वरिष्ठ कहानीकार।झोपड़ी और चांद’,‘मम्मी कहां गई पापाकहानी संग्रह।कोड़ारउपन्यास।

 

जैसे उड़ जाता है कपूर डिबिया से या गौरैया अपने घोसले से, उड़ गई थी नींद भी जनार्दन बाबू की आंखों से।क्षण-क्षण पल-पल उठती उनके अंदर की बेचैनी तूफान की तरह उनके अंतर को डवांडोल किए हुए थी।झूलती बुनावट वाली खटिए पर उठते-बैठते, सोते-जागते, कभी टहलने लगते, कभी लेट कर ऊपर की ओर टकटकी लगाए देखते, अनगिनत बातों के साथ उनकी अपनी मथनी कि

‘तोड़ूंगा अंधकर
काटूंगा पिंजड़ा
गंध से अपने खिलते हुए फूलों के
बेअसर कर दूंगा जिंदगी के जहर को
जाल सारे, फैलते जो, अनजाने, अनवरत
जंगल की छाती पर
मूक बनी चिड़ियों को
अपने आकाश से
करने को अनधिकृत
तहस नहस कर दूंगा
नभचरों को दूंगा नई उड़ान के लिए नए पर।

चलती रहती उनकी सोच के साथ ये बातें झपक जातीं आंखें न जाने कब, तीसरे या चौथे पहर में। तभी जोर-जोर से कई कई भोपुओं की आवाज मुर्गे की बांग की जगह लेते। ‘संइया के साथ मड़इया में, बड़ा मजा आवे रजइया में’ …‘खसकाई लेउ खटिया जाड़ा लगे’ … ‘जब किसी का खटिया बोले चूं चूं चूं …।’ चारों तरफ से इसी तरह के गीत तड़ातड़ चोट करने लगते उनके मस्तिष्क पर।

नींद उचट जाती जनार्दन बाबू की।गुस्से की एक जोरदार लहर फैल जाती उनके पूरे शरीर में।शुरू कर दिए ससुरे।दिन-दिन भर बजाएंगे ये कानफाड़ू लाउडस्पीकर।गंदे-गंदे गीत।मारते रहेंगे हथौड़े मन मस्तिष्क पर।सुन्न होते रहेंगे कान के परदे।सोचना समझना बंद कर देंगे।मूर्खों की इस नासमझी को न कोई रोकने वाला है न टोकने वाला!

उठ कर बैठ जाते जनार्दन बाबू।शुरू हो जाता सवाल दर सवाल का यह सिलसिला।सोच दर सोच।क्या सोच रहे हैं जनार्दन बाबू? क्या होगा इस तरह केवल दिन रात सोचने से? दिन रात बजते इन कानफाड़ू गंदे गीतों का क्या असर होगा समाज पर? परिवार पर? पूरे देश पर? सभ्यता और संस्कृति पर? आने वाली पीढ़ियां मूर्खता की बेड़ियों में जकड़ती, ऐसी ही नग्न और अभिशप्त जिंदगी जीने को बाध्य नहीं हो जाएंगी? पूरे समाज में यह उच्छृंखलता चरित्रहीनता की हद तक नहीं पहुंच जाएगी? फिर कैसे बचाओगे इसे? चिड़ियां जब पूरा खेत चुग जाएंगी, क्या हाथ लगेगा भला पश्चाताप के आंसू बहाकर?

तब उतरते हैं जनार्दन बाबू ठोस धरातल पर।कई बार गए गांव के तमाम लोगों के पास।घंटों समझाया। ‘ऐ भलामानस, बंद करो इन आवाजों को।वरना तुम्हारी भावी औलाद किसी काम की नहीं रह जाएगी।स्कूल और किताब की बातों का कोई असर नहीं होगा उनपर।रटते रहेंगे इन्हीं गंदे गीतों को।निराला, नागार्जुन और गोरख की कविताओं का कोई असर नहीं होगा।प्रेमचंद, यशपाल, भैरव, और मुक्तिबोध नहीं बन पाएंगे।फिर तो कोई संस्कार नहीं रह जाएगा तुम्हारा।तब तुम भुगतोगे और आठ-आठ आंसू रोओगे।ऐ मूर्खों, रोको इस अपसंस्कृति को।ध्वनि प्रदूषण की इस भीषण लहर को।’

मगर घंटों मगजपच्ची करना पत्थर पर दूब जमाना साबित होता है।हँसते हैं लोग उनकी बातों को सुनकर।उनकी बातों को टाल जाते हैं यह कहकर ‘मनोरंजन करना क्या बुरा है जनार्दन बाबू? दूसरा क्या साधन है हमारे पास? हमारा भला बुरा देखना तो सरकार का काम है।क्यों बैठी है कानों में तेल डालकर? क्यों नहीं रोकती है इन गंदे गीतों को?’

झुंझला जाते हैं जनार्दन बाबू उनकी बातों को सुनकर ‘तुम्हारे कुछ कर्तव्य नहीं होते हैं क्या?’

‘क्यों नहीं जनार्दन बाबू! मगर कुर्सी पर बैठे लोग किस दिन के लिए हैं?’

‘वे तो चाहते ही हैं कि सारे लोग मूर्ख बन जाएं।ताकि उनकी कुर्सी सुरक्षित रहे।’

‘तो आप क्या कर रहे हैं इसके लिए?’

उनका प्रतिप्रश्न चुप करा देता है, जनार्दन बाबू को।सर पर हाथ रख पुनः खो जाते हैं, गहरे चिंतन सागर में डूबतेउतराते गोते लगाते।नक्कारखाने में तूती की आवाज! आंखें बंद कर लेते हैं।करवट बदलने लगते हैं।

आंखें मत मूदिए जनार्दन बाबू।आंखें बंद कर आप किसी सवाल को नकार नहीं सकते हैं।मुंह फेरकर उससे छुटकारा नहीं पा सकते हैं।करवट बदलना आप को राहत नहीं दे सकती।उनके अंदर से ही एक भीमकाय सवाल सर उठाता है।

मेरे तमाम सवालों का जवाब देना होगा जनार्दन बाबू।मैं पांच साल से दौड़ रहा हूँ।लाख से कम कीमत नहीं लगाता कोई अपने लड़के की।चालीस बसंत देख चुकी है मेरी बिटिया।आंखें मिलाने की हिम्मत नहीं होती उससे।गांव मोहल्ले की फुसफुसाहटें जहर ही जहर घोलती है कानों में।नजरें बेधती हैं राह चलते।कहिए, सूझता है कोई उपाय? या है यहां चुल्लू भर पानी डूब मरने के लिए? खामोश क्यों बैठे हैं? क्यों खामोश है यह पूरा समाज? क्यों खामोश हैं जातिवाद का झंडा फहराने वाले मुंहजोर लोग? तब कहां घुसड़ जाती है उनकी जातीयता? भाई का मोह! प्यार का दिखावा?’

‘तो क्यों नहीं तोड़ते जात-पांत का यह बंधन? यही तो रोकता है हमारे विकास को।’

‘कैसे जनार्दन बाबू? मेरी आंखों के सामने है यह विशाल मकड़जाल।इसे अकेले कैसे तोड़ सकता हूँ मैं? जबकि सत्ता के गलियारों में घुसे लोग लगातार इसे सघन करते जा रहे हैं।मुझे तो खाए जा रही है, मेरी ही बिटिया की बढ़ती हुई उम्र! बोलिए जनार्दन बाबू, कैसे निकलूं इस भयंकर चक्रव्यूह से?’

ऐसा प्रश्न आ गया उनके सामने।घर की तंगहाली में लथपथ जिंदगी का सबसे बड़ा अपमान भरा दिन कौंध गया उनकी स्मृति में।पत्नी के उलाहने।उसकी बीमारी।तिल-तिल कर गलता शरीर।नौकरी के अंतिम दिन।बढ़ते हुए बच्चे।और उनकी बढ़ती जरूरतों की जिम्मेदारियां।छोटी-सी चादर की खींचतान।एक तरफ खींचते तो दूसरी तरफ नंगा।दूसरी तरफ खींचते तो तीसरी तरफ नंगा।कैसे ढंकें चारों तरफ एक साथ? भोजन के वक्त पंखा झलती हुई पत्नी की बातें भूख को बढ़ाने के बजाय जलाकर राख कर देतीं।कब तक बिटिया को बैठाए रहेंगे सर पर? कहीं खाला ऊंचा पांव डाल दिए तो कैसे मुंह दिखाएंगे यहां?’

‘रजनी! ओ रजनी!’ दो बार आवाज दी थी घर में सोई हुई बेटी को।कोई उत्तर नहीं आया उधर से।प्यार से पुचकारते हुए पहुंचे थे उसके पास।उसे झझोरा था उठाने के लिए।मगर उसका जगना चांद को धरती पर उतारना था।एक कागज का टुकड़ा दिखा तो उठा लिया उसे।पढ़ने लगे उसे बेचैन होकर।

‘पापा! मेरे प्यारे पापा! मुझे क्षमा कर देना पापा! इसमें आपका कोई कसूर नहीं! अब और मैं आपको घुटते हुए नहीं देख सकती! मैं जा रही हूँ, भेड़ियों की इस क्रूर धरती से।अलविदा पापा! अलविदा!

रजनी की याद में अश्रुधार से लथपथ थे जनार्दन बाबू।

तूने ऐसा क्यों किया बेटी? तुम्हारे ऐसा कर देने से क्या समस्या का निदान हो जाएगा? समाज की लड़कियों के लिए कोई रास्ता मिल जाएगा? नेतृत्व किया होता इस व्यवस्था के खिलाफ, तमाम सहेलियों को साथ लेकर, तब समझता मैं कि हां तूने कुछ अच्छा काम किया है।तूने यह अच्छा नहीं किया बेटी! बहुत बुरा कर दिया तूने।जनार्दन बाबू उस स्मृति से निजात पाने की कोशिश कर ही रहे थे कि एक धुंधली-सी आकृति उभर आई उनके सामने।रुआंसी आवाज।उखड़ा चेहरा।अवसाद भरी निस्तेज आंखें।अधनंगा बदन।खड़े-खड़े देखने लगा उन्हें।

पहचानते देर नहीं लगी उन्हें।पूछ पड़े देखते ही, ‘क्या है रामदीन? लगता है, रोकर आ रहे हो!’

‘हां जनार्दन बाबू, बहुत डर लगता है मुझे।’

‘डर! किस बात का? तू क्यों डरने लगा किसी से? कौन है वह, जो डरा रहा है तुम्हें?’ जनार्दन बाबू ने पूछा।

‘बात ऐसी है जनार्दन बाबू’, रुक रुक कर बोलने लगा रामदीन, ‘कल बीच रास्ते मुझे घेर लिया बीलर ने।मैं जा रहा था मजदूरी करने।बोला क्या, जानते हैं?’

‘क्या?’ घबराए हुए जनार्दन बाबू की उत्सुकता रामदीन की स्थिति देख और भी गंभीर हो गई।देखने लगे उसके चहरे को।

कहता है, ‘तुम्हारी टांगें काट लूंगा।’

‘क्यों?’ जनार्दन बाबू के चहरे पर आश्चर्य फैल गया।

‘कहता है, इस बार तूने बाघ छाप पर वोट दिया है न, मेरे बगीचे में कभी लकड़ी तोड़ने या पत्तियां बुहारने मत जाना।अगर दिख गया तो समझ लेना तुम्हारी खैर नहीं।’

‘अब आप ही बताइए मैं क्या करूं? बहुत देर तक मैं गिड़गिड़ाता हुआ कहता रहा अपने मन की बात।मगर भैंस पगुराती रही तो पगुराती ही रही।अपनी गुस्सैल आंखों से मुझे घूरता रहा।आखिर कब तक होता रहेगा यह सब, हमारे साथ! क्या हम इस देश के स्वतंत्र नागरिक नहीं हैं? क्या हमारी कोई इच्छा आकांक्षा नहीं है? जब हम गिरगिट छाप को वोट देते थे तो बाघ छाप वाले भी यही बातें कहते थे।चलो किधर चलते हो! किसके खेत में करते हो मजूरी! किसके खेत में हगते हो! पूरे खानदान को एकसाथ अग्निशिखा पर बैठा कर स्वर्गलोक की यात्रा नहीं करा दिया तो कुत्ते के पेशाब से मूंछें मुड़वा देना मेरी।बताइए जनार्दन बाबू, अब कहां जाऊं मैं? कैसा है यह सुराज? कैसा है यह परजातांतर? जिसे समझता था अपना शुभचिंतक, वह भी अब शासन करना चाहता है हमहीं पर! वही हथियार उसके हाथ में दिख रहे हैं, जिसका विरोध करता था कल तक! क्या हम इंसान नहीं हैं? क्या हम जानवर हैं? क्या हम अब भी गुलाम हैं? दूसरे की मर्जी पर जीने को अभिशप्त हैं! क्या हमारी कोई भावनाएं नहीं? क्या हम अपना भला बुरा खुद नहीं सोच सकते? बताइए जनार्दन बाबू! चुप क्यों हैं? आप तो कहते थे स्थितियां  बदल रही हैं।बेहतर हो रही हैं।इसी को बेहतरी कहते हैं आप? सिर्फ शब्दों के बाग्जाल को? कथनी और करनी में इतना अंतर? विश्वास नहीं होता तो कहिए ला दूं कोई दर्पण।देख लीजिए स्वयं अपनी सूरत या कहिए तो ला दूं कजरौटा….।’

इधर सवाल गंभीर होते जा रहे थे, उधर जनार्दन बाबू की सोच पर बढ़ते जा रहे थे कईकई विचारों की बढ़ती धार।अचानक कजरौटे का नाम सुन सिहर गया उनका पूरा शरीर।रोंगटे खड़े हो गए।कांप गए अंदर बाहर एक साथ!

नहीं नहीं! ऐसा मत करो! रुक जाओ जरा।उनके मस्तिष्क में कौंध गया एक विद्रोही कवि का नाम।उसने ही किया था कजरौटे का ऐतिहासिक प्रयोग।मगर हाय! उसका अंतिम परिणाम क्या हुआ!

वही, जो होता है राजतंत्र के न्याय विधान में या तानाशाही के चंगुल में फंसे यथार्थ की अभिव्यक्ति का! पूरा देश जानता है यह घटना! चूहेदानी में बंद हो गया था साहस का अप्रतिम रूप! तिलतिल कर मारा गया था उसे।संविधान की उन उपधाराओं पर काली स्याही पोत दी गई थी हमेशा-हमेशा के लिए।जो देती हैं हमें अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार।जनार्दन बाबू बेचैन हो गए पूरी घटना का साक्षात्कार कर।

‘बस बस रुक जाओ! अब और प्रश्न मत करो! मत याद दिलाओ मुझे उन शैतानी हरकतों की! हक मांगने का अंजाम! रोटी, कपड़ा और मकान की लालसा पालने वालों की हकीकत!’ उठ कर बैठ गए जनार्दन बाबू! फिर खड़े होकर टहलने लगे कमरे में।जोर-जोर से चलने लगी धौंकनी! कई बार उठे, कई बार बैठे, पी गए गटागट कई ग्लास पानी!

उन्हें परेशान देख हँस पड़ा पूरा कमरा! गूँज उठा जोरदार ठहाका! अभी ये हाल है हुजूर का! जवानी में ही बुढ़ापा आ गया! साठा पर पाठा वाला मुहावरा गलत हो गया! अभी तो बहुत सारे सवालों के जवाब देने हैं आपको।घबराते क्यों हैं? बोलिए न, कल क्या होगा हमारा? वे फिर लौट रहे हैं, जिन्हें यहां से भगाने में पूरे सौ बरस लगे थे।हजारों ने शहादत दी थी।उमड़ी थी लहू की दरिया।चूमे थे फाँसी के फंदे।उस बार स्वयं आए थे तिजारत के लिए और तख्तोताज के मालिक बन गए थे।इस बार पैगाम भेजकर दावतें दी जा रही हैं।इतिहास फिर दुहरा रहा है अपने आपको।थोड़ा सा रूप महज बदला है।’

‘तो क्या हुआ, देश के विकास के लिए यह जरूरी है कि नहीं!’

फिर गूंजा ठहाका। ‘विकास! या विनाश? अभी तो मात्र पूंजी आ रही है।फिर कारिंदे आएंगे।फिर सांस्कृतिक हमला होगा।घुन देखा है न? कैसे खोखला करता है अनाज के दाने को! वैसे ही खोखला हो जाएगा यह देश और मांगरा जैसे हरे भरे विशाल पेड़ को भी सुखवा देता है, वैसे ही सूख जाएगा सब कुछ।’

‘नहीं! ऐसा कैसे कह सकते हो?’

‘ठीक कह रहा हूँ मैं! भारी भारी कर्ज की रकम दे रहे हैं वे।इसकी सूद भी भारी होगी।चुकाए नहीं चुकेगी, जनार्दन बाबू! दूसरी तरफ उनकी कंपनियां बनाएंगीं सारे सामान।खूब चूसेंगी हमारा लहू! दोनों तरफ जाएंगे हम उनके गाल में।हमारी सांस्कृतिक विरासत, जातीय गौरव सबकुछ चूर चूर हो जाएंगे।बोलिए क्या करेंगे तब आप? कहां छुपाएंगे अपना चेहरा?’

जनार्दन बाबू के अंतर से उठे इन प्रश्नों ने विचलित कर देना चाहा उन्हें।मगर पास ही पड़ी थी एक पुस्तक, उस पर नजर पड़ते ही पचास वर्ष पूर्व के वे दृश्य उतर आए आंखों में।सुनाई पड़ने लगीं गांव गांव होती प्रभात फेरियों की आवाज।और एक बहुत ही महत्वपूर्ण भोजपुरी गीत।

‘सुंदर सुभूमि भइया भारत के देसवा से, मोर प्राण बसे हिम खोह रे बटोहिया’!

गाते हुए लोग।झेलते थे गोरों की दनदनाती गोलियां।उजड़ जाते थे हरे-भरे किलकते विहंसते  परिवार।जनार्दन बाबू डूब गए याददाश्त की गहराइयों में।

तब तक आ गए पांडेय जी उनके दृष्टिलोक में।आते ही बुदबुदाने लगे।अपने को समझता क्या है यह! इसे जेल की खिचड़ी नहीं खिला दिया तो फिर मेरे बूंद का फर्क! कल का बनिया आज का धन्नासेठ! तमतमाया हुआ सूर्ख चेहरा।आंखों पर चश्मा।खादी की लकदक सफेदी।पेट कुछ निकला हुआ।दुहरा लंबा शरीर।खड़े हो गए उनके सामने।

‘क्यों पांडेय जी, किधर आनेवाली है कयामत? किसे भेज रहे हैं काली कोठारी में?’ जनार्दन बाबू पूछ पड़े खड़े-खड़े।

‘मत पूछिए जनार्दन बाबू! एक डाक्टर है।महान फर्जी आदमी है।कई बार फेल किया तो एक बार पास किया, किसी तरह ठेलठाल कर।डाक्टरी क्या करता है, ठगता है, देहाती रोगियों को।ऊपर से पेंशन लेता है स्वतंत्रता सेनानी का।’ गुस्से से उबल रहे थे पांडेय जी।

‘तो क्या हुआ, देश की सेवा किया है उसने।पा रहा है अपना प्रतिदान।किसी का कुछ बिगाड़ता नहीं है न?’

‘आप भी क्या बात करते हैं, जनार्दन बाबू! वह क्या करेगा देश सेवा? इकतालीस में जन्म हुआ और बयालीस में जेल चला गया! पचपन छप्पन में मैट्रिक पास किया।मेरे पास प्रमाण है इसका।मैंने इसके विरुद्ध आवेदन दिया है।जांच का आदेश भी हो गया है।पैसे के बल पर दबा देना चाहता है पूरा मामला।मैं इसे छोड़ नहीं सकता।समझे कि नहीं!’

‘मगर पांडेय जी, क्यों पड़े हैं इसके पीछे? बहुत सारे लोग हैं इसके जैसे।आधे से अधिक फर्जी  लोग पेंशन ले रहे हैं।इस बेचारे का क्या दोष? आपके साथ मंत्री जी हैं वरना आप भी तो…’

‘नहीं जनार्दन बाबू, आप नहीं जानते।इसे बहुत घमंड हो गया है।सीधे मुंह बात नहीं करता।कल का पिद्दी आज शेर बनना चाहता है।बाप-दादा पैर छूकर प्राणाम करते थे।यह आंखें भी नहीं झुकाता।भला यह सब बर्दाश्त करेंगे हम? कत्तई नहीं! बर्बाद करके छोड़ेंगे।कौड़ी भर भी नहीं समझता मुझे।इसकी ऐसी हिम्मत! दवा के पैसे मांगता है, मुझसे!’

‘समय का चक्र है, पांडेय जी।इसे रोक नहीं सकते आप! दूसरे को बर्बाद करनेवाला खुद को भी आबाद नहीं कर पाता!’

‘मैं इस समय चक्र को रोकूंगा, जनार्दन बाबू! आप समझते क्या हैं! दुर्वाशा ऋषि के क्रोध को देखा है इतिहास ने।पुराणों ने।पूरे संसार ने।मैं उन्हीं का वंशज हूँ।’ पांडेय जी चल दिए तमतमाए हुए।

मगर एक और सवाल छोड़ गए जनार्दन बाबू के लिए।उनका हृदय गहरे क्षोभ से भर उठा।कैसेकैसे लोग हैं यहां! एक नकलची भी दूसरे नकलची से आगे बढ़ना चाहता है।तमाम जीवन मूल्य ढहते जा रहे हैं।सच्ची राष्ट्रीयता नाम की कोई चीज रह नहीं गई है।छुद्र जातीयता ही जीवन का प्रतिमान और निदेशक बन गए हैं।कैसे टूटेंगे ये अनर्थ के गढ़! कैसे आएगी समता की सुगंधित हवा! जानार्दन बाबू की कल्पना में रेंग गया वह रिक्शावाला, जिससे कुछ ही दिनों पूर्व उनका सामना हुआ था।

राजधानी की व्यस्त और भीड़ भरी सड़क थी वह।वे सड़क की बाईं ओर खड़े-खड़े इंतजार कर रहे थे।

‘कहां जाना है बाबू?’ उन्हें सड़क किनारे खड़े देख एक रिक्शावाला आया और पूछा।

‘बोरिंग रोड चलोगे?’

‘जी, चलूंगा।’

‘कितने पैसे लोगे?’

‘जो उचित हो दे दीजिएगा।’

‘नहीं, ऐसा नहीं होगा! साफ-साफ बताओ।वहां उतरते ही गिरेबान पकड़ कर हाथापाई करने लगोगे।तब क्या करूंगा?’

‘नहीं बाबू, ऐसा नहीं होगा।जो दीजिएगा, ले लूंगा।मुझे मालूम नहीं है वहां का किराया।’

‘कैसी बातें कर रहा है!’ जनार्दन बाबू ने सोचा।देखने लगे उसके चहरे को।एक अजीब तरह की मासूमियत झलक रही थी।आंखों में गहरी पीड़ा भरी हुई थी।मानो छलक पड़ेगी अभी-अभी।

जनार्दन बाबू अंदर से पिघलने लगे।उसकी अंतर्व्यथा को टटोलने के लिए पूछा।

‘कहां घर है?’

‘जी, सीतामढ़ी।’

‘नए-नए आए हो यहां?’

‘जी।’

‘कितने दिन हुए?’

‘जी, एक हफ्ता।’

‘रिक्शा किसका है?’

‘जी, मेरे गांव का एक हरिजन है।बहुत दिनों से यहां रिक्शा चलाता है।उसी ने दिलवाया है, अपने मालिक से।’

जनार्दन बाबू सोचने लगे।दूसरे को हरिजन कहता है।इसका मतलब खुद हरिजन नहीं है।किसी दूसरी जात का लगता है।

‘तुम भी हरिजन हो?’ सही बात जानने के लिए पूछा।

‘जी, नहीं।’

‘तो?’

‘मैं… मैं… मैं…’ अटक गया वह।मानो सच को उगलते हुए गहरी पीड़ा हो रही हो उसे।

‘बोलो, शर्माते क्यों हो? जात बताने में क्या शर्माना! इन दिनों जात की लड़ाई ही तो प्रधान हो गई है यहां।सड़कें, गलियां सभी जात जात चिल्ला रही हैं!’

‘जी, मैं… मैं राजपूत हूँ, बाबू।’ इस वाकया के साथ ही उसकी आंखों से आंसू छलक आए।सुबकने लगा धीरे-धीरे।पोछने लगा अपने गमछे से अपनी आंखें।

सड़क अब भी व्यस्त थी।राजधानी की सड़क थी।मोटर, कारों और अन्य चार पहियों का रेला लगा था।धुल और धूप का करिश्मा जारी था।सड़क के किनारे खड़े थे दोनों आदमी।एक की पीड़ा से पीड़ित था दूसरा भी।एक नाव को मझदार में पड़ी देख दूसरी नाव भी हिचकोले लेने लगी थी।

रिक्शेवाले की पीड़ा धीरे-धीरे गलने लगी। ‘क्या करूं बाबू, पेट की खातिर सबकुछ करना पड़ता है।भाग्य में जो लिखा था, उसे भोग रहा हूँ।सरकार की नजर में मैं फारवर्ड हूँ।’ उसने रिक्शे की हैंडिल पकड़ ली और इधर-उधर देखते हुए अपनी पीड़ा छुपाने की कोशिश की।

जनार्दन बाबू का दिल बैठ गया।उसके आंसू देख दुखी हो गया था उनका हृदय।उसे ढाढस बंधाते हुए बोले,—‘रोते क्यों हो? कोई काम बुरा नहीं होता है।किसी काम को छोटा मत समझो।बिना काम किए किसे भोजन मिलता है? सारे लोग कोई न कोई काम करते ही हैं।तभी भोजन मिलता है।कोई शरीर से काम करता है।कोई दिमाग से काम करता है।अकर्मण्य लोग ही भीख मांगते हैं।उन्हें यह दुनिया बहुत दिनों तक बर्दाश्त नहीं करती।गांव पर कौन-कौन हैं?’

‘पूरा परिवार है, बाबू।मां है, पत्नी है, तीन बच्चे हैं।’

‘जमीन जायदाद?’

‘नहीं बाबू, फिर क्यों आता यहां? उसी पर अपना पसीना बहाता।’

‘मनरेगा में काम नहीं मिला?’

‘नहीं।अगड़े को नहीं मिलता।जिनके अपने लोग हैं, इधर-उधर से घुसा देते हैं।’

‘कोई सरकारी सहायता नहीं मिली?’

‘नहीं, ऊंची जात का होना अभिशाप हो गया है।कुछ पूंजी पट्टा होता तो दो एक भैंस पाल लेता।’

‘यहां कहां रहते हो?’

‘गांव वालों के साथ।’

‘खाना पीना?’

‘उन्हीं के साथ बनता है।मिलजुलकर बनाते हैं।एक साथ खाते हैं।वही भाई रिश्तेदार हैं।सुख-दुख बतियाते हैं।गरीब का साथी गरीब ही होता है, बाबू।जात-पात कुछ नहीं होता है।जात के लोग तो और अधिक चूसते हैं, जात के लोग को।गांव पर बहुत लोग हैं बिरादरी के।किसी ने नहीं पूछा, रामसिंह कितने दिन पर चूल्हा जलता है? कैसे पालते हो बाल बच्चे? इन लोगों ने मेरा सुख-दुख जाना तो अपने साथ मुझे यहां ले आए।’

‘हाँ रामसिंह, ठीक कहा तूने।किसी भी जात के लोग हों, गरीब ही गरीब का साथी होता है।धनी तो धनी से कंधा मिलाता है।गरीब भाई तो तुच्छ है उसके लिए।मतलब साधने के चोचले हैं जात पात! चलो चलते हैं!’

जनार्दन बाबू बैठ गए उसके रिक्शे पर।

रामसिंह की पीड़ा घट और बंट गई थी कुछ कुछ।आंखें सूर्ख हो गई थीं।उसके पैर पैडल मारने लगे।रिक्शा भागने लगी, लोगों को बचाते हुए चिकनी चुपड़ी काली सड़क पर।जनार्दन बाबू उसे बाएंदाएं मोड़ बताते गए।सोचते रहे उसके बारे में।पत्नी और बाल बच्चों के बारे में।

गंतव्य पर पहुंच कर जनार्दन बाबू ने पूछा, ‘खाना खाए हो रामसिंह?’

‘नहीं बाबू, अभी-अभी तो निकला हूँ।’ उन्होंने उसे एक नोट दिया।

‘कितने लौटाऊँ, बाबू?’ रामसिंह ने उनसे उचित किराया जानने के लिए पूछा।

‘लौटाओ मत।आधा तो तुम्हारा किराया ही हो गया।बचे हुए आधे का खाना खा लेना।और सुनो! हीन भावना से दूर रहो।हीन भावना मन में नहीं रखना।कोई काम बुरा नहीं होता।परिश्रम कर के खाने में कोई लाज नहीं।चोरी, बेईमानी, झूठ, जाल फरेब और झूठे जातीय अभिमान में कभी मत रहना।जिस दिन इस देश में काम का मान बढ़ेगा, तुम्हीं सबसे आगे रहोगे।’

रामसिंह ने दोनों हाथ जोड़ दिए।जनार्दन बाबू आगे बढ़ गए।जाते-जाते रामसिंह के रुआंसे चेहरे को देखा।जो अब याद आ गया उन्हें।इसके साथ ही उन्हें अपना अंतिम वाक्य भी याद आ गया।जब श्रम का मान बढ़ेगा, तुम सबसे आगे रहोगे।अपने इसी वाक्य पर टिक गए जनार्दन बाबू।

मगर कैसे मान बढ़ेगा श्रम का? श्रम कैसे आगे बढ़ेगा? क्या श्रम का नाम लेकर श्रम को छलने वाले लोग इसे आगे बढ़ने देंगे? दिन-दिन बढ़ रहा है एक जहर पूरे वातावरण में।क्या यह जहर उन तमाम आदर्श मूल्यों का आदर्श और अस्तित्व रहने देगा? उन्हें लगा सचमुच यह जहर उन तमाम आदर्श मूल्यों पर हावी होना चाहता है।उसे भी दबोच लेगा अपने चंगुल में।खड़े हो गए जनार्दन बाबू।बढ़ने लगी भयंकर उमस उनके ही अंदर।पकने लगी कोई ज्वालामुखी उनके अंदर।

प्रश्नों प्रतिप्रश्नों का सिलसिला जारी हो गया।

‘मेरा भी जवाब दीजिये, जनार्दन बाबू।मैं बी. ए. पास हूँ।मेरा भाई तकनीकी डिग्री होल्डर है।हम पांच वर्षों से सड़क दर सड़क भटक रहे हैं।रोटी तलाश रहे हैं।जहां जाते हैं, छटनी जारी है।पैरवी और पैसे की माया हावी है।हम क्या करें जनार्दन बाबू? स्वरोजगार के लिए पैसे भी कहां हैं जनार्दन बाबू?’

‘मेरा एक भाई दवा के बिना अस्पताल में पड़े-पड़े मर गया।उसका क्या होगा, जनार्दन बाबू?’

‘मेरे गांव का स्कूल बुरी हालत में है, उसका क्या होगा जनार्दन बाबू? मेरे बच्चे कहां पढ़ेंगे, जनार्दन बाबू? पिछले दिनों मेरे पूरे परिवार को दंगा निगल गया।अब मैं किसके सहारे जीऊं, जनार्दन बाबू? ये दंगे कब तक होते रहेंगें, जनार्दन बाबू?’

‘हमारा सूरज कब निकलेगा जनार्दन बाबू? हम कब तक अंधेरे में रेंगते रहेंगे, जनार्दन बाबू? बोलिए जनार्दन बाबू? हम भेड़ियों से कैसे लड़ेंगे जनार्दन बाबू?’

इन तमाम सवालों से बेचैन हो उठे जनार्दन बाबू।प्रश्नों के बीच घिरे खोजने लगे उनका निदान।उन्हें लगा, कोई जहर फैलाने लगा है उनके शरीर में।जल उठा पूरा शरीर अंदर से बाहर तक।

‘बोलिए जनार्दन बाबू, है कोई समाधान?’

‘हां है’, एकाएक फूट पड़े जनार्दन बाबू। ‘आओ मेरे साथ।’ उनके शरीर में बिजली सी दौड़ गई।उन्होंने कोने में रखा एक डंडे को हाथ में उठाया।उसके एक सिरे पर पुराने कपड़ों की मूठ लपेटी।पत्नी बच्चे सोए पड़े थे अपने कमरे में।उन्हें सोते देख कुछ सोचा।फिर तुरंत बोतल में रखे किरासन तेल को मुठ पर टपकाया और सलाई की एक तिल्ली लेकर निकल आए दरवाजे पर।

बाहर घुप्प अंधेरा था।नामो निशान नहीं था आदमी का।सारे लोग सोए पड़े थे।वे बीच सड़क पर आ गए।एकाएक भक से प्रकाश फैल गया।उसके साथ ही वे जोर-जोर से चिल्ला उठे।

‘जागो रे सोनेवाले! जागो रे! भेड़िये तुम्हारे घर में घुस आए हैं! जागो! भेड़ियों को पहचानो रे सोनेवालो! जहर फैल रहा है, तुम्हारे अंग-अंग में! ओ रे सोनेवालो!

जनार्दन बाबू दौड़ पड़े, अपनी बनाई मशाल लेकर।उनकी आवाज सुनकर अपने-अपने घरों से निकल आए थे अर्ध निद्रित लोग भौंचक हो देखने लगे थे एक दूसरे को।

‘यह क्या हो गया? कल तक तो ठीक थे जनार्दन बाबू!’

‘जनार्दन बाबू पागल हो गए क्या?’ कानाफूसी होने लगी।

‘मुझे भी यही लगता है।हमें कुछ करना चाहिए।’

‘पिछले कई दिनों से गुमसुम रहने लगे थे।किसी से कुछ बोलते नहीं थे।’

‘इसीलिये तो पागलपन का दौड़ चल रहा है।’

‘हमें पता करना चाहिए इसका कारण।आखिर क्यों हुआ ऐसा?’

जितने लोग।उतनी बातें।शुरू हो गया रूदन क्रंदन भी।उनके बाल बच्चे भी उन्हें देख देख रो रहे थे।जनार्दन बाबू की आवाज अभी भी हवा में गूंज रही थी।

लोग कह रहे थे, पागल हो गए हैं जनार्दन बाबू।

प्रिय पाठको, आपको क्या लगता है! क्या सचमुच पागल हो गए हैं जनार्दन बाबू? मैं तो उन्हें जानता हूँ।उनकी सारी स्थितियों से वाकिफ हूँ।उनके साथ रोज का उठना बैठना है मेरा।मुझे तो नहीं लगता है कि पागल हो गए हैं जनार्दन बाबू!

आप भी सोचिए।विचार कीजिए और साथ दीजिए जनार्दन बाबू का।

सच मानिए, मेरा तो मन खो गया है उसी ओर जिस ओर गए हैं वे।सचमुच पागल नहीं हैं जनार्दन बाबू!

संपर्क : कांट, ब्रह्मपुर,बक्सर-८०२११२  बिहार