था, जब लखनऊ जाना मुझे खटक रहा था। मां के आकस्मिक निधन ने जिस तरह से मुझे उस समय तोड़ा था, मेरा हृदय इस समय वही पीड़ा, वही दर्द, वही विकलता का अनुभव कर रहा था। बेबसी, लाचारी, निराशा, आक्रोश मुझको अपने गिरफ्त में जकड़ने लगे।
सुबह पांच बजे ट्रेन लखनऊ रेलवे स्टेशन पर सदैव की भांति रुक गई। मैं यंत्रवत-सा ट्रेन से उतरा, ऑटो पकड़ा और घर के लिए निकल गया।
‘भैय्या, आप?’ दरवाजा खोलते ही नरेश के मुंह से निकला।
मैं कुछ नहीं बोला। और दिन मैं लपक कर पिता जी के कमरे में जाता था। आज न मन हुआ और न हिम्मत।
‘कौन?’
‘भैय्या आए हैं…’
मैं अपने कमरे में आकर गुमसुम सा बैठ गया।
‘भैय्या चाय?’
मैंने इशारे से मना कर दिया।
थोड़ी देर बाद एक हाथ मेरे कंधे पर पड़ा, मैं चौंक गया, कुर्सी को पकड़े पिताजी सामने खड़े थे।
‘अरे आप क्यों आए यहां? मैं आ रहा था आपके कमरे में’, पिता जी को देख मेरी चेतना जागी। उनका हाथ पकड़ मैं उन्हें बिस्तर तक ले गया।
‘क्य…या…बा…’ लकवे ने पिता जी के दाएं अंगों को ही प्रभावित ही नहीं किया था, उनकी बोलने की शक्ति को भी क्षीण कर दिया था।
पिता जी से नजरें मिलाए बिना जब मैं उनके कमरे से बाहर जाने लगा, तो पिता जी ने मेरा हाथ पकड़ लिया। मैंने मुड़ कर उन्हें देखा। उनके मस्तक पर चिंता के गहरे बल पड़े हुए थे। मेरे चेहरे के भावों को टटोलते हुए इशारों से पूछा- ‘क्या हुआ?’
‘पिता जी, मेरी नौकरी चली गई…’ जिह्वा से मेरी फिसल गया।
‘क्या?’ पिताजी का चेहरा सफेद हो गया।
सिलसिलेवार सारी बातें मैंने उनके सामने खोल कर रख दीं।
कुछ देर तक खामोशी हमारे बीच पसरी रही।
फिर पिताजी ने अपनी लड़खड़ाती जुबान से कहा, ‘चिं न कर…ते बाप अ…अ…अभी…जिंदा है’, पिता जी के इन शब्दों ने मेरे अंतर्मन में उमड़े सैलाब को तोड़ दिया। मैं उनसे लिपट गया। देर तक मेरे आंसू उनकी पीठ को भिगोते रहे और उनके हाथ रक्षा कवच बनकर मेरी पीठ को सहलाते रहे।
दूर के चाचा जी का बेटा नरेश भी इस घटनाक्रम से स्तब्ध रह गया।
नरेश ऐसे समय में हमारे पास आया था, जब हम एक अंधकारमय दौर से गुजर रहे थे। मां को गए अभी साल भर भी न हुआ था कि पिता जी पक्षाघात के शिकार हो गए। संयोग से उस समय दीदी अरुणाचल प्रदेश से लखनऊ आई हुई थीं। खबर मिलते ही मैं भी भागा हुआ चला आया। उन दिनों की बातें याद कर आज भी हमारे शरीर में एक कंपकंपी दौड़ जाती है। एक महीने तक पिता जी नर्सिंग होम में एडमिट रहे। काफी वक्त लगा उन्हें ठीक होने में। ऐसे समय में नरेश का लखनऊ में कोचिंग लेने के लिए आना हमारे लिए एक वरदान साबित हुआ। पास रहती बुआ जी, नरेश और कामवालों के भरोसे पिता जी को छोड़ कर मैं रामपुर में हफ्ते में पांच दिन निश्चिंत होकर नौकरी कर सका।
रामपुर से आने के बाद कुछ दिनों तक मेरे दिमाग में उथल-पुथल मची रही। अपना मन बहलाने के लिए मैं कॉलोनी के बच्चों के साथ क्रिकेट खेलने लगा। मुझे बच्चों के साथ खेलता देख कॉलोनी के लोगों ने बातें बनानी शुरू कर दी थीं। उस समय इंटरनेट आदि सामान्य व्यवहार में शामिल नहीं थे। मेरी नजरें अखबार के वेकेंसी कॉलम पर घूमने लगीं। ऑफिस में कंप्यूटर अपनी उपस्थिति तेजी से दर्ज करने लगी थी। अत: उसका महत्व समझते हुए मैंने कंप्यूटर का कोर्स जॉइन कर लिया।
अभी मुझे रामपुर से आए एक महीना भी न हुआ था कि एक दिन वी.के. मिश्रा का फोन आ गया।
‘हैलो…हैलो…’, वह फोन के दूसरी ओर से बोलते जा रहे थे, उनके प्रति बैठा आक्रोश मुझे उनसे बात करने से रोक रहा।
‘मैं जानता हूँ कि तुम मुझसे नाराज होगे। जो कि स्वाभाविक है। मैं चाह कर भी तुम्हें कुछ न बता पाया। मैं बिलकुल नहीं चाहता था कि कंपनी बंद हो।’
‘मुझे आपसे ये उम्मीद नहीं थी।’
‘मैं मजबूर था। ये सब रोहित खन्ना का काम है। उसी ने हमारे एम.डी. क्रिस्टी स्कॉट और प्रेसिडेंट नायर को बरगलाया।’
‘कैसे और क्यों? प्लांट तो अच्छा खासा चल रहा था!’
‘खन्ना ने कहा प्लांट को दस साल से ऊपर हो गए हैं। सरकार से अब एक्साइज ड्यूटी और सेल टैक्स में कोई छूट तो अब मिलेगी नहीं। फिर गोवा के प्लांट में भी प्रोडक्शन शुरू हो गया था। एक ही चीज का दो-दो जगह प्रोडक्शन करने का क्या मतलब! उसी ने कहा कि रामपुर का प्लांट अब सफेद हाथी हो गया है, उसे पालने से कोई फायदा नहीं।’
वी.के. मिश्रा की बातें सुन मैं सन्न रह गया। मतलब शतरंज की बिसात बहुत पहले ही बिछ चुकी थी। शह-मात का खेल शुरू हो चुका था। एम.डी स्कॉट, प्रेसिडेंट जयकृष्ण नायर, जनरल मैनेजर वी.के. मिश्रा और कंपनी के प्रोडक्शन हेड ने राजा, वजीर, ऊंट, हाथी की भूमिका को बखूबी निभाया। और, असली टेढ़ी चाल चली घोड़ा बनकर उस रोहित खन्ना ने, धूर्तता जिसकी रग-रग से टपकती थी। प्लांट में काम करने वाले लोगों के पेट पर लात मारते हुए उन सबने एक बार भी कुछ नहीं सोचा। इनको बस अपना नफा-नुकसान से मतलब था! इस दौरान मुझे पता चल चुका था कि टॉप मैंनेजमेंट के लोग गोवा में उच्च पदों पर अपनी-अपनी गोटी फिट कर चुके हैं। बचे हम प्यादे जो नौकरी के लिए यहां-वहां हाथ-पांव मार रहे हैं।
‘सर, बहुत से प्लांट पर ताला लगते देखा है, लेकिन ऐसा रातों-रात ताला लगते तो न कभी देखा और न कभी सुना’, यह प्रश्न हर वक्त मेरे मस्तिष्क में हथौड़े की तरह बजता रहता था।
‘मैंने भी यही कहा था कि लीगल तरीके से चलो। सबको तीन महीने का नॉटिस पीरियड दो। लेकिन, रोहित खन्ना उन सबको मनाने में कामयाब रहा।’
‘आप भी इसमें शामिल थे?’ मैंने सीधे उनपर आक्रमण किया।
‘नहीं… लेकिन, मेरे अकेले के चाहने से कुछ नहीं होता।’
‘उफ्फ!’ खन्ना के प्रति मेरा हृदय घृणा से भरने लगा।
‘मैंने तुम्हें इसलिए फोन किया कि दस दिसंबर को दिल्ली में कंपनी की मीटिंग है। मीटिंग पार्क होटल में सुबह बारह बजे होगी। कंपनी के एम.डी., प्रेसिटेंट के साथ दो लोग और शामिल होंगे। तुम भी इस मीटिंग का हिस्सा रहोगे।’
‘कौन सी मीटिंग सर? कैसी मीटिंग? और हिस्सा! किस हैसियत से?’ जिह्वा पर मेरी कड़वाहट में घुलने लगी।
‘अनुराग, तुम्हारा फायदा ही होगा। मैं मीटिंग़ में शामिल नहीं होऊंगा। लेकिन, मैं उसी होटल में रूम नंबर 215 में तुम्हें मिलूंगा।’
दिल्ली में मीटिंग को लेकर बड़ी देर तक मेरे दिमाग में जद्दोजहद चलती रही। आखिर मैं तैयार हो गया मीटिंग में शामिल होने के लिए।
दस दिसंबर को ठीक साढ़े ग्यारह बजे सुबह पार्क होटल के गेट पर मैं पहुंच गया। जिंदगी में पहली बार फाइव स्टार होटल देख रहा था अत: मैंने उसी का लुफ्त उठाने की सोची। भव्यता हर जगह बिखरी हुई थी। गार्डन की खूबसूरती से सम्मोहित हो मैं उसी ओर मुड़ गया।
ठीक बारह बजे मैंने मीटिंग को जॉइन किया। एम.डी. स्कॉट, प्लॉट प्रेसिडेंट जयकृष्ण नायर, प्रोडक्शन हेड के अतिरिक्त रामपुर के मेरे दो कुलीग वहां मौजूद थे। मीटिंग शुरू हुई। एम.डी. ने कंपनी को ग्यारह साल चलाने के लिए हम सबका आभार व्यक्त किया। फिर वे कंपनी को बंद करने के कारणों की वजह बताने लगे। अंत में उन्होंने कहा कि वे जो भी कार्यवाही करेंगे, वह कानून के अंतर्गत ही होगा।
फिर जयकृष्ण नायर अपनी सीट से उठे और हम तीनों को गोवा में जॉब देने का ऑफर दिया। यह मेरे लिए अप्रत्याशित था। मुझे खुश होना चाहिए था। लेकिन, मैं चुपचाप रहा। रामपुर का असिस्टेंट प्रोडक्शन मैंनेजर गोवा जाने को तैयार हो गया। तीसरे ने गोवा जाने से साफ इंकार कर दिया।
‘अनुराग, तुम चुप क्यों हो?’ नायर मेरी ओर मुखातिब हो बोले।
आप मेरी परिस्थितियों से अच्छी तरह से वाकिफ हैं। पिता जी की अस्वस्थता के कारण मुझे हर शनिवार को घर जाना होता है, यह गोवा से कैसे संभव होगा?’
‘सोच लो!’
‘सर, सोच लिया।’
‘ठीक है, आप लोग इंतजार कीजिए। हम शीघ्र ही सबका फाइनल सेटेलमेंट कर देंगे।’
मीटिंग समाप्त हुई, सबने आपस में एक-दूसरे से हाथ मिलाया और हॉल से बाहर निकल गए। मुझे एक और आश्चर्यजनक खबर वहां मिली कि वी.के. मिश्रा ने नौकरी से इस्तीफा दे दिया और इस समय नोटिस पीरियड में हैं। वहां से मैं सीधे रूम नम्बर 215 में पहुंचा। वी.के. मिश्रा मेरा इंतजार कर रहे थे। मैं अभी भी उनसे काफी नाराज था। उनको भी मेरी नाराजगी पढ़ने में ज्यादा वक्त न लगा।
‘क्या तुमने गोवा का जॉब ऑफर स्वीकार किया?’
‘नहीं…’ उनके पूछने के तरीके से ही मैं समझ गया कि इन्होंने ही मेरी सिफारिश की होगी।
‘क्यों?’ वे आश्चर्यचकित रह गए।
‘आप को मेरी स्थिति मालूम ही है।’
‘यह तुम्हारे लिए एक अच्छा अवसर था।’
मैं कुछ नहीं बोला।
मुझे चुप देखकर वे बोले, ‘नौकरी तो मेरी भी गई है।’
‘बहुत अंतर है सर, आपकी और मेरी स्थिति मैं।’ मैंने कहा।
‘मतलब?’
‘आपने अपनी इच्छा से नौकरी छोड़ी है और मुझसे छीनी गई है।’
बहुत देर तक चुप्पी हमारे बीच छाई रही। मैं जाने के लिए उठ खड़ा हुआ।
‘अनुराग, तीन साल की नौकरी के दौरान तुमने जब भी मुझसे कुछ मांगा, तो हमेशा दूसरों के लिए मांगा। अपने लिए कभी कुछ नहीं कहा। भविष्य में कभी किसी चीज की आवश्यकता हो, तो मुझसे निःसंकोच संपर्क करना।’
‘आप मुझको मेरे तीन साल की नौकरी का एक्सपीरियेंस सर्टिफिकिट दे दीजिए।’
‘तुम एक नहीं, दस सर्टिफिकेट ले लो’, प्रफुल्ल्ता उनके स्वर में स्पष्ट झलक रही थी।
दिल्ली जाना मेरा व्यर्थ नहीं गया। जनरल मैनेजर के प्रति मेरे अंदर जो कड़वाहट बैठ गई थी, वह निकल चुकी थी। मैं स्वयं को हल्का महसूस कर रहा था।
मैं इंटरव्यू पर इंटरव्यू देता जा रहा। कहीं से कोई कॉल तो नहीं आई। लेकिन, एक महीने बाद वी.के. मिश्रा की कॉल अवश्य आ गई।
‘अनुराग, रामपुर में हमें एक विश्वसनीय व्यक्ति चाहिए, लीगल ऑथराईजेशन के लिए। सारा काम ही एकाउंट और फाइनेंस से संबंधित है इसलिए तुम्हारा चुनाव किया गया है। एक व्यक्ति गोवा से आएगा। तुम दोनों के साइन से स्टॉक ट्रांस्फर होगा। बाकी समान वहीं बेचना होगा।’
मैं लखनऊ में खाली बैठे-बैठे बोर होने लगा था, साथ ही इंटरव्यू की असफलताओं से मेरा आत्मविश्वास भी डगमगाने लगा था। मैंने तुरंत ‘हां’ कर दी। बस एक शर्त रखी कि मजदूरों के हर मामले से मुझे दूर रखा जाएगा। बहुत सारी बातें मजदूरों के विषय में सुनने को मिल रही थीं। उनके धरने ने इतना उग्र रूप धारण कर लिया कि प्रशासन को बीच में आना पड़ा। कंपनी ने बंद करने का जो विज्ञापन निकाला था अखबार में, उसे लेकर वे डी.एम. के पास गए। डी.एम. ने तुरंत कंपनी को तलब किया। कंपनी सारे कानूनी दांव-पेच पहले ही अपने पक्ष में कर चुकी थी। सत्ता पक्ष वालों ने मजदूरों को कोरा आश्वासन देकर पल्ला झाड़ लिया। झाड़ते भी क्यों न, चुनाव के समय गाड़ियां देने के अलावा, कंपनी जब-तब फंड भी सरकार को देती रहती थी। विपक्ष भी कूदा, लेकिन उसके हाथ कुछ भी न लगा। पर इन सब बातों का प्रभाव ये पड़ा कि मजदूरों को एक साल की सेलरी कंपनी को देनी पड़ी। सुनने में ये भी आया कि धरने को रफा-दफा करने के लिए एक मोटी रकम उनके नेताओं की जेबों में भी डाली गई है।
और…एक बार फिर मैंने ‘टाइटेनोर’ प्लांट में कदम रखा। कितना अंतर था पहले और अब में! पहले यहां मैं नौकरी करने आया था…और…आज इसको समटेने। गुलजार रहने वाला प्लांट अब वीरान पड़ा हुआ था। मन में एक उदासी घर करने लगी। खैर.. मैं और गोवा से आया नीरज एक बार जो काम में घुसे, तो फिर व्यस्त होते चले गए। अभी मुझे आए हुए तीन हफ्ते ही हुए थे कि मेरी एक दूसरी कंपनी से कॉल आ गई। कंपनी बरेली में थी, अत: मैं आह्लादित हो उठा। मैंने तुरंत कंपनी के प्रेसिडेंट नायर को सूचित किया।
‘बधाई हो! लेकिन, अभी तो बहुत काम बाकी है…।’
‘सर, एक दिन कंपनी ने मुझे मझधार में छोड़ा था। आज यह प्यादा इसे छोड़ रहा है। शतरंज में कभी-कभी प्यादा भी बाजी पलट देता है।’
‘क्या…’
‘कुछ नहीं सर…’, मुस्कुराते हुए फोन रखकर मैं बरेली जाने की तैयारी करने लगा।
संपर्क : 51/11 हरिद्वार रोड, देहरादून (उत्तराखंड) 248001 मो. 7248725245
जीवन में घटनाक्रम कभी कितने निर्मम और भयावह हो जाते हैं कि राह नहीं मिलती। अपनी विषम पारिवारिक दशा के दबाव और तनाव तथा दूसरी ओर प्राइवेट नौकरी का अचानक चला जाना, साथी कर्मचारियों का उसे संदेह की नजर से देखना, मिल मालिकों का भी उस पर ऐतबार न रखना, कहानी के नायक के नैराश्यपूर्ण अंधकार की बहुत प्रभावी प्रस्तुति है।
कथ्य और शिल्प दोनों ही दृष्टि से एक अच्छी कहानी लम्बे समय बाद पढ़ने को मिली है।
एक नये टॉपिक पर, नये अंदाज़ में बहुत ही सशक्त कहानी, आरंभ से अंत तक बांधे रखा। प्रस्तुतीकरण प्रभावशाली। अंत बहुत कुछ कहता है- शतरंज के प्यादे भी बाक़ी मार लेते हैं। किसी को कम ना समझो
एक नये टॉपिक पर, नये अंदाज़ में बहुत ही सशक्त कहानी, आरंभ से अंत तक बांधे रखा। प्रस्तुतीकरण प्रभावशाली। अंत बहुत कुछ कहता है- शतरंज के प्यादे भी बाक़ी मार लेते हैं। किसी को कम ना समझो
Interesting & informative story. Congratulations to Sudhaji for writing such a good story.
शतरंज के प्यादे भी कभी कभी बाज़ी मार लेते हैं। किसी को भी कम नहीं आंकना चढ़िये
बहुत दिनों बाद पढ़ी कथ्य और शिल्प -दोनों दृष्टियों से इतनी प्रभावपूर्ण कहानी,।
लेखिका को हार्दिक बधाई!।
शीर्षक भी क्या खूब रखा- शतरंज के प्यादे
शतरंज के प्यादे , एक मंझी हुई कहानी । अंत तक पाठक को बांधे रखती है। अचानक नौकरी जाने से असुरक्षित कि भावनाओं को बहुत संवेदनशीलता से प्रस्तुत किया है। नफ़ा , नुक़सान के चलते , कंपनी का इम्पलॉइस के प्रति संवेदनहीन होना , अंदर तक कटोच जाता है। बहुत बहुत बधाई लेखिका को ।
Very nice story