युवा लेखक, कवि और संस्कृति कर्मी। अध्ययनरत।
निराला आधुनिक हिंदी कविता के सूर्य हैं। उनकी संवेदना का एक छोर यदि राष्ट्र-प्रेम से जुड़ा है, दूसरा छोर विश्वबोध से। उनका परिवार पूरा विश्व है।
निराला की कविताओं में जीवन की सार्थकता का अर्थ व्यक्तिगत राग-द्वेष की सीमा का अतिक्रमण करते हुए व्यापक जीवन-सत्य की ओर उन्मुख होना है। वे कहते हैं- ‘मेरे ही अविकसित राग से/ विकसित होगा बंधु दिगंत।’ वे एक ओर देश की भौगोलिक सीमा में अवस्थित प्रकृति, पर्यावरण, जनतंत्र की बात करते हैं, दूसरी ओर वे समस्त दिगंत के विकसित होने का सपना देखते हैं। उनके साहित्य में औपनिवेशिक भारत से नेहरू युग तक के भारत की छवियां दर्ज हैं। छायावाद के चार स्तंभों में एक प्रमुख स्तंभ के रूप में निराला ने हिंदी साहित्य को एक बड़ा योगदान किया है। उन्होंने कई साहित्यिक विधाओं में लिखा, जो आज के लिए एक महत्वपूर्ण संदेश है।
निराला राम को किसी सीमा में आबद्ध नहीं करते, बल्कि ‘राम की शक्तिपूजा’ में उनके राम मानवीय मूल्यों, धर्म और न्याय की बात करते हुए एक विश्व-नागरिक की तरह आचरण करते दिखते हैं। आज हम 20वीं सदी के हिंदी के अपने महान साहित्यकारों को बहुत कम याद करते हैं या साहित्य चर्चा को सिर्फ अपने आप तक सीमित रखते हैं।
इन स्थितियों में निराला पर परिचर्चा का आयोजन एक जरूरी हस्तक्षेप है। हिंदी के सुपरिचित विद्वानों ने अपने विचारों से इस परिचर्चा को समृद्ध कर दिया है।
सवाल
(1) छायावाद युग विश्व मानवता के प्रवर्तन का युग रहा है। इस युग में निराला की राष्ट्रबोध से संबंधित धारणाओं पर आपके क्या विचार हैं?
(2) निराला के काव्य में धार्मिक तत्वों को किस दृष्टि से देखना चाहिए?
(3) निराला के राष्ट्रबोध में हाशिए के समुदायों, अर्थात स्त्रियों और दलितों की जगह किस रूप में है?
(4) निराला के विश्वबोध और आज के भूमंडलीकरण में क्या फर्क है?
(5) निराला ने दो परस्पर विरोधी व्यक्तित्व- विवेकानंद और रवींद्रनाथ को कैसे जोड़ा?
निराला भारतीय होने का मर्म जानते हैं |
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राजेंद्र कुमार प्रतिष्ठित कवि–आलोचक। कविता संग्रह ‘हर कोशिश है एक बगावत’ तथा ‘लोहा–लक्कड़’। आलोचना पुस्तकें ‘यथार्थ और कथार्थ’ तथा ‘आलोचना–आसपास’। |
(1) विश्व मानवता का प्रत्यय एक अर्थ में भारतीय संस्कृति में ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की अवधारणा के अंतर्गत पहले से ही विद्यमान रहा। पर यह प्राय: एक आदर्शवादी अवधारणा ही रही, जिसने आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानंद के यहां, किंचित व्यावहारिक रूप लिया तो वह इस आवाहन में पर्यवसित होकर रह गया – ‘कृण्वंतो विश्वमार्यम्’ (विश्व को आर्य बनाते चलो।) ‘आर्य’ एक श्रेष्ठतावाची शब्द है, वैदिक संस्कृति से जुड़ा, और विशेषतया धार्मिक मूल्यों पर आधारित। आज जब हम ‘विश्वमानव’ की कल्पना करते हैं, तो उसका आधार होता है- मानवीय मूल्यों के स्तर पर विश्वभर के मनुष्य समाज के प्रति समतामूलक दृष्टि रखना।
ग़ालिब जब कह रहे थे ‘आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना’ तो हिंदू मनुष्य या मुस्लिम मनुष्य के रूप में केवल ‘हिंदुस्तान के आदमी’ के लिए नहीं, बल्कि आलमी तौर पर दुनिया भर के आदमी के लिए कह रहे थे। छायावाद के कवि पंत जब कह रहे थे- ‘सुंदर विहग, सुमन अति सुंदर, मानव तुम सबसे सुंदरतम’ तो यह देश की भौगोलिक सीमाओं से ऊपर ‘विश्व मानव’ के लिए कह रहे थे। कामायनीकार ने तो भूमिका में ही स्पष्ट कर दिया कि उसकी कथा को ‘मानवता के विराट रूपक’ की तरह पढ़ा जा सकता है।’ निराला की शुरुआती कविताओं में इस आवाज़ को सुनिए –
‘जन जन के जीवन के सुंदर/हे चरणों पर/भाव-वरण कर/दूं तन-मन-धन न्योछावर कर/…हुआ ग़ैर जो, सहज सगा हो/करे पार, जो है अति दुस्तर।’
इस तरह कह सकते हैं कि विश्व मानवता का पहला लौकिक पाठ हमें छायावाद ने सौंपा। मैं यह कहता रहा हूँ कि छायावाद की सर्वोपयुक्त परिभाषा यह है-छायावाद मनुष्यमात्र के आत्मविश्वास के अर्जन का उत्सव है।
राष्ट्रबोध का आज धर्माधारित बहुसंख्यकवादी दृष्टि से जो राजनीतिक रूप हमें सौंपा जा रहा है, वह अत्यंत संकीर्ण है। निराला की दृष्टि में राष्ट्रबोध का क्या रूप था और साहित्य की तत्संबंधित भूमिका क्या हो सकती है यह उन्हीं के शब्दों में सुनिए –
‘राजनीति में जातिपांत-रहित एक व्यापक विचार का ही फल है कि एक ही वक़्त तमाम देश के भिन्न भिन्न वर्गों के लोग सम स्तर से बोलने और एक राह से गुज़रने लगते हैं।…. साहित्य यह काम और ख़ूबी से कर सकता है, जब वह किसी भी सीमित भावना पर न ठहरा हो। जब हर व्यक्ति हर व्यक्ति को अपनी अविभाजित भावना से देखेगा, तब विरोध की खंड क्रिया होगी ही नहीं। यही आधुनिक साहित्य का ध्येय है।’
अब अलग से निराला के राष्ट्र बोध पर कुछ कहने की ज़रूरत नहीं है, सिवा इसके कि आज के राष्ट्र की संकीर्ण परिकल्पना से निराला का राष्ट्रबोध भिन्न है।
(2) निराला न धर्मविरोधी थे, न नास्तिक। हिंदू परिवार में जन्मे थे। पर उन्हें हिंदू कहलाने में न गर्व का अनुभव होता था, न शर्म का। और हिंदूवादी वे कतई नहीं कहे जा सकते।
उन्हें पता था कि हिंदूवादी होना अन्य धर्मों की स्वतंत्रता के लिए ख़तरा पैदा कर सकता है। अन्य धर्मों को हीन ठहराकर उनकी स्वतंत्रता को बाधित करते हुए हिंदू होने पर गर्व करने की कौन कहे, ‘हिंदू’ नाम के प्रति प्रेम को भी वे अनावश्यक मानते थे। बेहिचक उन्होंने लिखा-
‘हिंदू नाम पर हम लोगों को जितना अनावश्यक प्रेम है, उतना ही यदि ज्ञानजन्य जातीय प्रेम हो जाए तो बहुत सी बिगड़ी बातें बन जाएं।’ (सुधा, सितंबर 1930)!
निराला जिसे ‘जातीय प्रेम’ कह रहे थे, दरअसल वह राष्ट्र प्रेम का ही पर्याय है।
यह अवश्य है कि निराला के यहां कुछ हिंदू मिथकों का प्रयोग मिलता है। आप इन्हें धार्मिक तत्व कह सकते हैं। लेकिन सवाल यह होना चाहिए कि एक कवि के रूप में वे इन मिथकों का उपयोग किस तरह से और किस उद्देश्य के लिए करते हैं। क्या सिर्फ इस उद्देश्य के लिए कि किसी देवी-देवता से उन्हें कोई वैयक्तिक सिद्धि पानी है? इस प्रश्न का जवाब निराला के यहां यह है-
‘हमें अच्छी तरह मालूम है, हमारे 99 फीसदी साहित्यिकों को और सौ फीसदी जनता को भगवान श्रीराम पर, उनके जन्म-कर्मादि पर पूरा विश्वास है। अत: आज यदि राम के विरोध में कोई प्रासंगिक बात भी कही जाए तो जनता उसे सुनने को तैयार नहीं। साहित्यिकों में केवल सुनने का धैर्य है, मत बदलने की शक्ति नहीं। यह अवश्य ही युगों की संचित साहित्य-शक्ति का ही दौर्बल्य है।’ (सुधा, 1933)
ध्यान रहे, निराला अपने इस अनुभव का उल्लेख एक रचनाकार के रूप में कर रहे हैं, एक हिंदू के रूप में नहीं। फिर यह भी कि निराला जिसे सौ फ़ीसदी जनता कह रहे हैं, वह बहुसंख्यक हिंदू समाज है। इस समाज के मन में सांस्कारिक जड़ता की जो परतें हैं, उन्हें तोड़ने के लिए- (निराला इसी को ‘मत बदलना’ कह रहे हैं) – अगर कोई चिनगारी वहां रखनी है तो उसके मन में रमे मिथकों और पुराण कथाओं का ही तंतुओं के रूप में इस्तेमाल करना होगा। निराला यही करते हैं। उनकी ‘राम की शक्तिपूजा’ प्रस्तावित करती है कि राम को एक संवेदनशील समाजचेता व्यक्तित्व वाले भारतीय मनुष्य के रूप में देखा जाए और अपने समय के यथार्थ- (अन्याय जिधर है, उधर शक्ति) की पहचान करने का मार्ग तलाशने के लिए ‘शक्ति की मौलिक कल्पना’ की जाए। इस तरह यह कविता मिथक से समकालीनता के द्वंद्व की कविता है। वह किसी पौराणिक कर्मकांड में आस्था की कविता नहीं है।
(3) इतिहास में जब ‘सबाल्टर्न हिस्ट्री’ जैसी कोई चीज नहीं आई थी, तब यह बीड़ा साहित्य के क्षेत्र में उठाया गया कि जनसामान्य की संघर्षशील जिंदगी के चित्र हमारी चेतना में सजीव किए जा सकें। हिंदी में ऐसी पहल करनेवालों में निराला और प्रेमचंद हमें विशेष याद आते हैं। निराला के यहां चतुरी चमार हैं, कुल्लीभाट हैं, तोड़ती पत्थर वाली मजदूरनी है। और वह कविता तो है ही, जिसमें, निराला की यह प्रार्थना दर्ज है- ‘दलितजन पर करो करुणा’।और ‘देख वैभव, न हो नतशिर’ में दलितों-वंचितों के स्वाभिमान की रक्षा की चिंता भी।
स्त्रियों की स्वतंत्रता के लिए उनके विचार क्या थे, यह उन्हीं के शब्दों में सुनिए- ‘धार्मिक संस्कारों के चक्र की प्रदक्षिणा करते रहने के कारण ही हम पराधीन हैं।… हमलोग जिस तरह ग़ुलाम हैं, उसी तरह अपनी स्त्रियों को भी ग़ुलाम बना रखा है। इस महा दैन्य से उन्हें शीघ्र मुक्ति देनी चाहिए।’
निराला की कहानियों में ‘देवी’, ‘श्यामा’ आदि रचनाएं निराला की स्त्री-दृष्टि का पता देती हैं। वर्णव्यवस्था के रहते जातिगत बंधनों को तोड़ कर विवाह के पक्ष में निराला ‘श्यामा’ लिखते हैं।
निराला के लेखों और टिप्पणियों में अनेक अंश मिलते हैं, सीधे-सीधे जिनसे शोषितों-वंचितों और स्त्रियों के बारे में उनके मतों को स्पष्ट जाना जा सकता है। वे सच्चे धर्म और सच्ची स्वतंत्रता की परिभाषा करते हैं- ‘सच्चा धर्म इस समय स्त्रियों के सब प्रकार के बंधन ढीले कर देना, उन्हें शिक्षा की ज्योति से निर्मल कर देना ही है!’ और यह भी कि ‘स्वतंत्रता किसी खास जाति या खास मनुष्य के लिए नहीं। यदि कोई भंगी शिक्षा के उच्च स्तर पर पहुंचे… तो क्या हमारे ब्राह्मण-क्षत्रिय उसे समान अधिकार देने को तैयार हैं?
(4) निराला का विश्वबोध मूलतः सांस्कृतिक है। आज का भूमंडलीकरण अपने मूल रूप में आर्थिक राजनीति के पूंजीवादी एकाधिकार के भाव से परिचालित है।
निराला के विश्वबोध में विश्वमानव की संकल्पना निहित है। तथाकथित भूमंडलीकरण के केंद्र में पूंजीपोषित सत्ता की अनियंत्रित विस्तार -लोलुपता निहित है।
निराला एक भारतीय कवि होने से भी पहले सच्चे अर्थ में एक ‘भारतीय’ होने का मर्म जानते हैं। उनकी भारतीयता कहीं भी उनके विश्वबोध को खंडित नहीं करती। क्योंकि उनके यहां ‘विश्वगुरु’ जैसा कुछ भी बनने की गर्वीली चाह किए बिना भी यह कहना संभव है- ‘योग्य जन जीता है/पश्चिम की उक्ति नहीं- /गीता है, गीता है’।
इस उक्ति पर ध्यान दीजिए। यहां हमारा, ‘पूर्व’ किसी ‘पश्चिम’ को काट नहीं रहा है। सिर्फ इतना कह रहा है कि पश्चिम में डार्विन ने जो कहा, हमारे भारत में गीता का पुरुष भी मौलिक रूप में वही कह रहा था। यानी गीता का पुरुष भी इस अर्थ में ‘विश्वमानव’ है।
आज का भूमंडलीकरण मनुष्य होने का एक ही अर्थ समझता है ‘उपभोक्ता’ होना! मनुष्य होना भोग और मुनाफे से ही चरितार्थ हो, बस इतना ही उसे काम्य है। वह ऐसा ‘विश्वमानव’ गढ़ना चाहता है जो उपभोक्ता होकर क्रोनी पूंजी का निर्बाध स्रोत बना रह सके। निराला की संकल्पना में वह मानव है, जो किसी भी देश का हो, प्रेम के सूत्र (‘जग का देखा एक तार’) से जुड़ा हो। (‘कंठ अगणित, देह सप्तक,/मधुर स्वर झंकार’!) और जिसकी कामना यह हो-
टूटें सकल बंध/
कलि के, दिशा-ज्ञान-गत हो
बहे गंध!
(5) निराला को विवेकानंद की धार्मिक उदारता और आध्यात्मिक उदात्तता की भावना आकर्षित करती थी। उनकी वेदांती दृष्टि से भी निराला प्रभावित रहे। लेकिन अपने विश्वबोध में निराला रवींद्रनाथ के अधिक निकट प्रतीत होते हैं। विवेकानंद के बारे में निराला ने लिखा है- ‘स्वामी जी केवल ज्ञान थे। जातीय भेदभाव, धर्म, मनुष्यता आदि साधारण विषयों तक उनकी गहन दृष्टि थी। सेवाधर्म सबसे पहले उन्हीं ने देश के सामने रखा।’
ऐसा भी माना जाता है कि निराला की प्रसिद्ध कविता ‘जागो फिर एक बार’ विवेकानंद की अंग्रेज़ी में लिखी कविता ‘टू द अवेकेन्ड इंडिया’ के प्रभाव से लिखी गई थी।
विवेकानंद को हम भारत के एक आध्यात्मिक नागरिक का आदर्श रूप मान सकते हैं। शिकागो की धर्मसंसद वाले व्याख्यान में वे हिंदू धर्म दर्शन की व्यापक व्याख्या कर रहे थे, उग्र हिंदुत्व की नहीं। उम्र ने विवेकानंद को कुछ अधिक अवसर दिया होता तो शायद वे अपनी अध्यात्म दृष्टि को और अधिक स्पष्ट कर पाते। उनका हिंदू होना किसी अन्य धर्म से टकराता नहीं। बल्कि एक भाषण में तो उन्होंने हिंदू धर्म और इस्लाम की परस्पर पूरकता का एक रूपक प्रस्तुत करने में भी संकोच नहीं किया।
उन्हें किसी एक धर्म या देश के संदर्भ में ‘विश्वगुरु’ जैसा अहम्मन्यतापूर्ण पद गढ़ने की आवश्यकता नहीं पड़ी। उन्होंने स्पष्ट कहा, ‘सब अपनी आत्मा को ही अपना गुरु माने। मंदिर, किताब, कर्मकांड सब बाद में।’
रवींद्रनाथ के जीवन दर्शन में अध्यात्म के साथ भौतिकता की मंगल भावना का भी समन्वय है। वे राष्ट्रवाद के नाम पर पनपने वाली संकीर्ण मानसिकता के खतरों को पहचान कर ‘भारत-भारती’ ही नहीं, ‘विश्वभारती’ की अपनी संकल्पना का स्वप्न सकारात्मक करने को अग्रसर हुए। निराला अपने आरंभिक दौर में विवेकानंद से अधिक प्रभावित रहे। पर अपनी रचनायात्रा और चिंतन क्रम में रवींद्र की मेधा से उत्प्रेरित भी होते गए, उनसे एक सहज स्पर्धाभाव से उन्मेषित भी! निराला लिखित ‘रवींद्र कविता कानन’ में इस तथ्य के साक्ष्य मिलेंगे।
2 बी/1, बंद रोड, एलनगंज, इलाहाबाद-211002, मो.9336493924 |
निराला का विश्वबोध राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम से प्रेरित है |
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अवधेश प्रधान प्रसिद्ध समालोचक। पूर्व प्रोफेसर, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय। अद्यतन पुस्तक ‘परंपरा की पहचान’। |
(1) स्वामी विवेकानंद, गांधी जी और रवींद्रनाथ ठाकुर जैसे भारतीय मनीषियों ने जिस विश्व मानवता का बार-बार उद्घोष किया, उसकी प्रतिध्वनि निराला में भी सुनी जा सकती है। 11 दिसंबर 1936 को समाचार आया कि सम्राट अष्टम एडवर्ड ने इंग्लैंड के सिंहासन और अपनी प्रेमिका सिम्पसन में से एक को, अपनी प्रेमिका को चुन लिया। निराला ने अगले ही दिन वह प्रसिद्ध कविता लिखी – ‘सम्राट् अष्टम एडवर्ड के प्रति’। इसमें कवि ने ‘धन के, मान के, बांध को जर्जर कर’ बीसवीं शताब्दी का जो ज्ञान का सागर बहा था उसकी गर्जना इन शब्दों में सुनाई- मानव मानव से नहीं भिन्न/ निश्चय; हो श्वेत, कृष्ण अथवा/वह नहीं क्लिन्न/भेदकर पंक/ निकलता कमल जो मानव का/ वह निष्कलंक / हो कोई सर। अर्थात मानव मानव से भिन्न नहीं है, चाहे वह गोरा हो या काला। कीचड़ से जो मानव रूपी कमल पैदा होता है उस पर कीचड़ का कोई दाग नहीं होता, तालाब चाहे जो हो।
निराला का बचपन बंगाल में बीता था। स्वदेशी आंदोलन की क्रांतिकारी हलचलों से वे परिचित हो चुके थे। अवध में अपने गांव-घर की ओर आए तो कांग्रेस और किसान आंदोलन के काम में भाग लिया। ‘सुधा’ (फरवरी 1930) की टिप्पणी में उनका पहला ही वाक्य है, इंग्लैंड और भारत का जेता और विजित का ही संबंध है। यह संबंध मुख्य रूप से आर्थिक शोषण पर आधारित था, भारत अंग्रेज़ी माल को खपाने के लिए अंग्रेज़ों का सबसे बड़ा केंद्र है। यहां से कच्चे माल की जितनी पैदावार होती है वहां का अधिकांश वहीं के व्यापारियों के हाथ लगता है जिसके एक-एक के सैकड़ों वसूल होते हैं (वही)। किसान जो कुछ उपजाता है उसका दाम अंग्रेज़ अधिकारी तय करते हैं। निराला ने लिखा, भारत का कुल बाज़ार पराधीन है। (वही)
इंग्लैंड और भारत के बीच का संबंध ब्रिटिश साम्राज्यवाद और उसके उपनिवेश का था। ब्रिटिश साम्राज्य पूरी हृदयहीनता से भारत का शोषण करता था। निराला ने सुधा (अक्टूबर 1932) की टिप्पणी में लिखा साम्राज्यवाद इंग्लैंड की राजनीति का मूल है। पूंजी के द्वारा वणिक शक्ति की वृद्धि के इतिहास के साथ-साथ साम्राज्यवाद का इतिहास इंग्लैंड के साथ गुंथा हुआ है। पूंजी की ही तरह यह हृदयहीन है। … इंग्लैंड की सरकार पूँजीपतियों की सरकार है और साम्राज्यवाद उसकी जीवनी शक्ति, मूल आधार।
सुधा (जून 1930) की टिप्पणी में निराला ने यह भी लक्ष्य किया कि अंग्रेज़ों ने भारत के इतिहास को विकृत करने और हमारी भाषाओं को नष्ट करने की नीति अपनाई। हमारी संस्कृति और सभ्यता को पिछड़ी और निम्न बताया जाने लगा और हमारी भाषाओं को गँवारू और असाहित्यिक। फलत: सदियों से अज्ञान के अंधकार में डूबा जनसमाज समझने लगा कि जो कुछ है अंग्रेज़ी सभ्यता है, अंग्रेज़ी साहित्य है और अंग्रेज़ हैं। अंग्रेजी राज ने एक ओर दमन और दूसरी ओर कुछ रियायतों की नीति अपनाकर सोचा कि वे जनता को वश में कर लेंगे। निराला ने लिखा, यह उसकी भारी भूल है। (सुधा, दिसंबर 1929)
निराला विश्व मानवता की दृष्टि से सम्राट अष्टम एडवर्ड की प्रशंसा में कविता लिख रहे थे, शेली और रवींद्रनाथ की तुलना कर रहे थे, रॉबर्ट ब्रिजेज़ के शोक में टिप्पणी लिख रहे थे; साथ ही उनका राष्ट्रबोध ब्रिटिश साम्राज्यवाद की आलोचना कर रहा था और एक आदर्श व्यवस्था के रूप में सोवियत समाजवाद की प्रशंसा कर रहा था। उन्होंने ‘सुधा’ में सोवियत संघ के पक्ष में कई टिप्पणियां लिखीं।
(2) निराला के काव्य में धार्मिक तत्वों का विनियोग कई स्तरों पर हुआ है। उनकी कविता में राम, कृष्ण, शिव, शक्ति, काली, लक्ष्मी, सरस्वती, महावीर, भगवान बुद्ध, सीता आदि का उल्लेख है। उनके संस्कारों में रामायणी कथा की छवियाँ और श्यामा, शारदा आदि मातृ मूर्तियाँ बसी हैं।
‘यमुना के प्रति’ में वंशीवट, राधा और गोपियों वाले श्याम का संसार है। ‘पंचवटी प्रसंग’ में राम, लक्ष्मण और सीता के संवादों में ज्ञान, भक्ति और कर्म की नई व्याख्या है। ‘राम की शक्ति पूजा’ में ब्रह्म की नरलीला का नहीं, मनुष्य की अपराजेय शक्ति साधना का आख्यान है। जब शक्ति रावण के अन्याय के साथ खड़ी हो जाती है तब राम शक्ति की मौलिक कल्पना करते हैं, उसकी आराधना करते हैं और अंत में शक्ति प्रकट हो कर उनके मुख में विलीन हो जाती है। इष्ट देवता का आराधक के मुंह में लीन हो जाना- यह एक नई बात है जो निराला ने रामकृष्ण परमहंस के जीवन से ली है। रामकृष्ण ने जिस-जिस आराध्य की साधना की, वह अंत में उनके मुंह में लीन हो गया। पुरानी कथा में कुछ नया जोड़ देने की यह निराली शैली निराला की अपनी है। महाशक्ति राम को युद्ध भूमि में बिलकुल अशक्त कर देती हैं, लेकिन महावीर हनुमान को पछ़ाड़ना उनके वश की बात नहीं। हनुमान को आकाश में बढ़ते देखकर शिव ने महाशक्ति को पीछे हटने का परामर्श दिया और सावधान किया- अर्चना राम की मूर्तिमान अक्षय शरीर- इन पर प्रहार करने पर तुम्हारी ‘विषम हार’ होगी। निराला ने जैसे पार्वती को पर्वत में मूर्तिमंत दिखलाया और आकाश में शिव को, उसी तरह एक जगह महावीर को समस्त भारत में व्याप्त दिखलाया।
‘भारति जय विजय करे’ इस गीत में भारती यानी सरस्वती की भारत मूर्ति अंकित है। लंका उनके पैरों के नीचे शतदल कमल है। समुद्र उनका स्तवन करता हुआ गरज रहा है, हिम तुषार शुभ्र मुकुट है, गंगा की धवल धारा उनके गले का हार है आदि आदि। इस गीत में भारत ही सरस्वती है। राम की शक्ति पूजा में पार्वती की कल्पना का आधार पर्वत है तो ‘देवी सरस्वती’ की कल्पना का आधार है भारत की कृषि और किसानों की लोक संस्कृति। निराला ने अपनी कविता में धार्मिक तत्वों को राष्ट्रीय चेतना के अनुरूप एक नया रूप दिया।
धार्मिक तत्वों का विनियोग उनके प्रार्थना गीतों में कुछ और तरह से हुआ। इन गीतों में निराला प्रभु या माँ से अपने लिए प्रार्थना करते हैं, देश और जनता के लिए भी। यहां आत्मपीड़ा और लोक पीड़ा एक दूसरे से घुल-मिल गई है- माँ अपने आलोक निखारो, नर को नरक त्रास से वारो।
निराला काव्य में धार्मिक तत्वों के विनियोग का एक स्तर वह है जहाँ वह भारत के नए जागरण की प्रेरणा बन जाता है। यह प्रेरणा प्रायः वेदांत की गहराई से आती है- जीव नहीं/ ब्रह्म तुम/ पद-रज भर भी नहीं है/ पूरा यह विश्व भार/ जागो फिर एक बार। यह पुकार भारत की अंतर्निहित शक्ति को जगाने के लिए है जो पराधीनता की चादर तानकर सो गई है, भारत के उस व्यक्तित्व का स्मरण कराने के लिए है जो ग़ुलामी की ठोकर खाते-खाते खो गया है। निराला के लिए भारत का अर्थ है – भा(अर्थात ज्ञान का प्रकाश) में रत। वेदांत का ज्ञान ही भारत का वास्तविक स्वरूप है। भारतीय नवजागरण के मनीषियों ने भारत के इसी स्वरूप की याद दिलाकर, उसके खोए व्यक्तित्व की याद दिलाकर भारत को जगाया। वेदांत की विवेक-भूमि से ही निराला ने भूखे मनुष्यों को छोड़कर बंदरों को मालपुए खिलाने वाले ढोंगियों पर व्यंग्य किया। वेदांत के विवेक ने उनकी राष्ट्रीय चेतना को दार्शनिक आधार दिया।
(3) निराला के राष्ट्रबोध में देश की सगुण साकार मूर्ति प्रत्यक्ष होती है जिसमें प्रकृति के साथ-साथ एक भरा-पूरा जीता-जागता समाज उपस्थित है। निराला ने इस समाज में स्त्रियों और दलितों पर, पीड़ित और गरीब लोगों पर सबसे अधिक ध्यान दिया। द्विवेदी युगीन कवियों पर मर्यादावाद और आर्य समाजी नैतिकता इस हद तक हावी थी कि उन्होंने स्त्री के सौंदर्य की ओर आँख उठाकर देखने से परहेज़ किया। छायावादी युग में प्रसाद और निराला ने स्त्री को केवल संन्यासिनी क्षत्राणी के रूप तक सीमित न रखकर उसके सौंदर्य और व्यक्तित्व का उदात्त चित्रण किया।
निराला ने जूही की कली में लंबे वियोग के बाद प्रेयसी के साथ प्रेमी की उन्मुक्त प्रणय क्रीड़ा का जो चित्र अंकित किया है वह द्विवेदी युगीन नैतिकता से आगे की चीज़ है। प्रेयसी में स्त्री सौंदर्य का अत्यंत भास्वर चित्र तो है ही; भिन्न जाति, भिन्न वर्ण के युवक और युवती द्वारा एक ही प्रेम सूत्र में बंधकर घर परिवार समाज की पुरानी रूढ़ियों को चुनौती भी दी है।
‘सरोज स्मृति’ में अपनी ही बेटी के नवयौवन का, उसकी छलकती हुई दृष्टि और उसके दृप्त मधुर कंठस्वर का जैसा उदात्त चित्रण निराला ने किया वह अन्यत्र दुर्लभ है। राम की शक्ति पूजा में राम और सीता के प्रथम दर्शन का चित्र भी अपने औदात्य में अनूठा है। ‘यामिनी जागी’ की कुल वधू हेर उर पट फेर मुख के बाल/ लख चतुर्दिक मराल गति से मंद मंद चलती हुई गेह में प्रिय स्नेह की जय माल प्रतीत होती है। उसके व्यक्तित्व में ‘वासना की मुक्ति है’ जैसे त्याग के धागे में तागी हुई मोती हो- वासना की मुक्ति मुक्ता त्याग में तागी। इसी के साथ निराला ‘विधवा’ और ‘तोड़ती पत्थर’ में स्त्री के दुख और संघर्ष का भी चित्र दे रहे थे।
‘तुलसीदास’ की रत्नावली ने मोहग्रस्त तुलसीदास की आंखें खोल दीं तब उनको रत्नावली के भीतर साक्षात सरस्वती दिखाई दीं। इस प्रकार निराला की स्त्री छवियों ने रीतिकालीन कविता की रूढ़ियों को हटाकर हिंदी में नए सौंदर्य मूल्य की प्रतिष्ठा की। ‘वे किसान की नई बहू की आँखें’ जैसी कविता निराला ही रच सकते थे। उनके कथा साहित्य में कल्पना एवं मानसिक इच्छापूर्ति की कमज़ोरी के बावजूद दहेज़ प्रथा, विधवा जीवन की वेदना, सामाजिक रूढ़ियों का यथार्थ भी अंकित है। कहीं-कहीं अंतर्जातीय और अंतरधार्मिक विवाह की भी पहल दिखाई देती है। ‘काले कारनामे’ उपन्यास में मनोहर की मां के मन में पीढ़ी दर पीढ़ी नारियों के संचित अपमान के ‘बदले की आग धधकती रहती है’। ‘देवी’ में उन्होंने पगली भिखारिन का अत्यंत मानवीय और करुण चित्र खींचा। पगली के भीतर निराला को महाशक्ति का रूप दिखाई दिया और उसके बच्चे के भीतर भारत का।
निराला जी ने कविता को स्वप्नलोक से उतरकर जनता के पास आने को कहा- सहज सहज आओ उतर। ‘तुलसीदास’ में कवि ने उन शूद्र जनों को देखा जो वर्णाश्रम की व्यवस्था में ग़ुलामी का बोझ ढोते जाना ही अपना धर्म समझते हैं, जो पशु का जीवन जीते जीते ‘चलते फिरते पर नि:सहाय/ वे दीन क्षीण कंकालकाय’ रह गए हैं। कविता और गद्य में निराला ने प्रायः इन दीन हीन क्षीण कंकालकाय अस्थिशेष जनों के प्रति भरपूर सहानुभूति व्यक्त की है। ‘चतुरी चमार’ में चतुरी से निराला का घर जैसा निकट का संबंध है। चतुरी में अन्याय सहते जाने के साथ-साथ उसके विरुद्ध लड़ते जाने का अपार धीरज है। वह निराला के सुझाव पर ज़मीदार के सिपाही को हर साल एक जोड़ी जूता देने वाली रस्म के ख़िलाफ़ मुक़दमा लड़ता है और जीतता है। वह कबीर, रैदास, तुलसीदास आदि संतों के पद गाता ही नहीं, उनका अर्थ भी बतलाता है। उसके मन में अपने बेटे को पढ़ाने लिखाने की साध है ताकि वह इस पुश्तैनी पेशे से बाहर निकले। अपनी सामाजिक यथास्थिति में ही पड़े रहना उसको स्वीकार नहीं। निराला शूद्रों का छुआ भी खाते पीते थे इसलिए ब्राह्मणों ने उनके घड़े से पानी पीना छोड़ दिया। निराला ब्राह्मण होकर जैसे चतुरी चमार के बेटे को पढ़ाते हैं उसी प्रकार ‘काले कारनामे’ का मनोहर काशी जाकर अछूतों को संस्कृत पढ़ाता है और ‘कुल्ली भाट’ में कुल्ली ब्राह्मण होते हुए मुसलमान महिला से विवाह करते हैं और अछूत बच्चों के लिए स्कूल खोलते हैं। उस स्कूल में जब चमार, पासी, धोबी और कोरी जाति के लड़के दोने में फूल लिए हुए निराला के हाथों में न देकर सामने रखने लगे तो निराला ने कहा, आप लोग अपना – अपना दोना मेरे हाथ में दीजिए और मुझे उसी तरह भेटिए जैसे मेरे भाई भेटते हैं। उस समय निराला मन ही मन अपने आप से पूछ रहे थे- तुम कितने बड़े क्रांतिकारी हो; इनके लिए तुमने क्या किया? कुल्ली ने गाँव में कांग्रेस की स्थापना की, स्वयंसेवक बनाए, बिंदा खटिक की दुलहिन की सहायता के लिए कोई न आया तब कुल्ली ने उसकी सेवा की। समाज कुल्ली को चरित्रहीन समझता है, लेकिन निराला की नज़रों में उनकी मनुष्यता और सामाजिक क्रांति का महत्व बहुत अधिक है।
स्त्रियों और दलितों के उत्थान के बिना राष्ट्र का भी उत्थान नहीं हो सकता। ‘सुधा’ (नवंबर 1932) की एक टिप्पणी में निराला ने लिखा था, जो सदियों से सेवा करती आ रही हैं उन्हीं जातियों में यथार्थ मनोबल है। जब तक उनका उत्थान न होगा भारत का उत्थान नहीं हो सकता। देश के लिए सच्चे सेवा भाव से ये ही जातियां काम कर सकती हैं। ‘नए पत्ते’ में संकलित ‘झींगुर डटकर बोला’, ‘महँगू महँगा रहा’ जैसी कविताओं में यही निम्न जातियों के किसान संगठित होकर अपने अधिकारों के लिए लड़ते हैं।
इसी विचार भूमि से निराला ने यह सपना देखा था, आज अमीरों की हवेली/किसानों की होगी पाठशाला/ धोबी, पासी, चमार, तेली/ खोलेंगे अंधेरे का ताला।
(4) निराला का विश्वबोध भारत के राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम की प्रेरणा से उत्पन्न हुआ था। उनके लिए औपनिवेशिक ग़ुलामी के ख़िलाफ़ अपनी मुक्ति के लिए लड़ने वाले तमाम देश अपने सगे बंधु थे। तब नौजवानों में गैरीबाल्डी और मैजिनी की जीवनियाँ अत्यंत लोकप्रिय थीं। फ्रांसीसी क्रांति और रूसी क्रांति दोनों प्रेरणा का स्रोत थीं। निराला के विश्वबोध और राष्ट्र के हित में परस्पर विरोध नहीं है।
आज का भूमंडलीकरण बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हितों को साधने के लिए एशिया, अफ्रीका और लातिन अमरीका के तमाम विकासशील और ग़रीब देशों के राष्ट्रीय हितों को कुचलता है।
निराला के विश्वबोध में सभी देशों को साम्राज्यवाद के औपनिवेशिक पाश से मुक्त होना था और किसानों, मज़दूरों, दलितों, स्त्रियों, अल्पसंख्यकों को समान रूप से राष्ट्रीय नागरिकता हासिल करनी थी। भूमंडलीकरण में सभी मनुष्य उपभोक्ता मात्र हैं; राष्ट्रीय नागरिकता बेमतलब है।
निराला के विश्वबोध में कला और संस्कृति अपनी जातीय, राष्ट्रीय और भाषिक पहचान से अभिन्न है। भूमंडलीकरण में संस्कृति भी एक माल बनकर रह गई है। खान-पान, वेश-भूषा, रहन-सहन, कला-कौशल -सब कुछ मशीनी उत्पाद की तरह एक जैसे होते जा रहे हैं। मानवीय सृजनात्मकता के लिए गुंजाइशें नहीं हैं। भूमंडलीकरण बाज़ार का भूमंडलीकरण है, श्रम का नहीं। भूमंडलीकृत विश्व में वैश्विक एकता के बजाय अंधराष्ट्रवाद की प्रवृत्तियां प्रबल होती जा रही हैं। निराला के विश्वबोध में लोक का हित, जनता का हित, किसान-मज़दूर का हित, ग़रीबों का हित सर्वोपरि है।
अब भूमंडलीकरण विश्व में राज्य की शक्ति बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हित में लोक हित को, पर्यावरण के प्रश्न को परे ढकेल देती है और अपने अधिकार के लिए संघर्ष करने वाले किसानों-मज़दूरों, छात्रों, स्त्रियों, अल्पसंख्यकों और आदिवासी समूहों का दमन करती है। निराला का विश्वबोध गरीबों, शोषितों और उत्पीड़तों के पक्ष में अपनी आवाज़ बुलंद करता है। भूमंडलीकरण की आदर्श व्यवस्था है- पूंजीवाद। निराला के विश्वबोध की आदर्श व्यवस्था है- समाजवाद। वह आज के भूमंडलीकरण का प्रतिपक्ष है।
निराला के विश्वबोध का फलितार्थ है – विश्वशांति और भूमंडलीकरण का फलितार्थ है – युद्धों का अटूट सिलसिला- इराक़, सीरिया, अफ़ग़ानिस्तान, रूस-यूक्रेन, इज़राइल-गाज़ा (फ़लीस्तीन)..। न्याय और शांति के नाम पर चलने वाले इन विध्वंसक युद्धों के पीछे मुख्य शक्ति है अमरीका। कुछ लोग भूमंडलीकरण को अमरीकीकरण कहते हैं तो ठीक ही कहते हैं। उपनिवेशवाद, नवउपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद, भूमंडलीकरण -सब पूंजीवाद के अवतार हैं जिसकी आत्मा मुना़फे में बसती है। लोभ, लूटपाट, बर्बरता, हिंसा, युद्ध सब इसकी संस्कृति के लक्षण हैं। निराला के विश्वबोध के सांस्कृतिक मूल्य हैं- त्याग, परोपकार, क्षमा, करुणा, प्रेम, भ्रातृत्व, न्याय, अहिंसा, समानता।
निराला अपनी कविता के निर्झर से विश्व भर में व्याप्त तृष्णा और आशा की विषाग्नि को बुझा देना चाहते हैं – बुझे तृष्णाशा विषानल/ झरे भाषा अमृत निर्झर। उन्होंने सरस्वती से प्रार्थना की थी कि ओ माँ! मानव हृदय के कुसंस्कारों के बंधन काटकर ज्योतिर्मय निर्झर प्रवाहित कर दे और विश्व में व्याप्त तमाम भेदभाव दूर करके संसार को आलोकित कर दे। काट अंध उर के बंधन स्तर/ बहा जननि ज्योतिर्मय निर्झर/ कलुष भेद तम हर प्रकाश भर/ जगमग जग कर दे।
(5) विवेकानंद संन्यासी थे और रवींद्रनाथ गृहस्थ। विवेकानंद मूलतः वेदांती और धर्मप्रचारक थे, लेकिन उन्होंने काव्य रचना भी की। रवींद्रनाथ मूलत: कवि थे, लेकिन उन्होंने बचपन से ही उपनिषदों का अध्ययन किया था। दोनों की रुचि कला और संगीत में थी, लेकिन विवेकानंद तैराकी, मुक्केबाज़ी, घुड़सवारी में भी कुशल थे। दोनों भारत को प्राचीन रूढ़ियों से मुक्त करके नया भारत गढ़ना चाहते थे- रवींद्रनाथ शिक्षा के माध्यम से, विवेकानंद सेवा-धर्म के माध्यम से।
रवींद्रनाथ की क्रियाशीलता शांतिनिकेतन में साकार हुई, विवेकानंद की रामकृष्ण मिशन की गतिविधियों में। दोनों नितांत रूप से एक-दूसरे के विरोधी नहीं हैं। विवेकानंद के सेवा धर्म का गहरा प्रभाव रवींद्रनाथ की ‘धूलार मंदिर’, ‘अपमानित’ जैसी कविताओं में देखा जा सकता है। ‘गोरा’ में भी। रवींद्रनाथ का ज़ोर जीवन के सुकुमार, सुंदर और आनंदमय पक्ष पर अधिक है, विवेकानंद का ज़ोर बल, पौरुष, वीरता, अभय और त्याग पर है।
निराला पर रवींद्र से अधिक विवेकानंद का प्रभाव है। उनके आरंभिक रचनाकाल में रवींद्रनाथ और रहस्यवाद दोनों का प्रभाव है जो क्रमशः मंद पड़ता गया। वे शुरू-शुरू में ही बेलुड़ मठ से जुड़ गए और उन्होंने ‘उद्बोधन’ में रहते हुए बेलुड़ मठ की हिंदी पत्रिका ‘समन्वय’ का संपादन किया। ‘श्रीरामकृष्ण कथामृत’ और विवेकानंद की अनेक गद्य-पद्य रचनाओं का उन्होंने हिंदी में अनुवाद किया। बेलुड़ मठ के तीसरे अध्यक्ष स्वामी अखंडानंद पर ‘सेवा प्रारंभ’ नाम की कविता ‘अनामिका’ में है, और वहाँ के उपाध्यक्ष स्वामी प्रेमानंद पर उनकी कविता ‘अणिमा’ में है।
‘समन्वय’ पत्र के काल में उन्होंने रामकृष्ण और विवेकानंद पर कई लेख लिखे तो ‘नए पत्ते’ में उन्होंने ‘कैलाश में शरत’ शीर्षक कविता माँ सारदा और विवेकानंद आदि के स्वप्न चित्र अंकित किए और रामकृष्ण पर एक स्वतंत्र कविता लिखी। अपने गुरु स्वामी सारदानंद के संस्मरण चतुरी चमार में संकलित किए।
निराला का रवींद्र प्रेम ‘रवींद्र कविता कानन’ और ‘विजयिनी’ में ही नहीं, रवींद्र संबंधी अनेक लेखों में भी अच्छी तरह व्यक्त हुआ है, लेकिन निराला के ‘बादल राग’ और ‘जागो फिर एक बार’ का, ओज और पौरुष का, संघर्ष और मृत्यु से भय मुक्त साक्षात्कार का, पीड़ित जन के प्रति सहानुभूति का स्वर स्वाभाविक रूप से विवेकानंद के अधिक निकट है।
निराला के साहित्य में विश्वबोध और राष्ट्रीय चेतना की नई भूमि पर विवेकानंद और रवींद्रनाथ दोनों पास-पास खड़े हैं। रवींद्रनाथ और विवेकानंद दोनों ने साम्राज्यवाद की आलोचना की और पूँजीवाद के विरुद्ध सोवियत समाजवाद की प्रशंसा की। सौंदर्य और शृंगार की नई कल्पना में एक समय कालिदास और रवींद्रनाथ उनके अधिक निकट थे, लेकिन अपने और पीड़ित जन के तीखे संघर्ष की भूमि पर उनको विवेकानंद से अधिक प्रेरणा मिलती है।
एन 1/65ई 52, शिव प्रसाद गुप्त कालोनी, सामने घाट, नगवा, वाराणसी-221005 मो.8400925082 |
समता और मैत्री पर आधारित विश्व मानवतावाद छायावाद की विशेषता है |
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अजय तिवारी प्रसिद्ध आलोचक।अद्यतन आलोचना पुस्तक ‘इतिहास की रणभूमि और साहित्य’। |
(1) विश्व मानवता की धारणा और उसके साथ विश्व साहित्य की अवधारणा 19वीं शताब्दी में आई थी। गेटे ने विश्व साहित्य (वेल्टलिटरेचर) की बात की थी। इसकी पृष्ठभूमि में एक तरफ यूरोपीय उपनिवेशों के साथ पूंजी का वैश्विक रूप लेना है, दूसरी तरफ श्रमिक अंदोलनों का प्रसार और उसके माध्यम से विकसित उत्पीड़ितों की एकता का विचार है। इसकी अभिव्यक्ति है- ‘दुनिया के मज़दूरो, एक हो!’ इसलिए विश्वमानवता की अवधारणा आरंभ से ही समस्यामूलक और अंतर्विभाजित है। संयोग से रोमांटिक साहित्य का विकास भी 19वीं शताब्दी में हुआ। सदी के प्रारंभिक दौर में यूरोप में और अंतिम दौर में भारत में और रवींद्रनाथ ठाकुर के साहित्य में भी। हिंदी का छायावाद वस्तुतः बीसवीं शताब्दी के आरंभ में विकसित हुआ था।
इस पृष्ठभूमि में विचार करने पर दो बातें स्पष्ट होती हैं। एक यह कि ‘छायावाद युग’ पदावली केवल हिंदी के लिए सार्थक है, भारत और दुनिया की अन्य भाषाओँ के स्वच्छंदतावादी साहित्य के लिए नहीं। दूसरे, विश्व मानवता की कोई एक धारणा न साहित्य में थी, न संसार में। जिस समय यूरोप के व्यापारी संसार को गुलाम बनाकर विश्व की मानवता को एकीकृत कर रहे थे, उस समय एकीकरण की इस प्रक्रिया के विरुद्ध प्रतिक्रिया भी हो रही थी। इस प्रतिक्रिया को आज भी कुछ लोग प्रतिगमन के रूप में देखते हैं। ऐसे लोग 19वीं शताब्दी में बहुत थे। वे सोचते थे कि उन्नत यूरोपीय सभ्यता दुनिया को नई रोशनी में ला रही है, लेकिन स्थानीय पिछड़े, निहित स्वार्थ से भरे व्यक्ति उसे रोक रहे हैं। स्वभावतः उपनिवेश कायम करनेवालों की विश्वमानवता उपनिवेशों की पीड़ित जनता की विश्वमानवता से भिन्न थी। विश्व साहित्य में विश्वमानवता की अवधारणा पर दोनों ओर के प्रभाव सक्रिय थे। एक ओर स्वतंत्रता और बंधुत्व के मूल्य, दूसरी ओर संघर्ष और मानव एकता के मूल्य। इन मूल्यों के बीच अंग्रेजी साहित्य में और हिंदी साहित्य में भी एक प्रकार का द्वंद्व मिलता है। यूरोप में स्वतंत्रता का मूल्य वर्चस्वशाली जातियों के राष्ट्रवाद से टकराता था, इसलिए विश्वमानवता की धारणा खंडित होती थी। भारत में, विशेषतः हिंदी में, स्वतंत्रता का मूल्य राष्ट्रवाद की किसी-न-किसी अवधारणा से जुड़ता था।
विश्वमैत्री और राष्ट्रवाद के इस आंतरिक द्वंद्व पर निराला ने विशेष ध्यान दिया है। जिस तरह ब्रिटिश रोमांटिसिज्म के सामने अंग्रेजी साम्राज्य का विरोध करके यूनान और भारत की स्वाधीनता का समर्थन करना राष्ट्रविरोधी कहलाने का जोखिम उत्पन्न करता था, उसी तरह भारतीय, विशेषतः हिंदी कवियों के सामने विश्वमानवता को प्रमुखता देना राष्ट्रवाद विरोधी होने की चुनौती पेश करता था। फिर भी निराला ने पूरे तार्किक साहस से कहा: ‘देश को स्वतंत्र कर लें, फिर विश्वमैत्री पर सोचा जाएगा। अभी देश स्वतंत्र नहीं हुआ, विश्व-बंधुत्व की आवाज़ उठाने लगे। देश की सेवा ज़रा मुश्किल है न, विश्व-मैत्री से क्या बिगड़ता है’ आदि-आदि आक्षेप ज़हर से खाली नहीं। इन भावनाओं के रहते देश-सेवा भी विधिपूर्वक नहीं हो पाती। (1930; निराला रचनावली, खंड-5, पृष्ठ-455)। ऐसे आक्षेप औपनिवेशिक काल में निराला जैसे कवियों को सहने पड़ते थे। आज नवऔपनिवेशिक काल में भी सहने पड़ते हैं। निराला के लिए देश की स्वतंत्रता और विश्वमैत्री में अंतर्विरोध नहीं था, क्योंकि उनका विश्वास था, ‘सत्य वही है जो मनुष्य-मात्र में है।’ (उप. खंड-5, पृष्ठ-492)
यह नया मानवतावाद आधुनिक जीवन-दृष्टि के साथ आया था। वह स्वामित्व एवं गुलामी, वर्चस्व एवं अधीनता के संबंधों को अस्वीकार करता था। निराला की विश्वमानवता का सकारात्मक स्वरूप यह था: ‘इस बीसवीं सदी में सभ्यता के विस्तार के साथ मनुष्यों की ज्ञानलिप्सा भी सीमा-बंधनों को उत्तरोत्तर पार करती जा रही है। साथ ही प्रत्येक भाषा के ऊंचे अंग के साहित्य का दूसरी भाषा से मिलान करके भाषा-संसार में समता-मैत्री की चेष्टा भी की जा रही है। विद्वानों की यह धारणा है कि इस तरह सुविस्तृत संसार संपूर्ण क्षुद्रताओं को लिए हुए भी विभिन्न भाषा-भाषियों के लिए बृहत मित्र-मंडल हो जाएगा।’ (उप. 5/156-57)।
निराला के लिए विश्वमानवता नकारात्मक आधार पर अवस्थित नहीं थी, बल्कि वह एक सकारात्मक चेतना के रूप में सैद्धांतिक आधार पर प्रतिष्ठित थी। मनुष्य की ज्ञानलिप्सा का आशय उस आधुनिक बोध से है जो अंधविश्वासों से निकलकर सीमाओं का भाजन करते हुए सभी मनुष्यों की एकता पहचान रही थी।
सीमा-बंधनों के टूटने से सभ्यता का ही नहीं, मनुष्य के भाव का भी विस्तार हो रहा था। यह स्वच्छंदतावाद का स्वरूप है। ज्ञान की लिप्सा के साथ निस्सीम क्षेत्र का उद्घाटन उस रहस्यचेतना का आधार बनती है जिसे रोमांटिक साहित्य में देखा जाता है। प्रत्येक भाषा साहित्य का वैशिष्ट्य, जिसे कटाक्षपूर्वक ‘क्षुद्रताएं’ कहा है, और उसके साथ दूसरे साहित्यों से संबंध-यह जातीय बोध और राष्ट्रीय चेतना का द्योतक है। इन सबके साथ-साथ सुविस्तृत संसार ‘समता-मैत्री’ पर आधारित बृहत मित्र मंडल बनेगा-यह मानवतावादी विश्वबंधुत्व का प्रमाण है। राष्ट्रवादी संकीर्णता और वर्चस्ववादी विश्वमानवता से पृथक ‘समता-मैत्री’ पर आधारित मानवतावाद छायावादी कवियों की विशेषता है। उन्होंने एक तरफ अपने साहित्य की परंपरा का गर्व से स्मरण किया, दूसरी तरफ अंग्रेजी साहित्य के श्रेष्ठ मूल्यों को भी आत्मसात किया। इस प्रकार साहित्य की जातीय विशेषता और उसके सार्वभौम मूल्यों में स्वच्छंदतावादियों ने एक संगति निर्मित की जिसे हम आधुनिक युग की देन समझते हैं।
(2) निराला के काव्य में, जिन्हें धार्मिक तत्व समझा जाता है, अंशतः सांस्कृतिक प्रतीक हैं, अंशतः ईसाइयत के प्रचार की ब्रिटिश नीति की प्रतिक्रिया हैं और अंशतः रामकृष्ण आश्रम से प्राप्त आस्तिक विश्वास हैं। किंतु सभी स्तरों पर एक बात लक्षित करने की है कि इन प्रतीकों का उपयोग संघर्ष के लिए किया गया है। पराधीन देश को मुक्त करने में संघर्ष के मूल्य को हिंदी के छायावादी कवियों ने, मुख्यतः प्रसाद और निराला ने, सबसे अधिक प्राथमिकता दी है। ‘राम की शक्ति-पूजा’ में ‘बिद्धांग बद्ध-कोदंड मुष्टि-खर-रुधिर-स्राव-रणभूमि’ में कष्ट-विक्षत योद्धा का विजय के लिए चौमुखी संघर्ष है। ‘तुलसीदास’ की ऐतिहासिकता मिथकीय राम से संबद्ध है। यहां भी स्पष्ट घोषणा है- ‘होगा फिर से दुर्धर्ष समर’। विवेकानंद की कविता में ‘नाचे उस पर श्यामा’ क्रांति का प्रतीक है और यह श्यामा या दुर्गा विभिन्न रूपों में क्रांति और परिवर्तन का संकेत है। जहां धार्मिक प्रतीक नहीं हैं, ऐतिहासिक चरित्र या प्रतीक हैं, वहां भी संघर्ष की प्रेरणा ही प्रधान है। ऐसे कुछ अंशों में हिंदूवादी प्रभाव अवश्य दिखाई देता है, जिसका ‘हिंदू और मुसलमान कवियों में विचार-साम्य’ वाली निराला की मूल भावधारा से अंतर्विरोध है। इसलिए धार्मिक प्रतीकों का ही नहीं, धार्मिक प्रभावों का संबंध भी संघर्ष-चेतना से है और यही उस युग की मांग थी।
(3) निराला का राष्ट्रबोध भौगोलिक देश और सामाजिक समुदाय, इन दोनों पक्षों से निर्मित हुआ था। यही ‘राष्ट्र’ की सही अवधारणा है। ‘भारति जय विजय करे’ में ‘लंका पड़ता पदतल शतदल’ से सरस्वती की छवि में देश की कल्पना सजीव होती है। पहली ही कविता ‘जन्मभूमि’ में ‘पंचसिंधु ब्रह्मपुत्र रवितनया गंगा’ उसी देश का नदियों द्वारा निर्मित मानचित्र है। लेकिन देश पराधीन है और उसमें रहने वाले पराधीन होने के साथ ही जहालत, अंधविश्वास, सांप्रदायिकता, जातिवाद के कारण आपस में विभाजित हैं। इस परिस्थिति से वे सर्वाधिक पीड़ित हैं जो सामाजिक पदक्रम में नीचे हैं। निराला को इन पीड़ितों से गहरी सहानुभूति है। वे चतुरी चमार को जमींदार के शोषण से मुक्त होते देखना चाहते हैं। उसके संघर्ष में सहयोग करते हैं। चतुरी भी यह सोचता है कि उसका बेटा अर्जुन पिता का हुनर सीख ले और निराला का ज्ञान भी सीख ले तो उसके जीवन में परिवर्तन आ सकता है।
यही बात स्त्रियों के संबंध में है। स्त्रियां अशिक्षित हों तो भावी पीढ़ी की शिक्षा अधूरी रहेगी। स्त्री-पुरुष मिलकर काम करें तभी भारत अपनी पूरी शक्ति प्रकट कर सकेगा। निराला दलितों की तरह स्त्रियों के स्वाभिमान और शिक्षा को अत्यधिक महत्व देते हैं।
दलित और स्त्री को ‘हाशिए के’ समुदाय समझा जाता है। निराला इन्हें समाज की मुख्यधारा में लाने का संघर्ष करते हैं। वे संत रविदास को उनके ‘समुज्ज्वल’ गुणों के लिए ‘चरण छूकर प्रणाम’ करते हैं। वे ‘भारत की देवियों’ के योगदान को रेखांकित करके पुरुषों की श्रेष्ठता और स्त्रियों की हीनता के विचार का खंडन करते हैं।
यहां एक बात का उल्लेख अनिवार्य है। आधुनिक भारत के तीन जनतांत्रिक प्रश्न निर्णायक महत्व रखते हैं। स्त्री, दलित और अल्पसंख्यक। तीनों प्रश्नों पर निराला का दृष्टिकोण अत्यंत क्रांतिकारी है। वे यह समझते हैं कि समाज में आर्थिक विषमता के रहते अन्य रूपों की विषमता समाप्त नहीं हो सकती। इसलिए वे ‘धोबी पासी चमार तेली’ को जातियों के रूप में विभाजित रखने की नीति के बदले वर्ग रूप में संगठित करने वाला ‘एक पाठ’ पढ़ाना चाहते हैं। इसी प्रकार स्त्रियों और अल्पसंख्यकों को भी समान और समकक्ष स्थान देते हैं। उनके राष्ट्रबोध में जाति, भाषा, धर्म, लिंग के आधार पर भेदभाव की गुंजाइश नहीं है।
(4) छायावाद युग के विश्वबोध और आज के भूमंडलीकरण के बीच वही फर्क है जो उन्नतिशील युवा पूंजीवाद और पतनशील वृद्ध पूंजीवाद में है। निराला के पास ‘विश्वबोध’ था, किंतु ‘भूमंडलीकरण’ विश्वबोध को नष्ट करता है। आरंभिक पूंजीवाद ने राष्ट्रीय भाषाओं और संस्कृतियों का उन्नयन किया, यूरोप में जातीय राज्यों की स्थापना हुई, जातीय चेतना के साथ स्वातंत्र्य-बोध आया और सांस्कृतिक अतीत के प्रति नई जागरूकता आई। इसने स्वयं यूरोपियों को किसी की गुलामी स्वीकार करने के विरुद्ध सचेष्ट किया। इसीलिए इटली और स्पेन, इंग्लैंड और फ्रांस एक-दूसरे से संघर्ष में उलझे रहे। किंतु जिस तरह इटली के कवियों ने पैलस देवी का उद्बोधन किया और अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया, उसी तरह इंग्लैंड के कवियों ने यूरोपीय संस्कृति पर यूनान के प्रभाव को स्वीकार किया और ब्रिटिश साम्राज्य का विरोध किया। बायरन ने तो ब्रिटिश सेना के खिलाफ यूनानी देशभक्तों के साथ मिलकर सशस्त्र संघर्ष किया। शेली ने भारत की आजादी के लिए कविता के अलावा सीधे-सीधे राजनीतिक पर्चे तक लिखे। यह सब जिस विश्वबोध से संभव हुआ उसकी विशेषता थी अपनी जातीय संस्कृति का सम्मान और अन्य संस्कृतियों की भूमिका के प्रति उदारता। यही बात निराला में देखी जाती है। इसकी झलक ऊपर के उनके कथन में परिलक्षित होती है।
भूमंडलीकरण न जातीय संस्कृतियों का सम्मान करता है, न राष्ट्रीय संप्रभुता की रक्षा करता है और न मनुष्य-केंद्रित विश्वबोध को प्रोत्साहन देता है। वह पूंजी की निरंकुश सत्ता का प्रसार करता है। सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिकी साम्राज्यवाद एकमात्र शक्ति रह गया। तब उसने विकासशील देशों को विश्वपूंजी के लिए अपनी सीमाएं खोलने के लिए बाध्य किया। इसे उदारीकरण कहा गया।
स्वाधीनता संघर्ष के दिनों में निराला हिंदी के विभिन्न प्रांतों में भाषा-संस्कृति के विकास के लिए हिंदी विश्वविद्यालय स्थापित करने का सुझाव दे रहे थे। जबकि उदारीकरण के परिणामस्वरूप हिंदी प्रदेशों को और विखंडित किया गया, साथ ही हिंदी भाषा को जनपदीय बोलियों में बांटने का अभियान चलाया गया। इन अभियानों को जनपदीय निहित स्वार्थों के अलावा विदेशों से भी आर्थिक सहायता मिलती है। दूसरी तरफ, विखंडित जातीय चेतना विश्व शक्तियों के आगे राष्ट्रीय स्वाभिमान का परिचय भी नहीं दे सकती। राजनीति में राष्ट्रवाद और शिक्षा में अंग्रेजी का प्रभुत्व, संस्कृति में अतीत-गौरव की उत्तेजना और साझा परंपराओं के प्रति नफरत-यह किसी ‘विश्वबोध’ का परिचायक नहीं है।
इसलिए भूमंडलीकरण के साथ न सिर्फ ‘छोटे-छोटे देवताओं’ का उत्थान हुआ है, बल्कि संगठित मानवबोध का क्षरण भी हुआ है। पूंजी अपने साथ जिस तरह का व्यक्तिवाद लाती है, भूमंडलीकरण की निरंकुश पूंजी उसी तरह का निरंकुश व्यक्तिवाद ला रहा है। निराला इस बारे में सचेत थे। उन्होंने लिखा था, ‘पूंजीवाद के सिंहासन पर शासन के रावण जितने ऊंचे बैठेंगे, दैन्य के लंगूर पूंछ की कुंडली पर अंगद की तरह उतने ही ऊंचे पहुंचेंगे।’ (रचनावली, खंड-6, पृष्ठ-138)
(5) निराला का प्रारंभिक जीवन बंगाल में बीता। वहां के समाज में जितना असर विवेकानंद का था उतना ही रवींद्रनाथ का। दोनों मूलतः स्वतंत्रता के समर्थक, राष्ट्रीयता के उन्नायक और सांस्कृतिक पुनर्जीवन के अग्रणी व्यक्तित्व थे। निराला पर इन दोनों का प्रभाव पड़ा था। एक फर्क यह था कि विवेकानंद प्राचीन गौरव के प्रति सजग, वेदांत के नए भाष्य के प्रणेता और ब्रिटिश शासन के विरोधी थे, साथ ही हिंदू जागरण के अग्रदूत भी। निराला पर इन सभी का प्रभाव दिखाई देता है। रवींद्रनाथ पश्चिमी प्रभाव के अनुकूल, राष्ट्रवाद के विरोधी, विश्वमानवता के गायक, आधुनिक और अंग्रेजी शिक्षा के समर्थक थे। निराला ने उनके प्रभाव को आलोचनात्मक ढंग से ग्रहण किया।
रवींद्रनाथ का स्वच्छंदतावाद पूरे भारतीय साहित्य पर अपना असर छोड़ रहा था, निराला उससे विशेष प्रभावित थे। यह स्वच्छंदता जिस जातीय स्वाभिमान से जुड़ी थी, उसके साथ स्वाधीनता की जो आकांक्षा अभिव्यक्त होती थी, रवींद्रनाथ की तरह निराला में भी हम उसे देखते हैं। इस प्रकार, निराला में विवेकानंद और रवींद्रनाथ के प्रभावों में अंतर्विरोध भी है और संतुलन भी। यह हिंदी के अपने छायावाद की विशेषता है। निराला ने इन परस्पर विरोधी प्रभावों को अपनी जातीय भूमि पर अपनाया और स्वाधीनता की राष्ट्रीय आवश्यकता के संदर्भ में उसका विकास किया।
बी-30, श्रीराम अपार्टमेंट्स, 32/4, द्वारका, नई दिल्ली-110078 मो.9717170693 |
निराला को सामाजिक समरसता प्रिय थी |
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अरुण कुमार वरिष्ठ आलोचक और सेवानिवृत्त प्राध्यापक। अद्यतन पुस्तक ‘साहित्य और समाज के बदलते आयाम’। |
छायावादी आंदोलन में एक सार्वजनिक शब्द है- स्वानुभूति। इसे थोड़ा और सरल करें, अनुभूति। प्रसाद के यहां उनका प्रिय शब्द था, संकल्पनात्मक अनुभूति। प्रसाद के ये शब्द लगभग 1914 के आसपास (काव्य और कला और अन्य निबंध) के हैं। इसके कुछेक साल पहले रवींद्रनाथ टैगोर का एक भाषण ‘आत्मबोध’ (1912) शीर्षक से आया था, जो उन्होंने अमेरिका के छात्रों के बीच दिया था। उस भाषण की शुरुआत एक घटना से होती है। एक बार रवींद्रनाथ की मुलाकात बाउल संगीत (बंगाल के गांवों में लोकप्रिय) के कलाकारों से हुई। टैगोर ने एक कलाकार से पूछा, धर्म का विशेषत्व क्या है? बाउल कलाकार का उत्तर था, गुरु के उपदेश के पहले अपने-आपको जानो। रवि ठाकुर ने कहा कि उस शास्त्र शिक्षाहीन ने जो बात कही, वह पूरी तरह सच है।
स्वामी विवेकानंद की किताब है ‘राजयोग’। निराला ने इसका अनुवाद किया था। मूल पुस्तक 1896 की है, यह 1902 में प्रकाशित हुई थी। निराला का अनुवाद 1920 के बाद का है। तब वे रामकृष्ण आश्रम की पत्रिका ‘समन्वय’ के संपादक थे। राजयोग में विवेकानंद खुद लिखते हैं कि उन्होंने सत्य का अनुभव किया है। आगे कहते हैं कि समस्त धर्मों का आधार प्रत्यक्ष अनुभव है। कर्मयोग उसके आगे की रचना है। उसके केंद्र में एक ही उक्ति है, पहले अपने पर विश्वास करो, फिर ईश्वर पर। अपने पर यानी प्रत्यक्ष पर या कहें स्वानुभूति पर।
निराला की स्वानुभूति का आकाश यहां मुखर हो उठता है, ‘ये कान्यकुब्ज कुल कुलांगार/खाकर पत्तल में करे छेद।’ फिर वे उस समाज व्यवस्था को याद करते हैं, जिसमें कुछ अर्जित करने में अक्षम कवि अपनी कन्या के लिए कुछ नहीं कर सका। उस युग में स्वानुभूति का दौर चल पड़ा था। वह आत्माभिव्यक्ति का दौर था।
निराला का समय सामंतवाद और साम्राज्यवाद के खिलाफ व्यापक राष्ट्रीय आंदोलन का था। खेतिहर जमीन और कर पर आधारित व्यवस्था सामंतवाद है। पूंजी का कम-से-कम लोगों के बीच अकूत संचय का फल साम्राज्यवाद है। विश्व मानवता के प्रवर्तन का दौर वस्तुतः इन दो व्यवस्थाओं के व्यापक विरोध का दौर है।
उस युग में एक नया मनुष्य किस रूप में जन्म ले रहा था? वह वस्तुतः ईश्वर को चुनौती भी दे रहा था और उसे अपनी सखा, अपनी सहेली, अपनी प्रेमिका के रूप में भी देख रहा था। बंगाल के एक कवि थे- बलराम दास। 15वीं शती के थे। वे ईश्वर से कहते थे, ‘मैं तुम्हारी प्रेम-पत्नी हूँ/स्वामी मेरे सामने लज्जा किस बात की।’ अल्लामा इकबाल ने लिखा, ‘खुदी को कर बुलंद इतना’।
आजादी की पूर्व-बेला में निराला घोषणा करते हैं, ‘किसानों की होगी पाठशाला/धोबी, पासी, चमार, तेली/खोलेंगे अंधेरे का ताला/एक पाठ पढ़ेंगे, टाट बिछाओ।’ एक तरह से आजादी के दीवानों को चेतावनी भी है। ये पंक्तियां आजाद भारत की रूप-रेखा भी हैं। निराला का राष्ट्र बोध राष्ट्रवाद के तय किए दायरे का अतिक्रमण करता है। भारत को गुलामी से मुक्ति मिले, लेकिन मुक्ति कैसी? इसका उत्तर निराला का रचना-संसार है।
निराला की रचनाओं में किसान जागो, मजदूर जागो जैसे स्वर नहीं हैं। वे वक्तव्य में कविता नहीं कहते हैं। उनकी अनेक कविताओं में एक पूरी कथात्मकता मंचित होती है, जैसे ‘जूही की कली’, ‘जागो फिर एक बार’, ‘सरोज-स्मृति’, ‘कुकुरमुत्ता’ इत्यादि। इसका मूल स्वर सामंती मानसिकता और रूढ़ियों का मुकाबला करने का और किसान को संगठित करने का रहा है। यहां कथात्मक शिल्प और विषयवस्तु में ही नवीनता नहीं है। यहां सामाजिक और आर्थिक बंधनों से मुक्ति की बेचैनी भी है। जूही की कली में प्रकृति और मनुष्य की सत्ता की निकटता की परिधि में उन्मुक्त प्रेम की अनुभूति का बोध होता है।
‘जागो फिर एक बार’ में जागना क्रिया एक व्यापक परिवेश में पूरी तार्किकता के साथ आई है। जाहिर है और खासकर इसके ब्यौरे से स्पष्ट है कि विश्वबंधुत्व और देशभक्ति वक्तव्य या बयानबाजी से विकृत होती है। ‘जागो फिर एक बार’ की पहली किस्त की शुरुआती पंक्ति है, ‘अरुण-पंख तरुण-किरण/खड़ी खोलती है द्वार।’ सूर्य के पंख और युवा किरणें नया दरवाजा खोलती हैं। जवानी का नशा कुछ ऐसा है जिसमें आग्रह और निवेदन के लिए जगह नहीं है। जागना क्रिया के साथ है आगे-पीछे कुछ सोचना नहीं है। आखिर तरुण किरणें क्यों सोचें? ‘जूही की कली’ और ‘जागो फिर एक बार’ बीस के दशक की कविताएं हैं, असहयोग आंदोलन के पहले और उसके बाद।
असहयोग आंदोलन ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ एक व्यापक आंदोलन था। निराला का विश्वबोध साम्राज्यवाद को गले लगाने का नहीं था। लंदन निवासी एनी बीसेंट साम्राज्यवाद के खिलाफ सक्रिय थीं। विश्वबोध और देशभक्ति का जुमला देने वालों से अब डर लगता है। देशी संपत्ति एक-एक कर बाहर बेच रहे हैं और देशभक्ति का बाजार भी गर्म किए हुए हैं। ध्यातव्य है कि चालीस के दशक में निराला का साहित्य साम्राज्यवाद को चुनौती देने जैसा है- ‘एक थे नव्वाब/अब, सुन बे गुलाब (कुकुरमुत्ता)’, इसमें एक स्वर गुजर जाने का है। गुलाब का संबोधन आदरसूचक नहीं है। हिंदी प्रदेशों में बे ते शब्द अपने से छोटे और समाज के निम्न तबके के लिए प्रयुक्त होते हैं। कुकुरमुत्ता की हठधर्मिता में नए भारत में संगठित हो रहे मजदूर का स्वर है। गौरतलब है कि चालीस के दशक में ही हिंदी प्रदेशों में किसान और मजदूर आंदोलन हुए थे। विश्वद़ृष्टि गुलाब की खूबसूरती से कैसे आएगी? वह तो कुकुरमुत्ता जैसों की शक्ति से आएगी।
‘कुकुरमुत्ता’ की हिंदी-उर्दू शब्दावली उस दौर के भाषिक मिजाज़ को दर्शाती है। 30 और 40 के दशक में हिंदी-उर्दू का विवाद खूब चला था। 40 के दशक की संविधान सभा में यह चर्चा का विषय बना हुआ था। नवाब की बेटी बहार को कुकुरमुत्ता की सब्जी बहुत पसंद है। नवाब का हुकुम था कुकुरमुत्ता उगाने का। माली का जवाब था, ‘फरमाएं मुआफ ख़ता/कुकुरमुत्ता अब उगाए नहीं उगता।’ इसके पहले तीन शब्द है, ‘अर्ज़ हो मंजूर’। निराला मजदूर आंदोलन की भाषा नीति बता रहे हैं। न तत्सम चलेगी, न तद्भव; चलेगी देशज और विदेशज।
विश्वबोध और भूमंडलीकरण दोनों परस्पर विरोधी हैं। निराला में जिस दुनिया को एक करने की अंतर्ध्वनि है, वहां विजन-वन-वल्लरी की उन्मुक्तता होगी और कुकुरमुत्ता का राज्य होगा। भूमंडलीकरण राज्य के दायित्व को नगण्य करने और उत्पादन के तंत्र को एकाधिकार में लेने का नाम है। उत्पादन भी आका की गिरवी है और उसका मूल्य-नियंत्रण भी। मजदूर के हक में केवल वोट है। भूमंडलीकरण पूंजी की जमावट में इज़ाफ़ा करता है। निराला का विश्वबोध पूंजी के एकाधिकार को तोड़ता है।
निराला के काव्य में धार्मिक तत्व से ज्यादा महत्वपूर्ण है उसके भीतर छिपी मानवतावादी भावना। ‘वर दे वीणावादिनी वर दे’ कविता को सरस्वती की आराधना कह सकते हैं। उसकी असली ध्वनि क्या है? कविता की दूसरी पंक्ति है, ‘प्रिय स्वतंत्र-रव अमृत-मंत्र नव’। देश पराधीन है। हमारी आवाज (रव) पर ताला लगा है। इसलिए हृदय के बंधन को काटो (काट अंध-उर के बंधन-स्तर)। पूरी तरह तत्सम शब्दावली से युक्त इस कविता में नव का अनुप्रास कुछ कह रहा है। नव की आवृत्ति स्वाधीन होने की आकांक्षा की तीव्रता और समग्र परिवर्तन को रेखांकित करती है।
इसी कविता में एक जगह विहग-वृंद आया है जो युवा पीढ़ी के लिए है। खेदजनक यह है कि वसंत पंचमी के दिन इस कविता का गायन आनुष्ठानिक हो चला है। न वहां कुछ नया होने जैसा एहसास है और न वर्तमान तंत्र से मुक्ति की बेचैनी। कविता का पारमार्थिक स्वर छिन गया है। अब है, अपने लिए कुछ मांगो और केवल अपने लिए। किसी कृति के आनुष्ठानिक होने का यही खतरा है। खतरे की यह आशंका समाज को किस ओर ले जाती है, उसकी एक-दो बानगियां आए-दिन मिलती हैं।
निराला धार्मिकता के आग्रही नहीं थे। उन्हें सामाजिक समरसता प्रिय थी। इसलिए वे बंधनों को काटने की बात कहते हैं। ‘वर दे वीणावादिनी’ के पहले माखनलाल चतुर्वेदी ने ‘चाह नहीं मैं सुर बाला के गहनों में गूंथा जाऊँ’ लिखा था और निराला की इस कविता के बाद सुभद्रा कुमारी चौहान ने ‘वीरों का कैसा हो वसंत’ कविता लिखी थी। 20 और 30 के दशक के दौर की हिंदी कविता युवा पीढ़ी को ऊर्जा देती है। आखिर साम्राज्यवाद के खिलाफ इन्हीं की एकजुटता इतिहास रचेगी।
2के/81, हाउसिंग कॉलोनी, बरियातू, रांची-834009 झारखंड मो.8595770079 |
निराला की रचनाओं में हाशिये की व्यथा है |
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गरिमा श्रीवास्तव चर्चित स्त्री विमर्शकार। अद्यतन पुस्तक :‘आउशवित्ज एक प्रेमकथा’। जेएनयू के भारतीय भाषा केंद्र में प्रोफेसर। |
(1) छायावाद युग निर्विवाद रूप से विश्व मानवता के प्रवर्तन का युग रहा है। वजह यह कि इस युग की सृजनशीलता तमाम तरह के भेद के विरुद्ध रही है। छायावादी कवि जाति-भेद ही नहीं, देश-भेद को भी अस्वीकार करते हैं। निराला की ‘सम्राट अष्टम एडवर्ड के प्रति’ कविता इसका एक अनोखा उदाहरण है, जिसमें कवि ने उस देश के राजा के सच्चे प्रेम और नैतिक साहस की भूरि-भूरि प्रशंसा की है जिसने भारत को उपनिवेश बना रखा था।
निराला के यहां अंध-राष्ट्रवाद के बजाय जो राष्ट्रबोध मिलता है वह स्थूल नहीं, सूक्ष्म है। वह राजनीतिक के बजाय सांस्कृतिक है। इसलिए उसमें कवित्व है। वह भाषाई, धार्मिक या सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से भिन्न जिस ‘शक्ति की मौलिक कल्पना’ के साथ ‘आराधन का दृढ़ आराधन’ से उत्तर देने पर बल देता है। वह समान धर्म और भाषा पर आधारित यूरोपीय राष्ट्र की संकल्पना को खारिज करता प्रतीत होता है। अपने समृद्ध सांस्कृतिक अतीत से रचनात्मक ऊर्जा ग्रहण करने के बावजूद निराला का राष्ट्रबोध भविष्योन्मुख है।
(2) निराला के काव्य में धार्मिक तत्वों को आम तौर पर प्रचलित धर्म या मजहब के अर्थ में देखना कविता के प्रति गैर-रचनात्मक नजरिया अपनाना होगा। यह बात किसी भी भाषा में रचित श्रेष्ठ कविता के संदर्भ में सच है। निराला एक आधुनिक कवि हैं। इसलिए वे अपनी धार्मिक-सांस्कृतिक परंपरा से आख्यानों का ढांचा लेकर उसे अपने युग के अनुसार पुनर्रचित करते हैं। इस क्रम में वे धर्म का सत्व ग्रहण करते हुए उसे अपने समय-समाज की जरूरतों के मुताबिक नया अर्थ प्रदान करते हैं। इसी वजह से ‘राम की शक्तिपूजा’ पारंपरिक रामभक्ति काव्य के बजाय हमारे स्वाधीनता संग्राम की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति बन जाती है।
दुनिया-भर का साहित्येतिहास इसका गवाह है कि अक्सर पराधीन देशों के साहित्य में जब स्वतंत्रता की चेतना जन्म लेती है तो उसमें पुनरुत्थान के कुछ तत्व अवश्य होते हैं, जो धार्मिक प्रतीकों के इस्तेमाल से उत्पन्न होते हैं। पर निराला और उनकी तरह के सारे बड़े रचनाकार अपने रचनात्मक कौशल से उन धार्मिक प्रतीकों को नया अर्थ देने में सक्षम सिद्ध हुए हैं। यदि सिर्फ एक उदाहरण से अपनी बात पुष्ट करनी हो तो निराला की ‘जागो फिर एक बार’ कविता में ‘सत श्रीअकाल’ जैसे धार्मिक संबोधन के रचनात्मक प्रयोग पर गौर किया जा सकता है जो सिख धर्म से संबद्ध होने के बावजूद केवल धार्मिक के बजाय राष्ट्रीय जागरण का आह्वान करता है।
(3) निराला के राष्ट्रबोध में अपवर्जन के लिए कोई जगह नहीं है। उनका राष्ट्रबोध समावेशी है। उनकी रचनाओं में हाशिए के समुदायों की व्यथा और संघर्ष को पर्याप्त अभिव्यक्ति मिली है। उनकी कविता में ‘अलस पंकज दृग अरुण मुख तरुण अनुरागी’ स्त्री के साथ ही विधवा, इलाहाबाद के पथ पर पत्थर तोड़ने वाली श्रमिक स्त्री, घनघोर आर्थिक अभाव झेलते पिता की असमय काल कवलित हो जाने को अभिशप्त सरोज जैसी पुत्री की व्यथा है। ‘देवी’ कहानी में पगली का चित्रण करते हुए निराला ने लिखा है: ‘यह कौन है, हिंदू या मुसलमान? इसके एक बच्चा भी है। इन दोनों का भविष्य क्या होगा? बच्चे की शिक्षा, परवरिश क्या इसी तरह रास्ते पर होगी। यह क्या सोचती होगी ईश्वर, संसार, धर्म और मनुष्यता के संबंध में?’ इसी कहानी में वे लिखते हैं: ‘पगली का ध्यान ही मेरा ज्ञान हो गया। उसे देखकर मुझे बार-बार महाशक्ति की याद आने लगी।’ निराला की इस कहानी को ‘कुल्ली भाट’ के साथ रखकर देखने पर उनके अंत:करण के विस्तृत आयतन का पता चलता है। उनके राष्ट्रबोध में विद्रोह की चिनगारी वहां दिखाई देती है जहां अमीरों की हवेली को किसानों की पाठशाला बनाने की आकांक्षा को पूरा करने के लिए समाज के वंचित तबके से ‘अंधेरे का ताला’ खोलने के लिए ‘जल्द-जल्द पैर बढ़ाओ’ का आह्वान किया गया है।
(4) आज का भूमंडलीकरण बुनियादी तौर पर एक आर्थिक प्रक्रिया है, जिसका प्रभाव वैश्विक है और संस्कृति भी इसके प्रभाव से बच नहीं सकी है। भूमंडलीकरण जिस विश्वग्राम का खाका पेश करता है वह तीसरी दुनिया के देशों की मासूम जनता के सस्ते श्रम एवं प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के बल पर महाशक्ति बने कुछ देशों के वर्चस्व को सदा सर्वदा बनाए रखने की नीयत से परिचालित है, जो गरीब देशों को विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष जैसी वित्तीय संस्थाओं के माध्यम से कर्ज के जाल में फंसाकर अप्रत्यक्ष रूप से उनपर नियंत्रण चाहता है। यह ‘कल्याणकारी राज्य’ के बजाय हर क्षेत्र में बड़े मुनाफ़ाखोर पूंजीपतियों की दखलंदाजी को तरजीह देता है और मनुष्य को नागरिक की जगह एक उपभोक्ता में बदल देना चाहता है।
इसके विपरीत निराला का विश्वबोध दुनिया के गरीब अवाम की तरफदारी करता है। अपनी कविता में कल्याणकारी राज्य को मजबूत बनाने एवं जातीय विशिष्टता बरकरार रखने की आकांक्षा को प्रकट करते हुए निराला लिखते हैं- ‘बैंक किसानों का खुलाओ/सारी संपत्ति देश की हो/सारी आपत्ति देश की बने/जनता जातीय वेश की हो/वाद से विवाद यह ठने/कांटा कांटे से कढ़ाओ।’
निराला अत्यंत जागरूक कवि हैं। उनकी कविता में सामंतवाद के साथ ही साम्राज्यवाद विरोधी स्वर मुखर है। आधुनिक शिक्षा और वैज्ञानिक चेतना के प्रसार से हुई मनुष्य की भौतिक प्रगति के सुफल से वे अनजान न थे। ‘काव्य में रूप और अरूप’ निबंध में उन्होंने लिखा है : ‘संसार की भौतिक सभ्यता से सब देशों के गुथ जाने के कारण संसार भर के लोगों को आत्मलाभ पहुंचा। फलस्वरूप कला में देश भाव की जो संकीर्णता थी, आदान-प्रदान की सहृदयता ने उसे तोड़ दिया। कला की सृष्टि व्यापक विचारों से होने लगी। और हर जाति की उत्तमता से प्रेम-संबंध जोड़कर लोग उससे अपनी जातीय कला को प्रभावित करने लगे।’
कहने की जरूरत नहीं कि निराला के जमाने तक भूमंडलीकरण का वह हिंस्र रूप प्रकट नहीं हुआ था जो दुनिया को विश्व बाजार और नागरिक को उपभोक्ता में बदलकर विकसित देशों के अनेक अनुपयोगी उत्पाद से विकासशील देशों के बाजार को पाटकर मुनाफा कमाने की रणनीति अपनाता है।
निराला का विश्वबोध उनकी कविता में अनेकानेक विराट प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त हुआ है। चित्रकूट की प्राकृतिक सुषमा देखकर निराला के तुलसीदास का मन असीम उन्मुक्त नभ में उड़ने लगता है- ‘वह उस शाखा का वन-विहंग/उड़ गया मुक्त नभ-निस्तरंग।’
(5) अव्वल तो विवेकानंद और रवींद्रनाथ को परस्पर विरोधी मान लेना मेरे लिए मुश्किल है।
यह सही है कि निराला पर विवेकानंद और रवींद्रनाथ, दोनों का प्रभाव है। निराला जब कविता में विराट को पुनर्रचित करते हैं तो कई बार वह शक्ति-रूपिणी मां के प्रतीक का इस्तेमाल करते हैं। विदित है कि निराला ने ‘नाचुक ताहाते श्यामा’ शीर्षक विवेकानंद की बांग्ला कविता का हिंदी में अनुवाद किया है, जिसमें भगवती ऐसी मृत्युरूपिणी हैं जो मनुष्य के मृत्युभय, स्वार्थ, अहंकार और कायरता का नाश करने में सक्षम हैं- ‘चूर-चूर हो स्वार्थ, साध, सब/मान, हृदय हो महाश्मशान/नाचे उस पर श्यामा, घन रण/में लेकर निज भीम कृपाण।’
नव्य-वेदांत निराला-काव्य का मेरुदंड है। उनकी ‘तुम और मैं’ कविता इसका अनोखा उदाहरण है। विवेकानंद के वेदांत-प्रेरित व्याख्यानों की अनेक प्रतिध्वनियां निराला काव्य में सुनाई पड़ती हैं। अपनी कविता में जब वे ‘तुम हो महान,/तुम सदा हो महान/है नश्वर यह दीन भाव,/कायरता, कामपरता, ब्रह्म हो तुम’ जैसी अभिव्यक्ति को अणुओं-परमाणुओं में फूंका हुआ ऋषियों का मंत्र कहते हैं तो पाठक के समक्ष विवेकानंद की छवि अनायास भासित होने लगती है। विवेकानंद रोटी के लिए तरसते मनुष्य को धर्म की अनिवार्यता पर प्रश्नचिह्न खड़ा करते हैं। निराला ‘दान’ कविता में कृशकाय भिक्षुक को नज़रंदाज़ करके बंदर को मालपुआ खिलाने वाले भक्तों की बखिया उधेड़ते नजर आते हैं- ‘झोली से पुए निकाल लिए/बढ़ते कपियों के हाथ दिए/देखा भी नहीं उधर फिर कर/जिस ओर रहा वह भिक्षु इतर;/चिल्लाया किया दूर मानव,/बोला मैं- धन्य श्रेष्ठ मानव!’
निराला काव्य में तत्सम शब्दों के पुन:संस्कार से उत्पन्न जो भाषिक सुरुचि के साथ ही प्रगीतात्मकता एवं सूक्ष्म सौंदर्य-बोध है, वह संस्कृत एवं मध्यकालीन हिंदी कवियों के साथ ही कहीं न कहीं रवींद्रनाथ से अवश्य प्रभावित है। निराला ने ‘रवींद्र कविता कानन’ नामक समालोचना भी लिखी है, जिसमें अपनी शक्ति एवं सीमा में वे रवींद्रनाथ के काव्य-विकास की गहरी पड़ताल करते हैं। इस पुस्तिका में टैगोर के ‘आजि के प्रभाते भ्रमरेर मत’ गीत की व्याख्या करते हुए निराला लिखते हैं- ‘रवींद्रनाथ अपने सौंदर्य का अनुभव दूसरों को भी कराते हैं। अपने हृदय के साथ दृश्य मिलाने के लिए महाकवि संपूर्ण विश्व को इन पंक्तियों द्वारा निमंत्रण भेज रहे हैं। यह गुण निराला-काव्य में किस हद तक मौजूद है इसे उदाहरण देकर समझाने की जरूरत नहीं है।’
प्रोफेसर, सेंटर ऑफ इंडियन लैंग्विजेज, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली–110067 मो.7678380738 |
निराला प्रासंगिक हैं क्योंकि वे बंधनमुक्त मुक्त रहे |
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वैभव सिंह चर्चित रचनाकार और आलोचक।अंबेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में अध्यापन।अद्यतन पुस्तक–‘कहानी: विचारधारा और यथार्थ’। |
निराला के साहित्य में राष्ट्रीयता और राष्ट्रीय चेतना उनके अपने युग में तेजी से विकसित हुए राष्ट्रवाद के साथ स्वाभाविक संगति में हैं। उनके राष्ट्र-बोध पर पुनरुत्थानवाद, अतीत-गौरव, देश-उपासना, जनांदोलनों आदि का मिलाजुला प्रभाव भी है। यह माना भी जाता है कि उपनिवेशवाद के विरोध में अक्सर पुनरुत्थानवाद तथा जातीय गौरव की चेतना राष्ट्रवाद के साथ घुलमिल जाती है।
निराला की जीवनयात्रा का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि कलकत्ते में जन्म, बैसवाड़ा-उन्नाव के छोटे से गांव से पुश्तैनी संबंध, अवध-कलकत्ते के बीच आवाजाही तथा प्रताप-प्रभा-सरस्वती जैसे पत्रों का निरंतर अध्ययन, इन सभी ने उनके मानसिक क्षितिजों का विकास किया था। कलकत्ता के बौद्धिक-सांस्कृतिक परिवेश में ही उन्होंने ‘मतवाला’ पत्र का संपादन किया था और पत्र के संस्थापक सेठ महादेव प्रसाद द्वारा ही ‘निराला’ उपनाम भी प्रदान किया गया था।
‘अनामिका’ संग्रह के पुनर्प्रकाशन के प्राक्कथन में निराला ने लिखा- अपना ‘मतवाला’ निकालकर मेरा उपनाम ‘निराला’ मतवाला के ही अनुप्रास पर आया था। कलकत्ते के आंदोलनधर्मी वातावरण ने ही राष्ट्रप्रेम के आधुनिक विचार से अवगत भी कराया। उनकी काव्य-रचना का कालखंड 1920 या उसके बाद का ही है, इसलिए उनकी कविताओं में जो गहरा ओज है, उसके पीछे उनकी विशिष्ट प्रतिभा है तो वह उस दौर में विकसित हुए विभिन्न राष्ट्रीय आंदोलनों से भी प्रेरित है। असहयोग आंदोलन के पहले निराला विवेकानंद व रामकृष्ण परमहंस के अनन्य भक्त थे। जब 1920 में असहयोग आंदोलन छिड़ा तो उन्होंने महिषादल के आसपास गांव-गांव में चरखे का प्रचार किया था और ‘जन्मभूमि’ कविता लिखी थी जो कानपुर से निकलने वाले पत्र ‘प्रभा’ में प्रकाशित हुई थी। राष्ट्रीय चेतना का संबंध उपनिवेशवाद का प्रतिरोध करते हुए सामंती बंधनों को उखाड़ फेंकने से भी रहा है।
निराला ने जिस प्रकार महिषादल के राजा की नौकरी को ठोकर मारी और साहित्यिक-राजनीतिक विषयों मे अपनी रुचि को आगे निरंतर विकसित करने का कठोर निर्णय लिया, वह भी तत्कालीन राष्ट्रवाद की मानसिक प्रेरणा है। पर निराला कोरे राजनीतिक विचारक नहीं बल्कि एक समर्थ कवि थे। इसलिए उनकी राष्ट्रीय चेतना भी प्रकृति व परिवेश के रागात्मक चित्रण, मिथक-बोध, भाववादी जीवन-दृष्टि, प्रतीक योजना व उपमाओं के भीतर भी उपस्थित है जैसा कि उनकी ‘राम की शक्तिपूजा’ व ‘तुलसीदास’ जैसी लंबी कविताओं में दिखता है।
निराला की कई कविताएं प्रार्थनापरक हैं और अनंत रहस्यमय शक्ति के प्रति श्रद्धाज्ञापन करती हैं। वे अपनी युवावस्था में विवेकानंद के वेदांत दर्शन से प्रभावित थे और रामकृष्ण परमहंस के शिष्यों के खास संपर्क में थे। लेकिन उनकी समूची काव्ययात्रा में धार्मिक भावों से प्रेरित कविताएं धर्म तक सीमित न होकर बड़े सांस्कृतिक प्रश्नों से जुड़ी हैं। एक ओर धार्मिक अंधविश्वास व धार्मिक रूढ़ियों से उनका टकराव होता रहा, दूसरी ओर उन्होंने धार्मिक पुराकथाओं को आधार बनाकर कविताएं लिखीं। पर उन्होंने शास्त्र-परंपरा की रूढ़ियों को नहीं दोहराया, बल्कि धर्मगत विषयों पर कविता रचते समय भी नवीन भावों-प्रसंगों की उद्भावनाएं प्रस्तुत कीं। उन्होंने इन विषयों पर आधारित कविताओं में भी स्वच्छंदतावादी दृष्टि का प्रयोग किया है, जैसा कि उनकी कविता ‘पंचवटी प्रसंग’ में दिखता है। हजारी प्रसाद द्विवेदी की शब्दों में- ‘सूर्पनखा वहां शायद एकदम नए ढंग से नारी के रूप में उपस्थित की गई है, किसी वीभत्स राक्षसी के रूप में नहीं।’ या फिर ‘राम की शक्तिपूजा’ में राम का चरित्र आत्मधिक्कार, संशय, पराजय-बोध आदि के रूप में संघर्षशील आधुनिक नायक की करुण असमर्थताओं के अधिक निकट प्रतीत होता है।
उनकी सरस्वती उपासना पर केंद्रित अत्यंत लोकप्रिय कविता ‘वर दे वीणावादिनी वर दे’ में वे अतीतगामी नहीं हैं बल्कि नवगति, नवलय, नवल कंठ, नव स्वर आदि का वर सरस्वती से मांग रहे हैं। यानी जो कविताएं ऊपर से धार्मिक प्रतीत हो रही हैं, वे वास्तव में छायावाद के ही स्वच्छंद भावों की अभिव्यक्ति हैं और नए युग का आह्वान करती हैं। बंधनों-बेड़ियों से मुक्त निराला की यही विशेषताएं समकालीन हिंदी कविता व कवियों के बीच भी उन्हें प्रासंगिक बनाती हैं।
निराला की चेतना अन्य छायावादी कवियों की तुलना में अधिक नवोन्मेषी व विकासमान है और वेदांत तथा अद्वैत से लेकर समाजवाद तक विचारों को उन्होंने अपनी सृजनात्मकता के लिए प्रयोग किया है। वेदांतिक सीमाओं से निकल आधुनिक-प्रगतिशील विचारों से अपने जुड़ाव को उन्होंने अपनी साहित्य-यात्रा के प्रमुख पक्ष के रूप में याद किया है। वे आत्मलिप्त रोमांटिक व्यक्तित्व और समाजोन्मुख जागरूक व्यक्ति एक साथ प्रतीत होते हैं।
उनका निजी जीवन अपार संघर्षों से भरा था जिस बारे में महादेवी वर्मा ने अपने संस्मरण में लिखा था- ‘निराला जी अपने युग की विशिष्ट प्रतिभा हैं, अतः उन्हें अपने युग के अभिशाप झेलने पड़े तो आश्चर्य नहीं।’ उनकी कई रचनाएं अन्याय के विरोध में हैं- जैसे विधवा, भिक्षुक, जल्द-जल्द पैर बढ़ाओ, तोड़ती पत्थर, बादल राग, कुकुरमुत्ता आदि में अन्याय-विषमता के विरोध की आधुनिक दृष्टि मौजूद है।
निराला मानवतावादी कवि-लेखक थे। मानवतावाद की मूल स्थापना यह है कि स्वर्ग, मोक्ष, परलोक के स्थान पर सभी मनुष्यों को इसी जीवन में सुखी होने का अधिकार है, भले ही उनकी जाति, वर्ग, लिंग या नस्ल कुछ भी हो। उनकी कविताओं में करुणावान हृदय, व्यापक संवेदना और तर्कसंगत दृष्टियां कहीं एक साथ हैं तो कहीं अलग-अलग सामने आते हैं। ‘जल्द-जल्द पैर बढ़ाओ’ में उन्होंने शिक्षा के प्रश्न को दलितों-शूद्रों के जीवन के मूल अधिकार बनाकर पेश किया। आज जो बहस ‘वर्ण बनाम वर्ग’ की होती है, उसका हल जैसे निराला अपने समय में ही ढूंढने की चेष्टा कर रहे थे। उन्होंने जब अमीरों की हवेली को पाठशाला बनाने का आह्वान इस कविता में किया तो सबसे पहले किसान की बात कही और फिर अगली पंक्तियों में धोबी, पासी, चमार, तेली जैसी निम्नजातियों की। यानी वर्ग व वर्ण दोनों के साथ न्याय के प्रश्न को उठाया।
निराला के साहित्य में स्त्रियों की दशा के प्रति गहरी सहानुभूति है और वे विधवाओं की दशा में ‘विधवा’ नामक कविता में लिखते हैं- ‘वह टूटे तरु की छुटी लता-सी दीन दलित भारत की ही विधवा है।’ इसमें ‘दलित भारत की विधवा’ पंक्ति अर्थपूर्ण है जिसमें वे व्यंग्य से समूचे भारत की दीन-दलित दशा और एक स्त्री की दीनता की नियति को एक साथ जोड़कर देखते हैं।
विश्वबोध और भूमंडलीकरण में मूल अंतर यह है कि तकनीक व पूंजी-निवेश पर आधारित भूमंडलीकरण एक वस्तुगत विश्वव्यापी प्रक्रिया है, जबकि विश्वबोध को व्यक्ति अपने प्रयास से अर्जित करता है और वह विश्वबोध सकारात्मक या नकारात्मक दोनों ही किस्म का हो सकता है। निराला के लेखन में आत्मगत भाव कविता की रूपराशि व अंतर्वस्तु को निर्मित करते हैं और साथ ही वे निरंतर नए विचारों की दिशा में प्रगति भी करते हैं।
उनके लेखन में स्वच्छंदतावाद अधिक ढूंढा जाता है पर वास्तव में वे एक अत्यंत आत्मसजग व अनुशासित कवि भी हैं। उन्होंने छंद, भाषा, रूपविन्यास आदि का जैसा अभ्यास कविता के लिए किया, वह दुर्लभ है। वे फक्कड़ व प्रयोगशील रचनाओं के लेखन की कसौटी पर खरे उतरते हैं तो तत्समबहुल संस्कृत पदावली से सजी भाषा में काव्यलेखन में भी। उनकी कविताओं तथा अन्य छायावादी कवियों की रचनाओं में जो भी रहस्यवाद है, उसपर काफी विस्तार से बहसें हुई हैं। उनके रहस्यवादी भावजगत का सार अंत में यही निर्धारित हुआ कि रहस्यवाद शिक्षा प्राप्त करने वाले मध्यवर्गीय व्यक्ति की स्वाधीनता संबंधी इच्छाओं के लिए आवरण है जो आत्माभिव्यक्ति के लिए अप्रस्तुत विधान व उपमानों की शैली में काव्यरचना करता है। अपनी स्वाधीनता के लिए रहस्यवाद का प्रयोग करता है।
निराला के ऊपर विवेकानंद के वेदांत व अद्वैत का प्रभाव था और वे रामकृष्ण परमहंस से भी प्रभावित थे। उन्होंने ‘भारत में विवेकानंद’ (1948) नामक पुस्तक का अनुवाद किया था जो विवेकानंद के भारत में दिए भाषणों के संकलन पर आधारित अंग्रेजी पुस्तक ‘इंडियन लेक्चर्स’ का अनुवाद है। विवेकानंद की पुस्तक ‘राजयोग’ का भी आंशिक अनुवाद किया। रामकृष्ण वचनामृत का बांग्ला से हिंदी में तीन खंडों में अनुवाद किया। रामकृष्ण परमहंस के शिष्य प्रेमानंद को संबोधित कविता भी लिखी थी जो उनके ‘अणिमा’ संग्रह में संकलित है।
इसी प्रकार रवींद्रनाथ ठाकुर का उनके ऊपर ही नहीं बल्कि पूरे छायावाद पर प्रभाव है। रहस्यवाद, प्रार्थनापरक काव्य, निजी स्वाधीनता आदि को लाक्षणिक व प्रतीकवादी शैली में व्यक्त करना टैगोर के प्रभाव का प्रमाण माना जाता है। तुलनात्मक साहित्य के अध्यापन से जुड़ी प्रोफेसर इप्शिता चंदा ने अपनी पुस्तक ‘रिसेप्शन आफ द रिसीव्ड-रबींद्रनाथ टैगोर एंड सूर्यकांत त्रिपाठी निराला’ में बताया है कि निराला ने प्रचलित साहित्यिक दृष्टियों से विद्रोह करने की प्रेरणा टैगोर से ही प्राप्त की थी। निराला ने ‘रवींद्र कविता कानन’ (1929) नामक पुस्तक भी लिखी थी, जो थोड़ा जल्दबादी में लिखी प्रतीत होती है। टैगोर की भरीपूरी संपन्नता व कुलीन परिवार की स्थिति के सामने निराला अपने को थोड़ा संकुचित भी पाते थे और बेलूर मठ में समन्वय पत्र के संपादन के दौरान उन्होंने कहा था- ‘अगर मैं भी प्रिंस द्वारकानाथ टैगोर का पोता होता तथा समृद्ध होता तो लोग मुझे भी महान समझते।’ (हरीश त्रिवेदी- ‘टैगोर एंड इंडियन लिटरेचर : इन्फ्लूएंस एंड प्रेजेंस’ नामक लेख में उद्धृत)।
निराला की वैचारिक निर्मित में आरंभ में विवेकानंद का प्रभाव है, पर वह स्थायी नहीं है। उनके समग्र साहित्य पर विवेकानंद से अधिक टैगोर का प्रभाव है। विवेकानंद की समस्त प्राणियों के अव्यक्त ब्रह्म होने के सिद्धांत से उन्हें इस रूप में अवश्य प्रेरणा मिली कि मनुष्य मात्र भी उच्च उद्देश्यों व भावों से संचालित है और वह गरिमाहीन नहीं है। विवेकानंद स्वयं कर्मकांड, मत, अनुष्ठान, शास्त्र आदि को खास महत्व नहीं देते थे। अपनी पुस्तक ‘राजयोग’ में उन्होंने यहां तक कहा कि- ‘ढोंगी होने से अच्छा है कि स्पष्टवादी नास्तिक होना।’ उनकी ‘मनुष्य मात्र की आत्मा में ब्रह्मभाव’ निहित होने की धारणा ने भी व्यक्ति की सत्ता व स्वाधीनता को समर्थन प्रदान किया, जिसका प्रभाव निराला की स्वाधीन चेतना पर दृष्टिगत होता है।
निराला ने विवेकानंद से अगर धर्म व परंपरा के बारे में साहस से भरे चिंतन की प्रेरणा पाई तो टैगोर से उन्होंने प्रकृति व अमूर्त सत्ता के प्रति काव्यात्मक निवेदन, प्रेयसी-विरह तथा शृंगार चित्रण आदि विषयों पर आधारित काव्यशैलियों को सीखा था।
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बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति
बहुत ही अच्छा संवाद निराला पर।