एक बार सर्दी के दिनों में मैं ट्रेन से सफर कर रही थी।मेरे सामने वाले बर्थ पर एक बारह साल की बच्ची बैठी हुई थी।
वह मुझे भयभीत नजरों से बार-बार निहारे जा रही थी।थोड़ी देर में ही वह नफरत भरे लहजे में कहने लगी- ‘कालो! भागो!’
मैं चकित थी।भला यह बच्ची मुझे देख कर इस तरह क्यों रिएक्ट कर रही है।
वह मुझ पर हमला करने जैसे भावावेश में बोलने लगी, ‘कालो-कालो! बदमाश! भगाओ, भगाओ।’
मैं उसके इस आचरण से सहम गई।बच्ची की माँ उसे बार-बार चुप कराती और संभालती।
मैंने पूछा, ‘यह ऐसा क्यों कर रही है।’
बच्ची की मां ने संकोच के लहजे में मुझसे कहा, ‘आप काला शॉल ओढ़ी हुई हैं न, यह देख कर वह समझ रही है कि आप मुस्लिम हैं।’
‘अरे, नहीं-नहीं बेटा, डर क्यों रही हो।मैं तो हिंदू हूँ।’ यह कहते हुए मैंने अपना शॉल हटा लिया।
बच्ची शांत हो गई, पर रास्ते भर मुझे संदेह भरी नजरों से देखती रही!
द्वारा डॉ. अनिल कुमार ‘अनल’, कुमार आयुर्वेद भवन, जैनामोड़, बोकारो-८२९३०१, झारखंड मो.९५८०११०६०५
बच्चों में गलत अवधारणा के लिए अभिभावक व उसका परिवेश जिम्मेवार रहा है जिसे समय रहते परिमार्जित कर दिया जाना चाहिए ,, अव्वल तो ऐसी धारणा का भूल से भी बीजारोपण न हो जो आगे चलकर विभीषक समाज बने,,, संभावना से भरी लघुकथा।