वरिष्ठ कवि। विभिन्न पत्रपत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित। वर्तमान में इलाहाबाद के आखरसाहित्यिकसांस्कृतिक मंच से संबद्ध।

अब चंदामामा दूर के नहीं रहे
(चंद्रयान के प्रक्षेपण के अवसर पर)

अब चंदामामा दूर के नहीं रहे
हिंदुस्तान के लिए
अब आने वाले हैं बहुत कुछ
जल्द उसकी मुट्ठी में
उसके करोड़ों बच्चों के लिए

क्या हुआ कि अभी बहुत दूर है रोटी
उसके करोड़ों बच्चों के हाथ से
बहुत दूर है दूध, घी और शहद

बहुत दूर हैं बच्चों के कानों से
लोरियां-गीत, किस्से-कहानियां
किसी मां-दादी-नानी के होठों से फूटकर
धीमे-धीमे बहने वाले
और परियों के सपने

बहुत दूर है
उनके पांवों से स्कूल की टाट-पट्टी
उनकी आंखों से सलेट-बत्ती, किताब-कापी
अभी भी झपटते हैं
हमारी आंखों के सामने
दैन्य से भरे उनके खाली हाथ
खाली हाथ, खाली हाथ
हमें रोकते हैं सड़कों पर उसी तरह

उनके हाथों से फूटता है अभी भी
कप-प्लेटों, चम्मचों का संगीत
उसी तरह
अभी भी बहुत अधिक बरसते हैं
कर्कश गालियों के कंकड़-पत्थर
उनके सिर पर
कानों में भरते हैं
पिघले हुए सीसे की तरह

बहुत दूर है उनके मार खाए चेहरे से
उनकी रोयी हुई आंखों से
उनके बचपन का हँसना-खिलखिलाना
उछलना-कूदना सब उलझ गया है
जाकर चंदामामा को पकड़ने वाले हाथों में

आपको दिखेगा अभी भी
राजधानी की सड़कों पर
आपके सामने खड़ा एक चांद
अपना एक हाथ बढ़ा कर पुकारता है
दूसरे में थोड़े से तिरंगे को पकड़े हुए
ले लो, ले लो, ले लो
दो रुपये में हिंदुस्तान
एक-दो नहीं
देखो, माथे पर चार चांद वाला हिंदुस्तान!

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