प्रसिद्ध लेखक और यायावर। क्रांतिकारी आंदोलन पर अब तक दो दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित। जनपदीय इतिहास और संस्कृति पर भी कई किताबें।
क्रांतिकारियों का एक मूक अध्याय : शचींद्रनाथ सान्याल की मां
क्रांतिकारी शचींद्र नाथ सान्याल की मां थीं-क्षीरोदवासिनी देवी। वे स्वयं क्रांतिकारी विचारों से इस तरह संपन्न थीं कि अपने चार बेटों को क्रांति-पथ पर भेजने में उन्होंने कभी संकोच नहीं किया। वे निरंतर उनकी पे्ररक बनी रहीं।
शचींद्र नाथ सान्याल को उत्तर भारत के पहले मामले ‘बनारस षड्यंत्र केस’ में काला पानी की सजा हो गई। वे 1915 की 26 जून को गिरफ्तार हुए और 14 फरवरी 1916 को उन्होंने आजन्म काला पानी के साथ सारी संपत्ति जब्त होने का दंड मिला। शुरुआत में वे बनारस के कारागार में थे। उसके बाद उन्हें अगस्त महीने मेें अंदमान द्वीप पर भेज दिया गया। अगस्त की 18वीं तारीख को वे सागर पार के उस कैदखाने में डाल दिए गए। तब किसे पता था कि वे फरवरी 1920 में वहां से रिहा कर दिए जाएंगे। यह उनका पहला बंदी जीवन था। बाद में वे अपने अंदमान के सफरनामे की कहानी लिखने चले तो अपनी कैद की कथा कम, बल्कि संपूर्ण क्रांतिकारी संग्राम का वैचारिक विश्लेषण और उसके भविष्य की रूपरेखा पर एक विचारपूर्ण पुस्तक की रचना कर डाली जो ‘बंदी जीवन’ के नाम से मशहूर हुई। यह कालांतर में युवा क्रांतिकारियों की गीता बन गई। इसे उन्होंने पहले बांग्ला भाषा में लिखा था जो बाद को हिंदी में भी आई।
शचींद्र दा उस टोली के सर्वाधिक महत्वपूर्ण क्रांतिकारी थे जिसे रासबिहारी बोस ने अपने आस-पास बुना था। उन्हें सब ‘रासू दा’ कहते थे। बहुत समय तक रासू दा ने शचींद्र दा के कहने से बनारस में रहना निश्चित किया और प्राय: एक वर्ष तक उन्होंने यहां प्रवास किया। यह उनका क्रांति का ताना-बाना बुनने का सघन समय था। वे रहे बनारस में लेकिन उनसे मिलने राजपूताना, पंजाब और दिल्ली के साथ पूर्व बंगाल के लोग भी आते थे और वे तब के युक्त प्रदेश में अनेक स्थानों पर विप्लव केंद्रों की स्थापना की कोशिशों में संलग्न बने रहे। वे एक बड़ा विप्लव करने की तैयारी में थे। इसके लिए शचींद्र दा ने पंजाब की यात्रा की। दिल्ली के क्रांतिकारियों से रासू दा का सघन संपर्क बना हुआ था। फौजी छावनियों में जिस बड़ी क्रांति की मजबूती से तैयारी की गई थी वह एक भेदिए कृपाल सिंह के षड्यंत्र के चलते असफल हो गई। सेना की बारकों में वह नहीं हो पाया जिसका जाल बुनने में क्रांतिकारियों ने अथक परिश्रम किया था। भेद खुलते ही गिरफ्तारियां शुरू हो गईं। विप्लव के इस प्रयास की असफलता पर शचींद्र दा ने अपनी पुस्तक में एक अध्याय ही लिखा है। पर वे निराश नहीं थे।
अंदमान की कैद में जाने से पूर्व अपने पारिवारिक जीवन में शचींद्र दा ने मां का कोई वर्णन नहीं किया है, लेकिन काला पानी के बंदी जीवन से छूट कर आने पर वे उन भावुक पलों का जिक्र करते हुए पहली बार अपनी मां की छवि अंकित करते हैं। लिखा है, ‘स्टेशन से जब घर की तरफ चला तो प्रतिक्षण आनंद की मात्रा बढ़ती गई। लेकिन जिस क्षण मैंने इक्के से उतर कर गली में कदम रखा तो मुझे ऐसा मालूम पड़ा कि कदम के नीचे की भूमि भी मानो कठिन एवं स्थिर नहीं है। मानो वह भूमि भी आनंद के स्पर्श से चंचल हो रही थी, हिल-डुल रही थी।
मैं चलकर घर नहीं आया बल्कि दौड़ता हुआ घर पहुंचा। क्या हृदयावेग की आकर्षण शक्ति धरित्री की मध्याकर्षण शक्ति ही की तरह अंदमान से जब चले तब से लेकर घर पहुंचने तक यह आकर्षण का वेग बढ़ता ही गया और घर के पास आकर आखिर मुझे दौड़ना ही पड़ा। मकान के नीचे के कमरे का जंगला खुला हुआ था। मैं मुहूर्त-भर जंगले के सामने आकर खड़ा हो गया। कई युवक वहां लेटे हुए थे। इनमें से दो भार्ई रवींद्र और जितेंद्र भी थे। रवींद्र मुझे देखते ही हर्षोत्फुल्ल स्वर से नाति-उच्च कंठ से चिल्ला उठे, ‘अरे, दादा हैं।’ रवींद्र बिस्तर से ऐसे उचक पड़े मानो नीचे से किसी ने जोर का धक्का देकर उन्हें ऊपर फेंक दिया हो। घूमकर दरवाजे से होते हुए अंदर आए एवं हरएक को मैंने छाती से जोर से लिपटा लिया। मेरी यह नई जिंदगी थी। मेरा यह नया जन्म प्रारंभ हुआ।
जिस रोज मैं घर पहुंचा उसके पहले दिन ही मेरे कनिष्ठ भ्राता का उपनयन-संस्कार हो चुका था। घर में यह किसी को पता न था कि आज यहां आ पहुंचूंगा। मैंने सबसे पूछा, माता जी कहां हैं? माता जी बगल के मकान में कुछ काम से गई हुई थीं। मैं पूछताछ कर ही रहा था कि इतने में वे आ गईं। मुझे देखते ही आनंद के मारे रो पड़ीं और कहने लगीं, बेटा मेरा, आ गए हो, मेरा बेटा आ गए हो। और मेरे सिर पर, बदन पर, मेरे कंधे पर और हाथ-पर-हाथ फेरने लग गईं। कहने लगीं, ‘जाने कितनी मुसीबत तुमने झेली!’
शचींद्र दा अंदमान से लौटकर फिर देश के काम में लग गए। एक पल को भी रुके नहीं। उन्हें अपने बंदी साथियों की रिहाई की चिंता थी। इसके लिए उन्होंने बहुत दौड़-धूप की। जमशेदपुर में मजदूरों के संगठन का काम संभाल लिया। क्रांति-कर्म से विमुख हो जाने की उनकी प्रवृत्ति नहीं थी। उन्होंने विवाह कर लिया। पत्नी थीं प्रतिभा सान्याल। एक संतान भी हो गई लेकिन इस बार क्रांतिकारी आंदोलन के पुनर्गठन का बड़ा काम उन्होंने अपने हाथ में ले लिया। ‘हिंदुस्तान प्रजातंत्र संघ’ का गठन उनका बड़ा उद्यम था, उसका संविधान भी लिखा। यह पूरी कवायद उनके बौद्धिक क्रांतिकारी होने का अद्भुत साक्ष्य है।
उत्तर भारत में दल के विस्तार के साथ उन्हें फिर गृह-त्याग के लिए विवश होना पड़ा। पर इस बार उनकी स्थिति भिन्न थी। उनका अपना परिवार सम्मुख था। भाई भी सोच में पड़ जाते। माता जी भी समय-समय पर नाराज होतीं। शचींद्र दा कहते हैं, ‘उस समय माता जी का अधिक दोष नहीं था। बेचारी तीस-बत्तीस वर्ष की अवस्था में ही विधवा हो गई थीं। सांसारिक सुख शांति उन्हें कुछ भी न मिली थी। अंदमान से लौटने के बाद भी मैंने साधारण गृहस्थ जीवन व्यतीत करना नहीं चाहा। माता जी ने आशा की थी कि शादी कर लेने से मैं गृहस्थ बन जाऊंगा। माता जी की यह आशा भी पूरी नहीं हुई। आशा-भंग की पीड़ा से एवं भविष्य की आशंका से मेरी माता सदा दुखी रहती थीं। एक दिन की बात हो, दो दिन की बात हो तो निभा भी लें। लेकिन बारहों माह, तीसों दिन इस पारिवारिक अशांति के बीच जीवन व्यतीत करना कितना दुखदायी है।’
शचींद्र दा उलझन में थे। यदि बच्चों को भाइयों के पास छोड़कर फरार होते हैं तो उनपर एक भारी बोझ पड़ेगा। यद्यपि जब उन्होंने विवाह किया था, उस समय उन्होंने भाइयों से आग्रह किया था कि वे क्रांतिकारी आंदोलन में संलग्न रहेंगे और जरूरत पड़ने पर परिवार का भार वे उठा लेंगे। आखिर शचींद्र दा ने यह निश्चय कर लिया कि फरारी हालत में भी पत्नी-बच्चों को साथ रखेंगे। वे जब गृह-त्याग के बारे में सोचते तो गहरी चिंता में पड़ जाते। भाइयों से दूर होना और सदा के लिए छोड़ जाना। उन्हें बार-बार स्नेहमयी जननी का चेहरा याद आता। वे कहते हैं, ‘और किसकी जननी स्नेहमयी नहीं होती? और किस संतान को अपनी जननी से पे्रम नहीं होता? सदा के लिए ऐसी मां और भाइयों से अलग होने की संभावना से मैं सदा दुखी रहता था। अंत में घर से अलग होना पड़ेगा यह मैं जानता था तथापि स्नेह-बंधन के कारण मैं उस अलग होने के दिन को सदा टालता रहता था। मैं नित्य सोचता था कि अब अलग होना पड़ेगा और फिर अलग होने के दिन को मैं टाल देता था। अपने बाल-बच्चों को तो मैंने साथ लेने का संकल्प कर ही लिया था लेकिन अपनी दुखिनी विधवा जननी को मैं किस प्रकार छोड़ जाता। यदि मैं इन स्नेह-बंधनों को नहीं तोड़ सकता हूँ तो मुझे राजनीति से अलग होना पड़ता है।’
उन्होंने आगे जो कुछ कहा, उसमें माता जी की वेदना का हिला देने वाला प्रसंग है, ‘माता जी के चार पुत्र थे। उनमें से एक चला जाएगा। तीन तो माता जी के पास रह जाएंगे। मुझे इतना ही संतोष रह गया था। एक दिन की बात है माता जी प्रयाग के अर्धकुंभी के अवसर पर कल्पवास कर रही थीं। गंगा के तट पर साधु-संतों का जमघट था। नग्न, अर्धनग्न, चंदन सुशोभित तरह-तरह के वस्त्र पहने, गौर, श्याम आदि सभी वर्ण के, उच्चे कोटि, मध्य कोटि, अथवा निम्नस्तर के नाना प्रकार के सहस्त्रों साधुओं के दर्शन के लिए जिज्ञासु अथवा कौतूहली सैकड़ों व्यक्ति प्रात:काल से संध्या तक वहां घूमा करते थे। मैं भी इन भटकते हुए व्यक्तियों में से एक था। मेरी माता जी भी स्वतंत्र रूप से अपनी टोली के साथ साधु-संतों का दर्शन करती थीं। एक गौरवर्ण सौम्य मूर्ति संन्यासी के पास मैं प्राय: जाया करता था। कुछ न कहने पर भी मेरे मन के प्रश्न को यों ही समझकर इन महात्मा जी ने मुझे बहुत-सी बातें बताईं। ….
मेरी माता जी मेरे पहले ही इन महात्मा जी के पास पहुंची थीं और उनसे उन्होंने अपना दुखड़ा सुनाया था कि मेरा लड़का निषिद्ध मार्ग पर चलकर देशसेवा करना चाहता है, हजार कहती हूँ वह मानता ही नहीं। जाने क्या धुन सवार है। एक बार आजन्म काले पानी की सजा हो गई थी लेकिन परमात्मा की कृपा से चार-पांच साल में ही छुटकारा मिल गया था। फिर वही काम करना चाहता है। उसे किसी तरह भी समझा नहीं पाया। आप महात्मा हैं यदि आप दो शब्द कह देंगे तो लड़का अवश्य ही मान जाएगा। मैं बहुत दुखी हूँ, एक घड़ी के लिए भी मेरे मन में शांति नहीं है। मैं विधवा हूँ, मेरा लड़का ही मेरा सहारा है।’
‘यह सब बातें सुनकर संन्यासी जी ने माता जी से कहा कि तुम अपने लड़के को मेरे पास लेती आना। माता जी जानती थीं कि मैं भी साधु-संतों के पास आया-जाया करता हूँ। साधु-संतों से मेरी अत्यंत प्रीति है। एक दिन माता जी ने मुझसे कहा कि चलो तुम्हें एक पहुंचे हुए महात्मा के पास ले चलती हूँ। मैं भी बड़ी उत्सुकता से साधु-दर्शन के लिए चल पड़ा तो देखता हूँ कि जिस महात्मा के पास मैं जाया करता था उसी के पास माता जी मुझे ले आई हैं। इनके पास आकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। मेरे साथ मेरी माता, मेरी पत्नी और मेरा डेढ़ साल का लड़का था। माता ने मेरी तरफ इशारा करने के बाद कहा कि यही मेरा पुत्र है जिसके संबंध में आपसे पहले कह चुकी हूँ। महात्मा जी ने माता जी को बताया कि यह तो मेरे पास पहले ही से आता है। उन्होंने मुझसे कहा- आओ पास बैठो।
‘कुछ बातचीत होने पर संन्यासी जी ने माता जी कहा कि बेटी! तुम्हारे जब चार लड़के हैं, तब तो तुम्हें एक लड़के को धर्मार्थ देना ही पड़ेगा। चार में जब तीन तुम्हारे पास रहते हैं और एक धर्मार्थ जीवन व्यतीत करना चाहता है तो उसपर तुम्हारा कोई अधिकार नहीं रह सकता। माता जी के दोनों नयन आंसुओं से भर आए, लेकिन माता जी फिर भी हँस रही थीं क्योंकि वे अच्छी तरह जानती थीं कि मेरा मार्ग धर्म का मार्ग था। मैं कोई बुरा काम करने नहीं जा रहा था। माता जी तो स्नेह की पीड़ा से जर्जरित हो रही थीं फिर भी उनकी धर्म की बुद्धि जागृत थी। एक विशिष्ट साधु के मुख से उपर्युक्त वचनों को सुनकर मेरी माता जी को युगपद दुख, स्नेह, गौरव इत्यादि की भावनाओं के समिश्रण ने एक साथ हर्ष और विषाद की अनुभूति हुई। अश्रुपूर्ण नयनों से मेरी तरफ देखकर जब माता जी हँसने लगीं तो मैं भी हर्षोत्फुल्ल नयनों से विजयोल्लास को क्षणिक अनुभूति की दीप्ति से व्यक्त कर रहा था और सौम्य मूर्ति गौरवर्ण उक्त महापुरुष की तरफ देखकर विस्मयपूर्ण चकित द़ृष्टि से कृतज्ञता एवं आत्म-समर्पण की भावना को दीनता के साथ व्यक्त कर रहा था।
‘इतने में संन्यासी जी मुझसे कहने लगे कि देखो बेटा! हिंदू शास्त्र के अनुसार तुम्हारा यह परम कर्तव्य है कि जब तुमने विवाह कर लिया है तो पत्नी की अनुमति की उपेक्षा करके तुम कोई धर्म कार्य नहीं कर सकते। यह बात मैं पहले ही से जानता था। मैं यह जानता था कि आर्य धर्म के अनुसार यदि कोई संन्यासी भी होना चाहता है तो उसे न केवल अपने माता-पिता की वरन अपनी सहधर्मिणी और दूसरे आत्मीय जनों तथा प्रतिवेशियों से भी अनुमति लेने की आवश्यकता है। इसपर मैंने महात्मा जी से कहा कि जिस दिन सर्वप्रथम मुझे अपनी पत्नी से बातचीत करने का अवसर प्राप्त हुआ था, मैंने उसी दिन अपनी सहधर्मिणी से अपना अभीष्ट कार्य करने की अनुमति ले ली थी। मैं आज भी इस बात के लिए प्रस्तुत हूँ कि यदि मेरी पत्नी मेरे अभीष्ट कार्य के लिए मुझे अनुमति नहीं देती है तो मैं उस काम को नहीं करूंगा। आप भी पूछ सकते हैं।
‘स्वामी जी ने मेरी पत्नी से पूछा, क्यों बेटी, तुम अपने पति को इस काम के लिए अनुमति देती हो! उस बेचारी तरुणी ने कंपायमान देहावयव के इंगित से विकसित कुसुम की नाईं हँसते हुए मुख को हिलाकर अपनी अनुमति प्रकट की लेकिन नयन पल्लवों के द्रुत संचालन के साथ आंखों से आंसुओं की दो-चार बूंदें टपक ही पड़ीं। बाल ब्रह्मचारी परमहंस परिव्राजक संन्यासी भी एक बार विचलित हो गए और बार-बार सिर हिलाकर हँसते हुए मुझसे कहने लगे, नहीं बेटा! यह लड़की अभी बहुत छोटी है। रोते हुए जो अनुमति इसने दी है यह स्वीकार्य नहीं है। मैंने कहा कि मैं फिर पूछ लूंगा और यह वचन देता हूँ कि यदि इसने यथार्थ में अनुमति नहीं दी तो मैं इस काम को नहीं करूंगा।’
आखिर 1924 में शचींद्र दा फिर फरार हो गए लेकिन इस बार इलाहाबाद के अपने घर से पत्नी और बच्चों को लेकर। वे लिखते हैं, ‘मैं जून महीने में इलाहाबाद से फरार हुआ था। इस समय मेरे मकान में मेरे सब निकट आत्मीय उपस्थित थे। मेरे मामा थे, मेरी मौसी, मौसी की एक पालित कन्या, मेरे तीनों भाई, मेरे मंझले भाई की पत्नी तथा मेरी पत्नी। कालेज में छुट्टी रहने के कारण मेरे मंझले भाई श्री रवींद्रनाथ सपरिवार इलाहाबाद आए हुए थे। जब हम सब भाई एकत्र होते थे तो पहला सप्ताह घोर वाद-विवाद में व्यतीत होता था। भोजन के लिए माता जी चिल्लाया करती थीं और हम वाद-विवाद में मस्त रहते थे। सामाजिक और राजनीतिक समस्याओं की मीमांसा किए बिना खाने कौन जाए। ….रवींद्रनाथ जानते थे कि मैं निषिद्ध मार्ग पर, संकटपूर्ण रास्ते से, राजनीतिक क्षेत्र में अग्रसर हो रहा था।
‘एक दिन रवींद्रनाथ से फिर वही पुरानी बहस शुरू हो गई। एक बड़े कमरे में हम पांच व्यक्ति उपस्थित थे। रवींद्रनाथ को छोड़कर मेरे मामा और मेरी माता जी भी बहस में भाग ले रही थीं। मेरी पत्नी कुछ दूरी पर बैठी हुई हम लोगों की बातें ध्यान से सुन रही थी। जैसा हुआ करता है बातचीत यों ही शुरू हुई और धीरे-धीरे उसने गंभीर रूप धारण कर लिया। मेरी माता जी एक पढ़ी-लिखी और समझदार स्त्री थीं। राजनीतिक और सामाजिक बातों में भी उनके विचार बहुत स्वच्छ एवं निर्भीक थे। माता जी से स्नेहावरण के कारण सत्यता नहीं छिपती थी। रवींद्रनाथ ने यद्यपि इतिहास में एम.ए. पास किया था, तथापि राजनीतिक मामलों में उनके विचार माता जी की नाईं स्वच्छ एवं निष्पक्ष नहीं थे। रवींद्रनाथ स्नेहावेश में आकर सत्य की मर्यादा का उल्लंघन करते थे। मेरे मामा जी भी परम स्नेहवश रवींद्रनाथ के ही पक्ष का समर्थन कर रहे थे। मेरी माता जी, मामा जी एवं रवींद्रनाथ मुझे विद्रोही के कठोर अग्निमय विनाशकारी मार्ग में जाने से रोकते थे।’
‘रवींद्रनाथ के बताने पर कि मैं अनुचित मार्ग पर जा रहा हूँ मैंने माता जी से पूछा, क्यों माता जी क्या तुम भी ऐसा ही समझती हो? माता जी ने मृदु–मृदु हँसते हुए कहा कि, नहीं मैं ऐसा नहीं समझती हूँ। मैं यह नहीं कह सकती कि तुम गलत रास्ते पर जा रहे हो। मैं केवल इतना ही कहना जानती हूं कि अब मुझसे सहा नहीं जाता। आज भी मेरे सामने वह द़ृश्य भयानक आतंक की सृष्टि करता है जो कि मजदूरिन ने आकर तुम्हारी पहली गिरफ्तारी के दिन कहा था। कपड़े का खूंट तुम्हारे गले में लिपटा है, हथकड़ी से दोनों हाथ बंधे हुए हैं, एक वस्त्र लेकर थाने की हवालात को तुम जा रहे हो।…
‘यह सन 1915 की बात थी। राजनीतिक षड्यंत्र के मामले में यह मेरी पहली गिरफ्तारी थी। उस द़ृश्य का वर्णन करते-करते माता जी का सुंदर मुखावयव ऐसा गंभीर और कोमल हो गया जैसे वर्षणोन्मुख घन-विन्यस्त बादल होते हैं। अभी तक हमारी बातचीत में कुछ ऊष्मा थी, कुछ हास-उपहास, कुछ व्यंग्य, कुछ छेड़-छोड़ थी। अब सबके चेहरों पर कुछ गंभीरता आ गई। माता जी ने मेरा नाम लेकर पूछा, क्या तुम्हें डर नहीं मालूम होता? क्या वे काले पानी के द़ृश्य याद नहीं आते? मैंने सरलतापूर्वक कहा, माता जी! मुझे आज भी वे द़ृश्य स्पष्ट और मर्मांतक रूप से याद हैं, उनसे मैं विचलित भी हो जाता हूँ, डर भी मालूम होता है। जेल का भोजन, जेल अधिकारियों के तिक्त और निष्ठुर व्यवहार ये सब बातें स्मरण आते ही रोम खड़े हो जाते हैं। और जिस मार्ग पर मैं चल रहा हूँ उसका अन्तिम परिणाम मेरे लिए कुछ अच्छा नहीं है यह भी सत्य है। परन्तु यह सब जानते हुए भी मैं कर्त्तव्य-पथ से कैसे हट जाऊं? यदि भारत को स्वाधीन होना है तो मेरे ऐसे शत-सहस्त्र युवकों को ऐसे निर्मम निर्यातन सहने ही पड़ेंगे। जिस रास्ते पर मैं जा रहा हूं केवल इसी रास्ते से ही भारत स्वाधीन हो सकता है और दूसरा रास्ता नहीं है।’
‘मेरी इस बात ने और माता जी के हार्दिक व्यथापूर्ण मौन समर्थन ने विवाद कर अंत कर दिया। माता जी की बात ने मानो हम सब भाइयों के मन को झकझोर डाला। वृष्टि से जो पहले ही भलीभांति आर्द्र हो चुका हो ऐसे वृक्ष को झकझोरने से जैसे उसके पत्तों से एकदम बूंदों की बौछार होने लगती है वैसे ही हम चारों के नयनों से नीर की बौछार होने लगी। रोते-रोते अपूर्ण उच्चारण से मैंने कह दिया कि मेरे निकल जाने की सब तैयारी हो चुकी है। मैं अब वृथा कालक्षेप न करके निकल पड़ूंगा। उस समय यह नहीं मालूम पड़ता था कि कौन किसे सान्त्वना दे। घंटेभर की ऊष्मता वाष्पाकार में परिणत हो गई। अव्यक्त एवं अवर्णनीय स्नेह ने आंसुओं का रूप ग्रहण कर लिया। मानो हम परस्पर के और निकटवर्ती हो गए।
‘पता नहीं मेरी तरुणी भार्या पर क्या बीत रही थी। गोद में बच्चों को लिए हुए बेचारी सर्व क्षण एकाग्रचित्त होकर बैठी हमारी बातें सुन रही थी। पता नहीं अपने भाग्य को कोसती थी या सराहती थी। अथवा अनिश्चित विपद की आशंका से भय-विह्वल हो रही थी।…मैंने दो नन्हे-नन्हे बच्चों और तरुणी भार्या को साथ लेकर ब्रिटिश शासन के विरुद्ध विद्रोह करने के लिए फरार होने का साहस किया। अज्ञात दिशा में जाना था, इसलिए मौसी की पालित कन्या से प्रार्थना की कि थोड़े दिनों के लिए तो आप मेरे साथ हो लीजिए। घर के सब लोगों ने इस बात को स्वीकार कर लिया। नूटू दीदी मेरे साथ चलने को तैयार हो गईं। पुलिस की द़ृष्टि से बचना था। बाल-बच्चे असबाब बिस्तरे लेकर पुलिस की निगाह से बचाकर रेलवे स्टेशन से चलना है। स्टेशन पर पुलिस की सख्त निगरानी है।
‘इलाहाबाद में पुलिस मुझसे ज्यादा और किसे पहचानती थी? मेरे भाई और बच्चों को लेकर स्टेशन के लिए रवाना होने लगे। मैं उस समय घर में था। माता जी की सहन-शक्ति अंतिम सीमा तक आ पहुंची थी। जितना रोती थीं, उससे कहीं अधिक उनकी देह दुखावेश में हिल रही थी। ओंठ कांप रहे थे, ठोड़ी संकुचित विकुचित हो रही थी। भौहें कुंचित थीं, आंसू अविराम टपक रहे थे। द्वार तक आकर जब माता जी मेरे बच्चे को लेकर गाड़ी पर चढ़ने लगीं तो वह बहुत रोने लगीं। मेरा दो साल का बच्चा झुक-झुककर बार-बार माता जी का मुंह देख रहा था। बुद्धदेव को महाभिनिष्क्रमण के समय ऐसा द़ृश्य देखना नहीं पड़ा था।’
शचींद्र दा सीधे स्टेशन नहीं गए। वे बचते-बचाते किसी दूसरे मार्ग से रेल के डिब्बे में जा पहुंचे जबकि उनके मामा जी और भाइयों ने उनकी पत्नी और बच्चों को ट्रेन में सवार करा दिया।
अब वे चल पड़े चंद्रनगर की ओर, जहां ठहरने की उन्होंने व्यवस्था कर ली थी। लेकिन उस जगह पहुंचने पर नज़ारा दूसरा ही था। परिचित नरेंद्रनाथ बनर्जी उन्हें आश्रय देने को तैयार न थे। पत्नी ने यह जो द़ृश्य देखा तो बहुत निराश हुईं। बोलीं, इन्हीं आदमियों के सहारे इतना बड़ा काम करने जा रहे हो? शचींद्र दा कुछ नहीं बोले। फिर धीरे से कहा कि कोई परवाह नहीं है, अभी दूसरा बंदोबस्त हुआ जाता है। कहने को कह तो दिया उन्होंने, पर होगा क्या? साथ में पत्नी, तीन महीने की एक शिशु कन्या और दो साल का बालक जो भूख से व्याकुल हुआ जा रहा था। पास में दूध था नहीं। शिशु कन्या की क्षुधा तो मां के स्तनपान से शांत हो गई थी लेकिन बेटा निरंतर रो रहा था। ऐसे में घर से चलते समय शचींद्र दा की मां ने जो रसगुल्ले बांध दिए थे वे उसे खाने को दिए, पर उसके मुंह से पहली बार निकला- दूध दाओ! यह शब्द उसने पहली बार बोले थे जो शचींद्र दा और उनकी पत्नी की बेचैनी बढ़ाने के लिए पर्याप्त थे। किसी तरह वहां मिले बाबू श्रीशचंद्र घोष जो क्रांतिकारी दल के बचे-खुचे साथियों में थे। उन्होंने थोड़े समय के लिए आश्रय दिया और बाद को नजदीक के श्रीरामपुर में रहने के लिए मकान खोज लिया।
पीछे घर पर रह गर्ईं थीं मां। कैसे समय व्यतीत किया होगा उन्होंने। चार पुत्रों की वह जननी असमय विधवा हो गई थी। कितने कष्टों से पाला था अपनी संतानों को। शचींद्र दा तो पहले ही बनारस मामले में आजीवन सजा के लिए काला पानी गए लेकिन जल्दी रिहा हो गए। बाद को काकोरी के मुकदमे में शचींद्र दा और भूपेन्द्र को सजा हो गई। भूपेन्द्र की कम उम्र के कारण वह काकोरी केस के समय अक्सर चिन्तित रहती थीं। पुत्रों का यह विछोह और कष्ट सहतेस-झेलते आखिर वह मां 1928 में चल बसी।
शचींद्र दा को एक दुखद समाचार लखनऊ जेल में मिला तो वे गहरी पीड़ा से भर गए। 8 अप्रैल, 1928 को अपने भार्ई रवींद्रनाथ को एक पत्र में उन्होंने लिखा, ‘मां के चेहरे पर वियोग व कष्ट की पूरी झलक मिलती थी। वह मां होते हुए भी जैसे मुझसे कुछ मांग रही थी। वह कितनी असहाय दिखाई दे रही थी और हम सब कितने असहाय हैं। मैंने कई माताओं के जीवन के अंतिम दिनों में उनकी सेवा की है। परंतु यह मेरा दुर्भाग्य है कि मैं अपनी प्यारी मां के अंतिम दिनों में उसके पास नहीं रह पाया। मैं दोषी हूँ और मुझे अपने दोष की सजा मिली है। लगता है कि मेरे सांसारिक जीवन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण आकर्षण समाप्त हो गया। मैं उसे बहुत प्यार करता था। लेकिन मैं इस प्यार को अभिव्यक्त नहीं कर पाया।…..सोचता हूँ कि मैं अपनी लायक मां का एक नालायक बेटा हूँ। उसने अपने बच्चों के लिए कितना त्याग किया व कष्ट सहे। उसने हमारी भावनाओं का आदर किया और हमारी राजनीतिक गतिविधियों के औचित्य पर कोई प्रश्न नहीं किया। यही नहीं बल्कि नैतिक संकट के समय उसने हमारा समर्थन किया। हमारी मां जैसी मातायें भारत में बहुत कम हैं।…..मुझे बताना कि मां के अंतिम दिनों में उससे तुम्हारी क्या बातचीत हुई।’
मुझे नहीं पता कि रवींद्रनाथ ने अपनी मां के दिनों का कोई हाल अथवा उनसे हुई चर्चा का विवरण शचींद्र दा को लिखा या नहीं। हमारे पास उसे जानने का जरिया भी नहीं है। हां, लखनऊ के केंद्रीय कारागार से शचींद्र दा ने मां के नाम एक पत्र लिखा था। यह मूल रूप से अंग्रेजी में है :
मार्फ़त
अधीक्षक
केंद्रीय कारागार,
लखनऊ
30.1.1927
मेरी प्यारी मां,
इस बार मैंने अंग्रेजी में लिखना इसलिए चुना है क्योंकि इन रियासतों की जेलोंं में बंगाली में ख़त लिखना बड़ी उलझन भरा है। बहरहाल, आप मुझे हिंदी में ही जवाब भेजें और जल्दी भेजें। वो सात अंग्रेजी किताबें और 50 रुपए मुझे मिल गए हैं। ‘जगत कथा’ सेंसर के लिए सीआईडी को भेज दी गई है। अब मुझे मुलाकात का मौका 9 नवंबर के बाद ही मिलेगा। मैं तो कहता हूँ कि आप इस बात मत आइएगा। मां, मैं जानता हूँ कि एक-दूसरे को देखना कैसा होता है, मगर यह सुख और दुख एक ही समय भोगने जैसा है।
ओ मां, मैं जानता हूँ कि आपने अपनी पूरी जिंदगी मुसीबतें उठाई हैं। आपने हमारे लड़कपन के दिनोंं से ही एक फरिश्ते ही तरह हमारी देखभाल की और बहुत मुश्किल दौर में भी तमाम उलझनों और तनाव के बावजूद हमें राह दिखाई। आज हम जो कुछ भी हैं आपकी देखभाल और फ़रिश्ते जैसी उस हिफाजत के कारण ही हैं। ओ मां, आपके और परिवार के मामले में मैंने जो भी ग़लतियां की हैं उनके लिए मुझे माफ़ कर दें। मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि वो आप पर और हम सब पर दया करे। मां, अपने दिन पढ़ने और सोचने में बिता रहा हूँ मगर कभी-कभी मुझमें एक खास तरह की पीड़ा और दुख उमड़ पड़ता है जिसे मैं ठीक से परिभाषित नहीं कर सकता। कृपा कर ………से कहें कि जितेन के साथ आकर मुझसे मिल लें और अगर मुमकिन हो तो प्रिया कुमार से कहें कि वो भी उनके साथ आ जाएं। मुझे नहीं पता कि इस साल दुर्गा पूजा कब मनाई जाएगी? जितेन को लिखे मेरे ख़त से आपको और बातें पता चल जाएंगी। कृपा कर मेरा श्रद्धापूर्ण प्रणाम स्वीकार करें, मासीमा और बोदीदी को भी प्रणाम कहिएगा। मेरे सभी छोटों को मेरा प्यार दें। जवाब जल्द दीजिएगा। आपके आशीष का अभिलाषी आपका बहुत चहीता
शचींद्र
(अनुवाद : मुशाहिद रफ़त)
इसके बाद लखनऊ जेल से शचींद्र दा का स्थानांतरण नैनी जेल इलाहाबाद कर दिया गया, उस समय उनके भाई जितेंद्र नाथ पर लाहौर षड्यंत्र का मुकदमा चल रहा था। उस समय उन्होंने जितेंद्रनाथ लिखे एक पत्र में उन अच्छे दिनों की स्मृति का उल्लेख किया था जब उन्हें पुत्र रंजीत की प्राप्ति हुई थी। बहुत भावुक होकर उन्होंने कहा था कि किसी दिन हम चारों भाई घर में पुन: एक साथ हो सकते हैं, संभवत: हालात भी सुख हों परंतु प्यारी मां नहीं होगी।
मां का निधन 1928 के अप्रैल महीने की किसी तारीख़ को हो गया था।
हमें यह जानकारी तो मिलती है कि अंदमान जेल से शचींद्र दा ने अपने मां और भाई रवींद्रनाथ को पत्र लिखे, पर वे देखने-पढ़ने के लिए उपलब्ध नहीं हो सके। यद्यपि उनमें से कुछ उनके परिवार के सदस्यों के पास थे। शायद उस सामग्री का कुछ अंश लखनऊ के राज्य अभिलेखागार में हो। इन पत्रों में अवश्य उस मां का चेहरा अपनी सम्पूर्ण सहृदयता और साहस के साथ बोलता-झांकता होगा जिसका हम केवल अनुमान कर सकते हैं। मां ने भी शचींद्र दा को जो पत्र अंदमान भेजे थे, उनमें सिर्फ अपने बेटे की ही चिंता उन्हें नहीं रहती थी बल्कि वहां उन दिनों बंदी दूसरे क्रांतिकारी के प्रति उनके स्नेह की धारा बही होती थी।
इसी ‘युगांतकारी मां’ पर सितंबर, 1928 के ‘किरती’ में एक संपादकीय नोट लिखा गया था:
हमारे पाठक हिंदुस्तान के प्रमुख युगांतकारी श्री शचींद्रनाथ सान्याल जी के नाम-काम से अच्छी तरह परिचित हैं। हम उनका चित्र भी ‘किरती’ में प्रकाशित कर चुके हैं। उनका संपूर्ण परिवार ही युगांतकारी है। 1914-15 वाले गदर आंदोलन मेंं उनके दो भाई गिरफ्तार किए गए थे, जिनमें से एक नजरबंद हैं और दूसरे को दो साल की कैद हुई और स्वयं उन्हें आजीवन कारावास की सजाएं हो गयी थीं। अब उन्हें काकोरी के में फिर आजीवन कैद की सजा हो गई है। साथ ही उनके सबसे छोटे भाई श्री भूपेंद्रनाथ सान्याल जी को पांच बरस की कैद हो गई है। यह भी अपने बड़े भाइयों की तरह दिलेर हैं और खुशदिल रहने वाले हैं।
ऐसे वीर पुत्रों की जननी मां धन्य है। लेकिन हमें अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि 52 साल की उम्र में लगभग एक माह पूर्व उनका देहांत हो गया था। वह कोई सामान्य स्त्री नहीं थी। वह स्वयं भी पढ़ी-लिखी और क्रांतिकारी विचारों वाली थीं।
श्रीमती क्षीरोदवासिनी देवी अपने बच्चों को घर में स्वयं पढ़ाती थीं। स्वदेशी आंदोलन के बाद में उन्होंने स्वयं ही अपने पुत्रों को अनुशीलन समिति में भर्ती करवाया। अनुशीलन समिति बंगाल की एक पार्टी थी, जो उस समय तक खुफिया राजपरिवर्तनकारी दल नहीं बनी थी, लेकिन बाद में वही सबसे बड़ी और शक्तिशाली राजपरिवर्तनकारी पार्टी बन गयी थी।
बाद में मां को यह भी पता लग गया कि शचींद्र युगांतकारी दल में शामिल हुआ है। लेकिन वह कभी घरबराई नहीं, उनसे सहानुभूतिपूर्वक व्यवहार करती थीं। वह प्रसन्न थीं कि उनका बेटा देश-सेवा में संलग्न है।
उनके सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार के कारण काफी दूर-दूर से युगांतकारी उनके दर्शन के लिए आते थे। उनमें श्री रासबिहारी बोस, हिंदुस्तान के राजपरिवर्तनकारी शहीदों के सिरमौर श्री जतींद्रनाथ मुकर्जी तथा श्री शशांक हाजरा आदि शामिल थे। वह बंगाल के युगांतकारियों में ‘युगांतकारी मां’ के रूप में मशहूर थीं। दूर अंडमान के बंदियों के बीच भी उनकी ख्याति पहुंच चुकी थी।
1915 में जब गदर पार्टी ने चारों तरफ जबर्दस्त बगावत करने की तैयारियां की थीं, उस समय श्री शचींद्रनाथ सान्याल और उनके दोनों युवा भाई इस काम में जुटे हुए थे। स्मरण रहे कि इनके पिता का देहावसान हो चुका था। इस कारण परिवार का बोझ भी इनके सिर आ पड़ा। जब फरवरी में विद्रोह पैदा करने की तारीख भी तय हो चुकी थी, तब इन भाइयों में आपस में विवाद चल पड़ा कि कौन पीछे रहकर परिवार की देखभाल करे, क्योंकि कोई भी पीछे रहने के लिए सहमत नहीं होना चाहता था। दोनों की यह इच्छा थी कि देश के स्वतंत्रता-संघर्ष में वे सक्रिय रूप से मैदान में कूद पड़ें। तब उनकी वीर माता ने आगे आकर कहा कि वह किसी की राह में नहीं आना चाहतीं, जिस किसी की भी इच्छा हो, वह उनकी चिंता छोड़कर देश-सेवा के कार्य में जुट जाए।
पर वह सारा काम तो बीच में ही रह गया। गदर की सारी योजना फेल हो गई। मुकदमा चला। श्री शचींद्रनाथ सान्याल को आजीवन कैद हो गई। जब वह बनारस जेल से अंडमान (काले पानी) भेजे गए, उस समय उनकी आयु 22 बरस की थी। मां उनसे मिलने गई और प्रसन्नतापूर्वक कहा, ‘मेरा पुत्र सचमुच संन्यासी हो गया है। मैं बहुत प्रसन्न हूँ कि उसने अपना जीवन देश-सेवा के लिए अर्पित कर दिया है।’ इसके पश्चात पुलिस उनका पीछा करने लगी और बहुत परेशान करती रही।
अब काकोरी केस चला और जब उनका छोटा पुत्र श्री भूपेंद्रनाथ सान्याल भी गिरफ्तार कर लिया गया तो इनको बहुत घबराहट हुई, क्योंकि वह अभी बिल्कुल बच्चा था और पढ़ रहा था। ज्यादा चिंता यह थी कि संकट में कहीं वह घबरा न जाए। लेकिन मालूम हुआ कि वह जेल में बिल्कुल निश्चिंतता से रह रहा है। इस बात से इन्हें बहुत खुशी हासिल हुई। कहने लगीं, ‘मुझे अपने भूपेंद्र से यही आशाएं थीं।’
लेकिन उनका सारा जीवन कठिनाइयों में ही गुजर गया। उन्हें कभी चैन का समय ही नहीं मिला। देखते-देखते काकोरी का मुकदमा समाप्त हो गया। और कोई ठोस सबूत न मिलने के बावजूद श्री शचींद्रनाथ सान्याल को आजीवन कैद और भूपेंद्रनाथ को पांच साल की सजा हो गयी। यह झटका उनके बर्दाश्त न हो सका। यह चोट उनसे सही न गई। वह फिर कभी न संभल सकीं। लेकिन अपने पुत्रों पर उन्हें बहुत फख्र रहा। उन्होंने शचींद्रनाथ सान्याल को अपने अपने अंतिम पत्र में लिखा था कि दुनियादारी के हिसाब से भले ही मैं बहुत गरीब हूँ, लेकिन मेरे-जैसा अमीर कौन है जिसके पुत्र सत्यपथ पर चल रहे हैं और देश-सेवा में जिन्होंने अपनी जिंदगियां अर्पण कर दी हैं, मुझे अपने पर बहुत नाज है।
आह! ऐसी और कितनी माताएं आज हमारे देश में हैं? धन्य है यह मां और धन्य-धन्य हैं इनके सुपुत्र!
शचींद्र दा की मां क्षीरोदवासिनी देवी के न रहने के बाद से करीब अर्द्धशती का समय गुजर चुका है, लेकिन उस ‘युगांतकारी मां’ की फिर किसी को याद नहीं आई।
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