प्रसिद्ध लेखक और यायावर। क्रांतिकारी आंदोलन पर अब तक दो दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित। जनपदीय इतिहास और संस्कृति पर भी कई किताबें।

शांति घोष और सुनीति चौधुरी

 

एक समय कलकत्ता के ‘महाजाति सदन’ का गाइड हमें दो छात्राओं- शांति घोष और सुनीति चौधुरी के क्रांतिकारी कार्यों के बारे में विस्तार से बता रहा था। बंगाल की राजधानी कहे जाने वाले इस शहर के मध्य में नेताजी सुभाष चंद्र बोस द्वारा स्थापित किए गए इस सभागार और संग्रहालय भवन में मुक्तियुद्ध की अनगिनत झांकियां हैं। उन्हीं के मध्य ‘युगांतर’ दल के आदेश पर कुमिल्ला (अब बांग्लादेश) में तत्कालीन अंग्रेज जिलाधीश सी.जी.बी.स्टीवेंस को उनके बंगले पर जाकर उन पर गोलियों की बौछार करने वाली शांति और सुनीति की वीरगाथा से हम सुपरिचित होते हैं, जो तब कुमिल्ला के फैज़ुन्निसा गर्ल्स हाई स्कूल में 8वें दर्जे की छात्राएं थीं। शांति घोष का जन्म 27 नवंबर 1916 को कलकत्ता में हुआ था। उनके पिता देवेंद्र नाथ घोष बरीसाल के रहने वाले थे, जिनकी शिक्षा कुमिल्ला में हुई थी जहां बाद में वे विक्टोरिया कालेज में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर नियुक्त हो गए। राष्ट्रीय विचारों में रचे-पगे देवेंद्र जी के आदर्शवादी और राजनीतिक जीवन का परिवार पर सघन प्रभाव पड़ा। वे अपनी संतानों को देश के लिए समर्पित करना चाहते थे और हुआ भी ऐसा ही। देवेंद्र जी का 1927 में अचानक निधन हो गया। इस स्थिति में बच्चों के  पालन-पोषण का दायित्व उनकी मां सलिल बाला घोष पर आ पड़ा। पिता की भांति वे भी शांति को देश के काम के लिए प्रोत्साहित करतीं। शांति जब पढ़ रही थीं तब उनसे ऊपर की एक कक्षा में रहीं प्रफुल्लमयी ब्रह्म ‘युगांतर’ से जुड़कर कार्य कर रही थीं। बंगाल में 1930 के आंदोलन में ब्रिटिश सरकार ने दमनचक्र चलाया। 1931 के प्रारंभ में कुमिल्ला में छात्रों का जो सम्मेलन आयोजित हुआ उसमें ब्रह्म अध्यक्ष, शांति मंत्री और सुनीति को स्वयंसेविकाओं का प्रधान चुना गया। प्रफुल्ल ब्रह्म (प्रफुल्लमयी के भाई) के निर्देशन में लड़कियों को कुश्ती लड़ना, व्यायाम करना और अपनी रक्षा करना सिखाया जाने लगा। उन्हें देश-विदेश के क्रांतिकारियों के जीवन का अध्ययन कराया जाता। जब चटगांव के क्रांतिकारियों पर अमानुषिक अत्याचार हुए तब शांति और सुनीति बेहद उत्तेजित हो गईं। पार्टी से उन्होंने कहा, ‘हमें रिवाल्वर दो। हम अंग्रेजों का खून करेंगे।’ यह जानना जरूरी है कि स्टीवेंस को मारने की संपूर्ण योजना के पीछे थे दल के जिला संगठक ललित बमर्र्न। सबसे पहले उन्हीं के मन में यह बात आर्ई कि कुमिल्ला के जिला मजिस्ट्रेट स्टीवेंस को मौत के घाट उतार कर शहीदों के रक्त का बदला लिया जाए।

उस दिन 1931 के दिसंबर महीने की 14 तारीख थी। दिन था सोमवार का। शांति और सुनीति ने अपने रिवाल्वरों में छहछह गोलियां भर लीं। बर्मन दादा ने उनके सिर पर हाथ रखकर विदा किया। सतीश राय उन्हें एक गाड़ी पर साथ लेकर आए थे। फिर उन्होंने एक और गाड़ी बदलकर आखिर लड़कियों को वे दरख्वास्तें थमा दीं जो इलासेनऔर मीरादेवीके छद्म नामों से जिला मजिस्ट्रेट को लिखी गई थीं। शेष रास्ता उन्होंने बग्घा से पार किया। वहां बाहर प्रफुल्लमयी खड़ी थीं। नितांत अपरिचितसी।

लड़कियां बंगले के भीतर पहुंच गईं। परहेदारों से उन्होंने कहा कि वे ग्रामीण क्षेत्र की रहने वाली हैं और नदी में दो-तीन मील तैराकी प्रतियोगिता करना चाहती हैं, जिसमें बंगाली बालाएं भाग लेंगी। वे जिलाधीश से इसकी अनुमति चाहती हैं और इसका पुरस्कार वितरण उन्हीं के हाथों से करवाने की इच्छुक हैं।

एक सिपाही ने उन्हें भीतर बरामदे में ले जाकर बैठा दिया। बर्मन दादा ने अंदर का नक्शा बनाकर लड़कियों को पहले ही समझा दिया था। अब स्टीवेंस ने लड़कियों का प्रार्थनापत्र अपने हाथ में लेकर उन पर अंग्रेजी में लिख दिया, ‘हेड मिस्ट्रेस, फैजुन्निसा गवर्नमेंट गर्ल्स स्कूल फॉर फेवर ऑॅफ सजेशन प्लीज।’

वहां भीतर रहा एक डिप्टी कलेक्टर वह कागज लेकर बाहर आया और लड़कियों को समझाने लगा। पर लड़कियां जिला मजिस्ट्रेट से मिलने की जिद करने लगीं। बहस सुनकर स्टीवेंस बाहर निकल आया। बोला, ‘तुम लोग हेड मिस्ट्रेस से मिलो।’ पर लड़कियों ने स्टीवेंस से अपने प्रार्थनापत्र को पुन: पढ़ने का आग्रह किया। उसने ऐसा करना शुरू ही किया था कि शांति और सुनीति ने रिवाल्वर निकालकर उस पर गोलियां दाग दीं। स्टीवेंस भागा लेकिन फिर वहीं अपने कमरे के फर्श पर तड़प कर गिर गया। लड़कियां फिर भी गोलियां चला रही थीं।

चीखने-चिल्लाने की आवाजों पर लोगों ने दौड़कर लड़कियों को पकड़ लिया। पर वे तो प्रसन्न थीं और उनके स्वरों में ‘आमार भारत, आमार भारत’ का जयगान फूट रहा था। उन्हें चिंता इस बात की थी कि उन्होंने जिस पर हमला किया वह जिंदा है या मर गया।

स्टीवेंस की जीवन लीला समाप्त हो गई और फिर शुरू हुआ शांति और सुनीति का जेल जीवन और मुकदमे का नाटक। कैसा साहस दिखाया उन्होंने एक अत्याचारी अंग्रेज जिलाधीश का वध करने में। वे गिरफ्तार होने और मुकदमे की पूरी कार्यवाही के दौरान गजब के हौसले से भरी-पूरी रहीं। प्रफुल्लमयी भी पकड़ ली गईं और आश्चर्य की बात यह कि शांति और सुनीति के सामने पड़कर उन्होंने एक दूसरे को पहचानने से इनकार कर दिया। कोई प्रमाण न मिलने पर प्रफुल्लमयी को छोड़ दिया गया। शांति और सुनीति को जेल में कठोर यातनाएं दी गईं, पर वे जरा भी झुकी नहीं। सुनीति के अवकाश प्राप्त पिता की पेंशन रोक दी गई और बड़े भाई को गिरफ्तार करके पीटा गया। शांति और सुनीति की जीवन-कथा का यश दूर-दूर तक फैलता चला गया।

18 जनवरी 1932 को मुकदमे की कार्यवाही शुरू हुई तो नेताजी सुभाष चंद्र बोस उन लड़कियों को बचाने में लग गए। शरतचंद्र बोस भी इस काम में जुटे थे। अलीपुर जेल में शांति घोष से मिलने आए उनके छोटे मामा शिशिर कुमार ने जब उनसे पूछा कि तुम लोगों पर कोई अत्याचार तो नहीं हुआ। हँसते हुए उन्होंने उत्तर दिया, ‘कुछ नहीं हुआ। हम लोग बिलकुल सुखी हैं। आप हमारे लिए खद्दर की लाल चौड़े किनारे वाली साड़ी और लाल ब्लाउज भिजवा दें। वही पहन कर हम कचहरी जाएंगे।’ कैसा जुनून था उनके भीतर। अदालत के फाटक पर लोग इन क्रांतिकारी छात्राओं को देखने के लिए इकट्ठे हो जाते।

आखिर 27 जनवरी 1932 को हत्या का दोषी मानते हुए भी कम उम्र के कारण शांति और सुनीति फांसी की सजा से बच गईं। उन्हें आजीवन कारावास का दंड दिया गया। पर वे तो सचमुच ही फांसी पाने के लिए बहुत उत्सुक थीं और मानती थीं कि उनकी मौत की सजा भारत के घरघर में स्वाधीनता का बीज बोएगी। इस निर्णय को सुनकर उनके भीतर हताशा घिर आई। उनकी इस मन:स्थिति का वर्णन अरुण वह्निमें सघनता से उपस्थित है। सजा के बाद वे पे्रसिडेंसी जेल, कलकत्ता और फिर हिजली एवं मिदनापुर जेलों में रखी गईं।

सुनीति का परिवार बाहर अत्यंत संकट में था। उनके दूसरे भाई को भी पकड़ लिया गया। पिता वृद्ध और असहाय हो गए थे। रोजी-रोटी का भी संकट आ खड़ा हुआ। राजशाही और ढाका जेलों के बाद 1938 में सुनीति को पुन: मिदनापुर जेल भेज दिया गया, लेकिन इस बार उन्हें शांति से पृथक कर दिया गया जो दोनों के लिए अत्यंत पीड़ादायक था। गांधी-एंडरसन पैक्टर, दिसंबर 1937 के अनुसार सभी राजनीतिक बंदी छूटने लगे। जून 1939 में शांति और सुनीति भी रिहा हो गईं। सुनीति के भाई भी बाहर आ गए।

सुनीति अब पढ़ाई में जुट गईंऔर धीरे-धीरे एमबीबीएस पास कर लिया। शांति का झुकाव कला, साहित्य और राजनीति की ओर था। उन्होंने ‘अरुण वह्नि’ की रचना की और प्रदेश की संसदीय राजनीति में अपना मुकाम बनाया। शांति का परिवार प्रारंभ से ही क्रांतिकारी चेतना से संपन्न था। शुरू में ही उनके पिता ने एक नाटिका में हिस्सेदारी करने जाने से उन्हें रोकते हुए कहा था, ‘जवाहरलाल कारागार में है, और युवराज का मनोरंजन करने के लिए लड़के-लड़कियां स्कूल जाएंगे, यह कभी नहीं हो सकता।’ पिता की इस पक्षधरता ने उनके जीवन को बदल दिया। फिर प्रफुल्ल चंद्र सेन के सम्मान समारोह में पिता का उन्हें खादी के वस्त्र पहनाकर ले जाना और गांधी के आने पर कस्तूरबा के लिए उनके हाथों कुछ धनराशि भेजकर जैसे उन्होंने अपनी पुत्री के लिए देशसेवा का मार्ग प्रशस्त कर दिया, जो उनका अभीष्ट था।

घर में जो पुस्तकें आतीं वे भी शांति के बाल मस्तिष्क पर अपना प्रभाव डाल रही थीं। भाई के पास सखाराम देउस्कर की ‘देशेर कथा’ और दूसरा क्रांतिकारी साहित्य रखा होता तो वे उसे पढ़ डालतीं। ‘भगवद्गीता’ से लेकर बंकिम की ‘देवी चौधरानी’ जैसे उनकी संगिनी बन गईं। यद्यपि गांधी के सत्याग्रह के संबंध में शांति स्पष्ट कहती थीं, ‘गांधी जी के भारत के अहिंसक आंदोलन की पुकार पर बंगाल के क्रांतिकारी दलों के युवक और युवतियां कभी पीछे नहीं हटे थे, किंतु अहिंसा के संबंध में वे कभी संदेहमुक्त नहीं हो सके थे।’

गांधी के एक और अवैज्ञानिक और सर्वथा अराजनीतिक वक्तव्य की आलोचना करने से शांति नहीं चूकीं, जब 1934 के अंत में बिहार में भूकंप आया। इस अभूतपूर्व विभीषिका पर गांधी की प्रतिक्रिया थी, ‘धरती माता के द्वारा मनुष्यों के पापों के बोझ न उठा सकने की असमर्थता के कारण ही यह भूकंप आया है।’ गांधीवाद में उनकी कभी आस्था नहीं रही, पर गांधी के इस कथन और व्याख्या ने जैसे उनके भीतर केवल एक विदू्रप की भावना उत्पन्न कर दी।

शांति घोष अपनी आत्मरचना में एक स्थान पर जवाहरलाल नेहरू का उल्लेख अत्यंत संतुलित ढंग से करती हैं। वे उस राजनीतिक प्रवाह को गंभीरता से देख पा रही थीं जब कांग्र्रेस में धीरे-धीरे समाजवाद प्रभावी हो गया था और नेहरू ने इस विचारधारा के लोगों को कार्यसमिति में जगह देनी शुरू कर दी थी। पर नेहरू दक्षिणपंथी और वाम नेताओं के मध्य चले आ रहे वैमनस्य के प्रति शंकालु होकर व्यक्तिगत रूप में समाजवादी व्यवस्था में विश्वास करने पर भी उसे कांग्र्रेस पर आरोपित कर दल में विभेद उत्पन्न नहीं करना चाहते थे।

शांति घोष ने बंगाल को अधिक क्रांतिकारी बनाने में मास्टर दा सूर्य सेन और उनके चटगांव कांड को बड़ा श्रेय देते हुए ‘धन्य चट्टग्राम!’ कहकर सूर्य सेन, लोकनाथ बल, गणेश घोष, अनंत सिंह और उनके साथियों के योगदान का प्रशंसापूर्ण चित्रण किया है। वे बीणा दास से लेकर गांधीवादी ज्योतिर्मयी, चारुशीला देवी या मेदिनीपुर के प्रसिद्ध कांग्रेसी नेता मन्मथदास की मां का जिक्र करती हैं। वे उन भिन्नताओं का वर्णन करने में भी संकोच नहीं करतीं जो जेल में क्रांतिकारी और गांधीवादी कैदियों के मध्य रखा जाता रहा था।

शांति बहुत स्पष्टता से यह उल्लेख करना भी नहीं भूलतीं कि जेलों के भीतर गांधीवादी कैदी उनके बीच बैठना पसंद करते थे, लेकिन अधिकारियों को इस बात का भय और आशंका थी कि कहीं विप्लववादियों के साथ वे भी हिंसक न हो जाएं। शायद यही कारण था कि एक बार उन्हें और सुनीति को मेदिनीपुर जेल में स्थानांतरित किया गया तब सुनीति यानी उनकी प्रिय बुलबुल मेदिनीपुर से दिनाजपुर जेल में जाते समय रास्ते में गाने गाती रहीं। सिर्फ अपने लिए नहीं, बल्कि यह बताने के लिए भी कि बंदी रहकर भी क्रांतिकारी चेतना से वे भरपूर हैं और ऐसी कठिनाइयों में भी वे साम्राज्यवाद का उपहास कर सकती हैं।

वे अपनी यादों में बंगाल का क्रांतिकारी परिवेश अत्यंत मुखरता से चित्रित करती हैं, जिसमें बीणा दास की अनेक दुर्लभ छवियां हैं। शांति जेल में क्रांतिकारी संगी-साथियों से मिलतीं तो गजब के उत्साह से भर जातीं। जब कोमिल्ला की प्रतिभा भद्र, विमला प्रतिभा देवी और इंदुमती सिंह से भेंट हुई तो वे सचमुच सिहर उठीं। विमला दी ने ही उनका परिचय कुमिल्ला छात्र-छात्री सम्मेलन में सुभाष जी से कराया था। शांति की स्मृतियों में कल्पना दत्त (बाद को कल्पना जोशी) भी हैं जो बचपन में ‘भूलू’ नाम से पुकारी जाती थीं।

शांति  रवींद्रनाथ ठाकुर के बारे में स्पष्ट कहती हैं, ‘कविता में यदि कवि ने अपने को उन्मुक्त आकाश के नीचे जनता के मध्य आने का आमंत्रण, मूढ़, मूक मुखों को भाषा देने और श्रांत शुष्क भग्न हृदयों में आशा की अमोघ प्रेरणा प्रदान करने के लिए पुकारा था, किंतु अपने जीवन में विक्षुब्ध लोगों को प्रतिवाद के लिए मुखर होने की पे्र्ररणा देने के लिए वे कभी भी आगे नहीं आए।

जेल के भीतर अध्ययन-मनन का सिलसिला, साहित्य, राजनीति और विज्ञान की चर्चाएं या फिर दुर्गा पूजा जैसे अवसरों पर नाटकों का मंचन, काव्य पाठ, वर्षा मंगल आदि उनके कैदी जीवन की एकरसता को भंग करने के उपक्रम थे। यहां जेल मे आने वाली ॠतुओं का वर्णन, ताश के अड्डे, मैदा में रंग मिलाकर सांप बनाकर कैदियों और पहरेदारों को डराना तथा भीतर दलगत विरोध-मतभेद के कतिपय द़ृश्य भी उनके माध्यम से हमें जानने को मिलते रहे। शांति ने एक बार जेल से पलायन का भी गंभीर प्रयास किया, जो सचमुच चौंकाने वाला साहसिक कारनामा था, भले ही वह कामयाब न हुआ हो।

जेल में गांधी से उनकी भेंट हुई। 1938 के फरवरी में विभिन्न बंदीगृहों से गांधी से मिलाने के लिए कलकत्ता जो लोग लाए गए उनमें मेदिनीपुर से कल्पना, पारुल, सुनीति और शांति थीं। गांधी की कमर में जो घड़ी झूल रही थी, उसे एक सेफ्टीपिन से अटकाया गया था जिस पर ‘मेड इन जर्मनी’ अंकित था। शांति जी ने उनसे कह दिया, ‘आप अपने पास विदेशी वस्तु क्यों रखे हैं?’ गांधी यह सुनकर निरुत्तर हो गए। फिर कहा, ‘एक सज्जन की दी हुई है।’

शांति घोष और सुनीति चौधुरी का जेल जीवन समाप्त हो चुका था। लेकिन बाहर आते-आते उनकी अपनी दुनिया बदल चुकी थी। बाहर भी कुछ कम परिवर्तन नहीं हुए थे। सात वर्ष चार महीने का जेल जीवन जिसमें एक सर्वथा पृथक ढंग का क्रांतिकारी संघर्ष है और विजय-यात्रा है। शांति ने राजनीति को अपना कार्यक्षेत्र बनाया। वे प्रसिद्ध क्रांतिकारी चित्त दास से विवाह करके शांति दास बन गर्ईं और सुनीति चौधुरी 1944 में एमबीबीएस करने के पश्चात ट्रेड यूनियन नेता प्रद्योत कुमार घोष की जीवन संगिनी बनीं और कलकत्ता के निकट चन्द्रनगर में रहकर चिकित्सा के पेशे से जुड़ कर जनसेवा में लिप्त रहीं। 1949 से 1975 तक सुनीति जी कलकत्ता के बाग बाजार में थीं, लेकिन पति के निधन के बाद अपनी पुत्री के पास बंबई में रहने लगीं। अब बाग बाजार में सुनीति को जानने वाला कोर्ई नहीं है। बंबई में अपनी पुत्री में पास अंधेरी पश्चिम की अमर ज्योति को-आपरेटिव हाउसिंग सोसाइटी के फ्लैट में भी वे करीब डेढ़ वर्ष तक रहीं। बाद में वे कलकत्ता चली गर्ईं, जहां 70 वर्ष की उम्र में 12 जनवरी 1985 में उनका देहांत हो गया।

शांति घोष जब कलकत्ता के अपने आवास टॉप फ्लोर, 29 ए/बी, कैलाश बोस स्ट्रीट में स्नायु रोग से पीड़ित बिस्तर पर रहने लगी थीं तब तक उनके पति चित्त दास का निधन (1974) हो चुका था। अपने परिवार के मध्य अतीत की यादों को मन के किसी कोने में संजोए शांति 28 मार्च 1989 को हमसे विदा हो गईं। तब से गंगा और हुगली में बहुत पानी बह चुका है। शांति घोष और सुनीति चौधुरी दोनों अब हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनके क्रांतिकारी अभियान की कथा के निशान अभी बंगाल की धरती पर विद्यमान हैं, जिसे देखने के लिए बंगाल के साहित्य और वहां के इतिहास की बिखरी कड़ियों को जोड़ना एक जरूरी उद्यम हो सकता है।

अनिल कुमार चौधुरी के निर्देशन में हरिपाल सिंह ने ‘ये मदर्स’ (2010) नाम से शांति और सुनीति के क्रांतिकारी कारनामों पर एक फिल्म भी बनाई जो उस विप्लवी घटनाक्र्रम का बोलता इतिहास है। दुनिया की सबसे कम उम्र की इन क्रांतिकारी लड़कियों पर बने इस वृत्तचित्र का नाम नेताजी सुभाष चंद्र बोस के उन शब्दों से लिया गया, जिसे उन्होंने 1931 में छात्रों की एक कांफ्रेस में शांति घोष की डायरी में अंकित कर दिया था- ‘टु प्रेजर्व योर आनर टेक अप आर्म्स योरसेल्फ ये मदर्स।’

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