युवा लेखक, कवि और संस्कृति कर्मी।अध्ययनरत।

स्त्रियां जब घर बदलती हैं

तुम नहीं जानते
स्त्रियां जब घर बदलती हैं
माएं उनके आंचल में प्रेम और गृहस्थी की
दो गांठें बांधकर भेजती हैं
शायद तुम नहीं जानते
स्त्रियों की बेचैनी के न्योते पर
सबसे पहले स्त्रियों के पास आती है सुबह
शायद तुमने कभी रसोईघर के डब्बे नहीं झांके
नमक, तेल, जीरा, हींग के साथ उनमें
ममता का अनंत आकाश होता है
जो स्त्रियां जमा करती हैं
अपनी चूड़ियों के एवज में बच्चों के लिए

शायद तुम नहीं जानते रात होते ही
जब तुम्हारी देह नींद को गले लगाती है
स्त्रियों के हाथ बर्तन घिस रहे होते हैं
स्त्रियों की भाग्यरेखाएं
हर रोज रोटी के साथ सिंककर
तुम्हारी थाली में चली आती हैं
उनके आंचल के मटमैले रंग में
लिपटा होता है उनके माथे का पसीना
उनकी उंगलियों से खून
सब्जियां काटते हुए निकल आता है
गुंथे आटे में वे सानती हैं
परिवार के लिए प्रेम
अगर यह सब नहीं जानते
तो तुम्हारी डिग्रियां किसी काम की नहीं
अलमारी के किस तख्ते में उन्हें क्या रखना है
स्त्रियों को पता है
घर बदलते ही स्त्रियां साथ ले आती हैं
अपने आंचल में दो गांठें।

मैं फिर आऊंगा
मैं फिर आऊंगा
जैसे शीत ऋतु चली आती है
ओस बनकर घास पर
जैसे किसी सूखी डाल पर चली आती है
कू-कू करती कोयल
जैसे बारिश में निकलती है कागज की नाव
मैं भी चला आऊंगा
जैसे पानी में निकल आते हैं जलकुंभी
जैसे उग आती है जमीन पर दूब
मैं भी चला आऊंगा तुम्हारे पास
हो सकता है प्रेम का हाथ पकड़कर
तुम्हारी मेहंदी का रंग बनकर लौटूं
या लहठी बनकर तुम्हारी चूड़ियों के बीच रहूं
कुछ ऐसे भी एक दिन लौट आऊंगा देखना
किसी प्रेमी के खत में
लौट सकता हूँ किसी मोटी किताब की
छोटी कविता में
एक दिन आंचल बनकर
तुम्हारे माथे का पसीना पोछने
हो सकता है मैं लौट आऊं तुम्हारे पास
और तुम्हारी आंखें टिकी हों रास्ते पर
यह सोचकर कि मैं लौटूंगा एक रोज।

संपर्क :, गली नं १२, कांकीनाड़ा, उत्तर २४ परगना, पश्चिम बंगाल७४३१२६ मो.९००७४२८३३७