पी.विठ्ठल 90 के दशक के एक महत्वपूर्ण मराठी कवि और आलोचक। मराठवाड़ा विश्वविद्यालय में प्रोफेसर। दो काव्य संकलन, चार वैचारिक लेखों का संग्रह, तीन समीक्षा ग्रंथ और छह संपादित ग्रंथ प्रकाशित। |
सुनील कुलकर्णी लेखक एवं आलोचक। आलोचना की पांच पुस्तकों सहित कई अनूदित और संपादित ग्रंथ। संप्रति : निदेशक, कंद्रीय हिंदी संस्थान आगरा। |
डर खत्म नहीं हुआ
1.
हमने एक शताब्दी से
दूसरी शताब्दी में छलांग लगाई
एक प्रांत से दूसरे प्रांत में पैर रखा
हमने अपना गांव बदला शहर बदला
अनेक पगडंडिया मिटा दीं
एक्सप्रेस वे से अपार्टमेंट में दाखिल हुए
फ्लैट में सेफ्टी डोअर लगाया
सभी गैलरियों को बंद किया
सुरक्षा का भार रखवालदार पर सौंप दिया
फिर भी
हृदय में डर की धड़कन थम नहीं पाई
डर खत्म नहीं हुआ
2.
हमने रास्ते बदल दिए
चौराहे बदल दिए, चौराहों के नाम बदल दिए
स्मारक मूर्तियों और संग्रहालयों को ताले लगा दिए
पटाखे फोड़कर कौवों को भगाया
पेस्ट कंट्रोल से तिलचट्टों को मारा
थके हुए जानवरों को हांक भगाया
सीसीटीवी की भयावह आंखों से
सारे परिसर को कैद कर दिया
फिर भी
मौसम की बाधा को टालना असंभव हुआ
डर खत्म नहीं हुआ।
3.
हमने एक किताब से दूसरी किताब में
बिना किसी रुकावट प्रवेश किया
हमने लेखक को धमकाया
कवि को बंदी बनाया
विचारकों पर गोलियां दागीं
उनका श्राद्ध मनाया
न भूलते हुए
पुण्य स्मरण का हर वर्ष विज्ञापन दिया
पलटी मारकर बैठते हुए चिंतन किया
एक चिंतन से दूसरा चिंतन दूसरे से तीसरा चौथा…
कागज बदल दिया
पेन बदल दिया
लिखने वाले हाथ बदल दिए
फिर भी विचार नहीं बदला
डर खत्म नहीं हुआ।
4.
हमने एक मोबाइल से
दूसरे मोबाइल में प्रवेश किया
कनेक्टिविटी के सारे टावर सर पर खड़े किए
एक भाषा से दूसरी भाषा में
एक संस्कृति से दूसरी संस्कृति में
एक पुरुषार्थ से दूसरे पुरुषार्थ में
एक महिला से दूसरी महिला में
रिश्तों की यात्रा की
जीने की अनगिनत कहानियों से परिचय हुआ
फिर भी
दुख की रेखाएं जरा-भी धुंधली नहीं हुईं
डर खत्म नहीं हुआ।
5.
हमने नदियों को मोड़ दिया
पहाड़ों को काट दिया
पेड़ों को बोनसाई बनाया
पक्षियों की आवाज बदली दी
फलों में केमिकल मिलाया
खाद्यान्न का स्वाद बदल डाला
जो जो करना संभव था पृथ्वी पर वह किया
मतलब यह कि गढ़-किलों का इतिहास बदला
मानवीय उत्क्रांति के सिद्धांत बदले
वेशभूषा-परिधान बदल दिए
पत्थर पर अंकित अक्षरों को भी बदला
फिर भी
अतीत परिवर्तित नहीं हुआ
डर खत्म नहीं हुआ।
6.
संबंधों को पदाक्रांत किया
चालबाजी से युद्ध खेले
नियमित रूप से रावण का दहन किया
भाषण में बकवास से भीड़ को सम्मोहित किया
खाली बंदूक में गोलियां भरीं
दुश्मनों को गालियां दीं
एक गली से दूसरी गली
दूसरी से तीसरी, तीसरी से चौथी…
पीठ से पीठ लगाकर भयंकर तंग किया
द्वेष पाला
फिर भी सरहद के सवाल बने रहे
डर खत्म नहीं हुआ।
7.
हम पूर्व से पश्चिम की ओर गए
उत्तर से दक्षिण की ओर गए
एक भूगोल से दूसरे भूगोल में आर-पार प्रवेश किया
शताब्दियों से रिक्त खोखलेपन को स्पर्श करके देखा
यात्रा की दिशा बदलकर
थके-हारे पैरों से वापस आए
सुई की नोंक पर अस्तित्व की दीवारें खड़ी कीं
यश के लिए जगह-जगह धर्मशाला बनाई
फिर भी
एकांत का जंगल तोड़ना संभव नहीं हुआ
डर खत्म नहीं हुआ।
8.
हमने लेन-देन के स्थान बदल दिए
थैले बदल दिए
सत्ता बदल दी
सत्ता का समीकरण बदल दिया
धार्मिक स्थलों का रंग बदल दिया
आकार बदल दिया
दिनचर्या की डायरियां बदल दीं
टूटी हुई चप्पल के निराधार अंगूठे बदल दिए
फिर भी कुछ बदला नहीं
डर खत्म नहीं हुआ।
9.
हम अपने पूर्वजों की मृत देह ढूंढते रहे
ऊंच-नीच के दावे करते रहे
ज्ञात-अज्ञात के अनगिनत
ढांचे खोद निकाले मिट्टी से
प्रतिष्ठा की अस्थियां साझा करते रहे फेसबुक पर
भ्रांति के गूढ़ गणित मिलाते रहे
एक गणित से दूसरा गणित
दूसरे से तीसरा तीसरे से चौथा…
अतार्किक निर्जीव भाषण को सच्चा मानते रहे
फिर भी
सुख की थोड़ी सी मिट्टी भी सहेज नहीं पाए
डर खत्म नहीं हुआ।
10.
हमने अनगिनत अदृश्य आवाजें
प्रयोगशाला में कैद कीं
मृत भाषा मृत ध्वनि कहकर
अनुसंधान की साधना की
बिल्ली की आंखें और सर्प की सरसराहट
लापरवाही से फ्रीज की
पेड़ों की हरियाली सोख ली
जीव-जंतुओं के लाखों अवशेष पर अजस्र
जंग लगे हुए हाथ फेरे
अर्थ के पायदान बिछाए
हक्के-बक्के निष्कर्ष का एसिड फेंका प्रबंध पर
सूरज की दिशा भी बदल कर देखी
फिर भी
धरती का कराहना थमा नहीं
डर खत्म नहीं हुआ।
11.
हमने समंदर की
विशाल और उत्तुंग लहरों पर कब्जा किया
उठती लहरों पर तैरते रहे
कठोर मत्सर से भरी आंखों से
एक-दूसरे को ताकते रहे
जलचरों को जकड़ लिया
लहरों को शाप दिया
कारनामों की खिड़कियां खुली रखीं
एक खिड़की से दूसरी दूसरी खिड़की से तीसरी तीसरी से चौथी…
हमने संशय की हजारों खिड़कियां बनाईं
फिर भी
कबूतर का आना थमा नहीं
डर खत्म नहीं हुआ।
12.
हम दिन की नाभि में भय के कीड़े छोड़ते रहे
सलाह-मशवरे के बुर्ज-गुर्ज से मिसाइल दागते रहे
हम कोमल लाचार जीवों पर अत्याचार करते रहे
हमने युद्ध-युद्ध खेलना सीखा
भूख से भी धर्म को बड़ा किया
एक धर्म से दूसरा धर्म, दूसरे धर्म से तीसरा
तीसरे से चौथा…
धर्म कुटिल राजनीति का कत्लगाह बन गया
धर्मांध लोगों ने कविता के कागज पर
परमाणु फेंके
फिर भी
कविता मरी नहीं
उनका डर खत्म नहीं हुआ…!
सुनील कुलकर्णी, निदेशक आवास, केंद्रीय हिंदी संस्थान, हिंदी संस्थान मार्ग, आगरा-282004 मो. 9422217600