भरतीय भाषा परिषद  प्रतिवर्ष चार भारतीय भाषाओं के वरिष्ठ साहित्यकारों  को कर्तृत्व समग्र सम्मान और चार युवा लेखकों को युवा पुरस्कार प्रदान करती है। कोरोना काल तथा बाद की असुविधाओं के कारण स्थगित पुरस्कार समारोह 8 अप्रैल, 2023 को आयोजित हुआ।

इस बार ‘वागर्थ’ में परिचर्चा की जगह देश के वरिष्ठ साहित्यकार भालचंद्र नेमाड़े (मराठी), एन. गोपी (तेलुगु), प्रतिभा राय (ओड़िया) और मधु कांकरिया (हिंदी) के सम्मान समारोह में दिए गए वक्तव्य प्रस्तुत किए जा रहे हैं। इनके साथ युवा लेखकों ओम नागर (राजस्थानी), एन. एस. सुमेश कृष्णन (मलयालम) और शेखर मल्लिक (हिंदी) के वक्तव्य हैं।

लेखक ऐसे अवसरों पर अपने परिवेश और प्रेरणाओं को जिस तरह खोलते हैं, उससे उनकी रचनाशीलता के मार्गों का संकेत मिलता है। ये वक्तव्य पाठकों के लिए प्रेरणादायक हो सकते हैं।

भालचंद्र नेमाडे
जन्म : 1938। ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित, जनजीवन से जुड़े मराठी के शीर्षस्थ कथाकार। ‘कोसला’ उपन्यास से एक महत्वपूर्ण रचनात्मक हस्तक्षेप। 1991 में ‘टीकास्वयंवर’ कृति के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उनके लेखन ने मराठी उपन्यास में एक युगांतर उपस्थित किया। उनकी कृतियों में ग्रामीण से लेकर महानगरीय जीवन तक के यथार्थ चित्र हैं। उन्होंने भारत की सामाजिक विसंगतियों को नई दृष्टि और कलात्मक ढंग से उकेरा है। बहुचर्चित ‘हिंदू’ उपन्यास से विशेष प्रसिद्धि। मुंबई विश्वविद्यालय के तुलनात्मक साहित्य विभाग के प्रोफेसर रहे।

हर संस्कृति का अपना देशीपन होता है

भारतीय भाषा परिषद से आज यह उच्च सम्मान प्राप्त करते हुए मैं अत्यंत  कृतज्ञ महसूस कर रहा हूँ। भारतीय भाषा परिषद देश की कुछ गिनी-चुनी उन संस्थाओं में से एक है जो हर तरफ उभरती भाषाई उग्र-राष्ट्रीयता के बीच हमारी भारतीयता की सुप्त मूल भावना को जगाए रखने का काम करती है। हम जानते हैं, देश में मराठी, तमिल और दूसरी तमाम क्षेत्रीय भाषाओं के साहित्य के सांस्कृतिक द्वीपसमूह बने हैं। मैं अपनी बात मुख्य रूप से इस उभार पर ही केंद्रित करूंगा।

इससे पहले मैं कोलकाता की यादों को साझा करूंगा।

मुंबई विश्वविद्यालय में तुलनात्मक साहित्य की गुरुदेव टैगोर पीठ से सेवानिवृत्ति के समय तक यह शहर मेरे साहित्यिक और शैक्षणिक जीवन का हिस्सा रहा है।

1960 में हमने मराठी में लघु पत्रिकाएं निकालनी शुरू कीं। मकसद था यूरोपकेंद्रिक वैश्विकता और विदेशी सौंदर्य मानदंड का तीव्र विरोध करना। यह विचार कई पीढ़ियों से मराठी साहित्यिक संवेदनशीलता पर हावी था। हमें यह जानकर आश्चर्य हुआ कि ऐसे ही आंदोलन बांग्ला सहित कई दूसरी भाषाओं में भी चलाए जा रहे थे। मेरे क्रांतिकारी कवि-मित्र शक्ति चट्टोपाध्याय, मलय रायचौधुरी, सुनील गंगोपाध्याय और भूखी पीढ़ी के अन्य लेखकों तथा कोलकाता में ‘कृत्तिवास’ के लेखकों ने हमारी सोच और आस्था को दृढ़ता दी। ऐसा साहित्य अनेक भाषाओं में लिखा जा रहा था। उनमें भिन्नताएं हैं, पर समानताएं भी बहुतायत में हैं। आंतरिकता भी है उनमें। 

नौवें दशक में जब मुंबई विश्वविद्यालय में तुलनात्मक साहित्य की गुरुदेव टैगोर पीठ की स्थापना की गई, शैक्षणिक कारणों से मुझे जादवपुर विश्वविद्यालय में अक्सर आमंत्रित किया जाता था। नवनीता देवसेन और दूसरे तमाम लेखकों से बहुभाषी भारतीय साहित्य पर हुई बातों-बहसों की मीठी यादें आज भी ताजा हैं। इस तरह की बिना किसी रूपरेखा वाली शैक्षणिक अध्ययन की बहसें घंटों जारी रहतीं।

इनके साथ ने मुझे यह समझ दी कि हमारे जातिगत अंतर्मिश्रण और विजातीय घटकों के लगातार आदान-प्रदान से भारत की हर भाषिक परंपरा अनिवार्य रूप से दूसरी भाषिक परंपराओं से जुड़ी हुई है। अगर हम भारतीय भाषाओं के एक बहुरंगे इंद्रधनुष की कल्पना करें तो पाते हैं कि तमिलनाडु से लेकर उत्तर-पश्चिम और उत्तर-पूर्व तक यह ऐसे फैला हुआ है जिसमें एक रंग अपने दूसरे पड़ोसी रंग के साथ घुल-मिल रहा है।

कई शब्द ऐसे हैं जिनकी विशिष्ट ध्वनि को तब तक नहीं समझा जा सकता जब तक कि उनके मोटे वर्गीकरण या शब्दों की मूल व्युत्पत्ति को नहीं समझ लिया जाए, जैसे धमाल, आई (माँ) या बूवा (ही मैन) आदि शब्दों के अर्थ।

मेरा मानना है कि इस उपमहाद्वीप की संरचनागत विविधता में साझी विरासत मौजूद है। योरोपीय, द्रविड़, ऑस्ट्रेलियाई, तिबेटो-बर्मन, आदिवासी भाषाएं हमारी विस्तृत मातृभूमि में चारों तरफ बिखरी हुई हैं।

यहां एक अनोखी सुसंगत विविधता है। इस देश में 1652 मातृभाषाएं हैं, जिनमें मान्यताप्राप्त, गैर-मान्यताप्राप्त, प्रमुख, छोटी-छोटी, कबीलाई बोलियां शामिल हैं।

दुर्भाग्यवश औपनिवेशिक प्रभाव के कारण हम भारतीय साहित्यिक संस्कृति की विशाल परंपरा को लगभग भुला चुके हैं। हमारी चार प्रमुख साहित्यिक परंपराएं हैं : पाश्चात्य, मध्य पूर्व या भूमध्य, पूर्व एशियाई और दक्षिण एशियाई।

आप मुझसे सहमत होंगे कि हमारी साहित्यिक संस्कृति विश्व में सबसे पुरानी और समृद्ध है। पाश्चात्य प्रभाव से हमारी बहुलतावादी राजनीतिक, आर्थिक, शैक्षिक और सामाजिक भाषाई संरचना पर अवांछित प्रभाव दिखाई देता है। इसने एक विदेशी भाषा अंग्रेजी को हमारे बीच राष्ट्रभाषा बनाकर स्थापित कर दिया है। अब वैश्वीकरण अपनी तीव्र गति से हमारी भारतीयता के परखच्चे उड़ा रहा है।

‘एक भाषा-एक राष्ट्र – एक साहित्य’ जैसी यूरोपीय-पाश्चात्य संकल्पना को हमने भारतीय परंपरा पर लाद दिया है। यह भयंकर भूल साबित हुई है। ब्रिटिश शासकों ने जब विकेंद्रीकरण पर आधारित हमारी पुरानी ग्रामीण स्वायत्तशासी व्यवस्था को नष्ट करके केंद्रीकृत राजनीतिक संरचना शुरू की, तब हमें देशी साहित्यिक आदान-प्रदान के नेटवर्क से वंचित होना पड़ा। हमारे विभिन्न साहित्यों में बहुभाषी अंतरपाठ्य की जो परंपरा विकसित हुई, वह गायब हो गई।

हाल के दिनों तक हमारी सृजनात्मक प्रतिभाओं ने अपनी साहित्यिक परंपरा से अपने को सींचा है, मगर वह प्रवृत्ति अब समाप्तप्राय है। अपनी जानकारी से मैं कुछ उदाहरण दे रहा हूँ। एक हैं संत नामदेव। इस मराठी संत कवि ने 13वीं शताब्दी में अनेक भाषाओं में लिखा है। पूर्व-उपनिवेश युग में कबीर, संत तुकाराम, मीरा, चैतन्य महाप्रभु, श्रीमंत शंकरदेव, जयदेव, विद्यापति ऐसी ही प्रतिभाएं हैं। बाद में मिर्जा गालिब, प्रेमचंद तथा ऐसे दूसरे बहुत से लोग थे। जिन कुछ मराठीभाषियों ने हाल के समय में दूसरी भाषाओं में महत्वपूर्ण योगदान दिया है, वे हैं- गजानन माधव मुक्तिबोध (हिंदी कविता), डी आर बेंद्रे (कन्नड़ कविता, गद्य, नाटक), मधुसूदन साठे (डोगरी भाषा के संस्थापक लेखक), कविवर राधाकृष्ण राव (ओड़िया)।

इसी प्रकार के चित्ताकर्षक योगदान बहुत से मराठीभाषियों ने गुजराती, तमिल, तेलुगु, कन्नड़ और कोंकणी साहित्य में भी किया है। उदाहरण के लिए कुछ नाम हैं: विनोबा भावे, काका कालेलकर, तंजोर के भोंसले राजा, वडोदरा के सायाजीराव गायकवाड़। यह भी ध्यान देने की बात है कि आधुनिक मराठी साहित्य की शुरुआत हुई गुजरात में ‘अभिरुचि’ पत्रिका से और 19वीं शताब्दी के अंत में कोचीन से प्रकाशित एक लोकप्रिय साहित्यिक पत्रिका ‘केरल कोकिल’ से। सभी भारतीय भाषाओं का यही मॉडल रहा है।

यहां यह देखा जा सकता है कि भारतीय साहित्य की एक भाषिक परंपरा दूसरी भाषिक परंपरा से अनिवार्य रूप से जुड़ी हुई है। यह अंतर्संबंध अब नष्ट हो रहा है। अंग्रेजी जैसी विदेशी भाषा को और पराई राजनीतिक व्यवस्था को स्वीकार करके हमने अपने विलक्षण साहित्य के देसीपन को क्षतिग्रस्त किया है, जो मानव सभ्यता के इतिहास में कहीं नहीं मिलता।

मेरा विश्वास है कि यह देसीपन ही है, जिससे नष्ट हो रही भारतीयता की अपनी विरासत को बचाया जा सकता है।

जरूरत है उत्तरऔपनिवेशिक सोच के बरक्स सुप्तप्राय भारतीय परंपराओं को तत्परता के साथ पुनर्प्रतिष्ठित करने की। हमारी अत्यंत विविधतावाली साहित्यिक संस्कृति, जैसे जातीय, धार्मिक, भाषिक, देसीपन में देशी बहुलतावाद के साथ अंतरराष्ट्रीयतावाद की ओर बढ़ते कदमों में देसीपन की गुंजाइश बनाए रखना हमारे समय की मांग है। यह हमारा युगधर्म है।

हमारा देसीपन अनगिनत कबीलों, जातियों, उनके अंदर के और भी समूहों और उनकी आस्थाओं के अस्तित्व को मान्यता देता है। दूसरी ओर हमारा देसीपन एकरूपता, केंद्रीकरण तथा वैश्वीकरण के कारण थोपे गए वैश्विक मानदंडों का मुकाबला करता है। ऐसे वैश्विक मानदंड विचारधारात्मक प्रहार करते हैं हमारे देसीपन पर और हमारे समाजों को खोखला बनाते हैं।

देशीवाद उन मानदंडों को निरस्त कर देता है जो किसी संस्कृतिविशेष की पहचान का मूल्यांकन दूसरी संस्कृति के मानदंडों के आधार पर करते हैं। हमारा देसीपन देशी साहित्य को किसी अमूर्त राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय प्रणाली की उपश्रेणी मानने से भी इनकार करता है। क्योंकि दूसरी संस्कृति के दबाव हमारी जैविक विविधता, सांस्कृतिक विविधता और भाषिक विविधता के बीच के अंतर्संबंधों के अंत का कारण बनते हैं। विविधताओं में अंतर्संबंध भारतीयता की आधारभूत जरूरत है।

भिन्न-भिन्न लोकसमूह अपनी भौगोलिक सीमाओं के समनुरूप विशिष्टताएं ग्रहण करते हैं। हजारों साल की यात्रा में उनकी जेनेटिक विशेषताएं बनती हैं। मनोवैज्ञानिक रूप से वे उसका हिस्सा बन जाते हैं। नतीजतन लोकसमूहों के बीच सांस्कृतिक भेद उत्पन्न होते हैं। इसकी वजहें भौगोलिक, परिवेशगत तथा प्रजनन सीमाओं से संबंधित होती हैं। इस तरह से हर मानव समूह अपनी अपनी संस्कृति का विकास करता है।

हम विश्वासपूर्वक कह सकते हैं कि वैश्विक मानव संस्कृति जैसी कोई चीज नहीं है। समानताएं हैं, किंतु भिन्नताएं अधिक हैं। विशेषकर मनुष्य की सृजनात्मकता में। विरासत में मिली परंपरा के साथ मूल परिवेश और पसंद एक को दूसरे से विशिष्ट बनाते हैं। इस तरह विश्व के हर मानव समूह में विरासत के अनोखे मूल्य और जीवन शैली हैं। ये विश्व को बहुलतावादी बनाते हैं।

भौगोलिक-आग्रह इसकी एक विशेषता है। यह आंतरिक-प्रजनन और संकीर्णता की ओर ले जाता है। बावजूद इसके इसमें देसीपन मिलता है। यह एक ऐसी प्रवृत्ति है जो सभी संस्कृतियों में पाई जाती है।

देशीकरण आवश्यक है। यह सांस्कृतिक संबंधों की तमाम ऐतिहासिक प्रक्रियाओं को शामिल करते हुए संस्कृतियों के बीच पारस्परिक निर्भरता बढ़ाता है। इसका परिणाम यह होता है कि कई बार शिल्प और कथ्य दोनों ही एक गैर संस्कृति से यानी देशी और विदेशी संस्कृतियों से आयत होते हैं। अगर आज यहां पर्याप्त समय होता तो मैं फ्रैंज काफ्का, कथा सरित सागर, चीनी कहानी के डेनियल डिफो से उदाहरण देकर बताता और यह भी बताता कि यूरोपीय साहित्य में भारतीय लोककथाओं का देसीपन कैसे पहुंचा है।

निष्कर्ष के तौर पर मैं इस तथ्य पर बल देना चाहूंगा कि हर महान लेखक चाहे शेक्सपियर हो या गेटे सबने अपने देश और काल में लिखा, अपनी भाषा और समुदाय के लिए लिखा। इसी प्रकार हर कलाकृति अपने साथ अपनी मिट्टी की अमिट छाप लिए होती है। देशी नजरिए से अंतरराष्ट्रीय पहचान चाहे जितनी राहत देने वाली हो, होती संयोगवश है और परिस्थितियों द्वारा निर्धारित भी। यह विचारधारा से पुष्ट होकर स्वीकृति के समाजशास्त्र पर निर्भर करती है।

अंग्रेजी से अनुवाद : मंजु श्रीवास्तव

 भालचंद्र नेमाडे– 202, विजया श्री दुर्गा सीएचएस, वी एन देसाई हॉस्पिलटल के पास, रोड 6, शांताक्रुज ईस्ट, मुंबई-400055 मो.9323909826

मंजु श्रीवास्तव सी-11.3, एनबीसीसी विबज्योर टावर्स, न्यू टाउन, कोलकाता-700156 मो.9674986495

प्रतिभा राय
जन्म : 21 जनवरी 1943। ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित ओड़िया की प्रतिष्ठित कथाकार। नेहरू सेंटर, लंदन द्वारा विशेष सम्मान के अलावा कई पुरस्कार प्राप्त। इनके 23 उपन्यास, 26 कहानी-संग्रह, 12 यात्रा-वृत्तांत तथा एक कविता-संग्रह प्रकाशित हैं। इन्होंने जाति और धर्म के आधार पर भेद-भाव के विरुद्ध आवाज उठाई और कई सामाजिक कार्य किए। अपने उपन्यास ‘याज्ञसेनी’ के लिए विशेष रूप से चर्चित। इसके हिंदी अनुवाद ‘द्रौपदी’ को पाठकों की काफी सराहना मिली। देश-विदेश के भ्रमण के साथ इनके यात्रा-वृत्तांत भी लोकप्रिय हुए।

मैं एक मानवीय दुनिया की तलाश में हूँ

अपने कथा-संसार के संदर्भ में अपनी दुनिया तथा अपने लेखन के प्रति वस्तुनिष्ठ होना बहुत कठिन है। निश्चित रूप से मेरी दुनिया पूरी तरह से मेरी दुनिया नहीं है और न ही मेरा लेखन पूरी तरह से मेरा है। मेरी दुनिया हमारी दुनिया है, हमारी नियति है और हमारा सामूहिक भवितव्य है। मैं हर किसी के साथ इसकी हताशा, आकांक्षा, विजय और त्रासदी, इसके इतिहास, विरासत, संस्कृति और परंपरा – अतीत, वर्तमान और भविष्य को साझा करती हूँ। मेरा लेखन इस जटिल दुनिया में एक साझे समय-बोध के साथ जीवनानुभवों तथा संतप्त भावनाओं की अभिव्यक्ति है।

मैं जब कभी अपनी दुनिया को देखने की कोशिश करती हूँ, मैं विश्वरूप का दर्शन करती हूँ, जिसमें अज्ञात समय और अनंत काल से निर्मित सामाजिक-सांस्कृतिक छवियों का विशाल भंडार दिखाई देता है। मेरे सृजनात्मक अवचेतन में शताब्दियों से चले आ रहे वसुधैव कुटुंबकम का मंत्र गुंजरित होता रहता है।

यह संयोग नहीं है कि मैं अपनी संस्कृति में उसी रूप में पहचानी जाती हूं, जैसी मैं हूँ। एक रचनाकार के रूप में मैं विभिन्न संबंधों के माध्यम से जिस दुनिया में रहती हूँ, उससे मजबूती से जुड़ी हुई हूँ। मैं अपनी संस्कृति से अपनी रचनात्मक ऊर्जा प्राप्त करती हूँ, जहां मेरी जड़ें बहुत गहरी हैं। मैं अपनी रचनात्मक दृष्टि को अभिव्यक्त करने के लिए अपनी मिट्टी से आवश्यक पोषण ग्रहण करती हूँ। मेरी बाहरी दुनिया, मेरा अंतर्मन तथा सृजनात्मक चेतना के बीच का संबंध सकारात्मक है। अपनी संस्कृति के खोसे में बने रहकर भी रचनाकार वैश्विक स्तर पर चल रहे घटनाक्रमों से अवगत रहता है और इस प्रकार सार्वभौमिक रूप से सामाजिक जीव होता है।

लेखक के रूप में मेरे अंदर दो दुनियाएं हैं – एक भीतरी एक बाहरी। मेरी बाहरी दुनिया मेरे गांव, शहर, प्रांत या मेरे देश तक सीमित नहीं है, बल्कि वह पूरे ब्रह्मांड तक विस्तारित है, जो मनुष्य द्वारा निर्मित सीमाओं के परे फैली है। मेरी भीतरी दुनिया अनेक प्रकार की है, जो विभिन्न भूमियों में विस्तारित है। मेरा रचनात्मक अवचेतन भीतरी दुनिया तथा बाहरी दुनिया के बीच निरंतर चल रहे संघर्षों की उपज है। यह रहस्यमयी और जटिल दुनिया में मानवीय नियति को परिभाषित करता है। मैं एक मानवीय दुनिया की तलाश में हूँ जो आकाश के परे, ईश्वरीय राज्य के ऊपर हो।

वर्तमान शताब्दी ने हर चीज का राजनीतिकरण कर दिया है – साहित्य, भाषा, धर्म, जमीन, नदी, समुद्र, आकाश सभी का। किसे पता, आज हम जिस हवा को सांस के रूप में ग्रहण कर रहे हैं, वह भी कभी राजनीति के हत्थे चढ़ जाएगी और बांट दी जाएगी। वर्तमान सदी के पाठक उत्तर-आधुनिक संसार में जी रहे हैं। वे केवल रहस्योद्घाटन और विकेंद्रीकरण का सामना कर रहे हैं और जीवन के प्रति आशाओं को खो रहे हैं।

ऐसे पाठकों के लिए रवींद्रनाथ टैगोर, इलियट, रूमी आदि ने जीवन के प्रति आशाएँ जगाने और जीने का उत्साह पैदा किया था। कवि की आंखें बहुत दूरदर्शी होती हैं। वह आधुनिक समय में मानव जीवन की त्रासदी और मनुष्य के मन पर पड़े बोझ को अभिव्यक्त करने का प्रयास करता है, क्योंकि आज का मनुष्य विज्ञान और प्रौद्यौगिकी द्वारा पैदा की गई तमाम विलासिताओं का उपभोग करते हुए भी नितांत अकेला और असुरक्षित है। मनुष्य अकेला है, क्योंकि उसने पुल बनाने की जगह दीवारें बनाई हैं।

यूनानियों द्वारा अक्षरों का प्रयोग करते हुए लेखन की शुरुआत करने के ढाई सहस्राब्दी से भी अधिक समय से विभिन्न देशों एवं संस्कृतियों के सृजनात्मक लेखक ऐसे शब्दों की निरंतर खोज करते रहे हैं जो मन में पवित्रता पैदा कर सकें, उनमें मंत्रों के त्रिक उच्चारण की रहस्यमयी शक्ति निहित हो। शब्दों की पवित्रता मानव जाति के बीच निकट-संबंध तथा वैश्विक भ्रातृत्व भावना पैदा करती है।

यद्यपि रचनात्मक प्रतिभा और शक्ति निजी होती है, भाषा निजी नहीं होती। भाषा सांस्कृतिक, सामाजिक तथा वैश्विक निर्मिति है, जो असंख्य अस्रष्टाओं द्वारा निर्मित की जाती है।

लेखक अपनी संस्कृति के सांचे में रहते हुए, सदैव एक सार्वभौमिक प्राणी है। अतः भाषा सार्वभौमिकता के लिए बाधक नहीं है। सांस्कृतिक विशिष्टता और सीमाएँ उसे मुक्त करने में बाधक नहीं बनतीं, बल्कि ये जीवन प्रवाह बढ़ाती हैं, रंग भरती हैं और श्रेष्ठता पैदा करती हैं।

मेरा कथा-संसार काल्पनिक परिदृश्य नहीं है। इसकी जड़ें सुदृढ़ सामाजिक-ऐतिहासिक वास्तविकताओं और ओडिशा की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के साथ गहरे जुड़ी हैं। अन्य किसी लेखक की तरह मेरे पास विचारों का कोई जादुई भंडार नहीं है जिससे मैं कथा-संसार रच सकूँ। मैं अपने आसपास फैले उस संसार से विचारों को ग्रहण करती हूँ, जिस संसार से मैं रोज ही टकराती हूँ। मैं कुलीन नायक-नायिकाओं के बजाय असंतुष्टों, पिछड़े, दलित और गलत समझे गए लोगों को अधिक वरीयता देती हूँ। लेकिन अपनी संस्कृति के खोसे में रहते हुए, अन्य किसी भी लेखक की तरह मैं खुद को वैश्विक प्राणी होने का दावा करती हूँ। एक लेखक की तरह मैंने अपनी रचना-धर्मिता के प्रति ईमानदार बने रहने की कोशिश की है और एक शब्द-संसार संजोने की चेष्टा की है। लेकिन लेखन बुद्धिजीवियों के शब्द भंडार की विलासिता नहीं है और विलासित रह कहां जाती है, जब विचारों को शब्दों में बांधना आसान नहीं होता?

हमारे बीच संकीर्ण मानवकृत विभेदों के बावजूद क्या हम एक ईश्वर में विश्वास करते हैं? क्या हम हठधर्मिता और कलंक से मुक्त हैं? क्या हम मानवता में विश्वास करते हैं? क्या हम कभी सोचते हैं कि सभी मनुष्यों की समान मूल जरूरतें हैं? क्या हम ईश्वर पर भरोसा रखते हैं? क्या हम एक-दूसरे पर विश्वास करते हैं? क्या हम अपने आप पर विश्वास करते हैं? शायद हमने प्रत्येक व्यक्ति से अपना भरोसा खो दिया है और हम रोबोट पर अधिक भरोसा करने लगे हैं। हमारे वैज्ञानिकों ने जादू किया है। साइबरनेटिक, चलते-फिरते बात करते, हँसते तथा प्यार करते रोबोट हमारी आज की उपलब्धियां हैं। जीन उद्योग, भ्रूण एंपोरियम, टेस्ट ट्यूब बेबी, कृत्रिम वीर्यारोपण अब पुरानी चीजें हो चुकी हैं। मनुष्य अब ह्यूमन क्लोनिंग की दिशा में बढ़ रहा है। मनुष्य अब मशीन-मनुष्य में संवेदना भरने के लिए तरह तरह के प्रयोग कर रहा है और खुद संवेदनहीन बनता जा रहा है। ऐसा लगता है, मानो पूरी दुनिया एकत्र और छोटी हो गई है। लेकिन एक ग्रह पर पैदा होने के बावजूद वस्तुतः हम अपनी ही अनेक छोटी-छोटी दुनियाओं में रहते हैं। हमने अपने को जातियों, वर्णों, धर्मों, लिंगों, भूगोल, भाषा और कई रूपों में बांट रखा है। मनुष्य इडिएट बॉक्स में बदल चुका है और मशीनें अधिकाधिक बुद्धिमान होती जा रही हैं। मनुष्य अपनी ही निर्मितियों के हाथों का खिलौना बन चुका है। आधुनिक आदमी अकेला है, क्योंकि पुल बनाने की जगह हम अपने चारों ओर दीवारें बना रहे हैं।

इलियट ने कलाकार की प्रगति को निरंतर आत्म-विसर्जन कहा था, व्यक्तित्व का अनवरत विस्तार। सेंट जॉन पर्स ने कहा है, ‘हमारे कार्यों ने, जुनून ने, शक्ति ने तथा हमेशा आविष्कार करने की लालसा ने चौहद्दियाँ निर्मित कर दी हैं। प्यार हृदय की आग है। एक लेखक के रूप में मेरा हमेशा लक्ष्य रहा है, ‘प्यार करो, जियो और दूसरों को जीने दो।’

नई सहस्राब्दी में भारतीय साहित्य, जहां तक नारीवादी विचारों की दुर्बलता का संबंध है, परिवार, इतिहास और सामाजिक आधुनिकता से मुक्त नहीं है। भारतीय साहित्य में हम नारियां अधिक शिक्षित, परिष्कृत, यहां तक कि अधिक विद्रोही हैं, लेकिन नारियां उन पारंपरिक मूल्यों को त्यागने के प्रति सावधान हैं, जो हमारी विरासत से प्राप्त चेतना का एक अंग हैं। दूसरी ओर पश्चिमी संस्कृति, जिसका स्वतंत्रतापूर्व और स्वातंत्र्योत्तर भारतीय साहित्य पर गहरा प्रभाव है, भारत की नई पीढ़ी के लिए आवश्यक रूप से वैकल्पिक ‘स्वर्ग’ नहीं है।

परंपरा, खासकर साहित्यिक रूप में सामान्यतः किसी समाज में विद्यमान साहित्यिक (रचनात्मक) विशिष्टताओं का पुंज होती है, यह अतीत से ग्रहण की जाती है। सचाई यह है कि साहित्यिक- सांस्कृतिक क्षेत्र में परंपरा वर्तमान तथा भविष्य में रचनात्मक कार्य की एक अनिवार्य पूर्वशर्त बनी रहती है। अतः परंपरा नहीं है तो रचनात्मकता नहीं है। सृजनात्मक लेखक अपनी विरासत से मिले साहित्यिक अतीत को अपनी रचना में मिश्रित तथा विलय कर देता है।

जब शब्द-शक्तियों का दुरुपयोग किया जाता है, गलतफहमी पैदा होती है। इससे मानवजाति में वैमन्यस्यता, हिंसा, युद्ध और दुर्भाग्य जन्म लेता है। शब्दों की मदद से शब्द सार्थक बनता है और इस प्रकार शब्द ‘शब्द’ से ऊपर उठ जाता है। मनुष्य ‘पुस्तक संस्कृति’ के पहले ‘शब्द-संस्कृति’ के बीच रहता है और शब्द शक्ति सबसे बड़ी शक्ति होती है, न केवल लेखकों के लिए, बल्कि उन मनुष्यों के लिए भी जो मौखिक रूप से उसका व्यवहार करते हैं। वह ग्रामीण परंपरा में हो या सभ्य संसार में। शब्दकार के रूप में मैं शब्दों का प्रयोग करते हुए खूब सावधान रहती हूँ, वे मुझे मेरे पूर्वजों से दाय में प्राप्त हैं।

हमारी पीढ़ी के लेखकों ने किसी खास धार्मिक संघर्ष के दौर में कोई उल्लेखनीय सामाजिक क्रांति नहीं देखी है। लेकिन हमने समाजवादी संसार के ध्वंस, धार्मिक मौलवाद के आक्रामक उभार, हिंसा को राजनीतिक रूप से वैध करार किए जाने की प्रवृत्ति और हर प्रकार की नैतिकता के नाश को अपनी आंखों से देखा है, इसके फलस्वरूप मानव की शाश्वत पीड़ादायक जीवन को अनुभूत किया है। आर्थिक विषमता, जातिगत पूर्वग्रह आदि अभी भी विद्यमान हैं। लेखक इन सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध अपना संघर्ष जारी रखे हुए हैं। उत्तर-आधुनिकतावाद की प्रवृत्ति और महाद्वीपीय साहित्य बड़े पैमाने पर हमारे क्षेत्रीय साहित्य संसार में नहीं आया है। तथापि वर्तमान समय की एक उल्लेखनीय प्रवृत्ति समकालीन कथा साहित्य में देखी जा रही है।

अग्रणी कथाकार राष्ट्रीय सीमाओं में रहते हुए भी विश्व नागरिकता का प्रतिनिधित्व करते हैं। हमारे साहित्य में कला की सौंदर्यशास्त्रीय खूबसूरती और श्रेष्ठता के धागे को तोड़े बिना रंगभेद, पूर्वग्रह, जातिभेद, वैचारिक तथा धार्मिक भिन्नता को समाप्त करने के प्रति सच्ची जागरूकता दिखाई पड़ती है। अतः हमारे साहित्य में मानवता के लिए संघर्ष रक्ताक्त युद्ध में नहीं बदला है। लेखक के लिए मानवता में मनुष्य के साथ-साथ प्रकृति (पशु, पक्षी, जंगल, नदियाँ, पहाड़, हवा आदि) भी शामिल है। यह लेखकों के लिए एक चुनौती है।

समकालीन कथाकार, जिनमें मैं भी शामिल हूँ, मानते हैं कि प्रत्येक साहित्यक कार्य एक कला हो, वह निर्दय समाज में चेतना जागृत करे, वह उनके लिए आवाज बने, जिनके पास आवाज नहीं है। सौभाग्य से भारत में होने वाले प्रकाशनों में कथा साहित्य अग्रणी स्थान पर है, जो दर्शाता है कि ‘पढ़ने का समय नहीं है’ जैसी विचारधारा के उत्थान के बावजूद पाठकों की बौद्धिक रुचि विकसित हो रही है।

प्रकृति और कृति का संबंध धरती और पेड़ की तरह है। पहले प्रकृति अर्थात अपना समाज और परिवेश, उसके बाद कृति। कृति की अनुकृति ही अंत में संस्कृति बनती है। संस्कृति की विस्मृति से सृष्टि होती है विकृति। संस्कृति केवल वर्तमान या केवल अतीत नहीं है। संस्कृति वर्तमान पर खड़ी होकर अतीत की परंपरा और मूल्यबोध की ओर हाथ पसारकर भविष्य की ओर अग्रसर होती है। इसलिए संस्कृति में समय स्थिर नहीं रहता है। समय अतीत, वर्तमान और भविष्य की प्रवहमान धारा बन जाता है।

समाज से प्रेरणा पाकर लेखक सृजनशील होता है। फिर कृति को समाज से मिलती है स्वीकृति। लेखक को सामाजिक स्वीकृति मिलती आई है। स्वीकृति मिलने से पहले अथवा स्वीकृति न मिलने पर क्या लेखक सामाजिक अंगीकार के बिना रचना करता है? यहां साहित्य के लक्ष्य, स्वरूप और उपादान इत्यादि की बात उठती है। मेरे हिसाब से साहित्य का उपादान महज तीन पांव की जमीन है- स्वर्ग, मर्त्य, पाताल।

प्रथम पांव है- मर्त्यभूमि अर्थात अपने समाज, संस्कृति और ऐतिह्य के साथ अतंरग और वास्तविक अनुभूति। यह है लेखक की दूरदृष्टि। प्रथम पांव जितनी गहराइ में जाएगा, अनुभव उतना ही तीव्र होगा। तब जा कर अनुभूति आतंरिक और वास्तविक होगी। यहां प्रश्न उठता है वास्तविक अनुभूति का। क्या लेखक सब कुछ स्वयं अनुभव करता है? विश्व के प्रथम महाकाव्य ‘रामायण’ की सृष्टि करुणा से होती है। ऋषि को क्यों इतना तीव्र शोक हुआ, जिससे कि उनके शोक का स्वर श्लोक में परिणत हो गया? क्या तीर वाल्मीकि को लगा था? क्या क्रौंच की जोड़ी से उनकी मित्रता या रिश्तेदारी थी? क्या शिकारी ऋषि का शत्रु था? तो फिर ऋषि ने कैसे वास्तविक अनुभूति पाकर कालजयी महाकाव्य की रचना कर दी थी?

यहां लेखक का द्वितीय पांव स्पर्श करता है विश्व-प्रेम, प्रगतिशीलता और मानवीयता के अनंत आकाश को। यह व्यक्ति-केंद्रिकता नगण्य हो जाती है, लुप्त हो जाती है। तब जाकर सार्वजनीन संवेदनशीलता बन जाती है एक बोधिवृक्ष, जिसके पांव तले कालजयी साहित्य का उन्मेष होता है। यह लेखक की समदृष्टि है।

तृतीय पांव अहं की जड़ता को दूर करके अपनी अंतःसता के पाताल और दूसरों की अंतःसत्ता के पाताल, फिर वह युग की सत्ता में परिणत करने के लिए बढ़ता है। वह रुग्ण समाज को यथास्थिति से ऊपर उठाने में सार्थक भूमिका निभाता है। यह है प्रत्येक लेखक का चेतन, अवचेतन का लक्ष्य। परंतु लेखकीय ऊंचाई को स्पर्श करने के लिए अहं को वामन रूप धारण करके सार्वजनीनता की धरातल पर उतरना पड़ेगा। हर तरह के भेदभाव और संकीर्णता को विसर्जित करना पड़ेगा। केवल जीवनानुभूति के प्रांजल वर्णन से श्रेष्ठ साहित्य का सृजन संभव नहीं है। समाज के प्रति निर्दिष्ट संदेश न होने से साहित्य का मूल्य क्या है?

यह सच है कि साहित्य नीतिशास्त्र या दर्शनशास्त्र नहीं है। किंतु भाव में दर्शन नहीं होने से, सृष्टि के पीछे दृष्टि नहीं होने से सृष्टि का मूल्य क्या है? साहित्य है संस्कृति का नाभिपद्म। कोई न कोई समस्या ही साहित्य सृजन का उत्स है। आज जीवित रहना मनुष्य की सर्वश्रेष्ठ और सबसे बड़ी समस्या है। मनुष्य जीवित रहने के लिए पाप करता है, अन्याय भी करता है, मरने के लिए नहीं। लेकिन पाप करके मनुष्य जीवित नहीं रहता, मरता है। जीवित रहकर भी मरने-सा हो जाता है। यह है समाज की, साहित्य की और लेखक की समस्या।

कहा जा सकता है कि संतान पैदा करना अर्थात बीज से अंकुरोद्गम और साहित्य-सृजन एक जैसी बात है। हर रचना समाज की नारकीय स्थिति के विरुद्ध एक मधुर क्रांति है- रिवोल्ट है। इस मधुर-क्रांति के बीज को लेखक किसी भी समय धारण कर सकता है। जिस तरह बीज जमीन के नीचे रहता है, उसी तरह लेखक को भी एकाग्र और मग्न रहकर बीज के विकास के लिए, अर्थात अनुभूति की व्याप्ति तथा अनुभव की तीव्रता को उपलब्ध करने तक इंतजार करना पड़ता है। इस चुप्पी का अर्थ जड़ता नहीं है। यह मनन की स्थिति होती है, जिस तरह बीज मिट्टी को तोड़ने से पहले खुद को तोड़ता है, उसी तरह लेखक को भी अपनी भाव-सत्ता प्रकट करने के लिए लेखकीय जड़ता को तोड़कर सार्वजनीनता के धरातल पर उतरना पड़ता है, अर्थात लेखक और पात्र एक हो जाते हैं। यह होती है रचना प्रक्रिया की चरम स्थिति। इस समय लेखक नहीं लिख रहा होता है- पात्र उससे लिखवा रहे होते हैं।

किसी भी लेखक की सृजनशीलता दो तरह की प्रेरणाओं से पूरी तरह विकसित होती है। एक है अंत:प्रेरणा, जिसका मूल स्रोत है प्रेम। यह प्रेम असीम है। इसमें एक नहीं, अनेक ब्रह्मांड समाहित हैं। यह प्रेम न केवल धर्मात्मा पर, बल्कि पापी पर भी बरसता है। इसी प्रेम से उत्पन्न होती है करुणा। ये प्रेम और करुणा ही लेखक को निडर बनाते हैं। ये सामने आनेवाले अमानवीय प्रतिबंधों को तोड़ने की शक्ति प्रदान करते हैं। दरअसल लेखक एक प्रेमी ही नहीं, एक क्रांतिकारी भी है। मैंने बचपन से प्रेम और शांति की अंत:प्रेरणा महसूस की है, जो मुझसे लिखवाती है। दूसरी बात है, बाह्य प्रेरणा, जो मुझे मेरे माता-पिता, गुरु, पति, बच्चों और मित्रों तथा सबसे ऊपर पाठकों से मिली है। कुल मिलाकर मेरी संस्कृति और मेरा देश ही मेरी मूल प्रेरणा हैं।

एक-एक कहानी लिखने में लेखक को नया जन्म लेना पड़ता है। लेखक अपने पूरे जीवन में कितनी बार जन्म लेता है और कितनी बार मरता है, उसका कोई हिसाब नहीं है। जब लेखक की आत्मसत्ता देश, काल और पात्र की आत्मसत्ता में तब्दील हो जाती है तभी जन्म लेता है सार्वजनिक और कालजयी साहित्य। लेखक उन्हीं की बातें कहता है जो अपनी बात कहना चाहते हुए भी नहीं कह पाते। इसलिए लेखक की प्रत्येक रचना एक युद्ध घोषणा है और उसका एक-एक पात्र अपनी-अपनी जगह अपनी ही शैली में एक-एक क्रांतिकारी। यही है मेरा अनुभव!

आख्यायिका’, 27, गजपति नगर, भुवनेश्वर-751005 मो. 9937052251

एन गोपी
जन्म: 25 जून, 1948। तेलुगु के मूर्धन्य कवि और गद्यकार। 21 कविता-संग्रहों के साथ 50 पुस्तकें प्रकाशित। तेलुगु कविता में नए सौंदर्यबोध और चेतना के प्रमुख प्रवर्तक। ‘कालान्नि निद्रा पो निव्वानु’ और ‘ननीलु’ काव्य कृतियों के लिए विशेष रूप से चर्चित। साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित। पोट्टि श्रीरामुलु तेलुगु विश्वविद्यालय के कुलपति भी रहे।

रूपक कविता को मर्मस्पर्शी बनाते हैं

रचनात्मक प्रतिभा से संपन्न कवि अपने पूर्ववर्ती कवियों के पदचिह्नों का अनुगमन नहीं करता और न किसी निर्धारित पैटर्न का अनुसरण करके संतुष्ट होता है, बल्कि वह एक निजी शैली, मुहावरा, रूप, नैरेटिव और तकनीक का आविष्कार करता है। उदाहरण के लिए, किसी भी कवि की तकनीक में विषयवस्तु को प्रस्तुत करने की एक पद्धति, छंद, अलंकार और लाक्षणिक प्रयोग सभी शामिल होते हैं।

कवि निरंतर अपनी भावाभिव्यक्ति में उत्कृष्टता की तलाश करता रहता है, एक ऐसी अभिव्यक्ति जो मौलिक हो और उसकी अपनी हो। ओज और आवेग से भरी हुई। वस्तुतः कवि एक ओर जहां शिक्षण के स्तर पर प्रकृति, पुरुष और सृष्टि के चमत्कारिक स्वरूप से व्यापक रूप से अवगत होता है, वहीं दूसरी ओर सूक्ष्म स्तर पर परिवार, प्रियजनों, समकक्षों और कई तरह के रिश्तों को समझने की कोशिश में लगा रहता है। उसके पास एक पैनी नजर होती है, जिससे वह विदग्धता के साथ प्रत्यक्ष और गूढ़ विषयों और उनकी पृष्ठभूमि को परख पाता है। वह चीजों को बाहरी दुनिया से ग्रहण और संगृहीत करके उसे अपने मस्तिष्क में विश्लेषित-संसाधित करता है। यही वह पद्धति है, जिससे कोई कवि अपनी रचना को एक खास निजी स्वरूप प्रदान करता है और पाठकों तक कविता के रूप में पहुंचाता है।

यहां मैं कविता के साथ अपने निजी अनुभवों और प्रयोगों का उल्लेख करना चाहता हूँ, जो किसी प्रकार के वैयक्तिक वैशिष्ट्य का उल्लेख न होकर पूरी विनम्रता के साथ विषय की एक स्पष्ट तस्वीर पेश करने के लिए है।

कविता तभी अनोखी और विशिष्ट बनती है जब उसमें कवि की एक निजी शैली होती है और वह अभिनव तरीके से रूपकों और कथ्यों को उक्ति-वैचित्र्य के साथ प्रस्तुत करता है।

अकसर रूपकों का प्रयोग कवि कई कारणों से करना चाहता है। कई बार वह दोतरफे अवधारणात्मक चित्रण के रूप में होता है, जिससे पाठक भी अवगत होता है, जैसे रवींद्रनाथ की इन पंक्तियों में देखा जा सकता है-

अपने जीवन को
समय के सिरे पर
हलका नृत्य करने दो
जैसे ओस नृत्य करता है
पत्ते के नोक पर।

ऐसी रूपात्मक अभिव्यक्ति को पाठक आसानी से समझ लेता है। यह एक स्पष्ट चित्र निर्मित करता है, जो पहले से देखा जा चुका है। पूरे दृश्य के साथ पाठक स्थिति को आत्मसात करने में सफल रहता है। इसी तरह मेरी एक अभिव्यक्ति है ‘बेरोजगारी का सूर्यास्त’। इस तरह के रूपकों के प्रयोग की विविधता से कथ्य की स्पष्टता होती है।

‘दीया’ शीर्षक कविता में मैंने लिखा है ‘किरासन बचाने के लिए/हम प्रकाश को थोड़ा धीमा करते थे/उस गहरे अंधेरे में/और बत्ती का सिरा/लाल चने का एक दाना/अत्यधिक वीरता के साथ/हमारी सुरक्षा करता था।’ चूंकि दीया और लाल चना आम पाठक के लिए जानी-पहचानी चीजें हैं, अतः वह बड़ी आसानी से कविता के सार और उसके गहन भाव को आत्मसात कर लेता है। उपमा की जगह रूपक के विस्तार से पाठक के मन में एक पूरा दृश्य उभर आता है और दीये की धीमी रोशनी में बैठकर पढ़ने वाले लड़के की दयनीय स्थिति पाठक के सामने स्पष्ट हो जाती है।

रूपक और नैरेटिव कविता को निश्चित रूप से मर्मस्पर्शी बनाते हैं। कवि के हृदय में जब कोई गहन और सघन भाव पैदा होता है तो वह उसी तरह पाठक के हृदय को स्पर्श करता है जैसे कवि ने खुद अनुभूत किया था। अर्थात कवि और पाठक दोनों की अनुभूति एक स्तर पर मिल जाती है। यहीं कविता के कवि और पाठक के बीच साधारणीकरण होता है।

इसे और भी स्पष्ट करने के लिए मैं ‘कविता’ शीर्षक अपनी एक कविता की कुछ पंक्तियां उद्धृत करता हूँ-

फूल हँसी में बदल जाता है
शब्द गीत बन जाता है
गुंजार बन जाता है दिव्य संगीत
क्या होता है पता नहीं
कोमल धूप पराग की तरह चिपक जाती है
मैं उसकी जड़ें खोज रहा हूँ
एक दिन
मेरे बचपन में
भूख चलकर मेरे घर आई
और उसने मुझे खिलाया
बस इतना ही
और उसके बाद
मैंने उसे कभी जाने नहीं दिया
शायद यही मेरी कविता है।

यहां भावों की तीव्रता ही उसकी विशिष्टता और सघनता है। यहां भूख का मानवीकरण किया गया है और उसे स्थायी अतिथि के रूप में दिखाया गया है, जो कवि के घर में सदैव रहने लगती है। कवि जो संवेदना और संवेदनशीलता कवि पाठकों के मन में पैदा करता है वह पाठकों को अपने जीवन के कड़ुवे अनुभव को महसूस करने और पुनर्विचार करने के लिए प्रेरित करती है। आप इसे मानेंगे कि एक कहानी, एक चरित्र और विवरण का एक स्पष्ट स्थान और समय सभी सही अनुपात में विचार के विस्तार से समृद्ध होकर सरल रूपकों के माध्यम से प्रकट होते हैं।

मेरे द्वारा आविष्कृत और रचित एक नए काव्य रूप ‘नानी’ ने तेलुगु साहित्यिक दुनिया में एक नई लहर पैदा की है। आज यह एक नारा बन गया है और इसपर 450 लेखकों द्वारा 1000 से अधिक रचनाएं प्रकाशित की गई हैं। यह प्रयोग प्रधानतः स्वयं काव्य की पुरोगामी प्रकृति से और उसकी संरचनागत सामग्री से पूरी तरह वैयक्तिक स्वरूप ले चुका है। नानी की विषयगत चिंताएं, अर्थ और मूल भाव, स्वर और लय, संक्षिप्तता तथा संश्लिष्टता ने तेलुगु साहित्य जगत में इसे अपने आपमें एक इतिहास बना दिया है।

इसे और भी स्पष्ट करने के लिए मैं यहां कुछ पंक्तियां उद्धृत करता हूँ-

दाह संस्कार में/दाहिना हाथ/बिना जले रह गया/कारण?/उस हाथ ने कलम पकड़ रखी थी।

टूटे हुए मिट्टी के घड़े के लिए/शोक मत करो/धरती तैयारी कर रही है/एक नया गढ़ने की।

कविता तब तक आपकी है/जब तक वह लिखी जाती है/उसके बाद/समय की वसीयत!

वह शब्दकोश ढोते चलता है/पर विचार का एक कण भी/बाहर नहीं निकलता!

भाषा/ड्राइंग रूम का तोता है/फिर बोली?/रसोई की खुशबू।

कविता में अधिकाधिक केंद्रीकृत विषयगत दृष्टिकोण और छवियों का निर्माण मुझे आकर्षित करता है। मैं मानता हूँ कि ये ऐसे गुण हैं जिन्होंने मेरी कविताओं को अधिक वैयक्तिक बनाया है। अनेक आलोचकों ने माना है कि स्थान के गहन बोध तथा महानगर के खंडित जीवन के प्रतिबिंबों ने मेरी कविताओं को वैयक्तिक रूप दिया है। मेरे आसपास पाए जाने वाले पक्षियों, जानवरों, स्थानों तथा दुर्लभ लोगों के बारे में मेरे द्वारा लिखी गई कविताओं में सुस्पष्ट रूप से सौम्यता, मानवीयता तथा अनुकंपा के भाव निहित हैं। मेरी कविताओं में चीजों के प्रति गंभीर नैतिक क्रम को बनाए रखने तथा समकालीन वास्तविकताओं को चित्रित करने के प्रति आग्रह भी है।

मैं एक ललित, परंतु सरल कविता ‘छिपकली’ को यहाँ उद्धृत करना चाहता हूँ-

सामान्यतः/वह देवता के फोटो के पीछे/रहती है/आज/वह रसोई से/बाहर निकल आई/वह बोलने का मौका नहीं देती/पलक छपकते ही गायब हो जाती है/और प्रकट हो जाती है दूसरे स्थान पर/मानो उसने सूंघ लिया है/कोई गंध मेरी कविता में/वह कुछ दूरी पर ठहर जाती है/और मुझे ताकने लगती है/कुछ ही समय बाद/एक नर छिपकली/घर में दिखाई देता है/शायद छिपकली ने/अपने प्रेमी को बुलाया है/उनके प्रेम की छाया/उनसे अधिक बड़ी दिखती है…/एक अव्यक्त संवाद/हर दिन घर में होता है/एक सरीसृप/जीवन-नाटक में बदल जाता है…

इस तरह नैरेटिव वैयक्तिक बन जाता है। यह कविता में आए चरित्र अर्थात छिपकलियों के बीच होने वाले घटनाक्रम में दिखाई देता है, जिसे कवि द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से प्रस्तुत किया गया है। इन दोनों के बीच एक अनुक्रम है। अंत में कवि विश्लेषणात्मक दार्शनिक टिप्पणी द्वारा यह निष्कर्ष निकालता है- एक अव्यक्त संवाद/हर दिन घर में होता है/एक सरीसृप/जीवन नाटक में बदल जाता है।

यद्यपि यह विशुद्ध रूप से और पूरी तरह कवि का निजी अनुभव है, जो पाठक की चिंतन प्रक्रिया में शामिल हो जाता है। इससे कविता के भाव और अनुभव उसके लिए निजी बने रहते हैं। यह दोतरफा प्रक्रिया है। इससे कवि और पाठक दोनों लाभान्वित होते हैं। इससे जो मिलता है, वह है काव्यात्मक परमानंद की उदात्त और अनिर्वचनीय ‘अनुभूति’।

मैं एक महत्वपूर्ण चीनी उक्ति से अपनी बात समाप्त करता हूँ, ‘पक्षी इसलिए नहीं गाता कि उसे कोई जवाब देना है, वह इसलिए गाता है कि उसके पास एक गीत है।’

अनुवाद अवधेश प्रसाद सिंह

हाउस नं. 13-1/5बी, श्रीनिवासपुरम, रमंथपुर, हैदराबाद-500013 (तेलेंगना) मो.9391028496

मधु कांकरिया
जन्म : 23 मार्च, 1957। हिंदी की सुपरिचित कथाकार और कई पुरस्कारों से सम्मानित। हिंदी उपन्यास में अपनी खास जगह बनाते हुए कई महत्वपूर्ण कृतियां दीं। ‘पत्ताखोर’, ‘खुले गगन के लाल सितारे’, ‘सलाम आखिरी’, ‘सेज पर संस्कृत’ और ‘हम यहां थे’ विशेष रूप से चर्चित। सामाजिक विमर्श की पुस्तक ‘अपनी धरती अपने लोग’। वंचित समुदायों के जीवन यथार्थ प्रस्तुत करते हुए वर्तमान समय की विडंबनाओं को व्यापकता से उद्घाटित किया।

मेरे लिए लिखना बेआवाजों की आवाज बनना और आत्मसाक्षात्कार है

इस सुंदर सभागार में इतने सुंदर लोगों के बीच इस प्रकार मुझे सम्मानित किया गया कि मैं अभिभूत हूँ और इस मंच के माध्यम से उन सभी संस्थाओं और व्यक्तियों को नमन करती हूँ जो इस मनुष्य विरोधी और साहित्य विरोधी समय में भी साहित्य के प्रति समर्पित हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि साहित्य मानवीय सचाइयों की बुलंद आवाज है, कि अंतत: यह साहित्यकार ही होता है जो हमें यह एहसास कराता है कि एक ही धरती और योनि में जन्म लेने के संबंध कितने गहरे होते हैं। निःसंदेह भारतीय भाषा परिषद भी उनमें से एक है। मेरा आभार तो इसलिए भी बनता है कि मेरी साहित्यिक यात्रा यहीं से शुरू हुई थी।

आज भी इस मंच पर खड़ी होकर जब मैं मुड़कर अपने विगत को देखती हूँ तो मुझे ताज्जुब होता है कि मैं लेखिका कैसे बन गई, क्योंकि लेखिका बनना मेरे एजेंडे में नहीं था, न ही मेरा स्वप्न था। फिर यह कैसे हुआ? याद आता है कि उम्र के एक पड़ाव पर मेरे भीतर बहुत असुरक्षा थी, ढेरों सवाल थे, जीवन के तनाव थे, असफलताएं थीं, जानलेवा संघर्ष थे। इन सबसे घबराकर मैं किताबों की दुनिया में डूब जाती थी और घड़ी भर के लिए ही सही, मुझे अपने कुछ सवालों के जवाब मिल जाते थे। यह भी होता कि किताबों को पढ़ते-पढ़ते मैं अपने आसपास को देखने भी लगी थी। यह देखना आम देखने से थोड़ा अलग था। इस देखने ने मेरी दुनिया को थोड़ा बड़ा कर दिया था। मुझे थोड़ा और मनुष्य बना दिया था।

मुझे लोगों में दिलचस्पी होने लगी, उनके सुख-दुख में, संघर्ष और मुक्ति में। और उन दिनों जब मैं लिखने में हाथ आजमा ही रही थी तभी एक सुखद संयोग यह हुआ कि मेरे छोटे भाई ने मुझे एक वनयात्रा में भेज दिया। वह वन यात्रा मुझे झारखंड के आदिवासी इलाकों में ले गई। वहां मैं न सिर्फ आदिवासियों के संपर्क में आई, वरन वहां मैंने एक अलग भारत को देखा जो किताबों में पढ़े हुए मेरे भारत से कितना अलग था। मुझे लगा जैसे मैं किसी और दुनिया में आ गई हूँ। मैं जानती थी कि भारत चाय पीने वालों का देश है, पर वहां मुझे एक भी ऐसा आदिवासी नहीं मिला जो नियमित रूप से चाय पीता हो। वे दिन का पहला आहार ही बारह बजे के करीब लेते थे। हां, इक्के-दुक्के आदिवासी ने यह जरूर बताया कि साल डेढ़ साल में वे जब लोहारदगा या गुमला जाते हैं तो जरूर चाय पी लेते है। मैं जानती थी कि भारत मंदिरों का देश है। कोलकाता में मैंने एक किलोमीटर के भीतर दस ग्यारह छोटे-मोटे  मंदिर देखे हैं, पर गुमला के आदिवासी अंचलों में मैं मीलों तक पैदल गई। मैंने वहां एक भी मंदिर, यहां तक कि कोई छोटा-मोटा आलया तक नहीं देखा। बाद में मुझे पता चला कि आदिवासी प्रकृति की पूजा करते हैं। वे पेड़-पौधों, नदियों और पर्वतों की पूजा करते हैं। इसलिए वहां आसमान से उतरा किसी राम या कृष्ण का वर्चस्व नहीं है, कोई धार्मिक ध्रुवीकरण नहीं है, इसलिए न धार्मिक कट्टरता है और न ही धर्म की हिंसक राजनीति। सबके अपने-अपने ग्राम्य देवता हैं।

मैंने यह भी देखा कि वहां सादगी जीवन मूल्य है, आदिवासी खुद को भूमि पुत्र मानते हैं। इसलिए वे धरती से उतना ही लेते हैं कि उनका गुजारा हो जाए। वे धरती का दोहन नहीं करते। आज यदि उनके जीवन में थोड़ा-बहुत उपभोक्तावाद है भी तो यह उपभोक्तावाद उन्होंने हमसे सीखा है। वहां मैंने गरीबी के भंयकर दृश्य देखे। कोलकाता-मुंबई में मैंने पति-पत्नी के लिए दो गाड़ियां देखी थीं, वहाँ मैंने दो महिलाओं के बीच एक साड़ी देखी थी।

वह वनयात्रा मेरी खोज यात्रा, मेरी चेतना यात्रा, मेरी अंत:यात्रा बन गई। मैं जैसे एकाएक बड़ी रोशनी में आ गई थी, मेरे मुंह से हठात निकला, ‘अपना ही दुख देखा है/मैंने कितना कम देखा है’। इस यात्रा ने अनायास ही मेरे भीतर के सोए कोलंबस को जगा दिया। एक बेकाबू लालसा मेरे भीतर सर उठाने लगी – जीवन और मनुष्य की खोज में यात्रा करने की। पर तब यात्रा पर हठात निकल जाना मेरे लिए उतना सुगम नहीं था।

ऐसे में मैंने कोलकाता को ही खोजना और खोदना शुरू कर दिया। एक दिन नूतन बाजार से होते हुए मैं सोनागाछी के नुक्कड़ पर पहुंच गई। वहां मैंने ढेरों लिपी-पुती युवतियों को ग्राहकों के इंतजार में सड़क पर एक कतार में ऊबे हुए और खड़े हुए देखा। मैंने वेश्याओं के बारे में सुना जरूर था, पर मैं अपनी आंखों से उन्हें पहली बार देख रही थी। मुझे जैसे बिजली छूकर निकल गई। क्यों? क्यों? एक बेकाबू बेचैनी ने मुझे जकड़ लिया। मुझे इनकी जिंदगी में झांकना ही है। तब तक उनपर लिखने का ख्याल जेहन में नहीं आया था।

मेरे मित्रों ने मुझे आगाह किया – भूलकर भी उन इलाकों में जाने की मत सोचना। खुदा न खास्ता जिस समय आप उनसे बतिया रही होंगी, ठीक उसी समय यदि पुलिस की रेड पड़ जाए तो पुलिस यह नहीं सोचेंगी कि आप उनके बारे में जानने आई हैं, वे आपको भी गिरफ्तार कर लेंगी। मैंने अपने बड़े भाई को विश्वास में लिया और उन्हें अपनी इच्छा के बारे में बताया। बड़े भाई कॉमरेड टाइप थे। उन्होंने कहा – जाओ और अपनी पत्नी को मेरे साथ कर दिया। वहां उन महिलाओं की अपराजेय जिजीविषा को देख मैं दंग थी। अब मैं एक बदली  हुई मैं थी। मेरी दृष्टि बदली, जीवन की समझ भी गहराई। पहली बार मुझे एहसास हुआ कि कोई भी औरत बुरी नहीं होती है, मां के गर्भ से कोई वेश्या नहीं पैदा होती है, बुरी होती हैं वे परिस्थितियां जो औरत को बुरा बनाती हैं।                                                  

आज जब मैं किसी अपेक्षाकृत सुविधासंपन्न नवयुवक को आत्महत्या करते देखती हूँ तो मुझे पहली बात यही समझ में आती है कि इसने जीवन को शायद समझा ही  नहीं है, इसीलिए इसके अंदर जीवन की जड़ें गहराई नहीं हैं। शायद चूक हमसे भी हुई है कि हमने अपने बच्चों के भीतर यह लालसा तो भरी कि वे एक सफल डॉक्टर बनें, इंजीनियर बनें या प्रोफेशनल बनें पर हम उनके अंदर यह लालसा नहीं भर सके कि वे एक अच्छे इंसान बने और जीवन को समझें।

ऐसे में अक्सर मुझे अपनी बड़ी नानी की याद आ जाती है। ऐसा कोई दुख नहीं था, जिसने उनकी जिंदगी में नहीं झांका हो। उनके ग्यारह बच्चे हुए। सब मर गए। साठ वर्ष की होते न होते उनके पति भी गुजर गए। अपनी जेठानी के बच्चे को गोद  लिया उन्होंने और नब्बे वर्ष का भरपूर जीवन जिया। उन्होंने कभी आत्महत्या की नहीं सोची और न कभी अपने गम को भुलाने के लिए उन्हें शराब के प्यालों में डूबना पड़ा।

कहां से मिलती थी उन्हें जीने की ऊर्जा? मैं जब भी ननिहाल जाती, उनकी दिनचर्या को ध्यान से देखती। वे भोर में ब्रह्म मुहूर्त में उठतीं। उठते ही पेड़-पौधों को पानी देतीं, फिर पाखियों को दाना देतीं। फिर मंदिर जातीं, वहां गाय को रोटी देतीं। कुछ देर पूजा पाठ करतीं। फिर लौटकर सारे घरवालों के लिए खाना बनातीं। खाना बनाते वक्त भी पहली रोटी गाय और अंतिम रोटी कुत्ते के लिए निकालना नहीं भूलतीं। दोपहर को फुर्सत के पलों में आसपास की सखी सहेलियों के साथ भजन और लोक गीत गातीं। रात फिर खाना बनाकर अपने सीमित बजट से भी कभी-कभी कुआं, बाबड़ी, तालाब और निर्धन कन्याओं के विवाह के लिए अपनी सामर्थ्य भर पैसा अलग निकाल कर रखतीं। यानी एक साधारण जीवन में भी आप देखिए, वे पूरी सृष्टि से जुड़ी हुई थीं। पेड़-पौधों की दुनिया से, परिंदों की दुनिया से, जानवरों की दुनिया से, लोक गीत से और परोपकार से भी।

जीवन को, जीवन मूल्यों को गांव की उस अनपढ़ महिला ने बेहतर समझा था, जबकि आज हमारा जीवन आप देखिए कितना आत्मकेंद्रित है। जीवन में न नदी है, न पेड़ पौधे हैं, न परिंदे हैं, न संगीत है और न ही कोई किताब है। बस एक ही खिड़की खुली है जीवन में – सफलता की खिड़की। सफलता, चाहे वह बिज़नेस में हो, धन कमाने में हो, नौकरी में हो, प्रेम में हो, पढ़ाई में हो। वह खिड़की जरा सी बंद हुई कि हमारा दम घुटने लगता है और हम जिंदगी का साथ निभाना छोड़ देते हैं।

बिजनेस घाटे में जा रहा है इसकी चिंता में हम सो नहीं पाते, पर हमें यह चेतना नहीं है कि हमारा जीवन ही घाटे में जा रहा है। हमारे समय का दर्दनाक सत्य है कि बाहर के शोर में हम मन की बात सुन ही नहीं पाते हैं। पहले घर छोटे होते थे, मन बड़ा होता था। घर में कई घर होते थे। आज घर बड़े होते हैं पर मन इतने छोटे कि मां-बाप तक की समायी नहीं हो पाती। हम धारा के साथ शव की तरह बह रहे हैं। सफलता अच्छी चीज है, पर उससे भी ज्यादा बड़ी चीज है सार्थकता। जीवन सार्थक तब होगा, जब आपके जीवन का ताप दूसरों तक पहुंचेगा, जब दूसरों का जीवन आपके चलते सुंदर बनेगा।

ये सारे मंत्र मुझे साहित्य से मिले हैं। साहित्य ने ही मुझे यह एहसास कराया है कि जीवन स्थूल से सूक्ष्म की यात्रा है। यही है मेरे लिए लिखना भी – अपनी मूल सत्ता में वापस लौटना, बेआवाज़ों की आवाज बनना, स्वयं से साक्षात्कार करना और प्रकृति से करीबी रिश्ता बनाना। मैं खुशनसीब हूँ कि मेरे भीतर बुद्ध हैं, जो निरंतर करुणा की अलख जगाए रखते हैं तो मेरे भीतर मार्क्स भी हैं, जो निरंतर सर्वहारा से मुझे जोड़े रखते हैं।

एक बात और आपसे साझा करना चाहूंगी। मैं सालों तक इस दुविधा में रही कि जीवन में इतना अंधकार है, खून खराबा है, अन्याय है, झूठ है, गैर बराबरी है। लिखकर भी मैं क्या उखाड़ लूंगी। एक दिन मैं अपने मित्र के यहां गई थी। वहां मैंने उसके टेबल पर दो पंक्तियां देखीं जो इस प्रकार थीं-

माना इस जमीन को न गुलजार कर सके

कुछ खार तो कम कर गए, गुजरे जिधर से हम

बस मुझे जीवन का मंत्र मिल गया कि हम सारी लड़ाइयां नहीं लड़ सकते तो क्या, धरती के जिस टुकड़े पर खड़े हैं कम से कम उसका कुछ खार तो कम कर ही सकते हैं। इसी बात को मेरे महबूब कथाकार सोलज़ेनित्सिन ने उस वक्त कही थी जब उन्हें नोबेल पुरस्कार दिया जा रहा था। उन्होंने कहा था – मैं मानता हूँ कि दुनिया में बहुत अंधेरा है, अन्याय है, झूठ है, हिंसा है, फरेब है, लेकिन एक आदमी यह तो कर सकता है कि अपने हाथों को इन गंदगी से बचा कर रखे। मैं इसमें बस एक बात और जोड़ना चाहती हूँ – एक आम आदमी यह तो कर सकता है कि अपनी संतान के रूप  में  इस देश को अच्छे नागरिक दे। इसी अपील के साथ मैं अपना वक्तव्य समाप्त करती हूँ।

71, ए बिधान सरणी, तीसरा तल, फ्लैट नं. 3सी, कोलकाता-700006, मो.9167735950

ओम नागर
जन्म : 20 नवंबर 1980। राजस्थानी भाषा को अपने लेखन से विशेष आधुनिक उत्कर्ष प्रदान किया। चार कविता-संग्रह और कथेतर गद्य की एक पुस्तक प्रकाशित। भारतीय ज्ञानपीठ के नवलेखन पुरस्कार और साहित्य अकादमी के युवा पुरस्कार से सम्मानित। प्रमुख कविता-संग्रह ‘जद बी मांडबा बैठूं छूं’।

स्मृति और यथार्थ के बीच पेंडुलमसी झूलती कविता

यह मेरी मातृभाषा राजस्थानी का भी सम्मान है। राजस्थानी के मूर्धन्य कवि कन्हैयालाल सेठिया का जगचावा दोहा याद आ रहा है- मायड़ भाषा बोलतां, जीननैं आवै लाज/इस्या कपूतां सैं दुखी आखों देस -समाज। शायद ही कोई हो, जिसे अपनी मातृभाषा पर गर्व की अनुभूति न हो। मुझे भी है। जीवन की उमंग-उल्लास, सुख-दुख, सब मातृभाषा के आंगन में पल्ल्वित होते हैं, खिलते हैं। मुझे सदा लगता रहा है कि यह जो अपनी भाषा में कह रहा हूँ, वह किसी परायी भाषा में संभव नहीं।

क्यों लिखता हूँ, क्या लिखना चाहिए, सृजन-प्रकिया क्या है? इस यक्ष प्रश्न से सामना हर रचियता का होता है, मेरी मुठभेड़ भी जारी है। कभी-कभी लगता है, कागज़ पर उतरी हुई कविता, सभी उभरते-जलते हुए सवालों का संभावनाशील उत्तर है, जिसे सिरजते हाशिये पर प्रतिप्रश्न भी उघड़ रहे होते हैं। लेकिन जीवन-जगत के सारे सवालों का जवाब कविता नहीं हो सकती है। वह तो चुप समय का सन्नाटा भर ध्वस्त करती है। बुलडोजर की तरह नहीं, कुदाली की तरह। अपने कठोर समय को और अधिक पोसरा और उर्वर करते हुए, ताकि मनुष्यता के बीज अंकुरित हो सकें। कवि प्रथमत: और अंतिमत: मनुष्यता का ही पक्षधर होता है।

मुझे रचना के होने और रचने का कोई मुकम्मल सिरा कभी हाथ नहीं लगता। अक्सर लगता है कि गांव ने मुझे रचा है। जब गांव से बहुत दूर मुंबई जैसे महानगर में जा बसा, तो कई बार लगा कि निर्मित हो रहा हूँ या नष्ट! लेकिन गांव, घर, खेत की सजल स्मृतियों ने अब भी अपनी मिट्टी से जस का तस बांधे रखा है। गांव, घर, खेत-खलिहान के मनपाश में बंधा मेरे जैसा कवि-लेखक पहले पहल अपने स्मृति-जगत से कविताएं बुनता है।

लेकिन जब इन स्मृतियों का यथार्थ बहुत खुरदरा होता दिखता है, स्मृति-अरण्य में गुमशुदा कविता अपने समय से सीधे मुठभेड़ से उद्वेलित होती है। स्मृति और यथार्थ के मध्य पेंडुलम-सी झूलती कविता को कविता बनाए रखना हर कवि के समक्ष बड़ी चुनौती होती है। लेकिन मन से, हृदय से कागज या डेस्कटॉप की उज्ज्वल स्क्रीन पर उतरती कविता के अबूझ मार्ग को कोई नहीं बूझ सका है। मैं तो बिलकुल नहीं। अभी तो यात्रा शुरू हुई है। आगे कोई भनक लगी तो कागज के कान में जरूर कहूंगा कि सावधान कविता आ रही है।

कवि कविता में दुख रचता है और करुणा उपजाता है। जैसे जगत के सारे दुख, पीड़ाएं, उदासी, संत्रास, यातनाएं उसकी हैं। यहां मुझे मेरी ही एक कविता स्मृति में आ रही है- ‘दुख मन का है/और मैं खुरचता हूँ/दुख की देह/जबकि सुख की कोई देह नहीं/न ही सुख का कोई मन/सृष्टि में दुख अमर है/और सुख क्षणभंगुर।’

दुख, द्वेष और विसंगति से भरे समय में अपने बारे में लिखना मुश्किल होता है। अपने भीतर उमड़ते-घुमड़ते, जलते-बुझते अनूठे रसायन के बारे में पुख़्ता-सा कुछ कह देना। वह भी तब, जब सुख क्षणभंगुर हो और दुख अमर। अंतस में हजारों-हजार जीभें बड़बड़ाती हैं। कवि और कविता दोनों ही एक-दूजे को रचते हैं। और एक-दूजे को बिसूरते हुए रचते हैं। लेकिन मैं और मेरे भीतर का कवि, गांव में छूट गई उस मां को बहुत याद करता है, जो स्कूल के दिनों में कॉपी और किताबों की सार संभाल का जिम्मा बड़ी मुस्तैदी से उठाती थी। निरमा वाशिंग पाउडर की पॉलथिन की थैली खाली होती तो उसे किताब का कवर बना देती। छोटी सुई से बारीक धागे की तुरपाई की स्मृति आज भी कविता की कोई सीवन नहीं उधड़ने देती।

कविता लेखन का भी कोई उद्देश्य होता है, इसका बहुत बाद में भान हुआ। यानी कविता में विचार की चिलक भी अनिवार्य है। विचार मस्तिष्क का हिस्सेदार है और भाव मन का। विचार एकतरफा, एकदिश होता है, जबकि भाव चहुंदिश, चहुंओर विस्तारित। कवि के साथ सार्थक विडंबना यह है कि उसे चौतरफा होते हुए भी अंतत: एकतरफा होना होता है। मनुष्यता की तरफ, अमानवीयता के विरुद्ध और प्रेम के चहुंदिश।

आज जब संपूर्ण विश्व एक ग्लोबल विलेज की अवधारणा में जकड़ा जा रहा है, अपनी विविधताओं को नष्ट करने को आतुर दुनिया बारूद के ढेर पर बैठी है। हर कोई धरती को उजाड़कर चांद पर घर बनाना चाहता है। विभिन्नताओं से उपजता आश्चर्य और जीवन से विनोद गायब है। मनुष्य मशीन होने की अंधी दौड़ में शामिल है। आज अरबोें कंठ तो हैं पर सैकड़ों भाषाएं मर रही हैं। पेट और पीठ के बीच का फासला, रोटी से पटता है। और आदमी को रोटी की तलाश उसे विस्थापित कर रही है। गांव में खेत है, लेकिन रोजी नहीं।

तब भी एक राजस्थानी कवि अपने छोटे-से गांव की करुण स्मृतियों में उलझा है। गांव अब प्रेमचंद का गांव न रहा। शोषण के हथियार बदल गए, स्थिति उस कालखंड से ज्यादा चिंताजनक है। वहां भी नफरत की आग ने भाईचारे और सद्भाव की वनस्पति को झुलसा दिया है। विडंबना यह है कि गांव हमें महामारियों में याद आते हैं। शहर गांव होने की भटकन में महाशहर होने के लिए विक्षिप्त हैं। विकास की कोख में विनाश पाला जा रहा है।

यह समयगत उलझन जितनी स्थानीय है, उतनी वैश्विक भी। आज कृषि और पर्यावरण का संकट आसन्न है ही, लेकिन जिस मरुप्रदेश से मैं आता हूँ, लगता है कि सब संकटों की जड़ में जलसंकट सबसे भयावह है।

कवि-लेखक को अपने समय के संकटों के प्रति सचेत रहना है, केवल कविता में ही नहीं, कविता से बाहर भी, जीवन के हर मोर्चे पर। कविता जीवन में धंसकर ही की जा सकती है, दर्शक मात्र होकर नहीं।

बातें बहुत हैं। हम सबके रास्ते संघर्ष और अभावों के रास्ते हैं। अभी इस राह पर एक कदम भर चला हूँ। अपनी मातृभाषा में यूं ही रचता रहूं, यही अभिलाषा है और संकल्प भी। अंत में अपनी एक राजस्थानी कविता (अनूदित) की कुछ पंक्तियों के साथ अपनी बात समाप्त करना चाहूंगा -‘मेरी भाषा में नहीं उगता सूरज/निकलती है धूप/मेरी भाषा में नहीं ढलती शाम/दिन रात के सिरहाने पड़ जाता धड़ाम/मेरी भाषा में नहीं होती रात/खेत में सदा ठिठुरती हैं पगथलियाँ/मेरी भाषा में नहीं होता कोई अफसर/मेरी भाषा में होते हैं सिर्फ किसान और मजदूर।’

172, मुंबई मराठी ग्रंथ संग्रहालय मार्ग, दादर (ईस्ट), मुंबई-400014 मो. 9460677638

एन.एस. सुमेश कृष्णन
जन्म : 20 मई, 1987। मलयालम के काफी सराहे गए प्रतिभाशाली युवा कवि। तीन कविता-संग्रह प्रकाशित। केरल राज्य के युवा पुरस्कार सहित कई पुरस्कारों से सम्मानित।

मेरा ईश्वर वह शब्द है, जो मैं लिखता हूँ

मेरी मातृभूमि केरल है। लेकिन मैं गर्व के साथ कह रहा हूँ, इस पुरस्कार को मैं परम श्रद्धेय रवींद्रनाथ ठाकुर की धरती से प्राप्त कर रहा हूं। मैं एक भारतीय कवि हूँ जो मलयालम में कविताएं लिखता है। मेरे प्रांत से कवि ओ. एन. वी. कुरुप को भारतीय भाषा परिषद का पुरस्कार प्राप्त हुआ है। उन्होंने एक कविता में लिखा है- जहां मनुष्यों की आवाज और गंध है, वहां मेरी कविता चमकती है। हाँ, मुझे भी मानवीय चेतना पर आधारित ऐसी ही काव्य दृष्टि ने प्रभावित किया है।

कवि कभी आलीशान महलवासी नहीं होता। कवि का हृदय सामान्य लोगों के जीवन की गहराई तक उतरकर उनके आंसुओं के खारेपन को शहद-सा मीठा करने का होना चाहिए। कवि का हाथ वह हाथ है, जो गिरे हुए को उठाने की भावना रखता है। कवि की आवाज वह आवाज है जो गरीबों के लिए गाती है। मेरे प्रांत के प्रथम लोकप्रिय कवि माने जानेवाले कुंजन नांबियार ने लिखा है- ‘मेरी कविता का ध्येय उन आम मनुष्यों की आवाज बनना है, जिनकी आवाज बंद है।’ आम हाशियाकृत वंचित व्यक्ति का वेष धारण करना है और निषिद्ध मंदिरों के चबूतरों पर चढ़ते हुए उछल-उछलकर कविता के सहारे मुक्ति संभव करने वाले कुंचन नंपियार को भूलकर कविता की मानविकता के बारे में कैसे बोल सकूंगा?

विश्व साहित्य की किसी भी रचना पर नजर डालें तो पता चलेगा कि ऐसी कोई भी रचना याद नहीं रहती, जिसमें इंसानियत की बात न हो। हमारे रामायण, महाभारत, बाइबिल, कुरान सबमें आम आदमी को संबोधित करने वाली मानवतावादी दृष्टि समाहित है। मलयालम के महान कवि कुमारन  आशान ने लिखा है- ‘विश्वानुराग विहीन लोगो, मानवाकार पाकर संसार में तुम जन्म न लो।’ आशान का मत था कि जो सभी जीवों के साथ पवित्र प्रेम नहीं रख सकते, उन्हें पृथ्वी पर मनुष्य के आकार में जन्म नहीं लेना चाहिए। मेरा भी वही मत है कि हर साहित्यिक रचना मानव की भलाई और प्रगति को लक्ष्य करने वाली हो।

हमने गरीब किसानों को कड़ाके की ठंड में संघर्ष करते देखा है। हमारे कवियों ने उनके लिए गाया। गंदी बस्तियों में दबे-कुचले लोगों को गोली मार दी गई और उनका सिर काट दिया गया, तब भी हमारे कवियों ने प्रतिवाद किया। दशकों पहले, महान कवि पाब्लो नेरुदा ने जोर से गाया था, ‘आओ, इस गली का खून देखो।’ टैगोर ने गीतांजलि में गाया कि भगवान मंदिर या तीर्थस्थलों में नहीं, बल्कि मजदूरों के पसीने में वास करते हैं। उन्होंने आह्वान किया कि भगवान को देखने के लिए वही सच्ची आंख है जो रास्ते बनाने वालों, पत्थर तोड़ने वालों, कीचड़, गंदगी और गोबर ढोने वालों को निहारने की ताकत रखती है।

मलयालम के गंधर्व कवि वयलार रामवर्मा ने मानवता के बारे में इस तरह गाया – ‘मैं किसी ऐसे दर्शन से प्रेम नहीं करूंगा जो पीड़ित आत्मा से प्रेम नहीं करता।’ इन पंक्तियों के माध्यम से वायलार जोर-शोर से घोषणा करते हैं कि मैं ऐसी किसी भी चीज को पसंद नहीं करूंगा, जो दुखी मन के लिए उपयोगी न हो। उन्होंने यह भी कहा, ‘काव्यात्मक हृदय मानव मस्तिष्क से या देह से नहीं, बल्कि मन से संवाद करता है।’ बयलार के मत से कविता बुद्धि की नहीं, हृदय की कला है। वह न केवल वैचारिक है, भावनात्मक भी है।

मेरा मानना है कि दुनिया की सबसे महान संस्कृति भारतीय संस्कृति है। ‘लोकासमस्तासुखिनोभवंतु:’ से बड़ा प्रेम मंत्र विश्व की किसी अन्य संस्कृति में नहीं है। प्रत्यक्ष में प्राप्त किसी भी जीव को खुद से ज्यादा प्यार करने को सिखाने वाले श्रीरामकृष्ण परमहंस तथा युवाओं को जागने का आह्वान देनेवाले स्वामी विवेकानंद की वाणी लहराने वाली मिट्टी है इस बंगाल की। 

मैं बिना झुके यहां नहीं रह सकता। मेरा ईश्वर वह शब्द है जिसे मैं लिखता हूँ। शब्दों में खिलने वाली मानवीय चेतना में ही मेरा ईश्वर निहित है। आप सबकी अंतरात्मा में दीप्त मानवता को पहचानकर उसकी कद्र करते हुए मेरे भीतर का कवि खुश होता है। जब आपको अपने हृदय में समा लेता हूँ, तब मेरा कवि जीवन धन्य हो उठता है।

हर पुरस्कार या सम्मान एक बड़ी जिम्मेदारी है। पारखी देखेंगे कि पुरस्कार प्राप्त कवि क्या लिख रहा है और कैसे लिख रहा है। हो सके तो आलोचना भी करेंगे। इसलिए लेखन में अधिक सावधानी बरतने की आवश्यकता है।

मुझे अस्तित्व प्रदान करने वाले मेरे माता-पिता, बचपन से मेरे रचनात्मक जीवन को प्रोत्साहित करने वाले मेरे शिक्षकगण, मेरी कविता को मुझ-सा प्यार करने वाली मेरी पत्नी, निरंतर प्रोत्साहन देने वाले भाई, मेरे ग्रामवासी, मेरे सहकर्मी और मेरे प्रिय शिष्यों के प्रति मैं हृदय से आभार प्रकट कर रहा हूँ।

निर्मला भवन, थलयाल, पोस्ट अरालुमूडु, तिरुवनंतपुरम-695123 (केरल) मो.9544465542

शेखर मल्लिक
जन्म : 18 दिसम्बर, 1978। हिंदी के चर्चित युवा कहानीकार। नुक्कड़ नाटक एवं संस्कृति-कर्म से जुड़े हुए। आदिवासी जीवन और संघर्ष को विषय बनाकर लिखने वाले बहुमुखी प्रतिभा के लेखक। तीन कहानी-संग्रह और ‘कालचिती’ उपन्यास के लिए विशेष चर्चित।

लेखक स्पष्ट करें कि आज उनकी भूमिका क्या होगी

मैं झारखंड के एक छोटे से इलाके घाटशिला में रहता हूँ। लेकिन यह घाटशिला साहित्यिक दृष्टिकोण से बहुत बड़ा इसलिए है कि यहां अमर कथाकार विभूति भूषण बंद्योपाध्याय का घर ‘गौरीकुंज’ है। साहित्य, लोककला और रंगमंच से घाटशिला हमेशा समृद्ध रहा है। मैं इसी जमीन, इसी हवा और इसी पानी का हूँ। बेशक मेरा जन्म बंगाल में हुआ। और मेरी मातृभाषा हिंदी नहीं है। उड़िया है। मैं हिंदी में लिखता हूँ। बहुत सुखद और आनंदित करने वाला एहसास मुझे हुआ, जब इस पुरस्कार की घोषणा हुई, और इन तमाम सारी बातों के साथ कि, ‘वागर्थ’ पत्रिका में छपता रहा हूँ, शंभू गुप्त जी का लगातार प्रोत्साहन बना रहता है। सुशील कान्ति जी लगातार संवाद बनाए रखते हैं। बड़ी बात मुझे यह लगी कि मैं वहीं लौट रहा हूँ जो मेरी जन्मभूमि है, यानी बंगाल। मैं बंगाल में पैदा हुआ और पला बढ़ा। तब बिहार था, अब झारखंड है। और हिंदी में लिखता हूँ। यानी कई सारी भाषाओं के संगम पर हूँ और जहां रहता हूँ, वह संथाल परगना है, सिंहभूम है, यानी मैं मूल जनजाति, जनजातियों के बीच में रहता हूँ। वहां काम करता हूँ। वहां से अपनी दृष्टि हासिल करता हूँ। तो कुल जमा ये बातें मेरे मन में थीं, जो मैं कहना चाह रहा था।

मैं अपने वक्तव्य को दो भागों में रखना चाहूंगा। पहला, मेरी रचना प्रकिया और रचना दृष्टि। दूसरा समकालीन दौर और दुनिया को बतौर एक रचनाकार कैसे देखता हूँ या किस तरह देखने की वकालत करता हूँ, इस पर मेरी समझ का बयान।

कई तरह से लेखक अपनी शुरुआत करता है। कोई कविताओं से शुरुआत करता है, कोई गद्य विधा में लिखता है। कोई कुछ और किस्म की लेखनशैली से शुरुआत करता है। कई सारे विचार होते हैं और कई तरीके से अपनी बात उसको कहनी होती है। लेकिन इन सबके बाद जब हम आगे बढ़ते हैं, लिखना बाकायदा नियमित करते हैं, बज़ाफ्ता हम लिखते रहते हैं, तो ये मेरी निजी बात हो सकती है। हो सकता है कि बहुतों पर यह लागू हो।

हमें तब एक दृष्टि हासिल होती है। या हम जिस दृष्टि की तलाश कर रहे होते हैं, उस दृष्टि तक पहुंचते हैं। यह प्रश्न भी होता है कि हम लिखते किसके लिए हैं? हमने चाहे जिस भी कारण से लिखना शुरू किया हो, लेकिन हम लिख किसके लिए रहे हैं, और क्यों रहे हैं? हमें अपने आपसे यह सवाल पूछना पड़ता है, तब दृष्टि का सवाल आता है। प्रतिभा राय जी ने कहा कि वह फिलोसोफी आपको हासिल करनी पड़ती है। हम समाज से लेते हैं। और समाज तक अपनी बातों के जरिए उसका निचोड़ पहुंचाते हैं। उस लिए हुए से जो हमें हासिल होता है, हम उसकी एक आलोचना प्रस्तुत करते हैं, अपने लेखन से। यह मेरी समझ है, फिर उस लेखन की जो आलोचना होती है, वह दूसरी बात है।

मैंने समाज को जैसा देखा, मैं उसी बात को कहता हूँ। उस बात से या उस देखे हुए का मेरी समझ से जो सही और गलत है, उसकी एक मीमांसा होती है। यह पाठकों तक अगर संप्रेषित होती है, तो वह लेखन सफल है। और नहीं संप्रेषित हो पाती है, तो फिर और प्रयास करने की जरूरत है, ऐसा मैं समझता हूँ। जो भी रचनाकर्म से संबद्ध हैं, जो लिखते हैं, लिखना चाह रहे हैं, उनके लिए कह रहा हूँ। इस नजरिए से देखा जाए तो मुझे पाठकों का प्यार मिला है। मैं उनका आभारी हूँ सबसे पहले। इस तरह से एक जिम्मेदारी का बोध आता है।

हम लिख रहे हैं तो केवल मनोरंजन के लिए नहीं लिख रहे हैं। किसी पुरस्कार के लिए या सम्मान के लिए नहीं लिख रहे हैं। हमारी जिम्मेदारी और जवाबदेही समाज के प्रति है, उसको तय करते हुए अपना काम करना होता है।

यहीं पर एक प्रश्न आता है, पक्षधरता का। हम किसके पक्ष में खड़े होते हैं? बहुत साल पहले  झारखंड के वरिष्ठ रचनाकार जयनंदन जी ने कहा था- पक्षधरता आपको तय करनी होती है और दो ही पक्ष हैं दुनिया में, समाज के अंदर। लगातार हजार वर्षों से। शोषक और शोषित का। इन दो के बीच में आपको तय करना है कि आप अपने काम के जरिए किसके पक्ष में खड़े हैं। शोषक के पक्ष में या शोषित के पक्ष में? जिसके अधिकारों की, जिसके मानवाधिकारों की, जिसके जीवन का, और जिसके ऊपर अत्याचार हो रहे हैं, जो संत्रास में जी रहा है, जो तकलीफ से गुजर रहा है, आप उसके साथ खड़े होते हैं, या जिनकी वजह से उसके साथ ये हो रहा है, आप उसकी तरफ चले जा रहे हैं? यह पक्षधरता जब आप तय करते हैं तो आपके लेखन के मायने होते हैं। उसका अर्थ होता है। वरना वह केवल स्वांत:सुखाय भी हो सकता है, या केवल एक मनोरंजन। दो मिनट कुछ पढ़ा हमने, जैसे ट्रेन में पहले लोग सफर करते थे और मनोरंजक उपन्यास पढ़ते थे।

कहानी या कथा विधा में लिखना मेरे लिए एक जिम्मेदारी है। एक लेखक की जिम्मेदारी होती है, उस समाज के प्रति जो उसे रचता है, गढ़ता है। उसी समाज को प्रश्नांकित कर उसे बेहतर करने के लिए लगातार कोंचते रहने की जिम्मेदारी लेखक की होती है। मुक्तिबोध ने कहा ‘इसलिए कि जो है उससे बेहतर चाहिए/पूरी दुनिया साफ करने के लिए/मेहतर चाहिए।’ यही भूमिका एक ईमानदार सर्जक की होनी चाहिए, भले वह किसी भी विधा में रचता हो।

मैं साहिर को भी याद करता हूँ, ‘दुनिया ने तजुर्बात-ओ-हवादिस की शक्ल में/जो कुछ मुझे दिया है, लौटा रहा हूँ मैं’। मैंने बाबा नागार्जुन से सीखा है कि जनपक्षधर रचना का रूप इतना सरल और लोकोन्मुखी होना चाहिए कि रचनाकर विश्वास से कह सके, ‘मेरी भी आभा है इसमें’।

रचना को जीवन के निकट होना चाहिए। उसे उस जनता के बोध के नजदीक होना ही चाहिए जिसके लिए वह लिखा गया है और जिसके जीवन पर अवलंबित है। चाहे पाठक उसे रचनाकार के जीवन काल में पढ़ सके या नहीं; उसे अपना हिमायती समझ सके या नहीं। लेकिन यदि रचना ईमानदारी से उसके जीवन संघर्ष और लोकवृत्त को अपने शब्दों में ध्वन्यार्थों और अभिप्रेतार्थों सहित उसके साथ खड़ी रहती है, तो वह काल के पार जाती ही है। वह जनसाधारण को अपनी जबान, अपना औजार और अपना दोस्त लगती है। यदि लिखे में रचनात्मक निष्ठा, लोक सापेक्षता, संवेदना के साथ अपने समय और आनेवाले समय को बयान करने की सामर्थ्य है तो वह कभी न कभी आवाम में अपनी जगह बना सकता है। यह समानुभूतिपरक रचनाधर्मिता ही लेखन का अभ्यास होना चाहिए।

रचना दृष्टि में कुछ शर्तें होती हैं जो एक लेखक के तौर पर परिपक्वता होते जाने से दायित्वबोध के रूप में उसकी कलम से बंध जाती हैं, मसलन, पक्षधरता को तय करना। इसे हबीब ज़ालिब के मुताबिक यह होना चाहिए कि, ‘हमने जो भूल के भी शह का क़सीदा न लिखा/शायद आया इसी ख़ूबी की बदौलत लिखना’ और वह सचाई जिसे फिर उन्हीं के लफ्जों में कहूँगा कि, ‘देना पड़े कुछ भी हरजाना, सच ही लिखते जाना/मत घबराना, मत डर जाना, सच ही लिखते जाना/पल दो पल के ऐश की ख़ातिर क्या देना, क्या झुकना/आख़िर सबको है मर जाना, सच ही लिखते जाना’।

एक लेखक को वस्तुपरक और वैज्ञानिक समझ से लैस होना ही चाहिए, एक स्वप्नद्रष्टा और मानवीय मूल्यों की मशाल लेकर आगे बढ़ने वाला भी।

समाज और व्यक्ति के संत्रास, संघर्ष, स्वप्न को प्रतिबिंबित करते हुए उसकी मुक्ति और बेहतरी का रास्ता खोजते हुए लिखना होता है। यदि जीवन को अपनी कलम से रचते हुए उस जीवन के करीब खड़ा हो सकने की कूवत नहीं हो, तो लिखना व्यर्थ है। उस रचना की जेहन में उभरी नींव में लगने वाले ईंट-गारे होते हैं, जिनपर रचना को खड़ा किया जाना है। एक सवाल की तरह भी और उसके हल की तरफ़ उठने वाले इशारे की तरह भी।

रचना किसी घटना का बयान हो सकती है, और उससे उपजी प्रतिक्रिया भी। घटना कोई अखबारी सूचना हो सकती है, या सुनी हुई कोई बात या सहसा कुछ देखकर कौंधी हुई अनुभूति… लेकिन इतने से प्लॉट की बिजली जेहन के अर्श पर चमकती भर है, असल में इसके बाद उन कारणों को, स्थितियों को और संबंधों को तलाशने का काम होता है, जिनको मूल आइडिया यानी विचारवस्तु को पुख्ता गढ़ कर ‘कथा’ बनाई जा सके। इसी तलाश और बयानबाजी से मूल कहन को व्यापक ही नहीं बनाया जाता, बल्कि उसे विश्वासयोग्य और तथ्यपरक भी बनाया जा सकता है। मैं कहना चाहता हूँ कि कहानी जो कहना चाहती है या असल में लेखक के रूप में मैं जो कहना चाहता हूँ, वह जटिल हो या स्पष्ट हो, वह कह सकूं।

कहानी को समकालीन जीवन की ‘कमेंट्री’ ही नहीं, उस पर ‘कमेंट्स’ भी होना चाहिए। लिखते हुए मूल विषय के साथ नत्थी कई मुद्दों पर ध्यान जाता है। इन्हें कहानी या उपन्यास की मुख्य कथाधारा में उसी तरह शामिल करते जाना चाहिए, जैसे एक बड़ी नदी में कई छोटी धाराएं यहां-वहां से आ जुड़ती हैं। लिखते हुए पाठक को यह बताने का प्रयास रहता है कि देखो यहां-यहां नजर डालो। कोई संवाद घटना की तरफ इशारा भी है और उसकी आलोचना भी। पाठक को याद रखना होगा कि क्या हुआ, क्यों हो रहा है, आगे क्या होगा या हो सकता है? अगर लेखक को लिखते समय इसका ध्यान नहीं है कि पाठक इस लिखे पर कैसे प्रतिक्रिया देगा, तो भटकने या आत्मतुष्टि मात्र हो जाने का खतरा रहता है।

बतौर लेखक, मैं समझता हूँ कि कल्पना यथार्थ की भीत को उठाने और लीपने वाला गारा होती है। असली ईंट सचाई है, जिसकी मजबूती से ‘गल्प’ को खड़ा किया जाता है। इसलिए लिखने के लिए मैं यथार्थ को कल्पना में गूंथता हूँ।

मेरे लिए लिखने की पूरी प्रक्रिया किसी तय समय, किसी शर्त और संकोच के बाड़ से बंधी हुई नहीं है। ऐसा होने पर मैं लिख नहीं पाता। लिखने के लिए स्याही से ज्यादा साहस की जरूरत है, ऐसा मैं मानता हूँ।

अब अपने वक्तव्य का दूसरा हिस्सा कि हम अपने आसपास के जीवन को, दुनिया को कैसे देख रहे हैं? हम कैसा हस्तक्षेप करना चाहते हैं?

आज दुनिया भर में बेहद आक्रामक रूप से जातीय, धार्मिक और नस्लीय अस्मिताओं की धाक का दौर है। इतिहास को देखें तो मानव समाज कई तरह के अतिवादी हिंसक दौरों से गुजरा है। हर दौर ने इंसान के अस्तित्व के लिए कठिन चुनौतियां पेश की हैं। प्राकृतिक आपदाओं से कहीं अधिक मानव निर्मित संकटों ने मनुष्य, समाज और विश्व के सामने इनसे पार पाने के लिए कसौटियां दी हैं। और यह सत्य है कि मनुष्य की सबसे बड़ी संस्कृति- ‘मानवता’ ने इन कसौटियों को पार किया है। हम लेखक, कलाकार या किसी भी विधा के सर्जक इसी मानवीय संस्कृति की देखरेख करने वाले हैं!

हिंसक सांस्कृतिक वर्चस्ववाद, आज राजनीतिक तौर तरीकों में वैधानिकता का जामा पहने लोकतांत्रिक और मानवीय मूल्यों को बेतरह ध्वंस कर रहा है। यह दुनिया भर में हो रहा है। समाज की विसंगतियां और लोक का संत्रास सामाजिक इकाई के रूप में सिर्फ कुछ व्यक्तियों को नहीं, बल्कि एक वर्ग के रूप में सामूहिक रूप से पूरे मानव समाज को प्रभावित कर रहा है। मनुष्य-विरोधी राजनीतिक नीतियों, दुराग्रहों और जबरदस्तियों ने दुनिया भर में लोगों के विभिन्न वर्गों को इनसे भिड़ने के लिए एकजुट किया है। पूंजीवाद और साम्राज्यवाद की चाटुकार सत्ताओं ने लोकतंत्र, मानवता और वैज्ञानिक मूल्यों को इस तरह चोट पहुंचाना शुरू किया है कि आने वाली पीढ़ी के लिए अस्तित्व और विकास के संकट साफ दिखाई देने लगे हैं।

धर्म, पूँजी और राजनीति का गठजोड़ संस्कृति, इतिहास तथा ज्ञान की विविध धाराओं को क्षति पहुँचा रहा है। उसने समाज में एकरंगी, रूढ़िवादी और अवैज्ञानिक विचारों के दबदबे को कायम किया है, इसमें सत्ताओं का स्वार्थ है। आज युवा, छात्र, किसान, महिलाएं, मजदूर हर वर्ग सड़क पर उतर कर प्रतिवाद कर रहा है। देश ही नहीं, यूरोप के अनेक देशों में हाल में जनता-विरोधी नीतियों के खिलाफ जनता सड़कों पर उतरी है। हमारे भारतीय उपमहाद्वीप के पड़ोसी देशों में भी हमने नागरिक अशांति के हालिया दौर देखे।

परस्पर युद्ध, कमजोर के साथ हिंसा और उन्माद को उग्र नस्लीय और धार्मिक राष्ट्रवाद के भीतर सहज मान्यता दे दी गई है। धार्मिक प्रतीकों को राष्ट्रीय प्रतीकों के साथ मिलाकर एक उदाहरण जिस प्रकार नौजवान पीढ़ी के सामने रखा जा रहा है, वह एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में हमारे आचरण और प्रतिबद्धता के ही नहीं, सहिष्णु, उदार मानवतावाद के वैश्विक मूल्यों के भी खिलाफ है। दुनिया के हरेक नागरिक को ‘हम’ और ‘वे’ की बायनरी में बांट दिया गया है। ‘हम’ हमेशा ‘वे’ के खिलाफ गिरोहबंदी करता है, हर तरह की हिंसा को जायज मानता है, उससे आनंद महसूस करता है। यह बहुत बीभत्स और खतरनाक स्थिति है।            

ऐसे में लेखक या संस्कृतिकर्मी के नाते हम अपने आपसे यह अपेक्षा रखते हैं कि हमारा प्राथमिक दायित्व है- ‘अंधेरे समय में अंधेरे समय के गीत गाना’ और इस अंधेरे के कारकों को चिह्नित करते हुए उनका विरोध करना। लेखकीय और रचनात्मक ईमानदारी इसी में है कि हम सत्य की अभिव्यक्ति करते रहें। प्रेमचंद चेताते हैं कि, ‘क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहोगे?’ आज हम जानते हैं कि बात महज ‘बिगाड़’ की नहीं है। और है तो इस ‘बिगाड़’ की कीमत क्या है? इन हालात के बीच अगर रचना को बचना है तो रचना के जरिए इंसानियत को बचाने की कवायद करनी होगी।

आज कादौर आसान बिलकुल नहीं है। हो सकता है, कबीर के समय में भी यह सच हो कि लिखना आसान नहीं है! लेकिन आज हम कबीर का नाम जानते हैं, लेकिन जिन्होंने उन्हें लिखने से रोकना चाहा होगा, उनका नाम इतिहास में नहीं है। कहने का अर्थ यह कि हम हमेशा प्रतिकूलताओं के बीच में ईमानदारी से रचना प्रस्तुत कर रहे होते हैं, तो हमेशा एक सतत प्रतिपक्ष होते हैं। यदि शोषक की आलोचना आप करते हैं तो हमेशा आप प्रतिपक्ष में होते हैं। हमने देखा है कि यूरोप के अंदर भी, और भारतीय उपमहाद्वीप के दूसरे जो हमारे पड़ोसी देश हैं, वहां भी, बहुत जबरदस्त नागरिक असंतोष है। हमारी नजर बतौर एक लेखक, एक रचनाकार अपने आसपास से लेकर दुनिया तक  होनी ही चाहिए।

हम देख रहे हैं कि फिलहाल बोलना बहुत आसान नहीं है। लिखना आसान नहीं है। यह तय किया जा रहा है कि आप क्या लिखोगे, आप कैसे लिखोगे, आप क्या बोलोगे, कहां बोलोगे। कुल मिलाकर यह कि जब अभिव्यक्ति पर इतने सारे अंकुश हैं और खौफ है, उस वक्त, हमने देखा कि हालिया वर्षों में किस तरह से एक लेखक को खुद अपनी मृत्यु की घोषणा करनी पड़ी।

हम आज जब भारतीय भाषा परिषद के मंच पर खड़े होते हैं, तो हम देखते हैं कि पूरा भारत, विभिन्न भाषाओं के साथी रचनाकार और वरिष्ठ रचनाकार यहां मौजूद हैं एक साथ। यह एकरंगी नहीं है, बहुरंगी है। यह बहुरंगता भारत की, हमारे देश की खासियत है। क्या आप नहीं समझते कि इस पर खतरा है?

बेशक इसीलिए आज दुनिया और देश के अंदर पूंजी के माध्यम से आक्रामक रूप से सत्ताएं हमें नियंत्रित करना चाहती हैं, सच को बोलने से रोकना चाहती हैं। हम देखते हैं कि जो तमाम शोषित वर्ग हैं, मजदूर-किसान, मेहनतकश लोग हैं, वे सारे परेशान हैं, तो हमें उनके पक्ष में खड़ा होना है, लिखना है और यह कोई नया काम मैं नहीं कर रहा हूँ, क्योंकि मुझसे पहले बहुत वरिष्ठ, हमारे पुरखे यही करके गए हैं। हमें उसी कड़ी में जुड़ना है।  यहां हमारी रचनात्मक ईमानदारी का सवाल आता है, जिसको निभाए बगैर किसी भी पुरस्कार की कोई अहमियत नहीं रह जाएगी। अगर मैं अपने प्रति ईमानदार नहीं हूँ, अपने लेखन के प्रति नहीं हूँ जो यह एक सांस्कृतिक संकट की सूचना है। हम देख रहे हैं कि जो असंतोष है, जो लड़ाइयां हैं, आज  वे विभिन्न घटनाओं की धरातल पर लड़ी जा रही हैं। आज मजदूर-किसान सड़क पर हैं। जो युवा हैं, वे विरोध दर्ज कर रहे हैं, यूनिवर्सिटियों में अनरेस्ट है। तो बतौर लेखक हम कैसा लिखेंगे? क्या लिखेंगे? बहुत अच्छी बात थोड़ी देर पहले मधु कांकरिया ने कही कि हम इतनी बड़ी लड़ाई को अकेले दम पर तो नहीं ही लड़ सकते हैं, लेकिन लड़ाई में हम अपनी भूमिका जरूर तय कर सकते हैं। भूमिका कितनी होगी, छोटी या बड़ी जो भी हो, लेकिन हम तय करें। इसी में हमारे लेखन की सार्थकता है।

कंप्यूटर प्रभाग, बी डी एस एल महिला महाविद्यालय, घाटशिला, पूर्व सिंहभूम, झारखंड-832303 मो. 9852715924

संपर्क प्रस्तुतिकर्ता :​ 36, शेक्सपियर सरणी, भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता-700017 मो. 9748891717