युवा लेखिका और कवयित्री। बचपन से ही लिखने का शौक रहा है। बांग्ला समाचार पत्रों के साथ बांग्ला देश के समाचार पत्र भोरेर पत्रमें भी निरंतर लिखती रहती हैं।

कथाकार  और अनुवादक।दो कहानी संग्रह: बाघाऔर बदलते चैनल और अन्य कहानियाँ।संप्रति: स्वतंत्र लेखन, पत्रकारिता में रुचि। छपतेछपतेके उत्सव विशेषांक का संपादन।

राजधानी एक्सप्रेस अपनी तीव्र गति से भागे जा रही थी।

रात की सघनता में सारे मुसाफिर अपने-अपने बिस्तरों में गहरी नींद में मरे पड़े थे। वातानुकूलित डिब्बे की बंद खिड़कियों के काले-काले शीशों से होकर कोमल मुलायम रोशनी का एकाध कतरा जब-तब अचानक कौंध जाता। वहीं, कभी किसी के आने-जाने की आहट भी सुनाई पड़ जाती और कभी बेसिन के कल से पानी के गिरने का कलकल भी।

जैसे झूले पर झूलने का आनंद उठाते हुए ‘वह’ भी सो गए थे। ‘वह’ मतलब! कोई भी; ‘तुम’,‘आप’ ‘वे’। ‘वह’ …कोई भी हो सकता है। चलिए मान लेते हैं, ‘वह’ मतलब फलां भाई या फलां प्रसाद अथवा फलां ठाकुर, यानी फलां बाबू!

फलां बाबू किसी मध्यवर्गीय परिवार का एक साधरण आदमी हैं। उनके हाथ की उंगलियों में मूंगा, मोती, कैट्स-आई जैसे बहुमूल्य पत्थरों से जड़ी अंगूठियां हैं। उन्होंने अपने दाहिने हाथ की कलाई पर मां विपद-तारिणी का लाल धागा भी बांध रखा है। बाएं हाथ की कलाई सूनी जरूर है, पर उसपर घड़ी पहनने के निशान साफ नजर आ रहे हैं। हो सकता है चोरी हो जाने के डर से उन्होंने अपनी कलाई-घड़ी को अपने थैले में जतन से रख रखा हो या फिर छुपाकर ही रख दिया हो। किंतु साबुन, दंत मंजन, एंटासिड की शीशी, इस्बगोल का पैकेट, प्रेशर और शुगर की दवाइयां उनके पास ही पड़ी हुई हैं। इन जरूरी चीजों को छोड़कर क्या कोई और मूल्यवान वस्तु उनके पास हो सकती है, यह समझ पाना थोड़ा मुश्किल है। फिर भी, सांकल में बंधे-जकड़े उनके थैले को देखकर यूं लगता कि उसमें अवश्य ही कोई कोहिनूर छिपाकर रखा हुआ है।

किसी सांड़ की भांति राजधानी एक्सप्रेस सरसर करती दौड़ी चली जा रही है। फलां बाबू के लिए इस तरह तेज रफ्तार से चलने वाली दूरगामी ट्रेन में सवार होकर यात्रा करने का यह पहला मौका है। फिर भी किसी रेलगाड़ी के बिहार जैसे राज्य की सीमा में प्रवेश करते ही मुसाफिरों के मन में ‘जो कुछ’ होने लगता है, इसका अनुभव उन्हें भी खूब है। न जाने कैसे-कैसे लोग आरक्षित बोगियों में भी जबरन घुस आते हैं। उनके साथ सामानों का अंबार सा होता है और चढ़ते ही वे न केवल शोरगुल करते हैं, बल्कि जहां-तहां खैनी रगड़-रगड़कर झाड़ते फिरते हैं और थूक-पिक के पच्-पच् के साथ भद्दी-बेहूदी गालियां भी बकते चलते हैं। फलां बाबू को इस बात का डर है कि किसी दिन ये लोग अपने साथ सामान की जगह डिब्बों में कहीं अपनी भैंसो को लेकर न चढ़ आएं!

परंतु अभी इस ‘राजधानी एक्सप्रेस में इस तरह का कोई बावेला-झमेला नहीं है।’ -इसका ख्याल कर वह प्राय: घोड़ा बेचकर सो गए और लौह-इस्पात का वह सांप रात के अंधेरे में भी द्रुत गति से बे-रोक-टोक सरपट आगे बढ़ता रहा।

तभी एक हालन सा आया! खड़खड़ाहट के साथ एक जबरदस्त कंपन!

फिर न जाने क्या हुआ कि फलां बाबू धड़ाम से फर्श पर आ गिरे। उन्हें लगा जैसे पूरी धरती उलट-पुलट सी गई है। एक चड़मड़ाहट के साथ ट्रेन की छत उड़ने लगी है। दियासलाई की डिबिया के भीतर हो रही झंझनाहट की भांति खिड़कियों के शीशे भरभराकर गिर रहे हैं। लोग पैनिक्ड हो जाते हैं, देखते न देखते सब तरफ त्राहि-त्राहि मच जाती है। रक्तरंजित मुर्दों का ढेर लग जाता है। धुआं-युक्त काली-काली घटाएं उमड़ने-घुमड़ने लगती हैं। सांस लेना भी दूभर हो जाता है। फ़लां बाबू उठकर बैठने की पुरजोर चेष्टा करते हैं… किंतु…, तभी टीकट… टिकट… प्लीज की….।

उन्हें सारा कुछ धुंधला-सा दिखाई दे रहा है। पर उस धुंधलके में भी कुछ शब्द उन्हें साफ सुनाई दे रहे हैं। अचानक उनका गुस्सा फूट पड़ता है। ट्रेन किसी दुर्घटना का शिकार हो गई है, लोग मर रहे हैं… जहां-तहां मानव शरीर के अंग-प्रत्यंग… आगे क्या होगा, पता नहीं और इन्हें टिकट की पड़ी है! सिर पर चढ़े आ रहे हैं, ‘टिकट प्लीज़ …. टिकट …. प्लीज़।’

दिल की तेज धड़कनों के साथ उनके भीतर से आवाज निकली – ‘…ब – चा – ओ ….. ब–चा–ओ!’

तभी कहीं से गुरु गंभीर होकर किसी ने जोर से हांक लगाई, किसको भला कौन बचाए? आपके खर्राटों ने हमारा सोना हराम कर दिया है, ऊपर से आप कहते हैं बचाओ! अजी, पहले हम तो आपके नासिका-गर्जन से बच लें! बड़े चले हैं, ‘बचाओ-बचाओ’ करने वाले! आधी रात को भुतहा सपना देख रहे हैं और हमें…। ‘उठिए! चलिए यहां से, उठिए…! उठिए…!’

उनकी तोंद में कोई कुछ चुभो रहा था। आंखें मलते-मलते वह उठ बैठे। इर्द-गिर्द जो देखा तो उनके मुंह से अनायास निकल पड़ा, ‘…जा तेरी का! यहां सब कुछ बिलकुल दुरुस्त है!’

‘राजधानी’ अपनी तीव्र-तुमुल रफ्तार से भागी जा रही थी, जबकि आस-पास के मुसाफिर फलां बाबू को अपनी विस्फारित आंखों से देखे जा रहे थे।

असल में उनके ऊपर वाले बर्थ के चिलां बाबू ही उनकी तोंद में अपनी कलम चुभो रहे थे। कलम की चुभन से फलां बाबू की आंखें पूरी तरह खुल गई थीं और उन्होंने यह भी देखा कि एक काले कोट धारी टीटी साहेब उनकी नाक की सीध में उल्लूसा उन्हें टुकुरटुकुर निहार रहे हैं।

उन्हें नींद से जगते देख विनम्रता के साथ टीटी साहेब ने फरमाया, ‘टिकटप्लीज!

टिकट दिखाकर फलां बाबू को आश्वस्ति मिली। अच्छा हुआ, कहीं कोई दुर्घटना नहीं घटी। दु:स्वप्न था! यह सोचते-सोचते वह हठात भड़क उठे, ये सारा तमाशा इस ऊपर के बर्थ वाले का किया धरा है। नंबरी बदमाश है यह! इसकी तो केवल बड़ी-बड़ी बातें भर हैं, बस।

रात को खाना खाने के बाद फलां बाबू महानंद में गोते लगा रहे थे। वैसे भी पेट में दाना पड़ते ही लोग-बाग महा अनंदित हो उठते हैं और थोड़ा दार्शनिक भी बन जाते हैं। शायद उसी दार्शनिकता के फेरे में पड़कर फलां बाबू ऊपर के बर्थ वाले चिलां बाबू से बोल पड़े थे- ‘जरा सोचिए, आज हम कितने लोग एक साथ यात्रा कर रहे हैं, साथ-साथ समय बिता रहे हैं, गप्पे मार हैं। चंद घंटों के बाद सभी अपने-अपने गंतव्य पर चले जाएंगे। यहां बिताए समय को भूल भी जाएंगे। किसी को कभी याद भी नहीं रहेगा कि हमने किसी के साथ कभी रेल-यात्रा भी की थी। विडंबना को क्या कहा जाए! समय का खेल!’

इतना सब सुनकर चिलां बाबू थोड़ा गंभीर हो गए। बोले, ‘यह कहना मुश्किल है, महाशय! इस ट्रेन का क्या भरोसा! हो सकता है कि कोई आतंकी इसकी पटरियों पर माइन बिछा दे, बम रख दे, या पटरियों का फिश-प्लेट ही खोल दे या किसी पुल को ही उड़ा दे, तब?’

यह सब सुनना भर था कि फलां बाबू ने झट आजवाइन की डिबिया चिलां बाबू की ओर बढ़ाते हुए कहा – ‘लीजिए-लीजिए! आपको बदहजमी हो गई है।’

चिलां बाबू फलां बाबू को समझाने लगे, ‘आप माने या न माने, लेकिन साथ-साथ सफर कर रहे हम मुसाफिरों में एक ही समानता है, वह है- ओनली डेथ!’

‘ओनली डेथ’ (केवल मौत) की बातें फलां बाबू के कानों में क्या धंसीं कि उनकी देह एकबारगी सिहर उठी। भीत से भयभीत हुए फलां बाबू ने अपने दाहिने बाजू में बंधे ताबिज को आहिस्ते से छू भर लिया। यूं भी, बढ़ती रेल-दुर्घटनाओं की बात सुनकर क्षण भर के लिए आज भला कौन अस्थिर न हो जाएगा? ऐसी खबर सुनकर तो सभी सिहर उठते हैं। इसके बाद तो जैसे फलां बाबू की छाती में दर्द सा होने लगा।

नतीजतन उनकी आंखों में दु:स्वप्नों के रिल्स चलने चालू हो गए। और तब उन्हें बोफर्स और कारगिल के युद्ध का स्वर भी सुनाई पड़ने लगा।

बावजूद इन सबके वह एकदम से उखड़ पड़े। चिलां बाबू की ओर उंगली तानते हुए बोले, ‘कुछ अच्छा नहीं बोल सकते हैं क्या? जब देखो, निरर्थक-फालतू बातें करते रहते हैं आप, कभी एक्सीडेंट, कभी माइन-बम बोफर्स-कारगिल।’

‘सॉ….री।’ शब्द का छींटा मारकर चिलां बाबू अपने कंबल में दुबक गए। उधर फलां बाबू भी सोने की तैयारी में जुट गए। तभी अचानक उन्होंने दो चमकती पुतलियों को देखा, जो उन्हें टकटकी लगी आंखों से देखे जा रही थीं।

उन चमकीली पानीदार पुतलियों का मालिक एक युवक था। तीस के आस-पास का होगा वह। सुदर्शन चेहरा, गठिला बदन, हजामत बनी दाढ़ी-मूंछें। गले में सोने की सिकड़ी, बांहों पर रुद्राक्ष गूंथे लाल धागा। बिलकुल एक अत्याधुनिक बंगाली नौजवान!

उसके खालिस ‘बांगाली’ होने पर भी, फलां बाबू के लिए वह नापसंदगी का सबब बना रहा। बेशक उस युवक की सूरत; उसके भद्र, नम्र और शिक्षित होने का संकेत करती थी, फिर भी न जाने क्यों फलां बाबू की प्रकृति से वह किसी कीमत पर कोई मेल नहीं बिठा पा रहा था। उनके लिए वह बिलकुल एक नृशंस इंसान सा लग रहा था।

‘मेसो मोशाई’ … (मौसा जी)। उसने अपनी सीट पर बैठे-बैठे ही उन्हें पुकारा … ‘आप अच्छे हैं न?’

उनका गला सूख गया था। थूक गटकते हुए बोले…‘थोड़ा… पानी…।’

सुनते ही वह फौरन पानी की बोतल लेकर उनके सामने हाजिर हो गया… ‘जी, यह लीजिए।’

उनकी धड़कनें तेज हो गई थीं। पानी से कंठ को तर करने पर उन्हें तनिक सुकून मिला। थोड़ा और पानी पीने के बाद न जाने क्यों फलां बाबू अचानक रुक से गए और उस पानी की बोतल को सशंकित नजरों से निहारने लगे। यह देख युवक मुस्कराया और बोला, ‘डोंट वरी, पानी हमारे घर का है। इसे मैं फिल्टर से भर लाया हूँ।’

भरोसा पाकर फलां बाबू बोतल का बचा पानी एक सांस में गटगटा गए और बोतल युवक को थमाते हुए बोले, ‘थैंक्स!’

दिन चढ़ आने पर उनकी नींद टूटी। वैसे भी सुबह इतनी देर तक फलां बाबू कभी सोते नहीं थे, पर कल रात उन्हें जमकर नींद आई थी। और कोई बुरा सपना भी उन्होंने नहीं देखा था। दरअसल बिछौना पर पीठ टिकाते ही कल रात उन्हें नींद आ गई थी और एक ही नींद में उनकी पूरी रात कट गई थी।

किंतु आंख खुलते ही वह भौंचक्क रह गए थे। यह क्या! डिब्बे में एक भी आदमी नहीं। कहीं अंतिम स्टेशन तो नहीं आ गया! गाड़ी से उतरकर सारे मुसाफिर अपने-अपने गंतव्य पर चले गए होंगे! उन्होंने अपनी आंखों को मलते हुए डिब्बे के बाहर झांका, अरे! यह क्या? यहां तो कोई भी दिखाई नहीं दे रहा है। अजब मामला है यह! कितने बजे हैं?

याद हो आया। घड़ी तो बैग में रखी है! बैग बाहर निकालने के लिए वह झुके। आश्चर्य है! यहां बैग तो है ही नहीं। कहां अंतर्धान हो गया वह! फलां बाबू, पागल सा हो गए। उन्माद की हालत में खुद से वह बातें करने लगे, थैला कहां गया? उसमें पैनकार्ड, एटीएम कार्ड और दस हजार रुपये थे। सब नदारद! अब क्या होगा? आह! अब क्या होगा?

उनके मन में एक आशंका कड़कती बिजली की भांति कौंध गई। ‘वह लड़का! उसका दिया हुआ पानी ही तो मैंने पिया था। उसमें उसने जरूर कुछ मिला रखा होगा! ये लुटेरे इसी तरह निरीहों को लूट ले जाते हैं।’

वह अपने बैग को अब भी ढूंढ़े जा रहे थे। उन्हें लग रहा था कि उनका बैग हो न हो सीट के नीचे किसी कोने में दुबक गया होगा। परंतु अगर वह बैग नहीं…. तो!

पर उन्हें बहुत जल्दी यह आभास हो गया कि थैले को ढूंढ़ने की निपट मूर्खता ही वह कर रहे हैं। वह तो कब का फुर्र हो गया है। सामान भी गए और जरूरी कागजात भी! अब उनके पास फूटी कौड़ी तक नहीं। बेचारे! किसी तरह वह अपने को संभालते हुए डिब्बे के दरवाजे की ओर बढ़े और ट्रेन से नीचे उतर आए। सोचा, गायब हुए सामान और रुपयों की रिपोर्ट पुलिस में लिखवा दी जाए। ब्लडी-बास्टर्ड, उनकी क्या दुर्दशा बना दी है उसने!

बाहर का नजारा देख फलां बाबू फिर से भौंचक्क रह गए! अरे यह क्या! यहां तो कोई भी नहीं है! चारों तरफ सिर्फ रेल के डिब्बे! केवल लावारिस बॉगियोें का कबाड़! उनके खिड़की-दरवाजे फलां बाबू को देखकर जैसे अट्टहास कर रहे हैं! वह न जाने कहां किस कारशेड में आ पहुंचे हैं? हे ईश्वर! दया करो! क्षमा करो! रक्षा करो!

अब हमें रुक जाना चाहिए। थोड़ा रुकना जरूरी है प्रस्तुत कहानी को आगे बढ़ाने के लिए। हो-न-हो एक चेन पुलिंग की आवश्यकता अब आन पड़ी है यहां। कारण, इस तरह की कोई घटना फलां बाबू के साथ, असल में, घटी ही नहीं थी।

अजी, फलां बाबू केवल ऐसा सोच भर रहे थे! दरअसल ये बातें किसी फिल्म के रिल की भांति फलां बाबू के दिमाग में क्षण भर के लिए दौड़ सी गई थी, बस!

पानी की बोतल हाथ में धरे वह युवक अब फलां बाबू की नाक की सीध में आ खड़ा हुआ। पूछा, ‘मेशो, की होलो?’ मौसा जी क्या हुआ?’

वह चिढ़ गए थे। विरक्त होकर बोले, ‘ना, तुम्हारे हाथ का दिया हुआ पानी अब मैं नहीं पीने वाला। …और यह मेशो-मेशो की रट क्यों लगा रखी है तुमने?’ मैं भला तुम्हारा ‘मौसा जी’ कब से हो गया? जबरदस्ती का रिश्ता जोड़ना मुझे नहीं भाता! मुझे यह बिलकुल नापसंद है। समझे?’

वैसे भी, उनके सहयात्रियों को यह कैसे पता होता कि फलां बाबू का स्वभाव ही कुछ ऐसा है! शायद इसीलिए घर से निकलने से पहले उनकी पत्नी ने खूब समझाया था – ‘सावधानी से जाना।’ उन्होंने उन्हें सतर्कता बरतने को भी कह रखा था। एक पंक्ति में कहें, तो कहा था, ‘तुम अपनी बउ-मां (बहू) से मिलने पहली बार दिल्ली जा रहे हो, तो पगले! मेरी नैया मत डुबो देना!’

परंतु फलां बाबू थे कि नाव के मस्तूल पर चढ़कर अपने साथी-सहयात्रियों की नैया डुबोने में लगे हुए थे।

चाहे जो हो! आज पूरी रात बिना किसी विघ्न-बाधा के कटी। किसी चोर-डकैत का कोई उपद्रव भी नहीं हुआ। फिर भी फलां बाबू पूरी तरह सतर्क थे- सावधान थे।

‘गुड मॉर्निंग!’ भर गाल हँसी हँसकर चिलां बाबू ने उनसे पूछा, ‘अपना सारा सामान-थैला आदि देख लिया है न? सब ठीक-ठाक है न?’

फलां बाबू अपनी नाक से फांस-फूंस की ध्वनि के साथ हवा को अंदर बाहर कर रहे थे। यह आवाज उनके योग अभ्यास की थी। जब से उन्होंने किसी योगगुरु की वीडियो/डीवीडी को देख रखा है तब से वह भी नियमित योगाभ्यास के आदी हो गए हैं। राजधानी एक्सप्रेस में बैठकर भी वह भला अपने योगाभ्यास को कैसे छोड़ देते हैं! उम्र बढ़ने के साथ-साथ उनकी तोंद भी तो बढ़ गई है! इसलिए भी वह नियमित रूप से कपालभांति और अनुलोम-विलोम किया करते हैं।

उसी योगाभ्यास को वह आज भी दुहरा रहे थे, किंतु मन उनका कुछ उचटा-उचटा-सा था। उनका इकलौता बेटा ‘शुभो’ अब इस दुनिया में नहीं रहा। उसे गुजरे कल पूरे तीन साल हो जाएंगे। छैल-छबीला जवान लड़का उस रोज लापरवाह होकर अपनी दुपहिया भगाए जा रहा था। पिता ने कई बार समझाया था, ‘इतनी लापरवाही से मोटर-बाइक न चलाया करो।’ पर वह किसी की कब सुनने वाला था? इसी तरह उस रोज जब वह अपनी फटफटिया दौड़ाए जा रहा था, तभी एक ट्रक ने उसे पीछे से आकर ठोंक दिया। बीच सड़क पर वह पड़ा-पड़ा छटपटा रहा था, किंतु एक भी आदमी उसकी सहायता के लिए आगे नहीं आया था। वह मदद के इंतजार में आस लगाए जमीन पर पड़ा रहा। पर क्या गरज कि किसी ने उसे उठाकर अस्पताल तक पहुंचाया हो!

दिल्ली का हुजूम उसे मूढ़ों सा टुकुर-टुकुर देखे जा रहा था, वहां से अनगिनत लोग लगातार आते-जाते रहे, लेकिन वह तरुण-जवान लड़का लहूलुहान हो वहीं सड़क पर पड़ा-पड़ा सहायता की उम्मीद में आंखें बिछाए रहा, जिंदगी की आखिरी सांसें गिनता रहा और जीवनलीला के आखिरी वक्त में उसे एक बिछौना तक नसीब न हुआ! अपने घर की चिर-परिचित दीवारों को भी वह अंत समय में देख नहीं पाया!

तभी से किसी प्रकार की दुर्घटना की खबर सुनते ही फलां बाबू को डर सा लगने लगता है। ‘शुभो’ की तरह की दर्दनाक मौत की कामना वह अपने किसी चिर शत्रु के लिए भी नहीं करते।

जमाना बहुत खराब है। न जाने कब-कौन-किसे पीस डाले या बम से ही उड़ा दे। फलां बाबू अपनी मौत मरना चाहते हैं, दूसरों की इच्छा-आकांक्षा से नहीं।

‘तुम निश्चिंत रहो। …यहां सब ठीक-ठाक है। इस बार किसी प्रकार की चूक नहीं होगी। अब…।’

उसकी इन बातों को फलां बाबू ने सुना था। युवक अपने मोबाइल पर किसी से बातें कर रहा था। वह आहिस्ते-आहिस्ते बतियाए जा रहा था… ‘टाइमर सेट कर दिया है। बिलकुल सटीक समय पर…।’

इसके बाद की बातों को वह साफ-साफ सुन नहीं पाए थे, क्योंकि ‘टाइमर’ शब्द उनके कानों में ऐसे घुसा कि उनके दिमाग में वह धंसता ही चला गया। इससे उनका दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। वह जरा उत्तेजित सा हो उठे। ‘टाइमर’-मतलब? बम! उन्होंने अपनी आंखों से उसके बैग के वजन को तोला, लगा जरूर इसमें बम है। ‘बाबा रे!’ यह कोई छुटभैया चोर नहीं, यह तो जरूर कोई बहुत बड़ा अपराधी या आतंकवादी जान पड़ता है। उन्हें लगा कि इस राजधानी एक्सप्रेस को वह अवश्य ही उड़ा देगा। वह घात लगाए बैठा है। बाप रे! चेहरा देखकर आजकल लोगों को पहचान पाना कितना मुश्किल है! लेकिन अब क्या होगा? यह गाड़ी तो बीच में कहीं रुकेगी नहीं। ‘क्या होगा? गार्ड से कहूं? चेन पुलिंग करूं? …ट्रेन से छलांग लगा लूं? या…!’

वह इतना भर ही सोचविचार कर पाए थे कि तभी एक भयंकर विस्फोट हुआ। वह थर्रा उठे। तत्क्षण उनकी आंखें जलकर राख हो गईं, कान के पर्दे फट गए। पीड़ा के मारे वह बेहोशसा होने लगे। उन्हें लगने लगा कि उनका सारा शरीर आग की लपटों में समाए जा रहा है। दाहिना हाथ उठाने पर लगता, हाथ है ही नहीं। दाहिना पांव भी नहीं है। चारों तरफ मानवदेह छिन्न भिन्न पड़ी हैं। मौत सबको ललकारती हुई आ डटी है। अब भला बचाव कहां!क्षतविक्षत उनके शव को कोई पहचान भी न पाएगा, कोई शिनाख्त भी नहीं कर पाएगा।

जी हां, मामले को ठीक ही पकड़ा है आप सभी ने। वाकई इस तरह की कोई घटना वहां घटी ही नहीं थी। अरे! वह तो फलां बाबू की आंखों के सामने हठात कोई डरावना दृश्य घूम गया था, बस। किंतु उस डरावने दृश्य की बात पर गौर करने पर फलां बाबू की देह का सारा खून सूख-सा गया था या कहें बर्फ की भांति हिम हो गया था। अरे कितना भयावह था वह दृश्य! ऐसे में उनके खून को सूखना ही था, जमकर हिम होना ही था।

‘कहिए महाशय! क्या सोच रहे हैं? किस चिंता में डूबे हुए हैं? सब ठीक तो है? कहीं कोई दिवा-स्वप्न तो नहीं देख रहे हैं आप?’ चिलां बाबू ने जैसे उन पर व्यंग्य वाण चलाते हुए पूछा।

उस आदमी को देखते ही फलां बाबू को भयंकर चिढ़ हो आती। पर उपाय क्या था? उफ! सहयात्री हैं! सब सहना पड़ेगा। फिर भी धीरे-धीरे अपनी लड़खड़ाती आवाज में उन्होंने चिलां बाबू से कहा, ‘टा-इ-म-र!’

‘टाइमर! कोैन सा टाइमर? कैसा टाइमर?’ चिलां बाबू तो जैसे…।

तभी फलां बाबू ने धीमे स्वर में कहा, ‘नहीं मालूम!’ फिर पुन: वह युवक की ओर इंगित करते हुए बोले, ‘उसने लगाया है!’

चिलां बाबू भी क्या कमाल के आदमी हैं! शोर मचाने लगे- ‘कौन सा टाइमर? कैसा टाइमर?’

उन्होंने तो जैसे फलां बाबू को सीधे बाघ के पिंजरे में जिंदा ढकेल दिया था। फलां बाबू अपनी जगह घूमकर बैठ गए थे। थैले से कुछ निकालने का स्वांग करने लगे थे। जब पीछे मुड़े तो क्या देखते हैं कि युवक तेज धार वाली एक छुरी हाथ में लिए खड़ा है। उसकी योजना की गोपन बातों को दो बूढ़ों ने सुन जो लिया था! उन्हें वह भला क्यों छोड़ेगा! वह उन्हें कदापि नहीं छोड़ने वाला।

फ़लां बाबू को लगा कि उस छुरी से वह उनका गला रेत रहा है। वह हत्यारा, उन्हें बड़ी बेरहमी से…

युवक छुरी को अपने दाहिने हाथ से पकड़े हुए फलां बाबू की ओर बढ़ा। और बाएं हाथ में!… बाएं हाथ में टकटक लाल रंग का एक सेब। छुरी से उसने सेब के कई टुकड़े किए और उसमें से एक टुकड़ा फलां बाबू की ओर बढ़ाते हुए पूछा, ‘आपेल खाएंगे मौसा जी?’

उधर उनकी सिट्टी-पिट्टी बंद हो चुकी थी। गरज उठे- ‘कह चुका हूँ न, मुझे ‘मौसा-टौसा’ मत बोलो। यह दिखावे की आत्मीयता मुझे बिलकुल पसंद नहीं है। और तुम्हारा दिया सेब, भला मैं क्यों खाऊं? पता नहीं, उसमें तुमने क्या कुछ लगा-मिला रखा हो?’

फलां बाबू की बातें सुनकर लड़के का मुंह उतर गया। उसकी सूरत मलिन पड़ गई। वह अचंभित था। मुड़कर अपनी जगह जाने लगा कि तभी चिलां बाबू ने उसे रोक लिया। बोले, ‘अरे भाई! मुझे तो सेब का एक टुकड़ा देते जाओ। मुझे यह फल बहुत पसंद है। लाओ एक टुकड़ा…।’

उसका चित्त फौरन प्रफुल्लित हो उठा। उसकी सूरत पर छाए उदासी के बादल क्षण भर में काफूर हो गए और हँसी की झलक देखते ही देखते झिलमिला उठी। वह बेहिचक, निश्चिंत भाव से चिलां बाबू के बाजू में आकर बैठ गया। दोनों सेब खाते-खाते, जी खोलकर गप्पें लड़ाते रहे।

‘तुमने कौन सा टाइमर लगा रखा है, भई?’ चिलां बाबू ने उससे हँसते हुए पूछा। ‘तुम कोई टाइमर बम-वम तो लेकर नहीं घूम रहे हो न भाई?’

‘टाइमर? बम-वम?’ वह ठहाका मारकर हँस पड़ा और बताया, ‘अपने मोबाइल फोन में टाइमर सेट कर रखा है मैंने। मेरे बड़े भाई का आज जन्मदिन है। परंतु वह रहता है लंदन में। मैंने लंदन के समय के अनुसार अपने मोबाइल में टाइमर सेट कर रखा है, जिससे सही वक्त पर उसे उसके जन्मदिन की बधाइयां दे सकूं। उसे ‘विश’ कर सकूं।’

‘वैसे’, मुस्कुराते हुए युवक ने आगे बताया, ‘मेरा बड़ा भाई थोड़ा तुनक मिजाज टाइप का लड़का है। बात-बात पर नाराज हो जाता है। वहां वह अकेले रहता है न! इसलिए…। वह हम सबको बहुत ‘मिस’ करता है। ऐन वक्त पर ‘विश’ करूंगा तो वह बहुत खुश होगा। मुझसे बातें करके और घरवालों का हालचाल जानकर उसे अच्छा लगेगा। इसलिए मैंने…।’

अब जाकर ‘टाइमर’ का असली रहस्य खुला।

फिर भी जो एक बार संदेह हमारे अंदर बैठ जाता है वह आसानी से कहां निकलता है! अत: युवक पर उनका संदेह अभी भी बना रहा।

 और सबसे अंत में नई दिल्ली!

फलां बाबू ने चैन की सांस ली। उनकी यह सांस, नहीं-नहीं, उनकी यह सांस किसी तरह की थकावट वाली सांस नहीं थी, संतोष की सांस थी संतोष की! रेल या बस की यात्रा में इस तरह थोड़ा-बहुत कुछ न कुछ होता ही रहता है। अलबत्ता ऐसा कुछ न हो तो समय भी न कटे। लोग अपने गंतव्य तक सुरक्षित पहुंच जाएं, यही काफी है।

सफर में कोई घटना-दुर्घटना नहीं घटी, किसी ने लूट-पाट की चेष्टा भी नहीं की और न ही कोई बम-वम ही चला! राजधानी एक्सप्रेस सुरक्षित नई दिल्ली स्टेशन पर खड़ी हो गई! वह स्टेशन से निकलकर बाहर आ गए।

‘टैक्सी चाहिए क्या, दादा?’- यह कहते हुए अचानक चिलां बाबू फलां बाबू के पीछे आ खड़े हुए। अपने असबाब को संभालते हुए उन्होंने उनसे पूछा, ‘दादा, आप कहां जाएंगे? टैक्सी लेंगे क्या?’

फलां बाबू ने जगह का नाम बता दिया।

‘अरे मैं भी उधर ही जाऊंगा। चलिए साथ-साथ चलते हैं। टैक्सी का किराया भी आधा-आधा कर लेंगे।’

और फलां बाबू के ‘हां’, या ‘न’ का उत्तर सुने बिना ही चिलां बाबू टैक्सी बुलाने चले गए।

फलां बाबू अपनी विस्मित नजरों से दिल्ली की सड़कों को निहार रहे थे। सोच रहे थे, क्या अब भी इन्हीं सड़कों पर शुभोकी खूनसनी देह पड़ी होगी? किंतु जवाब उन्हें बिलकुल नहीं मिल पा रहा था। गााड़ियों का हुजूम आज भी ज्यों का त्यों बरकरार था। बाइक सवारों का हँसहँसकर रेंगते रहना आज भी बदस्तूर जारी था, ऐसे में कोई संतोष जनक उत्तर उन्हें कैसे मिलता, कहां से मिलता?

यही सब सोचते-सोचते वह न जाने कहां खो गए। कुछ अन्यमनस्क सा हो उठे। ठीक तभी एक चीत्कार को सुनकर उनकी तंद्रा टूटी। स्टेशन के दाहिनी ओर कोल्ड ड्रिंक की दुकान के पास लगी भीड़ से इस चीत्कार की भयंकर आवाज आ रही थी। उन्हें साफ-साफ कुछ समझ में नहीं आने पर भी पंजाबी मिश्रित हिंदी की निखालिस भद्दी गलियों को समझने में देर न लगी।

तभी उन्होंने देखा, उस ओर से एक आदमी भागे चला आ रहा है। वह भी बांग्ला भाषा-भाषी था। वह नकारात्मक स्वर में बोलने लगा, ‘आर बोलबेन ना, मोशाई! दो स्थानीय छोकरे एक लड़की को छेड़ रहे थे, तभी एक युवक उनसे उलझ पड़ा। वह उस छेड़छाड़ का विरोध कर रहा था कि दोनों मनचले उसके पेट में छुरा भोंककर भाग गए। बड़ी शोचनीय हालत है उसकी। अंतड़ियां तक बाहर निकल आई हैं। शायद ही वह बच पाए!

न जाने फलां बाबू को क्या सूझा कि अप्रत्याशित रूप से वह घटनास्थल पर जा धमके। युवक दारूण यंत्रणा से छटपटा रहा था। जबकि वहां मौजूद अनगिनत लोग उसे अपनी कौतुक आंखों से टुकुर-टुकुर देख भर रहे थे। और दिल्ली की भीड़ आज भी मूढ़ बनी तमाशा देख रही थी।

उस भीड़ से सहायता का एक भी हाथ युवक को बचाने की गरज से आगे नहीं बढ़ा था अभी तक। न कोई मवाली ही उसकी मदद को आगे आया, न वह लड़की ही, जिसे मवालियों ने छेड़ा था। वह लड़की तो कब की, ‘चाचा अपनी जान बचा’ कहावत को चरितार्थ करते हुए वहां से चंपत हो गई थी।

फलां बाबू ने ध्यान से देखा। उसके मुंह से अनवरत रक्त की धारा बहे जा रही है। फिर भी उसे पहचानने में उन्हें कोई कठिनाई नहीं हुई। वह घुटनों के बल बैठ गए। घायल युवक को अपनी छाती की बाईं ओर धर लिया और भाव-विह्वल होकर बोले, ‘डरने की कोई बात नहीं है। तुम्हें मैं अभी अस्पताल ले चलता हूँ। कुछ भी नहीं होगा तुम्हें। तुइ हाल छाड़बी ना बाबा, हिम्मत रखो।’

हल्की स्मित की मसृण रेखाएं युवक की मुखाकृति पर उभर आईं। वह इतना भर बोल पाया, ‘मे-शो..मो-शा-ई ….! मौ-सा-जी!’

उन्होंने उसे अपनी छाती से और जोर से चिपका लिया। कहा, ‘डोंट वरी…। मैं तुम्हारे पास हूँ… डरने की कोई बात नहीं’। बोलते-बोलते वह पागलों-सा चिल्ला उठे – ‘आप सब खड़े-खड़े तमाशा देख रहे हैं!’ फिर थोड़ा नरम पड़कर बोले, ‘एक टैक्सी बुला दीजिए… प्लीज…प्लीज!’

‘अरे दादा-भाई आप यहां क्या कर रहे हैं? …मैं आपको कब से ढूंढ़ रहा हूँ। टैक्सी कब से खड़ी कर रखी है।’ चिलां बाबू उन्हें खोजते-खोजते वहीं आ गए थे। घटनास्थल का मंजर देख वह उन्हें हिदायत सा देने लगे, ‘यह क्या बड़-दा? आप किन लफड़ों में पड़ गए? चलिए यहां से। इसे यहीं छोड़ दीजिए। फौरन चलिए। चलिए यहां से। चलिए।’

‘एक निरीह-असहाय को इस कंडीशन में छोड़कर मैं यहां से कदापि नहीं जाने वाला।’ वह अडिग होकर द़ृढ़ स्वर में बोले।

चिलां बाबू उत्तेजित होकर बोले, ‘अजी! न जान-न-पहचान, न कोई अरिचय-न-परिचय, एक अनजान-अज्ञातकुल छोकड़े की मदद करने बैठ गए! वैसे भी यह बचने वाला नहीं है… और आप हैं कि…। भला अपने को जोखिम में डालकर कोई किसी की मदद करता है क्या? अरे, पुलिस के मक्कड़जाल में जब आप फंसेंगे तब आपको किसी की मदद करने से कैसा सुख मिलता है, समझ में आने लगेगा!’

‘अपरिचित-अनजान-अज्ञातकुल छोकड़ा!’  फलां बाबू उन पर एकदम विफर पड़े, ‘जब आप उसका दिया आपेल खा रहे थे, उसकी मां के हाथों का बना टिफिन उड़ा रहे थे, तब आपको ज्ञात नहीं था कि वह एक अनजान आदमी है- कोई अज्ञातकुल छोकड़ा है!’ कहते-कहते उनका चेहरा लाल हो गया। वे बड़बड़ाने लगे, ‘कहते हैं, मैं उसे नहीं जानता! नहीं पहचानता! मानुष को पहचानने की कला सिर्फ आपको ही आती है? बाकी सबके सब अज्ञानी हैं, अनभिज्ञ हैं! अनुभवहीन-महामूर्ख हैं! नहीं? क्या बात है! बहुत खूब! बहुत खूब!’

इतना सब सुन, चिलां बाबू निर्मम-क्रूर हो उठे। कहा, ‘तो आप मरिए और करिए जी भरकर निरीहों की मदद। मैं तो चला। न-अरिचय-न-परिचय और चले हैं…।’ यूं ही अनाप-शनाप बकते हुए चिलां बाबू घटनास्थल से तुरंत भाग खड़े हुए।

फलां बाबू की कमीज खून से तर हो गई थी, लेकिन इसकी चिंता उन्होंने तनिक भी नहीं की और भरसक ऊंचे स्वर में आवाज लगाई, ‘टैक्सी-ई-ई-ई-ई! टै.. क्सी-ई-ई-ई-ई-ई!’

‘हां रे, हां! … कुछ समय पहले तक तू मेरे लिए एक अपरिचित अनजान लड़का था, किंतु अब मैंने तुझे अच्छी तरह पहचान लिया है, ठीक से जान लिया है। तू बहुत बड़ा बोका – बेवकूफ – बुद्धू मानुष है रे! ठीक मेरे जैसा, मेरे ‘शुभो’ के जैसा बोका! तुझ पर कोई संदेह भी करता है, तो तू उससे प्रेम करने लगता है। जरूरतमंदों की मदद करने के लिए तू बिना बुलाए ही दौड़ पड़ता है। मार खाकर भी तू अन्याय का विरोध करने लगता है। तेरी तरह एक और बोका-बेवकूफ बुद्धू मानुष वहां होता तो मेरा ‘शुभो’ आज जिंदा होता!’

अब फलां बाबू का ‘वह’ बोलने लगा था। उनके भीतर का पिता का पुत्र-शोक करुणा बनकर बहने लगा था। वह युवक को बचाने के लिए प्राणपण हो गए थे।

‘यदि मैं भी आज असहाय हाल में तुझे छोड़ गया, तो तू बेमौत मर जाएगा। तब मैं अपने ‘शुभो’ की विधवा ‘बऊ’ को क्या जवाब दूंगा! अपनी पोती से नजरें कैसे मिलाऊंगा! मैं तुझे कुछ भी होने नहीं दूंगा। तू बचेगा। तुझे बचना ही होगा। तुझे! ओ…. टैक्सी  ई-ई-ई-ई! टै-क्सी -ई-ई-ई-ई-ई…!’

संपर्क : सुरेश शॉ  8, पॉटरी रोड, कोलकाता – 700015  मो. 9330885217