रंगकर्मी और अनुवादक।लंबे समय से कोलकाता के  रंगमंच रंगशिल्पीसे संबद्ध।अद्यतन कार्य बांग्ला से हिंदी में अनूदित उपन्यास सीतायन’ (मल्लिका सेनगुप्त)

आज प्लास्टिक या पॉलीथिन पर बात करना, लगता है एक ही बात को दुहराना है।आज आप किसी भी व्यक्ति जो जरा भी समझदारी रखता हो, पूछ कर देखें कि प्लास्टिक कितना ख़तरनाक है? वह चट से जवाब देगा- ‘हां, बहुत खराब है।किंतु क्या करें, लेना पड़ता है।कोई उपाय नहीं है!’ बस यहीं से लापरवाही का परिचय मिलने लगता है। ‘क्या करें, ऑफिस से लौट रहा था, रास्ते में अच्छी गोभी दिख गई, खरीद ली प्लास्टिक के थैले में।’ ‘बीवी ने फोन कर दिया, घर आते वक्त दस रसगुल्ले खरीद लेना।बस गरम गरम रसगुल्ले पॉलीथिन कै बैग में ले लिया।’ अब मैं कहूं कि भाई साहब अपने ऑफिस बैग में एक झोला रख लिया कीजिए।कम से कम प्लास्टिक बैग में तो कुछ खरीदना नहीं पड़ेगा।जवाब तो बस ‘हां’ या ‘हूँ’ में मिलता है।लोगों को शर्म आती है साथ में एक झोला लेकर चलने में।ऐसे तमाम तर्क, मजबूरी, लापरवाही दिखेगी पॉलीथिन बैग को प्रेमपूर्वक घर लेकर आने में।

बहरहाल, बात कर लेंगे हम सत्यकाम दत्ता की कई पुरस्कारों से पुरस्कृत करीब ४ साल पहले बनी डॉक्यूमेंट्री फिल्म ‘फाइंडिंग ब्यूटी इन गार्बेज’ पर।फिल्म की पृष्ठभूमि असम का डिब्रूगढ़ है।डिब्रूगढ़ की ऐसी कोई सड़क नहीं जहां रंग-बिरंगे प्लास्टिक का अंबार न लगा हो।प्रमाण के तौर पर कई सड़कों के नाम गिनाए गए हैं-  ए एम सी रोड, कॉन्वय रोड, एच एस रोड, के सी गोगोई रोड, नादियापूल, ए मदर पट्टी, मिलन नगर, चौकीडिग्घी आदि।ऐसे तमाम सड़कों के किनारे प्लास्टिक कचरे की सुंदरता बिखरी हुई है।जी हां, सुंदरता।वहां के लोग इसे हँसते-हँसते सुंदरता कहते हैं।लोग हाथ में प्लास्टिक के कचरे लेकर आते हैं और शान से सड़क के किनारे फेंक कर चल देते हैं।इस फिल्म को देखकर वहां के निवासियों के प्रति वितृष्णा जन्म नहीं लेती, बल्कि व्यवस्था का खोखलापन नजर आता है।नगरपालिका द्वारा डस्टबिन लगाए तो गए हैं मगर उनकी तोंद इतनी बड़ी नहीं कि सारा कचरा डकार लें।वे कचरे के डब्बे कहीं उबकाई करते, कहीं औंधे पड़े, कहीं अपंग तो कहीं मूर्छित से नजर आते हैं।उन कचरों में भोजन ढूंढते असंख्य मवेशी नजर आते हैं।डिब्रूगढ़ को असम के ‘टी सिटी ऑफ इंडिया’ कहा जाता है।ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे बसा यह शहर कई विरासतों को समेटे हुए है।मगर लोगों ने इस शहर को और सुंदर बनाने के लिए जहां-तहां प्लास्टिक कचरे का ढेर लगा रखा है।

लोग हँसकर अपनी प्रतिक्रिया देते हैं कि इस रंग-बिरंगे कचरे ने हमारे शहर की खूबसूरती बढ़ा दी है।दरअसल यह पूरी फिल्म बड़ी गंभीरता से व्यवस्था पर व्यंग्य करती है।बहुत हल्के तौर पर नगरपालिका के एक कर्मचारी का चिढ़ दिखता है।नालियों की दुर्दशा दिखती है पर यह कोई ज्यादा प्रभाव नहीं छोड़ता, जितना कि एक दुकानदार का यह कहना कि लोगों ने कचरे के ढेर को उसकी दुकान का लैंडमार्क बना लिया है।फंला कचरे के ढेर के पास वाली दुकान में चले जाओ, वहां एक नंबर सामान मिलता है।

बहरहाल, अब भी वहां की स्थिति बदली है या नहीं, कौन जाने।वैसे प्लास्टिक कचरे ने चारों तरफ हाहाकार मचा रखा है।

पानी नाक के नीचे तक पहुंच चुका है।बहुत बड़ा नुक़सान हो चुका है।अब भी जरा सी संभावना दिख रही है संभल जाने की।अगर चूक होती रही तो भयंकर महामारी का दौर शुरू हो जाएगा।यह प्लास्टिक पूरी पृथ्वी पर मौत का तांडव शुरू कर देगा।हालांकि लोग भयंकर रोग के शिकार होने लगे हैं।मरने लगे हैं।सरकार अब भी बेपरवाह है।प्लास्टिक के विरुद्ध  घोषणाएं कागजी पुलिंदा बन कर रह जाती हैं।प्लास्टिक के विरुद्ध कानूनी भय दिखाते हुए हमारे क्षेत्र में भी घोषणाएं की जा रही हैं।विक्रेता को ५०० रुपए और क्रेता को ५० रुपए दंड देना पड़ सकता है।पर परिणाम अब तक ढाक के तीन पात ही है।

बहरहाल, पराशर बरुआ का एक वृत्तचित्र है ‘वेस्ट’।लगभग ८ मिनट की यह फिल्म खामोशी से देखने को मजबूर करती है।आपके मुंह से बस ‘ओह’ ‘आह’ और ‘चच्च चच्च’ के अलावा कोई शब्द नहीं निकल सकता।पराशर बरुआ ने समाज को आईना दिखाया है।

गंदे और बजबजाते कूड़े के ढेर से अपनी जरूरत की चीजें ढूंढ़ने में मस्त हैं तीन बच्चे – समीर, संतोष और सलमान।मुंबई के धारावी इलाके में तीन बच्चे दिन भर रिसाइकिल इंडस्ट्रीज के लिए हर ऐसी जगह से फेंके गए टूटे-फूटे यूज्ड सामान चुनते हैं, जिस जगह यह तथाकथित भद्र समाज अपने पैर भी रखना पसंद न करे।रिसाइकिल इंडस्ट्रीज के लिए कूड़े चुन कर बेचना ही उनका पेशा है।उनका परिवार चलता है।

फिल्म देखते हुए यह खयाल बार बार आता है कि वे बच्चे तो भयंकर बीमारी से ग्रस्त होंगे ही, हमारी जिंदगी भी सुरक्षित नहीं है जो उन रिसाइकिल इंडस्ट्रीज से बने सामानों को खरीद कर अपने घर में व्यवहार करते हैं।उन कूड़ों में ज्यादातर प्लास्टिक कूड़े हैं।प्लास्टिक वैसे पहली बार भी व्यवहार करना बेहद खतरनाक है।दो-तीन बार रिसायकिल होने के बाद कितना जहरीला होगा इसका अनुमान आप लगा सकते हैं।धारावी इलाके में लाखों लोग रिसाइकलिंग इंडस्ट्री में लगे हुए हैं।वहां के वाशिंदे यह भी अनुमान करते हैं कि जिस दिन धारावी इलाके के डेवलपमेंट का काम शुरू हुआ वे सारे इंडस्ट्री खत्म कर दिए जाएंगे।मगर इसका उपाय क्या है? आखिर क्या विकल्प हो सकता है? आज हम एक ऐसे मोड़ पर पहुंच गए हैं जहां किसी चीज के विरुद्ध कड़े फैसले लेने से पहले कई सारी बाधाओं का सामना करना जरूरी हो जाता है।लेकिन अंतत: इस प्लास्टिक कचड़े के विरुद्ध अगर कोई सख्त कदम न उठाया गया तो प्लास्टिक के गर्त में डूबकर हम आखिरी सांस गिनने पर मजबूर हो जाएंगे।

२०१८ में जेम्स रॉबर्ट्स की एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म है ‘ए प्लास्टिक वेव’।इस फिल्म में एक नष्ट हो रहे ग्रह पृथ्वी के लिए अफसोस दिखता है।धीरे-धीरे समुद्र को भी अपने आगोश में लपेटते जा रहे हैं ये प्लास्टिक।दुनिया में शायद ही कोई समुद्री किनारा बचा हो जो इस प्लास्टिक के जद में नहीं है।जेम्स रॉबर्ट्स की यात्रा अपने देश से लेकर भारत में मुंबई समुद्री तट तक है।मुंबई के समुद्री तट की हालत बेहद दयनीय है।

बीच एक्टीविस्ट चीनू वटराव हों या क्लाइमेट चेंज स्पेशलिस्ट डॉ. रश्नेह पर्दीवाला, इनकी चिंता प्लास्टिक कचरा और पर्यावरण के प्रति दिखती है।सवाल यह उठता है कि इनके साथ कितने लोग जुड़ रहे हैं? चीनू और राबर्ट्स अपने हाथों से समुद्री तट पर प्लास्टिक कचरा चुनते नजर आते हैं।अच्छा लगता है देख कर।प्रेरणा मिलती है।मगर सवाल वही है कि कितने लोग प्रेरित होंगे?

मछुआरों के जाल में मछली से ज्यादा प्लास्टिक फंसते हैं।वाकई वे दिन दूर नहीं जब समुद्र में मछली से कई गुणा ज्यादा प्लास्टिक होंगे।धीरे धीरे पूरे समुद्र में प्लास्टिक का एक मोटा लेयर पड़ता जाएगा।सूरज की रोशनी समुद्र के भीतर नहीं पहुंच पाएगी।समुद्री शैवालों की प्रकाश संश्लेषण क्रिया ठप पड़ जाएगी।पृथ्वी को ७० प्रतिशत ऑक्सीजन मिलना बंद हो जाएगा।अब आप अनुमान लगाएं कि आपकी सांसों से ७० प्रतिशत हवा गायब है।अब क्या करेंगे आप? किस ग्रह से हवा मांगेंगे आप? अब आप एलन मस्क तो हैं नहीं कि अपने स्पेसजेट पर सवार होकर निकल लिए किसी दूसरे ग्रह के संधान में।

कहते हैं केवल ३० सालों के बाद पृथ्वी की जनसंख्या बेहद तेजी से कम होती जाएगी।इस प्लास्टिक की वजह से हम असंख्य बीमारियों के गिरफ्त में होंगे।बचाने वाला कोई न होगा।हवाएं खत्म होती रहेंगी।हो सकता है आनेवाली शताब्दी में पृथ्वी मानव शून्य हो।

प्लास्टिक के आविष्कारक ने बहुत खुश होकर सोचा होगा कि उन्होंने पृथ्वीवासियों को महान चीज भेंट की है।पर उन्हें भी कहां पता था कि यह आविष्कार पूरी पृथ्वी को ले डूबेगा।आज हर घंटे न जाने कितने ट्रक प्लास्टिक समुद्र में समा रहे हैं।पर पृथ्वी के पहरुए बेखबर हैं।सारी चिंताएं मीटिंग और सेमिनारों में दिखती हैं।

आम लोग से प्लास्टिक न व्यवहार करने की बात करें तो उनका सीधा जवाब होता है, सरकार प्लास्टिक कारखाने को बंद क्यों नहीं कर देती? जवाब सही भी है।पर उन्हें क्या पता कि प्लास्टिक उत्पादन में बड़े-बड़े पूंजीपति और मंत्रियों के हाथ हैं।

एक अनुसंधान बताता है कि १९५० से २०२० तक ८.३ मिलियन टन प्लास्टिक का उत्पादन हुआ है।इसमें केवल ९ प्रतिशत प्लास्टिक को ही रीसाइकलिंग किया जा सका है।बाकी प्लास्टिक यूं ही कचरे के रूप में पृथ्वी पर पड़े हुए हैं।कुछ जला दिए जाते हैं जो बेहद खतरनाक क्रिया है।ज्यादातर प्लास्टिक का अंतिम पड़ाव समुद्र है।हालांकि कई यूरोपीय देश समुन्दर से प्लास्टिक कचरे को बाहर निकालने की कोशिश में लगे हुए हैं।यह काम बेहद कठिन प्रतीत होता है।एक तरफ समुद्र से प्लास्टिक निकाला जाए और दूसरी तरफ से लाखों टन प्लास्टिक समुद्र में प्रवेश करे तो साफ करने का कोई मतलब नहीं रह जाता।अब आम लोगों को सोचना होगा कि अपनी जिंदगी के साथ-साथ आनेवाली पीढ़ी के लिए क्या भला करेंगे।बीमारी या स्वास्थ्य, गंदगी या स्वच्छता, दूषित वातावरण या प्रदूषणमुक्त पृथ्वी।

 

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