युवा लेखक। एक कवयित्री की प्रेमकथा’ (उपन्यास), ‘नोटबंदी’, ‘तीसपैंतीस’, ‘वर्चुअल रैली’, ‘बेरंग’ (लघुकथासंग्रह), ‘अमिताभ हमारे बाप’ (हास्यव्यंग्य), ‘नंदू सुधर गया’, ‘पक्की दोस्ती’ (बाल कहानी संग्रह), ‘निर्भया’ (कवितासंग्रह)। संप्रति अध्यापन।

 

पी.के. पार्टी के नेता मोल्हे माइक पर दहाड़ रहे थे- सभी आदिवासी भाई-बहनो! सबको सोलह दिसंबर की रैली में शामिल होना है। हम आपके हित की लड़ाई लड़ रहे हैं। हमें आपका पूरा-पूरा सहयोग चाहिए। अब वह दिन  दूर नहीं जब हम सभी को सरकार अनुसूचित जनजाति में शामिल करेगी। फिर हमें भी आरक्षण वाली सारी सुविधाएं मिलेंगी। वह दिन दूर नहीं, जब आप सब के भी पक्के घर होंगे। आपके बच्चे भी फ्री की शिक्षा पाकर बाबू बनेंगे। बस आपलोग हौसला रखें। हमारे साथ चलें। हम आपको पूरा विश्वास दिलाते हैं। हम अपना अधिकार लेकर रहेंगे।… तालियों का कोलाहल… आदिवासी एकता जिंदाबाद… जिंदाबाद!

फिर हजारों लोगों की भीड़ को पी.के. पार्टी के कई नेताओं ने संबोधित किया।

शाम को पार्टी प्रमुख मोल्हे अपने साथियों सहित दिसपुर गांव आए। सबसे मिलते-जुलते हुए झबुआ के झोपड़े के पास रुके। झबुआ से बोले-‘क्या कर रहा है रे! कल बड़ी रैली है, कुछ याद है?’

चबूतरे पर बैठा झबुआ सुलगती बीड़ी जमीन पर रगड़कर बोला- ‘हां-हां याद है बाबू जी।’

फिर झबुआ की युवा पुत्री की ओर इशारा करके, ‘इसको भी लेते आना!’

झबुआ- ‘साहेब! इसका वहां क्या काम?’

मोल्हे- ‘अबे! काम सबका है। अरी सुन पारो! कल सुबह दस बजे तक अपनी जैसी सारी लड़कियां बटोर कर लेती आना, रैली में।’

पारो होंठ चबाते हुए- ‘बाबू जी! मोहे लाज आवे!’

मोल्हेअरी! पारो अब तू सयानी हो गई है। समझदार हो गई है। लाज काहे की। हम अपना हक पाने के लिए लड़ रहे हैं। फिर तू वहां अकेली थोड़ी ही जा रही है जो कव्वाएगी। तेरी जैसी तमाम लड़कियां, औरतें सब जा रही हैं। फिर तू यहां बैठकर क्या घास छीलेगी!

पारोकुछ खानेपीने का इंतजाम है बाबू’, फिर पिल्ल से हँसकर शर्म से झोपड़े में घुस गई।

मोल्हे- ‘अरी! बावली खाने की चिंता काहे करती है री। लाला राम भरोसे की पूरी दुकान लगवा दूंगा। जितना जी चाहे ठूंस-ठूंस कर हलुवा-पूड़ी खाना-और चाय और समोसे की फुल व्यवस्था होगी। जितना जी करे खाना।’

अब पारो से रहा न गया। दुपट्टाहीन छाती उछालती हुई सन्न से बाहर आ गई। आंख मटकाकर- ‘कित्ते-कित्ते समोसे मिलेंगे बाबू जी?’

झबुआ ने उसकी ओर आंख तरेरी- ‘चल भाग यहां से, इतनी बड़ी लूमड़ हो गई है, पर अभी भी बचपना भरा है।’

वह नाक-भौं सिकोड़ते हुए फौरन झोपड़े में घुस गई।

‘तो हम भी जाएंगे, हम भी जाएंगे।’ बाहर धूल में सने झबुआ के पांचों बच्चे उछल-उछल कर शोर मचाने लगे… झबुआ चीखा- ‘चुप-चुप चो…ऽऽऽ…प….वरना अभी संटी उठाता हूँ।’ झबुआ संटी उठाने को लपका। मोल्हे ने फौरन रोका- ‘हां हां क्या करते हो भाई, तुम जाहिलों में यही कमी है। बच्चों और पशुओं में कोई अंतर नहीं समझते।’ फिर झबुआ का उठा हाथ रुक गया। बच्चों पर हाथ फेर कर मोल्हे बोला- ‘अरे! बच्चे हैं। नादान हैं। यहां बैठ कर कौन घुइयां छीलेंगे। सबको साथ लिए आना, आराम से वहीं बैठकर हलुआ पूड़ी छकेंगे और वहीं खेल-कूद भी लेंगे। शहर में निकलने पर कुछ जानकारी ही हासिल होगी। यहां क्या करेंगे? दिन भर पूरे गांव में कुत्ते-बिल्लियों के पीछे मारे-मारे फिरेंगे।…’

झबुआ को भी हलुआ-पूड़ी खाए कई साल बीत गए थे। दिमाग पर बहुत जोर डाला, पर ठीक-ठीक याद नहीं आया। उसका मुंह लार से भरने लगा, जबान चटखारे लेने लगी। वह हाथ जोड़कर बोला-‘माई-बाप, जैसा चाहते हैं, वैसा ही होगा।’

फिर मोल्हे की टोली आगे बढ़ जाती है। हर झोपड़े पर उसकी दस्तक जारी थी।

फिर कई गांवों में हल्ला मच गया। कल चलना है। सारी तैयारियां रात से ही शुरू हो गईं। कोई धनुष की डोरी सही कर रहा है, तो कोई तरकश ढूंढ़ रहा है, कोई भाले पर सान लगा रहा है, तो कोई पगड़ी के लिए बिस्तर की चादर को पीट-पीट कर बस धोए जा रहा है। कोई रमणी अपनी फटी धोती सी रही है, तो कोई कमसिन बदरंग सलवार कमीज की उधड़ी सिलाई को दुरुस्त कर रही है। कोई पायजामे में पैबंद टांक रहा है, तो कोई अपने छितराए बालों पर कैंची लिए फेर रहा है। बच्चे बूढ़े-जवान सभी में उत्साह कुंलाचे मार रहा है। स्वर्गीय आनंद उनकी आंखों में झलक रहा है। ऐसा लग रहा है, जैसे किसी प्रसिद्ध मेले में जाने की तैयारियां हो रही हों।

अहा! मनोहारी सुबह आ गई, जिसका सबको बेसब्री से इंतजार था। सारी तैयारियां पूरी थीं। किसी ने बासी ही जल्दीजल्दी उदरस्थ किया, तो किसी ने चबेना ही छक लिया, तो किसी को खानेपीने की फिक्र नहीं। सबको खबर हैवहां हलुवापूड़ी बंटेगी। खूब छकेंगे जी भरकरमौका पाकर चुपके से बांध भी लाएंगे।

कोई आठ बजे घर से निकला। कोई नौ बजे, किसी ने सुबह सात बजे से ही चौकड़ी भरनी शुरू कर दी। माधव पार्क में सभी इकट्ठा होने लगे। सैकड़ों की संख्या में कई-कई टोलियां भाला-बर्छी लिए चली आ रही हैं- मानो रैली नहीं, किसी युद्ध की तैयारी में निकले हों सब। कुछ के नंगे बदन, तो कोई फटी-नुची चीकट शर्ट में ही अलमस्त है। कोई नंगे पैर है, तो कोई फटे जूते अटकाए है। कई लड़कियां दुपट्टा विहीन हैं। कई स्त्रियों को अपने अस्त-व्यस्त कपड़ों की सुध नहीं। ब्लाउज के बटन खुले हैं तो खुले हैं, एक ओर पल्लू जमीन पर लिथर रहा है, तो लिथर ही रहा है…

पूरे दस बजे पी.के. पार्टी के नेताओं की धड़धड़ाते हुए गाड़ियां आनी शुरू हुईं। मोल्हे मंच पर खड़े हुए। फिर उनका आवेशपूर्ण भाषण शुरू हुआ… फिर एक बाद दूसरा नेता चिल्लाता रहा-तालियां बजती रहीं। नेताओं की जय-जयकार होती रही।

सूरज सर पर चढ़ने लगा। भरी दुपहरी हुई, धूप का तांडव शुरू हुआ। भूख- प्यास से लोग व्याकुल हुए। पारो के छोटे भाई-बहन ऊधम मचाने लगे। खाना दो-खाना दो…। फिर जिद कर जमीन पर लोटने लगे। झबुआ से रहा न गया, हिम्मत बटोर कर एक पार्टी के कार्यकर्ता से पूछा- ‘भाई साहेब, खाने-पीने का क्या इंतजाम है। हम लोग जल्दबाजी मे बेखाए ही चले आए।’

‘मूर्ख हो, सुबह-सुबह कुछ खा-पीकर निकलना था। अभी यहां क्या धरा है, जब रैली लौट कर यहीं आएगी, तब हलुवा-पूड़ी बंटेगी। उधर जा! देख नेता जी क्या कह रहे हैं। वे तुम्हारे हक की लड़ाई लड़ रहे हैं। दिन-रात रैली की तैयारी में दम लेने की उन्हें तनिक फुरसत नहीं, खाना-पीना तो दूर की बात है और एक तू है कि दो घड़ी भूख बर्दाश्त नहीं कर सकता!’

झबुआ के तन-बदन में आग लग गई। जी में आया कि गिरेबान खींच कर टोपी वाले कार्यकर्ता की मूंछें नोंच ले, पर सामने खड़ी पब्लिक का लिहाज कर रक्त का घूंट पीकर रह गया। क्रोध से उसका माथा बहुत गर्म हो गया और बहुत दुखने लगा।

रैली लाल बाग चौराहे से होती हुई, मेन रोड से होते हुए सीधे डी.एम. के आफिस के सामने प्रदर्शन करेगी। ज्ञापन देगी। फिर मुख्य मार्गों से होते हुए वापस यहीं आएगी। फिर सभा होगी। नेता भाषण देंगे। तब पूड़ियां बेटेंगी- हलुवा बंटेगा… चाय-समोसा… खूब मौज आएगी। फिर सब अपने-अपने घरों की ओर शान्ति से प्रस्थान करेंगे, पर विधाता को शायद कुछ और ही मंजूर था।

रैली चली, झंडे-बैनर हवा में लहराने लगे- हमारी मांगें पूरी करो, हमें अनुसूचित जनजाति में शामिल करो। अभी तो ये अंगड़ाई है- आगे और लड़ाई है! आवेशपूर्ण नारों से आकाश गूंज उठा। धरती हिलने लगी। बच्चे-बूढ़े-जवान सभी की आंखों में क्रोध की ज्वालाएं धधक उठीं-आंधी-तूफान की मानिंद हजारों बढ़ते जा रहे थे।

भीड़ सड़क पर आपा खोकर चल रही थी। नेता सबसे आगेआगे उनके पीछेपीछे उमड़ताघुमड़ता जनसैलाबकुछ मनचलों की निगाहें बेतरतीब कपड़े पहने लड़कियों पर पड़ीं। एक को चुहल सूझी, कंकर उठाया और पारो पर जोर से फेंका। पारो चिंहुक पड़ीउछली। उसके चाचा ने मनचले को देख लिया, जो रैली के बाहर का था। वह उसकी आरे दौड़े, वह भागादो धावकों की दौड़ शुरू हुई। शोहदा पकड़ा गया।

फिर आदिवासियों ने मिलकर उसकी धुलाई शुरू की, फिर हलचल मच गई। आस-पास के दुकानदारों की फौज शोहदे के पक्ष में दौड़ी। सभी क्रोधावेश मे चिल्लाए-अपने दुकानदार भाई को बचाओ… बचाओ…  व्यापारी एकता जिंदाबाद… मारो सालों को… मारो जंगलियों को… कोई बचने न पाए… तोड़ दो उन हाथों को जो हमारी एकता को खंडित करे। गुत्थम-गुत्थी शुरू हुई। फिर भाले-बर्छी-लाठी-डंडे चलने शुरू हुए। व्यापारियों ने गोलियों की बौछार शुरू की… धांय-धांय-धांय…। सारे नेता कार से फुर्र…। मुट्ठी भर पुलिस बल, जो रैली के साथ चल रहा था- दुम दबाकर रफू चक्कर हुआ। जनसैलाब बेकाबू हो चुका था। छीना-झपटी, धींगा-मुश्ती, फिर मारकाट की चीत्कारों से, चीखों से, आकाश गुंजायमान हो उठा। धरती का कलेजा कांपने लगा। महिलाएं-लड़कियां आबरू बचाने की गरज से तितर-बितर होकर, बेतहाशा गलियों की ओर भाग रही थीं। ऐसे में शोहदों की बन आई। जैसे चाहा, वैसे चीरहरण का तांडव शुरू किया।

अठाराह वर्ष की पारो नग्नावस्था में बड़ी तेज़ी से सड़क पर भाग रही थी। खुले बाल, आंखों में खौफ का भयानक मंजर। नंगे जिस्म पर लगे नाखूनों के निशान। पत्थरों से उसका सारा जिस्म लहूलुहान हो चुका था, पर लफंगे उसे अभी भी दौड़ाए जा रहे थे। जैसे कई आदमखोर जंगली जानवर किसी निरीह प्राणी का पीछा कर रहे हों। मीडिया कर्मी पारो के नंगे जिस्म का रोमांचित विस्मित चित्र अपने-अपने कैमरों में कैद करने को आतुर था। बौखलाए सांडों की भांति वे उन वहशियों के पीछे-पीछे भाग रहे थे। पत्रकारिता आज नग्नता का आवरण ओढ़ने को आतुर थी।

चारों ओर हाहाकार था। भागते, रोते, तड़पते-घिसटते मासूम बच्चों और बूढ़ों की चीखों का कोई पुरसाहाल न था। भयातुर स्त्रियों की चीखों से समूची मानवता आज जार-जार रो रही थी। समाज के ठेकेदार सफेदपोश भेड़िए अब ए.सी. में बैठे कर गर्म चाय की चुस्कियां ले रहे थे-टीवी पर दानवता का तांडव देखकर मात्र हाथ मल रहे थे। गप्प कर रहे थे।

काफी देर बाद भारी पुलिस बल आया। हवाई  फायरिंग… रबड़ की गोलियां… सायरन बजाती गाड़ियां, आंसू गैस छोड़ी जाने लगी। युद्ध भूमि की भगदड़ उग्र रूप धारण कर चुकी थी।

एक घंटे बाद यु़द्ध का मैदान मरघट बन चुका था। घायलों और लाशों के जगहजगह ढेर लग चुके थे। घायल जहांतहां कराह रहे थे, तड़प रहे थे। कोई अपनी मां की लाश पर आंसू बहा रहा था, तो कोई अपनी जवान बेटी की लुट चुकी अस्मत पर चीख रहा थाहर मंजर रो रहा था। एक मासूम बच्ची सड़क पर चित्त पड़ी अपनी मां का आँचल ढूंढ़ रही थी।

सड़क खून से सनी थी। बर्छी-भाले असलहे जहां-तहां छिटके पड़े थे। जहां-तहां चीथड़े, टूटे चप्पल। रुदन का सैलाब… फिर एंबुलेंसों के हूटर की तेज आवाजें।

दूसरे दिन सारे अखबारों ने पारो के नंगे खौफजदा जिस्म की तस्वीरें छापीं। खून से सनी धरती की तस्वीरें किसी ने नहीं प्रकाशित की। मसालेदार खबरों के साथ पारो का अधनंगा जिस्म लोगों के लिए दिलचस्प स्टोरी बना। अखबारों की बिक्री बढ़ी, चैनलों का विज्ञापन!

फिर कोहराम मच गया मुख्यमंत्री पर, शासन-प्रशासन पर, धुआंधार प्रहार शुरू हुए। आदिवासियों की हिमायती पी.के. पार्टी ने कहा- अगर सही समय पर पुलिस आ जाती तो नरसंहार न होता। सरे आम हमारी बहू-बेटियों का चीरहरण न होता। हम इसका बदला लेकर रहेंगे। इसके लिए पूरे प्रदेश में हमारे आदिवासी समुदाय का विशाल आंदोलन शुरू होगा। यह सत्ता से हमें दूर रखने की साजिश है। हम इस साजिश को कतई कामयाब नहीं होने देंगे। हमारे भाइयों-बहनों की शहादत जाया नहीं होगी।

विधानसभा में पारो का नंगा चित्र मुख्यमंत्री के मुंह पर फेंका जा रहा था। विपक्ष दहाड़ रहा था- ये क्या हो रहा है- अनपढ़ गरीब आदिवासी समुदाय के साथ ऐसा जघन्य कृत्य? प्रदेश में कानून और व्यवस्था चौपट हो चुकी है। इसकी निष्पक्ष जांच होनी चाहिए… दोषियों को कठोर से कठोर दंड दिया जाए। आरक्षण उनको मिलकर रहेगा। कुर्सी छोड़ो… हाय! हाय!.. राजनीति की रोटियां सेकने वालों को सुखद अवसर प्राप्त हुआ।

मुख्यमंत्री ने आश्वासन दिया- ‘इस घटना की निष्पक्ष उच्चस्तरीय जांच होगी। आयोग बनाया जाएगा। पारो को एक लाख दिया जाएगा। प्रत्येक मृतक आश्रित को पचास-पचास हजार और प्रत्येक घायल को पच्चीस-पच्चीस हजार की आर्थिक सहायता प्रदान की जाएगी!

पी.के. पार्टी के नेता मोल्हे दहाड़ रहा था- पारो को एक लाख नहीं दस लाख मिलने चाहिए…। मृतकों के आश्रितों को नौकरी दो। इस आदिवासी समुदाय के आरक्षण की लड़ाई अब आर-पार की होगी। हमारा आंदोलन जारी रहेगा। चाहे खून की नदियां बह जाएं। इस मुआवजे से मुख्यमंत्री हमारे आंसू नहीं पोंछ पाएंगे!

संपर्क :निर्मल नगर, लखीमपुरखीरी, उत्तर प्रदेश-262701 मो.7376236066