(७ सितंबर १९३४ – २३ अक्तूबर २०१२)
बांग्ला के प्रसिद्ध कवि-लेखक।२०० से अधिक पुस्तकों के रचयिता।प्रसिद्ध उपन्यासों में ‘प्रथम आलो’, ‘सेई समय’, ‘मोनेर मानुष’ आदि।कई कृतियों पर बांग्ला फिल्म।

अप्रेषित खत (ना पाठानो चिठि)

 

अनुवाद : सुरेश शॉ

कविकथाकार और अनुवादक।कहानी संग्रह बाघाऔर बदलते चैनल और अन्य कहानियां।संप्रति कोलकाता में शिक्षण।

मां, तुम कैसी हो?
मेरी पोसी हुई बिल्ली खुनचु, वह कैसी है
रात को वह किसके संग सोती है
दोपहर को
अली साहेब के बगीचे में कहीं घुस न जाए
खयाल रखना
मां, मचान पर फैली तुरई की लताओं में
फूल आए हैं क्या?

तुली को
मेरी लाल पाड़ वाली साड़ी पहनने को कहना
कहना कि
आंचल के फटे हिस्से को जरूर सिल ले
तुली को मैंने कितना मारा है
अब कभी नहीं मारूंगी
मैं अच्छी हूँ मां, मेरी चिंता मत करना
मां, घर के छप्पर पर नया खर बिछवा दिया है न?
इस बार बहुत बारिश हुई है
तरफदार बाबू का पोखरा भर गया है क्या?
कालू-भूलू को मछलियां मिलीं कि नहीं?
बादलों की गड़गड़ाहट सुनकर
एक दफा केवई मछलियां उतरा गई थीं
पोखरे के भिंडे पर
मैंने भी आम के पेड़ के पास से
दो केवई मछलियां पकड़ी थी
तुम्हें याद है न मां?

स्मरण है, अली साहेब के बगीचे से
उस नारियल को मैंने चुराया नहीं था
वह जमीन पर गिरा पड़ा था
किसी ने देखा नहीं, तो उठा लाई थी
नारियल के गुलगुले का स्वाद
मेरे मुंह में अभी तक घुला हुआ है मां

अली साहेब का भाई मिजान मुझे प्यार करता था
बाबा ने एक दिन देख लिया
और मुझे चैला से पीटा
इसमें मेरा क्या कसूर मां
कोई प्यार करे तो मैं मना कैसे करती?

मेरी पीठ पर वह दाग अब भी मौजूद है
अली साहेब के बगीचे में दुबारा नहीं गई
किसी और के बगीचे में भी मैं कभी नहीं गई
उस दाग तक हाथ जाते ही बाबा की याद आ जाती है
उनके लिए मुझे दुख होता है
मैं अच्छी हूँ मां, बहुत अच्छी हूँ
बाबा मेरे लिए कोई चिंता न करें

क्या तुली अभी भी भूत के नाम से डरती है?
तुली और मैंने एक बार पोखरा के किनारे
भूत सरीखी एक कदलीबहू देखी थी
तभी से तुली को
मिरगी आने की बीमारी ने जकड़ लिया
भइया ने उस कदलीस्तंभ को जड़ से काट दिया
मैं कभी डरी नहीं
अलबत्ता तुली को जब-तब चिढ़ाती रही
मुझे फिर से आधी रात को
उस कदलीबहू को देखने की इच्छा होती है मां!

और हां मां, भइया को कोई काम मिला या नहीं?
नकूड़बाबू ने कहा था
वह भइया को बहरमपुर ले जाएंगे
भइया से कहना, मैं उससे नाराज नहीं हूँ
रोष पाल कर रखने से
आदमी को बहुत तकलीफ होती है
मेरी देह पर अब कोई निशान नहीं है
अब मैं बिलकुल नहीं रोती मां

मैं रोज बाहर की दुकान से
खाना मंगाकर खाती हूँ मां
दोनों वक्त का खाना मेरे लिए होटल से आता है
मांस का कौर मुंह में डालते ही
तुली की याद आ जाती है
कालू-भूलू भी याद आने लगते हैं
मां, तुम लोगों के गांव में परवल मिलता है न!
मैं आलू-परवल की तरकारी खाती हूँ
बहुत बार परवल की भुजिया भी खाती हूँ
होटल में कभी साग नहीं पकता
पोखरे के किनारों से मैं और तुली
कलमी-साग खोंटकर लाते थे
बहुत मजा आता था, बिना पैसे का साग
पर मेरी किस्मत में अब साग कहां लिखा है मां!

जोर से हवा बहने पर ताड़ के पत्ते
बारिश होने जैसा सरसर आवाज करते हैं
भादो के महीने में
ताल पककर टप-टप नीचे गिर पड़ते हैं
अपने घर के दोनों ताड़ के पेड़ अब भी हैं न मां?
कालू को ताल के मीठे पकौड़े खूब भाते हैं
उसके लिए एक दिन बना देना
तेल शायद बहुत महंगा हो गया है
फिर भी एक दिन बना देना

मुझे बेचकर तुम्हें हजार रुपये मिले थे
उन रुपयों से एक गाय खरीदी गई है न?
वह भरपूर दूध देती है न?
मेरी जैसी लड़की से गाय, कहीं अच्छी है
गाय का दूध बेचकर
घर-परिवार का खर्च चलता है
गाय के बछड़े होते हैं
उससे भी खुशियां छाती हैं

घर पर बेटियों का होना, महा झंझट का होना है
दो जून का खाना दो, पहनने को साड़ी दो
विवाह के लिए वर ढूंढो, झमेला ही झमेला
हाबलू, मिजान और श्रीधर जैसे
लफंगों की छेड़छाड़ से बेटी को बचाओ
क्या मैं यह सब नहीं समझती? सब समझती हूँ
मुझे बेचा क्यों गया, वह भी समझती हूँ
तभी तो मेरे मन में कोई मान नहीं, कोई रोष नहीं
मैं मजे से खाती-पीती हूँ
बहुत अच्छी हूँ बहुत खुश हूँ

तुम लोग उन पैसों से
घर-द्वार की मरम्मत करवा लेना
कालू-भूलू को स्कूल भेजना
तुली का डाक्टर से इलाज करवा देना
अपने लिए एक साड़ी और बाबा के लिए
एक धोती खरीद लाना
भइया को घड़ी पहनने का शौक है मां
पर इतनी कम रकम में इतने खर्चे! कैसे होगा?
मैंने कुछ पैसे बचा रखे हैं
सोने के कर्णफूल भी बनवाए हैं

एक दिन क्या हुआ मां, जानती हो!
आकाश में घटाएं घिर आई थीं
दिन में ही रात-सा अंधेरा छा गया था
मन, एकाएक कैसा-कैसा होने लगा
दोपहर को चुपचाप
घर से निकलकर रेल गाड़ी में सवार हो गई
स्टेशन पर उतरकर देखा
वहां केवल एक रिक्शा खड़ा है
बड़ी इच्छा हुई, एक बार अपने घर घूम आऊं
रथतला मोड़ तक पहुंचते ही
अचानक कुछ लोग शोर मचाने लगे-
कौन है? वह कौन जा रही है?
देखा, हाबूल और श्रीधर के संग बैठा
भइया ताश खेल रहा है
कहा, हरामजादी! तू यहां क्यों लौट आई है?
मैं भयभीत होकर बोली
लौटी नहीं हूँ, यहां रहने भी नहीं आई हूँ

एक बार केवल देखने आई हूँ
हाबूल गरजा, यह एक खालिस-बेहया रंडी है

कैसे समझा वह मां, बताओ तो जरा
क्या मेरी देह पर ऐसा कुछ लिखा हुआ है?
और एक लड़का, जिसे मैं नहीं जानती
कहने लगा-
छीः छीः छीः गांव का नाम बदनाम हो गया
हाबलू, रिक्शावाले पर आंखें तरेर कर बोला
लौटा ले जा इसे
मैं गिड़गिड़ाई-
भइया! मां के लिए मैं कुछ रुपये
और तुली के लिए…
भइया ने मेरे गाल पर कसकर एक थप्पड़ जड़ दिया
मुझे बेचकर जुगारा हुआ धन
उसके हक का धन था
अपने पेशे से कमाया मेरा धन, पाप का धन
भइया पाप के इस पैसे को छुएगा भी नहीं
पर श्रीधर ने छीन लिया
दुरदुरा कर सबने मुझे वहां से भगा दिया
फिर भी मैं भइया से नाराज नहीं हुई
भइया ने ठीक ही किया
अब तो मैं उसकी बहन रही नहीं
तुम्हारी बेटी रही नहीं, तुली की दीदी भी रही नहीं

मेरे उन पैसों को लेने से
तुम्हारे परिवार का अनिष्ट ही होता
न, न, ऐसा हो, मैं नहीं चाहती
तुम सब ठीक रहो, गाय भी ठीक रहे
ताड़ के दोनों पेड़ भी ठीक-ठाक रहें
पोखरे में मछलियां पलें-बढ़ें, खेत में धान हो
मचान पर तुरई के फूल खिले
गांव को अपवित्र करने मैं अब कभी नहीं जाऊंगी
मेरे सोने के लिए यहां खटिया है
नीले रंग की मच्छरदानी
दरवाजे के बाहर पैर पोछना है
दीवार पर मां दुर्गा की तस्वीर
अलमारी में शीशे के गिलास भरे पड़े हैं
दनदनाकर पंखा चलता है
रोज साबुन लगाकर नहाती हूँ मैं
यहां के कुत्ते सारी रात भौं-भौं करते हैं
तो, समझी मां, मैं कितने मजे में हूँ यहां!

मैं अब तुम्हारी बेटी नहीं रही
फिर भी तुम मेरी मां हो
तुम्हारे तो और भी बेटे-बेटी हैं
पर मैं, माँ कहां से पाऊंगी
इसीलिए मैं तुम्हें यह खत लिख रही हूँ, मां

तुमसे एक विनती करती हूँ, मां
तुली का खयाल रखना
वह बेचारी बहुत ही कमजोर है
घर पर चाहे जितना अभाव हो
तो भी तुली को तुम लोग कभी…
तुम्हारे पांव पड़ती हूँ मां
बाबा से समझाकर कहना
तुली को मेरी तरह मजे की जिंदगी जीने के लिए
कहीं और नहीं भेजना
जैसे संभव हो, तुली का विवाह करवा देना
उसका अपना एक परिवार हो
देखभाल करने वाला उसका अपना आदमी हो
किन्हीं कारणों से शादी अगर न करवा पाओ
कहना उसको गले में रस्सी का फंदा डालकर मर जाए
मरकर भी वह बची रहेगी, मां!

न, न, न, मैं अशुभ बातें नहीं कह रही हूँ, मां
तुली बची रहे – तुम सभी बचे रहो
तुली का ब्याह यदि न हो, तो न हो
हे ईश्वर!
किसी गरीब-घर की बेटी की शादी न होने से
क्या वह बचकर नहीं रह सकती?
शादी न होने से
गांव के लोग क्या उसकी सुध न लेंगे
उसकी फिकर न करेंगे, उसे नहीं पूछेंगे?

अपने पैरों के बल चलकर तुली
चाहे जहां भी चली जाए
खेतों के पार, जलशयों के निकट
जंगल के किसी दूसरे छोर

दूर, और दूर
जिस हद तक दोनों आंखें देख सकें
ऐसी कोई एक जगह जरूर कहीं न कहीं होगी
जहां के मनुष्यों में मनुष्य जैसा स्वभाव होगा

वे किसी को खरोचते न होंगे, हबकते न होंगे
शरीर को गरम लोहे से दागते न होंगे और
किसी को लात से मारते भी न होंगे
जहां एक लड़की
मात्र लड़की न होकर
एक मनुष्य की तरह जी सकेगी
मां, तुम मेरी मां हो, मैं खो गई हूँ
तुली को तुम …
तुली … मेरी तरह न बने!

सिर्फ कविता के लिए व अन्य कविताएं

 

अनुवाद रोहित प्रसाद पथिक

युवा कवि, लेखक, अनुवादक और चित्रकार। कई पत्रपत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित।एक काव्य संग्रह  ईश्वर को मरते देखा है!

सिर्फ कविता के लिए हुआ यह जन्म
सिर्फ कविता के लिए हुए कुछ खेल
सिर्फ कविता के लिए-

तुम्हारे चेहरे पर शांति की एक झलक
सिर्फ कविता के लिए
तुम स्त्री हो
सिर्फ कविता के लिए
ज्यादा-ज्यादा बढ़ता रक्तचाप

सिर्फ कविता के लिए
बादलों के शरीर पर गिरता है जल-प्रपात
सिर्फ कविता के लिए
और भी ज्यादा दिनों तक
जीवित रहने का लोभ होता है

मनुष्यों की तरह हताश होकर बचे रहना
सिर्फ कविता के लिए
मैंने अमरत्व हासिल किया है।

तुमसे मिलने पर

तुमसे मिलने पर
मैं पूछता हूँ-
तुम मनुष्य से प्रेम नहीं करते हो
पर देश से क्यों करते हो प्रेम
देश तुम्हें क्या देगा
देश क्या ईश्वर-जैसा है कुछ…?

तुमसे मिलने पर
मैं पूछता हूँ
बंदूक की गोली खरीदने के बाद
प्राण देने पर कहां होगा देश
देश क्या जन्मस्थान की मिट्टी है
या कांटेदार तार की सीमा…?
बस से उतरकर
जिसकी तुमने हत्या की
क्या देश उसका नहीं?

तुमसे मिलने पर
मैं पूछता हूँ-
तुम किस तरह समझे
कि मैं तुम्हारा शत्रु हूँ?
किसी प्रश्न का उत्तर न देने पर
क्या तुम मेरी तरफ राइफल घुमाओगे?
इस तरह के भी प्रेमहीन
क्या देशप्रेमी होते हैं…!

पाना

अंधेरे में मैंने
तुम्हारा हाथ छूकर
जो पाया
बस, वही थोड़ा-सा पाया

जैसे अचानक नदी की तरफ़ से आईं
पानी की सफेद बूंदें
माथे को छू जाती हैं।

तुम जानती थी

तुम जानती थी
इनसान इनसानों के
हाथ छूकर बोलते हैं- दोस्त

तुम जानती थी
इनसान-इनसानों के
आमने-सामने आकर खड़े होते हैं
तुम्हारी हँसी वापस लौट जाती है
उत्तर-दक्षिण दिशा की ओर

तुम जैसे आकर खड़ी होती हो मेरे पास
कोई पहचानता नहीं
कोई देखता नहीं
सभी कोई सभी से अपरिचित हैं।

संपर्क सुरेश शॉ , ८, पॉटरी रोड, कोलकाता-७०००१५ मो.९३३०८८५२१७
संपर्क रोहित प्रसाद पथिक, के. एस. रोड, रेल पार डीपू पाड़ा, क्वार्टर नं -७४१/सी, आसनसोल-७१३३०२ (पश्चिम बंगाल) मो. ८१०१३०३४३४