रंगकर्मी और अनुवादक।लंबे समय से कोलकाता के  रंगमंच रंगशिल्पी’ से संबद्ध।अद्यतन कार्य बांग्ला से हिंदी में अनूदित उपन्यास सीतायन’ (मल्लिका सेनगुप्त)

रचनात्मकता मनुष्य के सामाजिक अस्तित्व का एक अनिवार्य हिस्सा है। यह सभ्यतागत विकास का भी चिह्न है। रचनात्मकता ही मनुष्य को रूढ़ियों और पूर्वग्रहों से मुक्त करती है। यह मनुष्य के दृष्टिकोण में व्यापकता लाती है और उसके अंतर्जगत को समृद्ध करती है। आज एक बड़ा प्रश्न यह है कि सभ्यता सामाजिकी और प्रौद्योगिकी के जिन औजारों को लेकर एक नए मोड़ पर खड़ी है, वहां साहित्यकार रचनात्मकता के भविष्य को कितना सुरक्षित समझते हैं।

भारतीय भाषा परिषद के 20 अप्रैल 2024 को आयोजित पुरस्कार समारोह में कर्तृत्व समग्र सम्मान और युवा पुरस्कार से सम्मानित लेखकों ने इस विषय पर जो लिखित वक्तव्य प्रस्तुत किए, वे यहां दिए जा रहे है।

 

राधावल्लभ त्रिपाठी
संस्कृत साहित्य के सुप्रसिद्ध विद्वान और रचनाकार। कवितासंग्रह संधानम्के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित। लहरीदशकम्’, ‘नया साहित्य नया साहित्यशास्त्र’, ‘आदिकवि वाल्मीकि’, ‘काव्यशास्त्र और काव्य’, ‘भारतीय नाट्यशास्त्र की परंपरा और विश्व रंगमंच’, ‘नाट्यशास्त्र विश्वकोश’ (चार खंड) आदि कई प्रमुख पुस्तकें।

परंपरा और आधुनिक सभ्यता दोनों से मैंने बहुत कुछ पाया है

अपने निजी जीवन तथा साहित्यिक लेखन में परंपरा और आधुनिक सभ्यता के बीच का तनाव मैंने शिद्दत से महसूस किया है। हर रचनाकार अपनी रचनात्मकता की चुनौतियों और संकटों का सामना रचना में ही करता है। अलग से उनको लेकर बयान देना उसी प्रकार एक चुनौती भरा काम हो जाता है, जैसे किसी मां से उसकी प्रसव पीड़ा को लेकर वक्तव्य देने को कहा जाए। परंपरा और आधुनिक सभ्यता दोनों से मैंने अपनी रचनात्मकता को उकसाने, स्फूर्त बनाए रखने और जारी रखने के लिए बहुत कुछ पाया है। कदाचित जितना मिला उसमें से बहुत थोड़ा समेट और सहेज सका, उसमें से और भी थोड़ा व्यक्त कर सका। रवींद्रनाथ जैसे कालजयी रचनाकार का भी कुछ ऐसा ही अनुभव है, मेरे जैसे लोग उनका तो पासंग भी नहीं पा सकते, पर उनके शब्दों में मैं यह तो कह ही सकता हूँ कि मैं थोड़ा सा पाया, उसी को सहेजते-सहेजते थक गया, बस यहां गया वहां गया। हाहाकार मंद न हुआ, बंद न हुआ।

अल्प लइ थाकि ताइ मोर जाहा जाय ताहा जाय
कणाटुकु यदि हाराय ता लये प्राण करे हाय हाय

कुछ साल पहले इसी कलकत्ता शहर से होते हुए मुझे एक बार ढाका जाना था। कलकत्ता से फ्लाइट पकड़ कर इसलिए जाना पड़ा कि जिस संस्था ने ढाका में आमंत्रित किया था, उसने मेरे वीजा के लिये कलकत्ता में किन्हीं सज्जन से संपर्क करने का निर्देश दिया था। मैं नरेंद्रपुर से चलकर ढाई घंटे में उस मुकाम पर पहुंचा जहां उन सज्जन से भेंट होनी थी। बताए गए पते के मुताबिक जिस गली में पहुंच कर रुका, उसमें कार ज्यादा देर खड़ी नहीं की जा सकती थी। पार्किंग के लिए कहीं कोई जगह नहीं थी, यहां तक कि गाड़ी का दरवाजा खोल कर नीचे उतर सकूँ, इतनी जगह भी नहीं थी। जिस टैक्सी में बैठकर गया था, न मैं उसको छोड़ सकता था, न उससे उतर सकता था। जिन सज्जन से मिलना था, वे खुद कार तक  आए, मैंने कार की खिड़की का ग्लास थोड़ा सा खोल कर उन्हें पासपोर्ट और कागजात दिए। उन्होंने कहा, कल टालीगंज आकर मैं वीजा के साथ आपना पासपोर्ट ले लूं। इससे अधिक बात करने के लिए गुंजाइश न थी। पीछे कारों की कतारें थीं, बगल में कारें, और संकरी गली में टैक्सी रेंगती हुई केवल आगे जा सकती थी।

आधुनिक सभ्यता ने हमें ऐसी ही अंधी गली में लकर छोड़ दिया है, जिसमें वापस मुड़ने की गुंजिश नहीं बची। हवाई यात्राएं करते हुए कई बार टेक आफ के पहले हम देखते हैं कि पीछे ले जाने के लिए विमान को किसी दूसरी गाड़ी से धकेला जा रहा है। हवाई जहाज में रिवर्स गियर नहीं होता। हवाई जहाज पीछे नहीं मोड़ा जा सकता, न वह पीछे जा पाता है। वह आगे ही जाता है। विमान चालक तो पीछे  देख भी नहीं पाता होगा। हवाई जहाज आधुनिक सभ्यता है, जिसमें सिंहावलोकन नहीं होता। विहगावलोकन हो सकता है।

2014 में सितंबर के महीने में ईरान के अबादान शहर में था। हम लोग शाम को अबादान घूमने निकले थे। अरवंद नदी के किनारे बहुत देर तक खड़े रहे। अरवंद के उस पार इराक है। सामने इराक की इमारतें दिख रहीं थीं। दो देश कितने नजदीक, फिर भी कितने दूर। इरान और इराक कितनी समृद्ध परंपराओं वाले देश हैं। कितनी ही साझी विरासत के वारिस भी हैं वे। अवेस्ता और जरथुस्त्र की परंपरा। पारसी धर्म और मोहम्मद साहब के संदेश। फिरदोसी के शाहनामा की परंपरा। हाजी, शम्स तबरेज, ज़लालुद्दीन रूमी की लाजवाब सूफी कविताओं के अध्यात्म की परंपरा।

मुझे लगा आधुनिक सभ्यता ने दोनों देशों की साझा परंपराओं के बीच कैसी अभेद्य दुर्लंघ्य दीवारें खड़ी कर दी हैं। जिस आयोजन में मैं वहां उपस्थित था, वह इरान और इराक के बीच युद्ध की आशंकाओं के बीच हो रहा था।

मुझे वहां एक साहित्य सम्मेलन में संस्कृत कविता पढ़ने के लिए बुलाया गया था। सम्मेलन का विषय था ‘युद्ध में बच्चा’। मैंने ‘दुर्जय’ शीर्षक कविता सुनाई, जो महाभारत युद्ध के बाद अनाथ की तरह भटकते दुर्योधन के पांच साल के बेटे के बारे में है। बलराम शुक्ल जी ने उसका फारसी अनुवाद प्रस्तुत किया। कविता संप्रेषित हुई, क्योंकि महाभारत के युद्ध की विभीषिका को सामने बैठे श्रोता देख समझ रहे थे। क्या परंपरा आधुनिक सभ्यता की सारी विभीषिका के बीच सवाल करते, भटकते दुर्जय की तरह है?

मेरी अनेक रचनाओं में परंपरा आधुनिक सभ्यता से टकराती है या आधुनिकता परंपरा को ले कर असमंजस और तनाव की स्थिति में आ जाती है।

मैं लगभग साठ-पैंसठ वर्षों से हिंदी और संस्कृत इन दो भाषाओं में लिखता आ रहा हूँ। मेरा अनुभव रहा है कि जिस तरह भाषाएं एक-दूसरे को पोसती हैं, वैसे ही एकाधिक भाषाओं में रचना करने की प्रवृत्ति भी रचनाधर्मिता की पोषक हो जाती है। आधुनिक सभ्यता ने हमसे हमारी बहुभाषिकता और दिक्काल की बहुआयामी बोध को छीन लिया है।

संस्कृत में मेरा पहला कविता संग्रह ‘सन्धानम्’ 1989 में प्रकाशित हुआ था। इसपर मुझे साहित्य अकादेमी पुरस्कार प्राप्त हुआ। इस संग्रह की ‘जीवनवृक्षः’ शीर्षक कविता में श्मशान में लगे सूख कर ठूंठ होते जा रहे एक पेड़ का बयान है। यह परित्यक्त, उपेक्षित और असिंचित पेड़ है। मदविह्वल रमणियां इसपर मदिरा के कुल्ले करने नहीं आतीं, युवतियों के कोमल चरणों के आघात से उसमें फूल नहीं खिलते। फिर भी वह सोचता है स्थाणु (ठूंठ या शिव) की तरह प्रेतवन में एकाकी ही रह लूंगा नग्न, निष्प्रभ शाखाओं वाला भस्म हो चुके मनोरथों के साथ :

स्थास्याम्यहमेकाकी स्थाणुः प्रेतवने यथा।
नग्नो निष्प्रभशाखश्च भस्मीभूतमनोरथः॥

वह यह भी कहता है कोयला भी बन गया तब भी कोई हर्ज नहीं, मैं रह लूंगा अपने मनोरथों को समेट कर कपाली की तरह-

दग्धकाष्ठ इव श्यामो ह्यसंस्तुतमनोरथः।
तिष्ठाम्यत्र कपालीव हानिस्तेनापि किं मम॥

अंततः श्मशान में लगे पेड़ को इस बात का संतोष है कि अपने किसी स्वजन को फूंक कर घर वापस जा रहे लोग एक क्षण उसकी छाया में रुक लेते हैं।

संस्कृत में मैंने जो उद्धरण मूल में दिए हैं, उनमें स्थाणु और कपाली शब्दों का साभिप्राय प्रयोग है। स्थाणु ठूँठ को भी कहते हैं औऱ स्थाणु शिव का पर्याय भी है। कपाली भिखारी को भी कहते हैं और कपाली भी शिव का पर्याय है। इन शब्दों के प्रयोग के द्वारा मैं आधुनिक सभ्यता के श्मशान में परंपरा के उपेक्षित, ठूंठ और भिखमंगा समझ लिए गए शिव की सचाई की ओर इशारा करना चाहा है।

ऋतुचक्र हमारे विश्वबोध या पारंपरिक कालबोध का प्रतीक है। पर इस पारंपरिक बोध की आज के सभ्यता विमर्श में जो स्थिति है उसे लेकर ऋतुवर्णन वाली मेरी कविताएं पारंपरिक बोध और आधुनिक सभ्यता के बीच मुठभेड़ का विमर्श भी बन गई हैं। ‘वसंतलहरी’ के पहले ही श्लोक में मैंने कहा है –

शब्दा यथा स्मृतिमुपेत्य पुनर्विलीना
सीदन्ति चित्तजगति क्वचिदैककोणे।
उद्भिद्यतेऽथ च विनाशमुपेति सद्यः
काव्यामुरः कविमनःसु तथा वसन्तः॥

जिस तरह गुम हो गये शब्द
लौट कर आते हैं स्मृति में
और फिर हो जाते हैं विलुप्त
फिर वे कुलबुलाते रह जाते हैं
चित्त के किसी एक कोने में
कविता अंखुराती है भीतर और छीज जाती है
वसंत भी कुछ उसी तरह है
उसे खोजो तो कहीं दिखेगा नहीं
वह एक गुम हो गया
कहीं कुलबुलाता रह गया
लुप्त हो गया वसंत है।

मेरी कई कविताएं कस्बेनुमां एक नगर के अलग-अलग दृश्यों पर हैं, जैसे नगरे गावः (शहर में गायें), नगरे महिष्यः (शहर में भैंसे), नगरे शूकराः (शहर में सूअर), नगरे गृध्राः (शहर में गीध) आदि। इन्हीं में एक कविता नगरे वृषभः या ‘शहर में साँड’ शीर्षक से है। ये सारी कविताएं महानगर की सभ्यता में गुम हो गए मूल्यों और परंपराओं के बारे में हैं। पर नगरे वृषभः या ‘शहर में साँड’ शीर्षक कविता इनसे थोड़ी हट कर है। इस कविता में एक छोटे शहर के छोटे बाजार में बेरोक घूमते साँड के अतीत और वर्तमान का वर्णन है। इसमें छह शार्दूलविक्रीडित छंद हैं। मैं मूल कविता के स्थान पर केवल उसके पहले और अंतिम छंद का हिंदी अनुवाद यहां देना चाहता हूँ –

यह मानकर कि यह तो नंदी है शिव का वाहन
शहर में छुट्टा कर के छोड़ दिया गया था वह
सद्धर्म का पुण्डरीक समझ कर पूजते थे उसको लोग
वह विहरता रहता था स्वच्छंद
और अकेला अपनी ताकत से
रोक दिया करता था बाजार का यातायात
सारा व्यापार और आवाजाही लोगों की।

बाद के छंदों में शहर में साँड की अतीत की लीलाओं का वर्णन है। अंतिम छंद में कहा गया है-

उतर चुका है उसका उन्माद
भुला दी गईं हैं उसके त्रास की कथाएं
छिन्न भिन्न हो चुके जाल
उन दंतकथाओं के और मिथकों के
उसके इर्दगिर्द जो बुने गए थे
निःशेष है उसका आतंक
शिथिल उसकी गति
गिर चुकी उसकी दंतावली
एक आगे का पैर उसका
टूट चुका लाठियों की मार से
पीछे के दो कुचल दिए गए थे
किसी मोटर की टक्कर से
एक पांव पर खड़े धर्म की तरह
वह घिसटता है दयनीय
अपनी सारी माया के
सिमट चुकने पर सकपकाया।

इस कविता का निहितार्थ परंपरा के नाम पर उन सारी रूढ़ियों, किंवदंतियों और मिथकों पर सवाल भी खड़े करता है जिन्हें आधुनिक सभ्यता छिन्नभिन्न करती जा रही है। अलबत्ता यह कविता जब पच्चीस तीस साल पहले जब लिखी गई थी, तब से आज स्थितियां और जटिल हैं। गायें और साँड मध्यप्रदेश के उन शहरों में, जिनमें मैं रहा और अब रहता हूँ, अभी भी सड़कों पर वैसे ही छुट्टे घूमते हैं, और वे पहले से बदतर स्थिति में हैं। पर धर्म के नाम पर जो जाल और जंजाल खड़े किए जाते रहे हैं, वे और भी घने और जटिल हुए हैं। मेरी समझ से रचनाकार को इन जालों और जंजालों को छांच कर हटाने का काम भी अपने शब्दों की शक्ति से करना चाहिए।

21, लैंड मार्क सिटी, होशंगाबाद रोड, भेल संगम सोसायटी के करीब, भोपाल-462026 (.प्र.) मो.9999836088

 

एम. मुकुंदन
मलयालम के प्रसिद्ध कथाकार। उपन्यास ‘दैवथिंते विकृथिकल’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित। मलयालम साहित्य में आधुनिकता के अग्रदूतों में माना जाता है। इनकी अन्य प्रसिद्ध कृतियों में ‘मय्याझिप्पुझायुदे थेरांगलिल’, ‘केसवंते विलापंगल’ और ‘प्रवासम’ शामिल हैं। उनके लगभग दो दर्जन उपन्यास, 20 कहानी-संग्रहों और संस्मरण सहित कई अनूदित पुस्तकें भी हैं।

हमारे जीवन में भौतिक सुखों की भूख हावी है

रचनात्मकता यद्यपि विभिन्न रूपों में दिखाई देती है, परंतु इसका सबसे अधिक मूर्त रूप साहित्य में प्रकट होता है। हजारों वर्षों से साहित्यिक रचनाओं ने दर्शन, अध्यात्म, पौराणिक कथाओं, इतिहास और लोक-कथाओं के माध्यम से हमें सांस्कृतिक रूप से समृद्ध बनाए रखा है। महाभारत और रामायण इसके ज्वलंत उदाहरण हैं।

साहित्य के प्रश्न पर सबसे पहले फ्रांसीसी दार्शनिक और उपन्यासकार ज्यां-पॉल सार्त्र ने 1948 में प्रकाशित अपनी एक पुस्तक ‘साहित्य क्या है’ में विस्तृत रूप से विचार किया था, जिसकी गूंज दुनियाभर के लेखकों एवं बुद्धिजीवियों में सुनाई पड़ी थी।

जहां तक सभ्यता का प्रश्न है, उसका विकास ऐतिहासिक घटनाओं, भूगोल, यहां तक कि मौसम से भी संबंधित है। इन्हें समझे बिना हजारों वर्षों की सभ्यताओं के तौर-तरीकों के बारे में सही जानकारी नहीं मिल सकती। यह सच है कि सभ्यताएं कभी-कभी एक-दूसरे से प्रभावित होती हैं और अपनी सीमाएं लांघ जाती हैं। लेकिन सभी सभ्यताओं में जो एक बात समान रूप से पाई जाती है, वह है स्थायी रूप से उनमें विद्यमान मानवीय भावना।

जैसा कि हम सभी जानते हैं, भारतीय सभ्यता एक ऐसा बहुरंजित चित्रपट है, जिसपर सदियों से विविध चित्र उकेरे गए हैं। यह पूरी दुनिया में सबसे प्राचीन और समृद्ध सभ्यताओं में एक है, जिसका हजारों वर्षों का समृद्ध इतिहास है। इसका गहन रिश्ता सिंधु और सरस्वती नदी के तट पर बसी हुई आबादी से रहा है।

उत्तर-पश्चिम भारत की यात्रा करते समय एक बार मैं त्रिवेणी के तट पर खड़ा होकर गंगा, यमुना और सरस्वती जैसी महान नदियों के संगम को मुग्ध भाव से निहार था। सरस्वती दिखाई नहीं पड़ रही थी, पर वह एक मिथकीय नदी के रूप में अपने अस्तित्व में थी। महान भारतीय नद़ियों को जो चीज यूरोप की नदियों से अलग करती है, वह है उनकी आध्यात्मिक पवित्रता का बोध और मिथकों तथा किंवदंतियों से उनका जुड़ाव। मैंने अपने सपनों में अक्सर अपनी महान नदियों को वेदों से उद्गमित होते देखा है। बाद में जब मैंने ऋग्वेद में गंगा, यमुना और सरस्वती का उल्लेख देखा तो मुझे लगा कि मैं गलत नहीं हूँ।

अदृश्य नदी की धारणा ने आधुनिक लेखकों को भी प्रभावित किया है। प्रसिद्ध नाइजीरियाई लेखक बेन ऑकरी अपने उपन्यास ‘द फैमिश्ड लैंड’ में सड़क के नीचे बहने वाली एक अदृश्य नदी की बात करते हैं।

भारतीय सभ्यता ने भिन्न-भिन्न संस्कृतियों, धर्मों, दार्शनिक एवं कलात्मक परंपराओं का पोषण किया है और आधुनिक भारतीय समाज के ढांचे को भी आकार दिया है। हड़प्पा और मोहनजो-दारो के सुनियोजित शहर उस समय की सिंधु घाटी के बासिंदों की उन्नत शहर-योजना एवं इंजीनियरिंग के कौशल के प्रमाण देते हैं। उन्होंने जल-निकासी, सार्वजनिक स्नानघर और अनाज भंडार की एक उन्नत पद्धति विकसित की थी। लोग व्यापार, कृषि तथा शिल्प-कौशल में लगे हुए थे, जो दर्शाता है कि उस समय उनका सामाजिक संगठन तथा प्रौद्योगिक विकास बहुत उन्नत था।

प्रवासन तथा सांस्कृतिक प्रसार की लहरों की वजह से इंडो-आर्यन लोग भारतीय उपमहाद्वीप में आए और यहां के मूल निवासी के साथ उनके रीति-रिवाज तथा मान्यताएं घुल-मिल गईं। इस मिलन ने वैदिक सभ्यता की नींव रखी, जिसके फलस्वरूप संस्कृत साहित्य तथा वेद और उपनिषद जैसे धार्मिक ग्रंथों की रचना हुई।

भारतीय सभ्यता समावेशी है, जिसमें सभी प्रकार के मानवीय प्रयास सम्मिलित हैं। इसने अंदर और बाहर दोनों तरफ से पैदा होने वाले दार्शनिक या धार्मिक प्रभावों से टकराव से परहेज किया। इसकी वजह इसने उन चीजों को समाहित किया, जिन्हें समृद्ध और ज्ञानवर्धक पाया। हम पाते हैं कि महान अशोक ने बौद्ध धर्म को बढ़ावा दिया और एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की, जो इस उपमहाद्वीप के अधिकांश भागों तक फैला हुआ था।

हालांकि बौद्ध धर्म के उत्थान और पतन ने भारतीय सभ्यता के उत्थान और क्षरण में एक प्रमुख कारक के रूप में कार्य किया। परवर्ती काल में यह क्रमशः भारत से दूर होता गया और भारत के बाहर अनेक देशों में पल्लवित-पुष्पित हुआ। भूटान में बौद्ध धर्म न केवल वहां का आधिकारिक धर्म है, बल्कि वह भूटानियों के दैनिक जीवन और संस्कृति का एक अभिन्न अंग भी है। म्यांमार में भी बौद्ध धर्म उसकी समृद्ध विरासत के रूप में है और वहां का प्रधान धर्म भी है। मठ, पगोडा तथा प्राचीन मंदिर वहां के मजबूत बौद्ध प्रभाव को दर्शाते हुए एक परिदृश्य का निर्माण करते हैं। कंबोडिया का प्रसिद्ध अंगकोरवाट एक विशाल मंदिर परिसर है, जो मूल रूप में हिंदू मंदिर था, जिसे बाद में बौद्ध स्थल के रूप में रूपांतरित कर दिया गया। कंबोडिया की परंपरा और रीति-रिवाजों में बौद्ध धर्म गहराई से शामिल है। बौद्ध धर्म का श्रीलंका में भी एक लंबा प्राचीनकालीन इतिहास है। उसी तरह चीन में भी बौद्ध धर्म की उल्लेखनीय उपस्थिति है, यद्यपि यह वहां का आधिकारिक धर्म नहीं है। तिब्बत में वह विशेष रूप में विद्यमान है, जहां तिब्बती बौद्ध धर्म फूलता-फलता रहा है। जापान के जेन बौद्ध धर्म ने उसकी संस्कृति, कला और दर्शन पर अमिट छाप छोड़ी है।

मैंने पूरे भारत में फैले कुछ बौद्ध स्थलों, जैसे बोध गया, सारनाथ, नालंदा आदि का भ्रमण किया और वहां बौद्ध धर्म के अवशेषों को देखकर चमत्कृत हो उठा। मैं आश्चर्य कर रहा था कि क्यों बौद्ध धर्म अपने मूल जन्मस्थान को छोड़कर भारत के बाहर के देशों में चला गया और भारतीय सभ्यता में एक दरार पैदा कर गया। परंतु यह भी सच है कि भारत में बौद्ध धर्म का पतन एक जटिल प्रक्रिया थी, जो सदियों से चली आ रही थी। 12वीं सदी के अंत में पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर इस्लामिक आक्रमण हुआ। मुस्लिम आक्रांताओं ने बौद्ध मंदिरों, धार्मिक स्थलों एवं संस्थानों का विध्वंस किया। तक्षशिला एवं नालंदा विश्वविद्यालय को सर्वाधिक क्षति पहुंचाई। इसी अवधि में आम जनता में हिंदू धर्म के प्रति आस्था बढ़ी और शिव एवं विष्णु जैसे देवताओं की व्यापक स्तर पर पूजा-अर्चना होने लगी। इसके ठीक उलट बौद्ध धर्म मठों की जीवनशैली पर जोर देता रहा और सार्वजनिक जीवन से तथा आमजन के अनुष्ठानों से उसका संबंध विच्छेद हो गया। हालांकि भारत में बौद्ध धर्म का पतन भले हो गया हो, 20वीं सदी के मध्य उसका पुनरुद्धार भी होता दिखा।

जब हम सभ्यता और रचनात्मकता की बात करते हैं, हम बौद्ध धर्म के योगदान को निर्विवाद रूप से महसूस करते हैं। शताब्दियों तक भारतीय सभ्यता ने अनेक राजवंशों एवं साम्राज्यों के उत्थान-पतन को देखा, जिनमें मौर्य, गुप्त, चोला और मुगल राजवंश शामिल थे। इन सबने भारत की सांस्कृतिक बुनावट में योगदान किया, जिसकी छाप वास्तुशिल्प, विभिन्न कलाकृतियों और दार्शनिक चिंतनों में उपलब्ध है। वह आज भी भारतीय अस्मिता की पहचान है।

दुनिया की सभ्यताएं सहजीवी के रूप में एक-दूसरे से मिलती रही हैं। परंतु भारतीय सभ्यता तथा यूरोपीय सभ्यता के बीच एक खास अंतर दिखाई देता है, जो उनके अलग इतिहास, संस्कृति तथा भौगोलिक संदर्भ का परिणाम है। यूरोप का एक समृद्ध और वैविध्यपूर्ण इतिहास है, जिसमें ग्रीक, रोमन, तथा केल्ट जैसी विभिन्न प्राचीन सभ्यताओं का योगदान है। सामंतवाद, अभिजात वर्ग तथा वर्ग-आधारित समाजों ने यूरोपियन इतिहास का निर्माण किया है। यूरोपियन संस्कृति प्राचीन ग्रीक तथा रोमन परंपराओं के साथ-साथ मध्यकालीन एवं ‘रिनेसां’ काल के प्रभाव से प्रेरित है। भारत और यूरोप की सभ्यताओं के बीच भी एक संबंध बना है।

भारतीय संस्कृति में आध्यात्मिकता, ईश्वर के प्रति आस्था तथा उच्च मूल्यों की खोज का विशेष महत्व है। भारत में हिंदू धर्म, बौद्ध धर्म, जैन धर्म तथा सिख धर्म का अभ्युदय हुआ। भारत की सांस्कृतिक विविधता बहुविस्तारित है। देश के विभिन्न राज्यों की क्षेत्रीय भाषाएँ, पर्व-त्योहार, उत्सव, परंपराएँ अलग-अलग होते हुए भी उनमें एक अदृश्य एकसूत्रता है।

हम पाते हैं कि इस देश के रचनात्मक कार्यों ने भारतीय सभ्यता को समृद्ध किया और उसे अधिक विकसित होने में सहयोग किया। इसे समझने के लिए हमें इसपर विचार करना होगा कि महाभारत और रामायण ने देश और उसके बाहर भी, बल्कि समृद्ध सभ्यता वाले यूरोप में भी किस प्रकार आध्यात्मिक जागरूकता पैदा की।

संस्कृत महाकाव्य महाभारत का अनेक महत्वपूर्ण कारणों से विश्व साहित्य में सम्माननीय स्थान है। महाभारत एक विशाल महाकाव्य है, जो इलियड और ओडिसी दोनों के संयुक्त आकार से सात गुना बड़ा है। एक विशाल कैनवास के भीतर यह महाकाव्य मिथकीय, ऐतिहासिक और उपदेशात्मक सामग्री का एक समृद्ध चित्रपट बुनता है। महाभारत के मूल में चचेरे भाइयों — कौरव और पांडवों के बीच के संघर्ष की गाथा है। यह धर्म और इतिहास दोनों का एक अद्भुत पाठ प्रस्तुत करता है। यह महाकाव्य जटिल नैतिक दुविधाओं, मानवीय गुणों और कार्यों के परिणाम पर प्रकाश डालता है। इसमें प्रेम, कर्तव्य, निष्ठा, बलिदान तथा लौकिक व्यवस्था जैसे विषय शामिल हैं। महाकाव्य के कृष्ण, अर्जुन, द्रौपदी जैसे पात्र कालातीत प्रतीक बन गए हैं।

महाभारत ने यूरोपीय रचनाकारों और बुद्धिजीवियों को भी व्यापक स्तर पर आकर्षित किया है। प्रसिद्ध ब्रिटिश थिएटर निर्देशक पीटर ब्रुक ने फ्रांस के एविग्नन फेस्टिवल में मंचित किए गए एक नाटक में इस महाकाव्य की कविताओं को प्रस्तुत किया था। एक खुली खदान में लगातार 9 घंटे तक चलने वाले उस अनोखे परिदृश्य को देखने का मुझे अवसर मिला था।

यूरोपीय देशों में फ्रांस भारत के करीब है। फ्रांसीसी विचारक और उपन्यासकार आंद्रे जीद ने रवींद्रनाथ टैगोर की गीतांजलि का फ्रांसीसी भाषा में अनुवाद किया था। आंद्रे जीद और रवींद्रनाथ टैगोर दोनों नोबेल पुरस्कार विजेता हैं। एक नोबेल पुरस्कार विजेता दूसरे नोबेल पुरस्कार विजेता की कविताओं का अनुवाद करता है। यह इतिहास की एक अनोखी घटना है, जो भारत और फ्रांस की सांस्कृतिक जीवंतता और निकटता को दर्शाती है। हालांकि वे दो अलग-अलग सभ्यताओं से संबंधित रहे हैं।

भारतीय सभ्यता ने देश को एक दिव्य भूमि में बदल दिया, जहां देवता और मनुष्य दोनों एक साथ रहते थे। देवताओं ने यहां मानव जीवन ग्रहण किया और मनुष्य जीवन का आदर्श प्रस्तुत किया। महाभारत इसका सर्वोत्तम उदाहरण है। हजारों वर्षों तक भारतीय लोग उस सभ्यता के आलोक में जीवन यापन करते रहे हैं। वे इसमें निहित उच्चतम मूल्यों द्वारा निर्देशित होते रहे हैं।

आज हम पाते हैं कि अचानक हमारे जीवन में भौतिक सुखों की भूख इस तरह हावी हो गई है कि सभी हदें पार कर चुकी है। दार्शनिक और सांस्कृतिक सिद्धांतकार ज्यां बॉड्रिलार्ड ने ठीक ही कहा है कि अब हम विकास की स्थिति में नहीं हैं, हम हर क्षेत्र में अति की स्थिति में हैं। हम एक विकृत समाज में रह रहे हैं। लोग उन उच्चतम मूल्यों को त्याग रहे हैं, जो अब तक उनका मार्गदर्शन करते थे। वे अपनी परंपरा से दूर हो रहे हैं और वे आध्यात्मिकता को एक व्यावसायिक उत्पाद में बदल रहे हैं। ऐसा करने में वे विज्ञान और प्रौद्योगिकी का लाभ उठाते हैं। हालांकि विज्ञान और प्रौद्योगिकी ने हमारे जीवन में अभूतपूर्व प्रगति और समृद्धि पैदा की हैं, पर उन्होंने पारंपरिक मूल्यों एवं जीवन के तरीकों के लिए चुनौतियां भी खड़ी की हैं। विज्ञान और प्रौद्योगिकी ने भारतीय सभ्यता सहित मानव समाज के हर पहलू को बदल दिया है। हम टूटन और निराशा के युग में प्रवेश कर रहे हैं। यहाँ से हम कहाँ जाएँ? मानवता की परवाह करने वाले सभी लोगों के मन में यही सवाल है।

अंग्रेजी से अनुवाद :अवधेश प्रसाद सिंह

 पल्लोर, नलुथारा पी.., माहे 673310, केरल, मो. 9895356214

 

जसबीर भुल्लर
पंजाबी के सुपरिचित कथाकार। भारतीय सेना के कर्नल के पद से अवसरप्राप्त। कहानी, उपन्यास, बाल-साहित्य, अनुवाद आदि की लगभग 40 पुस्तकों के रचयिता। बच्चों के लिए काफी लेखन किया है।

शोर भी मेरे लिए एकांत होता है

मनुष्य का विवेक कमाल की हद तक सृजनशील है। सृजनशीलता मानव के पास एक बड़ा उपहार है। आज के जीवन की अपेक्षाओं तथा साहित्य की अपेक्षाओं से निपटने के लिए मानव के पास एक बड़ा हथियार है सृजनशील होना। समय के साथ चलती सभ्यता, भाषा एवं सृजनात्मकता मुझे कई बार आपस में घुले-मिले प्रतीत होते हैं।

सभ्यता के प्रारंभ से ही जानवरों के पास भी भाषा है। मिसाल के तौर पर मुर्गी विशेष प्रकार की कुड़-कुड़ की आवाज द्वारा अपने चूजों को समझा देती है कि पेट भरने के लिए आकर दाना चुग लें। चूज़े दौड़कर मुर्गी के पास पहुंच जाते हैं। एक अलग प्रकार की कुड़-कुड़ द्वारा वह खतरे की सूचना भी चूजों को दे देती है।  बस इतनी सी भाषा लेकर ही जीव-जंतु सभ्यता के वर्तमान युग तक पहुंचे हैं। उनकी भाषा विकसित नहीं हुई, क्योंकि उनके पास सृजनात्मकता नहीं थी। मनुष्य की भाषा एक जगह ही रुकी नहीं रही। मानव की सृजनशीलता ने भाषा को समय की जरूरतों के अनुरूप समृद्ध किया है। सभ्यता के विकास के साथ भाषा को शब्दों की समृद्धि की जरूरत थी।

सभ्यता, भाषा तथा सृजनात्मकता समय के साथ-साथ एक साथ अग्रसर हुई हैं। हम जानते हैं, साहित्य का सीधा संबंध सभ्यता और भाषा से है। सभ्यता, भाषा तथा सृजनशीलता ने साहित्य को जन्म दिया है।

साहित्य के बीज बचपन से ही मेरे परिवेश में बिखरे हुए थे, परंतु मैं बेखबर था। अनायास मैं उन बीजों को चुगता रहता था। मैं यह नहीं जानता था कि वर्तमान झटपट साहित्य नहीं बनता, बल्कि अतीत बनने के उपरांत बनता है।

हम आम तौर पर यथार्थ की खोज में होते हैं, परंतु कल्पना यथार्थ से हमेशा बड़ी होती है। कल्पना की विशालता की एक कहानी भी सुन लो : मैं लगभग चार वर्ष का था, तब बूढ़े पिता के नंगे पेट पर बैठकर उंगली से उनकी नाभि में से रुई निकालने का खेल खेला करता था। फिर उस रुई से रज़ाई बनवाने की कल्पना किया करता था। क्या नाभि से निकाली रुई से वह बालक रज़ाई बना पाया कभी?

शायद हां! मेरी रचनाएं बापू की नाभि से निकाली रुई से बनाई हुई रजाइयां ही हैं!

शायद हां! रज़ाई बनाने की कल्पना का सृजन होने के कारण ही मैं आज आपके सामने खड़ा हूँ।

मेरे लिए साहित्य रचना का एक अहम तथ्य मासूमियत तथा सहजता भी है।

उसी समय की बात है, जब चार साल का था मैं। मां आंगन में बैठी सीने-पिरोने का कुछ काम कर रही थी। उसके पास ही धागे का एक गोला पड़ा था। मैंने उंगली से उसके अंदर से गत्ते जैसे मोटे कागज का गोल टुकड़ा बाहर निकाल लिया। उस गोल टुकड़े पर सुनहरे अक्षरों में कुछ लिखा हुआ था। शायद उस फैक्टरी का नाम था, जिसने वह धागा बनाया था। मुझे वह गोल टुकड़ा पैसा लगा। मुझे लगा, उस पैसे से मैं अपनी पसंद की कोई भी चीज खरीद सकता हूँ। गली के मोड़ पर हलवाई की दुकान थी। मैं छोटे-छोटे पैरों से चलकर हलवाई की दुकान पर पहुंच गया। हलवाई ने एक बार उस कागज के सिक्के की ओर देखा और फिर मेरी ओर देख कर मुस्कुराया। उसने एक गुलाब जामुन दोने में रखकर मुझे दे दिया।

मासूमियत के सिक्के कागज के भी हों तो चल सकते हैं।

यह मासूमियत और सहजता मुझे हमेशा से साहित्य के लिए अहम लगती है।

जैसी दुनिया मुझे रहने के लिए चाहिए थी, ईश्वर से वह नहीं बन पाई थी। साहित्य में होश संभाला तो लगा कि अपनी इच्छा से जैसी दुनिया मैं बना सकता था मैं बनाने लगा और मैंने लिखना शुरू कर दिया।

मेरी कहानी कल्पना का चमत्कार नहीं होती। कल्पित प्रतीत होने वाली कहानियाँ भी जीते-जागते पात्रों की कहानियाँ होती हैं। बस, कई बार उन्हें ढंका गया होता है, प्रतीकों द्वारा, कल्पना द्वारा और कई बार कथन शैली द्वारा।

कहानी की घटना कई बार मेरे अपने अस्तित्व का एक हिस्सा होती है और कई बार किसी परिचित की आपबीती। कई बार  दोनों की आपबीती मिलकर एक हो जाती है।

मन की मिट्टी में कब कोई बीज आ गिरता है, पता ही नहीं चलता। बीज अपनी मूक अवस्था में बहुत देर तक पड़ा रहता है। बीज के आस-पास बहुत कुछ खाद जैसा एकत्र होता रहता है- कुछ घटनाएं, कुछ विचार, कुछ कथन। ये सभी बीज घटना को कहानी का रूप देने में जुट जाते हैं। फिर एक दिन वह बीज अचानक अंकुरित हो जाता है।

यही मेरी कहानी के जन्म का समय होता है, एक नई दुनिया के जन्म जैसा समय। तब मेरे मन की स्थिति अलौकिक-सी होती है। बाहरी दुनिया का अस्तित्व ही जैसे खत्म हो जाता है। मन के किवाड़, झरोखे भीतर की ओर खुलने लगते हैं।  मैं कागज-कलम लेकर लिखने बैठ जाता हूँ।

तब मुझे एकांत वातावरण चाहिए होता है। जिस शोर का मुझे भागीदार न बनना पड़े, वह शोर भी मेरे लिए एकांत ही होता है। यदि वह लिखने का समय रात का हो तो बेहतर है! दिन के समय लिखना हो तो कमरे के पर्दे फैला कर अंधेरा कर लेता हूँ। ऐसे माहौल में पात्र मुझे अपने करीब बैठे हुए लगते हैं।

सृजन के उन क्षणों में मैं अपने से बाहर नहीं देख रहा होता।

मैं लिखने लगता हूँ।

तब विचार कुछ इस प्रकार आते हैं, जैसे पहाड़ी नालों में पानी आता है, अचानक और कल-कल बहता। कलम और तेज़ हो जाती है। लिखते-लिखते कई बार मैं विचारों के प्रवाह से पीछे भी छूट जाता हूँ। तब बहुत से विचार झिलमिल भी हो जाते हैं, अंतराल रह जाता है। उस अंतराल को बाद में भरना पड़ता है, रचना लिखने के पश्चात, जब शिल्प का कार्य शुरू होता है।

सृजन के उन क्षणों में मैं कहीं नहीं होता। मैं कहानीकार जसबीर भुल्लर को अलग रखता हूँ, ताकि वह यूं ही ज्यादा दखल न दे। लेखक के दखल से रचना के बनावटी बन जाने का डर होता है।

लिखने के बाद पढ़ता हूँ और हैरान होता हूँ, एक छोटी सी घटना या क्षण कहानी कैसे बन गए? ये वाक्य कहां से आ गए? विचारों ने अपना ठीक स्थान कहानी में कैसे खोज लिया? पात्र किस तरह सांस लेते लगने लगे हैं!

‘खुल जा सिम-सिम’ का मंत्र तो मेरे पास नहीं था, कहां से आ गया?

लिखते-लिखते साहित्य में परिपक्वता और सफलता का एक मंत्र मैंने भी खोज लिया है। मैं वह मंत्र आपको भी बताता हूँ।

एक अंडे के अंधेरे में से एक चूज़ा बाहर आने की कोशिश कर रहा था। उसने चोंच से टुक-टुक की, अंडा तिड़का, टूट गया और चूज़ा अंधेरे से बाहर आ गया। जो चूज़े उस चूज़े से पहले अंडों में से बाहर आ गए थे, अभी निकले चूज़े ने उन्हें बताया, आज तो कमाल हो गया। मुझे एक नई बात का पता चला है। हमें जिदगी में टुक-टुक करते रहना चाहिए। टुक-टुक करते रहें तो कुछ का कुछ हो जाता है!’

मैं भी जिंदगी में लगातार टुक-टुक करता रहा हूँ। देखो, कुछ का कुछ हो गया है और मैं आपके सामने मंच पर खड़ा हूँ।

आप भी टुक-टुक जरूर करते रहना!

582, फेज3-, मोहाली160059 पंजाब, मो. 9781008582

 

भगवानदास मोरवाल
हिंदी के वरिष्ठ और लोकप्रिय कथाकार। उपन्यास ‘काला पहाड़’ के लिए विशेष रूप से चर्चित। इसके अलावा ‘रेत’, ‘बाबल तेरा देश में’, ‘हलाला’, ‘सुर बंजारन’, ‘खानजादा’, ‘मोक्षवन’ आदि उपन्यासों और ‘कहानी अब तक’ (दो खंड), ‘यहाँ कौन है तेरा’ (स्मृति कथा), ‘दोपहरी चुप है’ आदि प्रमुख पुस्तकें। हिंदी अकादमी, दिल्ली एवं हरियाणा साहित्य अकादमी के पूर्व सदस्य।

सभ्यताओं का संघर्ष क्या अब एक यथार्थ होता जा रहा है

जब मैं चुनौती और जिम्मेदारी की बात कर रहा हूँ, इसका आशय इन शब्दों के गर्भ में छिपे अनेक आशंकाओं, सवालों और रचनात्मक दुश्वारियों से है। इन दुश्वारियों में सबसे बड़ी दुश्वारी है लगातार टकरातीं सभ्यताओं के दौर में रचनात्मक साहस का लगातार कम होते जाना।

सभ्यता-संबंधी जिस सिद्धांत को 1993 में पहली बार अमेरिकी राजनीतिविज्ञानी सैमुअल फ़िलिप्स हटिंगटन ने यह कहकर भविष्यवाणी की थी कि आने वाला समय सभ्यताओं के संघर्ष का समय होगा, वह बड़ी हद तक आज सच प्रतीत होता दिखाई दे रहा है। इस सिद्धांत के पीछे सैमुअल का सबसे बड़ा तर्क यह था कि आने वाले समय में युद्ध देशों के बीच में नहीं, संस्कृतियों के बीच लड़े जाएंगे। उनका स्पष्ट मत था कि भविष्य के हिंसात्मक संघर्ष रूप वैचारिक मतभेदों के बजाय सांस्कृतिक स्तर पर बनेंगे। इसी संघर्ष को उन्होंने ‘सभ्यताओं का संघर्ष’ कहा था। इसका साफ अर्थ यह था कि भविष्य में संघर्ष का आधार हमारी सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान बनेगी। इसके साथ ही सैमुअल फ़िलिप्स हंटिंग्टन ने जिन सात सभ्यताओं को चिह्नित किया था, उनमें भारतीय उपमहाद्वीप के चीन तथा जापान के साथ इस्लामिक और हिंदू सभ्यताएं शामिल थीं। संयोग देखिए कि आखिरी दो सभ्यताओं का टकराव आज भारत में जगह-जगह दिखाई दे रहा है।

मैं जब सैमुअल के इस सिद्धांत ‘सभ्यताओं के संघर्ष’ के बारे में सोच रहा था, तब मेरा ध्यान सबसे पहले साल 1993 पर गया। ध्यान रहे यह वही साल था, जब इस देश की एक बहुसंख्यक सभ्यता द्वारा अपने ही देश में पल्लवित और पुष्पित दूसरी सभ्यता की धार्मिक अस्मिता पर मात्र एक वर्ष पूर्व, 1992 में प्रहार किया गया था। यह प्रहार इतना शत्रुतापूर्ण और गहरा था कि उसके बाद भारत जैसे विविध संस्कृतियों वाले देश की गंगा-जमुनी तहज़ीब एक तरह से भरभरा ढहा दी गई, जो आज जारी है। हालांकि अपने देश में इसके पहले भिन्न संस्कृतियों के संघष को हम 1947 के विभाजन, और उसके बाद 1984 में भी देख चुके हैं। कहने को ये सांप्रदायिक दंगे थे, किंतु असल में ये थे अलग-अलग संस्कृतियों के संघर्ष।

सभ्यताओं के इस संघर्ष की शुरुआत औपनिवेशिक काल में शुरू हुई। यह संघर्ष भारतीय उपमहाद्वीप में ईस्ट इंडिया कंपनी के आने के बाद अधिक मुखर हुआ। क्या सैमुअल हंटिंगटन को इस बात का अनुमान और अंदेशा था कि रामजन्म भूमि-बाबरी मस्जिद ढहाने से शुरू हुआ यह टकराव इतना भीषण हो जाएगा और भारत में धार्मिक स्थलों पर आक्रमण इस हद तक बढ़ जाएंगे कि एक दिन गृह युद्ध जैसी स्थिति पैदा हो जाएगी? शायद उनका अनुमान एकदम सही था।

मैं जब ‘सभ्यताओं के संघर्ष’ के बारे में सोच रहा था, सहसा मुझे ’90 के दशक में हिंदी पट्टी में तेजी से पनपे दो विमर्शों की याद ताज़ा हो आई। ये विमर्श हैं दलित विमर्श और स्त्री-विमर्श। मुझे लगता है कि जिसे हम बड़े फलक पर सभ्यताओं का संघर्ष कहते हैं, वह किस तरह वर्गीय, सामुदायिक और जातिगत अस्मिताओं के उभार का रूप ले रहा है। मेरा मानना है कि 1990 के आर्थिक उदारीकरण के ज्वार ने सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान को सबसे अधिक खाद-पानी उपलब्ध कराया। यदि हम सांस्कृतिक पहचान को अस्मितावादी पहचान और धार्मिक पहचान को सांप्रदायिक पहचान के रूप में देखें, तो बहुत-सी बातें अपने आप स्पष्ट होती चली जाएंगी। एक तरह से मैं कहूँ कि आर्थिक उदारीकरण ने ही धर्म और सांप्रदायिकता को सबसे अधिक पोषित किया है। इसमें कोई अतिशयोक्ति नजर नहीं आती। इसलिए सैमुअल हंटिंगटन का सिद्धांत आज सांप्रदायिक हिंसा से आगे जाकर मॉब लिंचिंग में तब्दील हो चुका है। सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान के नाम पर जिस तरह धार्मिक स्थलों पर अराजक भीड़ द्वारा हमले हो रहे हैं, सभ्यताओं के संघर्ष का इससे बड़ा दूसरा उदाहरण क्या हो सकता है।

सबसे दिलचस्प यह है कि सैमुअल के इस सिद्धांत की घोषणा के अभी तीन दशक ही हुए हैं। सभ्यताओं का यह टकराव इतने कम समय में ही पूरे विश्व में अपने चरम पर है। इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं रूस-यूक्रेन और इजराइल-फिलिस्तीन संघर्ष। ऐसा लगता है, मानो अलग-अलग सभ्यताएं एक-दूसरे को नेस्तनाबूद करने पर आमादा हैं।

इसी तरह अस्मिताओं की पहचान के संकट के चलते जिस तरह अनेक विमर्श आज हमारे सामने हैं, उसे हम बड़े स्तर पर न सही, स्थानीय बल्कि कहना चाहिए कि आदि सभ्यताओं के पुनरुत्थान के रूप में देख सकते हैं।

ऐसे में बड़ा प्रश्न यह है कि वर्तमान सभ्यताओं, इनके बीच के संघर्ष और रचनात्मकता को हम किस तरह देखें? वर्तमान सभ्यताओं के बीच बढ़ते टकराव के विश्लेषण में रचनात्मकता की भूमिका क्या हो सकती है? इस विषय पर परिप्रेक्ष्य में यदि हम पार्टीशन के दौर को देखें, तो रचनात्मकता ने अपनी महती भूमिका और दायित्व पूरी ज़िम्मेदारी के साथ निभाई है। हम यशपाल के ‘झूठा सच’, भीष्म साहनी के ‘तमस’ और कृष्णा सोबती के ‘गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान’ जैसे उपन्यासों में इन चीजों को देख सकते हैं। 1984 में हुए सिख दंगों के विषय पर हिंदी के बजाय पंजाबी में कई उपन्यास लिखे गए। जसप्रीत सिंह का ‘हीलियम’ उपन्यास इन्हीं दंगों पर है। कहानियां तो खूब लिखी गईं। इसी तरह मुझे सुरेंद्र तिवारी द्वारा ‘काला नवंबर’ शीर्षक से संपादित एक संकलन याद आ रहा है। यदि हम 1992 में घटे रामजन्म भूमि-बाबरी मस्जिद प्रकरण को देखें तो इसको लेकर  कई उपन्यास हिंदी में आए। इनमें भगवानदास मोरवाल का ‘काला पहाड़’, कमलेश्वर का ‘कितने पाकिस्तान’ दूधनाथ सिंह का ‘आख़िरी कलाम’ उल्लेखनीय हैं। हालांकि ये उपन्यास सीधे अयोध्या प्रकरण पर नहीं हैं, लेकिन इन उपन्यासों में उपर्युक्त प्रकरण के बाद उपजी धार्मिक असहिष्णुता, बहुसंख्यक सांप्रदायिकता और राजनीति में बढ़ते धार्मिक हस्तक्षेप को उभारा गया है।

सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के साथ-साथ दलित चेतना, आदिवासी अस्मिता, स्त्री विमर्श, किसानों का आंदोलन और जल, जंगल, ज़मीन का संघर्ष भी एक तरह से वर्तमान सभ्यताओं की टकराहट का एक रूप है। किसी ने सोचा भी नहीं की होगा कि आज दलित और आदिवासी रचनात्मक लेखन के बिना हिंदी साहित्य की संपूर्णता की कल्पना की जा सकती है।

यहां एक बड़ा सवाल, जिसे आप मेरी जिज्ञासा मान सकते हैं, वह यह है- आख़िर वर्तमान सभ्यता का स्वरूप क्या होना चाहिए? क्या इसमें सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान के बिना उन समुदायों को भी शामिल किया जा सकता है जिन्हें हम कबीलों के रूप में देखते हैं और जिनकी पहचान जनजातियों के रूप में अधिक है, न कि आदिवासी के रूप में? क्या फिर रिवाज़े-आम के बहाने इनकी सामाजिक-सांस्कृतिक विशिष्टताओं को बचाए रखने की गरज से जारी कस्टमरी लॉ के तहत आने वाले समुदाय भी हैं। मैं यहाँ बात कर रहा हूँ उन कई दर्ज़न अपराधी जनजातियों की, जिनके लिए इस देश में कभी अपराधी जनजातियां अधिनियम बना था। यहां मैं उन जनजातियों का जान-बूझकर इसलिए उल्लेख कर रहा हूँ कि बदकिस्मती से जिस क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट को 1952 में खत्म कर, हेबिचुअल ऑफेंडर एक्ट, अर्थात आदतन अपराधी अधिनियम बनाया गया था, उसे भी आज इन्हीं जनजातियों के विरुद्ध इस्तेमाल किया जा रहा है। कह सकते हैं कि भले ही क़ानून बदल गए, मगर शोषण और प्रताड़ित करने की मानसिकता नहीं बदली।

क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट कितना क्रूर और भयानक था, इसका पता मुझे अपने उपन्यास, इन्हीं जनजातियों में से एक कंजर समुदाय पर लिखे गए ‘रेत’ लिखने के दौरान हुआ। मेरी जानकारी बहुत सीमित हो सकती है कि यदि हम करनटों पर आधारित रांघेय राघव के ‘कब तक पुकारूँ’, नटों पर ही आधारित शिवप्रसाद सिंह के ‘शैलूष’, मैत्रेयी पुष्पा के कबूतर जनजाति को केंद्र में रखकर लिखे गए उपन्यास ‘अल्मा कबूतरी’ को छोड़ दें, तो इन जनजातियों पर अधिक नहीं लिखा गया है। हां, आदिवासियों पर बहुत लेखन हुआ है।

इधर भ्रमवश हुआ यह है कि जनजाति और आदिवासी को हम एक ही समुदाय मान बैठे हैं, जबकि इन दोनों समुदायों की परिभाषा और सांस्कृतिक-धार्मिक पहचान एक-दूसरे से बहुत अलग है। जनजातीय परिवार या परिवार समूहों के समुदाय अलग-अलग नाम के कबीले हैं, और ये एक स्थान से दूसरे स्थान पर आवागमन करते हैं। जबकि आदिवासी का अर्थ मूलनिवासी होता है, जो किसी एक स्थान या जंगल में स्थायी रूप से निवास करता है। एक तरह से देखा जाए तो दोनों की सभ्यताएं अलग-अलग हैं। इसलिए आदिवासियों के अपेक्षाकृत जनजातियों पर बहुत कम रचनात्मक लेखन हुआ है।

हालांकि पूंजीवाद के दबदबे और सांस्कृतिक-धार्मिक पहचान के उतावलेपन के चलते, आज रचनात्मकता पर बहुत खतरे पैदा हो गए हैं। इस उतावलेपन ने हिंदू सभ्यता के जातिवाद, सामंतवाद, वर्णवादी आचरण और व्यवहार ने अपनी ही पहचान की जड़ों में मट्ठा डालने का काम किया है। इस मानसिकता के चलते दलितों और आदिवासियों सहित अनेक वंचित-उपेक्षित समुदाय शिकार हुए हैं। यदि ऐसा न होता तो शायद दलित और आदिवासी साहित्य आज पैदा नहीं होते। पूंजीवादियों और आदिवासियों के बीच जल, जंगल और ज़मीन को लेकर संघर्ष नहीं होते और उनपर रचनात्मक लेखन नहीं होता।

अमेरिकी राजनीति विज्ञानी सैमुअल हंटिंगटन ने तीन दशक पहले जब सभ्यताओं के संघर्ष की बात की थी, तब उन्हें इसका गुमान भी नहीं रहा होगा कि विविध संस्कृतियों वाले अकेले भारत जैसे देश में यह संघर्ष इतनी ज़ल्दी और इतना भयानक रूप अख्तियार कर लेगा। किसने सोचा था कि जो लोग सदियों से संग-साथ रहते आए हैं, जिनकी सामाजिक संरचना और  लोक व्यवहार समान हैं, वे एक-दूसरे के खून के प्यासे हो जाएंगे और वैचारिक मतभेद सुलझाने के बजाय सांस्कृतिक हिंसा और धार्मिक उन्माद उसकी जगह ले लेंगे ?

सारे खतरों के बावजूद, रचनाकार को वर्तमान सभ्यताओं के बीच तेज़ी से गहरी होती जा रही उबड़-खाबड़ खाइयों से गुजरते हुए, अपनी रचनात्मकता को बचाए और बनाए रखना सबसे बड़ी चुनौती है। अब यह समय ही बताएगा कि इन खतरों और चुनौतियों का सामना करते हुए हमारा लेखक किस तरह अपनी रचनात्मकता को बनाए रख सकेगा। लेकिन खतरे उसे उठाने ही पड़ेंगे।  गजानन माधव मुक्तिबोध ने कहा भी है- ‘अब अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे उठाने ही होंगे/तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब।’

 

डब्ल्यू जेड745जी, दादा देव रोड, बाटा चौक के करीब, पालम, नई दिल्ली110045मो.9971817173

 

जसिंता केरकेट्टा
हिंदी की चर्चित आदिवासी कवि, कथाकार और पत्रकार। आदिवासियों पर होने वाले अत्याचारों खासकार लिंग-आधारित हिंसा के विरोध में सामाजिक तौर पर सक्रिय। कविता संकलन ‘ईश्वर और बाजार’ और ‘प्रेम में पेड़ होना’।

मुक्ति का रास्ता रचनात्मकता से ही खुलेगा

वर्तमान सभ्यता अपने आप को नए सिरे से गढ़ रही है। यह ग्लोबल गांव की तरफ़ बढ़ रही है। अब तकनीक के युग में पूरी दुनिया एक दूसरे को प्रभावित कर रही है। पहले भी दुनिया एक दूसरे से जुड़ी हुई थी और एक दूसरे को प्रभावित करती थी, पर उसके प्रभाव का अहसास जमीन तक बहुत धीरे-धीरे पहुंचता था या कभी नहीं पहुंचता था। लोग अपनी-अपनी दुनिया में जीते थे और बहुत से ऐसे प्रभावों के बारे नहीं जानते थे जो सीधे-सीधे उनपर पड़ता है। समाज में ऐसे खेमे या खाने मजबूत थे जिनमें तय था कि हाशिए पर रहने वालों की आवाज उसी तरह बीच रास्ते लुप्त हो जानी है जैसे तारा टूट कर कहीं गिरता हुआ लगता है, पर वह आंखों से कब ओझल हो जाता है, पता ही नहीं चलता। हम कभी नहीं जानते कि वह जगह कौन सी थी, जहां वह लुप्त हुई थी।

कभी हमारे दिमाग के भीतर चीजें बहुत दूर-दूर रहती थीं। पास का शहर भी बहुत दूर लगता था। गांव से जिला मुख्यालय तक पहुंचना भी विदेश जाने की तरह लगता था। राज्य के बाहर जाना बहुत बड़ी उपलब्धि थी। देश को ठीक-ठीक या पूरा-पूरा जान पाना तो इस जन्म की बात ही नहीं लगती थी। लोग जो पढ़ते-लिखते हैं, वे थोड़ा-थोड़ा देश को जानते चले जाते हैं। तब भी हर कोई इसे अपनी जमीन से ही देख-समझ पाता है और उसी हिस्से पर घूमता रहता है। इसे पूरा-पूरा जानने, समझने, महसूस करने के लिए संभवतः यह एक जीवन कम है।

जो यात्राएं करते हैं उनके लिए भी देश दुनिया को पूरी तरह जान पाना संभव नहीं है। यह जानना बहुत धीरे-धीरे हो रहा था। बहुतों के लिए धीरे-धीरे जानना भी बहुत धीरे था। पर इधर इस धीरे-धीरे जानने की गति वर्तमान सभ्यता में तेजी से बढ़ गई है। आज जिस सभ्यता में हम जी रहे हैं उसमें बहुत कुछ जानना और जल्दी-जल्दी जानना, जल्दी-जल्दी देखना और तेजी से गांव-घर से लेकर विश्व के रिश्ते को समझ पाना संभव हुआ है।

यह एक ऐसा समय है, जब इस जानने के साथ अपने भीतर और अपने बाहर अकेले भी और सामूहिक रूप से भी यह स्वीकार करने का समय है कि हमारी शैक्षणिक संस्थाएं, व्यवस्थाएं हमें इंसानियत का पाठ नहीं पढ़ातीं। हम व्यवस्था में पालतू बनाए जाने के लिए तैयार किए जाते हैं। हममें से कुछ बहुतों को हांक सकें, इसके लिए प्रशिक्षित होते हैं। उन्हें बाकियों से अधिक पद, प्रतिष्ठा और पैसा दिया जाता है ताकि वे याद रखें कि किस काम के लिए वे प्रशिक्षित या शिक्षित किए गए हैं।

यह स्वीकार करना कि हम पूरी तरह और ठीक तरह अपने समाज को, देश को नहीं जानते हैं और दिल से इसे दिल से स्वीकार भी नहीं करते- यह भाव ही हमें दूसरों को देखने, समझने, महसूस करने के नए रास्ते दे सकता है। इसी रास्ते से इंसानियत का भाव मजबूत हो सकता है। इसी भाव से हम अपने-अपने पूर्वग्रहों से बाहर निकलकर अपने पड़ोसियों के साथ खड़े हो सकते हैं। अपने आस पास जहां भी अन्याय हो, गैरबराबरी हो, यह स्वीकार कर सकते हैं कि ये सारी बातें गलत हैं। यहीं से हम अपने गांव में रहते हुए, किसी कस्बे में रहते हुए, शहर में रहते हुए भी, विश्व में दूसरे लोगों के न्याय के लिए भी खड़े हो सकते हैं। वर्तमान समय में लोग यह कर पा रहे हैं। 

इन सबके बावजूद आज नए तरीके से दीवारें खड़ी की जा रही हैं। दुनिया में जो तकनीक का प्रयोग कर सकता है, वह तेजी से आगे जा सकता है। पर जो समाज इसका प्रयोग ठीक से नहीं कर सकता, वह और भी हाशिए में धकेल दिया जा सकता है। वह तकनीकों को ठीक से नहीं जानने या उसका प्रयोग सही तरीके से नहीं जानने के कारण हिंसा, अपमान, भ्रष्टाचार का शिकार हो रहा है। इस दौर में वर्ग का खांचा और ऊंचा हो, मजबूत हो और उस खांचे से बहुतों को बाहर कैसे रखा जाए, इस दिशा में भी तकनीक अपनी भूमिका निभा रहा है। मसलन एक बड़ा तबका यह आकलन करने से वंचित रहता है कि किस तकनीक का क्या दूरगामी प्रभाव समाज पर नकारात्मक रूप से पड़ेगा और उसके बचाव का रास्ता क्या है?

इस दौर में तेज गति से भागती तकनीकी दुनिया में हाशिए का समाज किस तरह प्रभावित होगा, किस तरह उसे प्रयोगशाला बनाया जाएगा और इसके दूरगामी दुष्परिणामों से अनभिज्ञ रहेगा, यह सबकुछ तय है। अब नए तरह का वर्ग संघर्ष भी है पर पहचान का संघर्ष, जाति, धर्म का संघर्ष और तेज हुआ है। इसने वर्गीय संघर्ष की तरफ से बहुतों का ध्यान हटा दिया है। अब पता नहीं चलता, कौन किसके खिलाफ लड़ रहा है और कौन किसके साथ मिला हुआ है। शोषक ही शोषित समाज को एक दुश्मन दिखाता है और लोग अपने आस-पास ही उस दुश्मन की तलाश करने लगते हैं। आज बहुसंख्यकों को यह विश्वास दिलाया गया है कि वे ही विक्टिम हैं। इस काम में तकनीक ने बड़ी भूमिका निभाई है।

ऐसा सिर्फ भारत में ही नहीं है। पूरी दुनिया में एक दुश्मन ढूंढ़ा जा रहा है, जिसके इर्द-गिर्द युद्ध के रास्ते तैयार हो रहे हैं। इस दौर में इतिहास अपने आपको दोहरा भी रहा है। दूसरी तरफ, धरती पर इंसानों का बोझ बढ़ता ही जा रहा है। उस बोझ को कम करने के लिए तकनीक के माध्यम से नए किस्म की महामारियों के आने के रास्ते भी खुल रहे हैं। इन सबका मकसद है कि सबसे पहले हाशिए के लोग धरती से ख़त्म हो जाएं, क्योंकि दुनिया में विकास की जो परिभाषा है उसमें ये धीरे चलते हैं और विकास की रफ्तार में बाधक हैं। बहुत ऊंचाई से हाशिए के लोग एक भीड़, झुंड, कीड़े-मकोड़े की तरह दिखाई पड़ते हैं जिनके खत्म हो जाने से किसी को कोई दुख भी नहीं होगा।

समाज में खुद को अति विशिष्ट समझने वाले लोगों की, ऐसे समूहों की चिंता है कि धरती पर अति बुद्धिमान लोग ही बचे रहें और वे धरती के सारे संसाधनों का उपभोग करें। दूसरी दुनिया या धरती तलाशने से बेहतर है कि इसी धरती पर हाशिए के समाज को खत्म किया जाए। इस क्रम में कोशिश है कि प्राकृतिक संपदा से संपन्न इलाकों में पीढ़ी-दर-पीढ़ी लंबे समय से निवास करने वाले आदिवासियों को खत्म किया जाए। भारत ही नहीं दुनिया भर में ऐसे संघर्ष लगातार बढ़ रहे हैं। ये सारे बदलाव वर्तमान सभ्यता में शामिल हैं जिन्हें हम जी रहे हैं और जिनसे होकर अपनी एक यात्रा कर रहे हैं, जिन्हें अपने भीतर महसूस कर रहे हैं।

इन सबके बीच अगर कोई उम्मीद जगाती है तो वह इंसानों की रचनात्मकता है। इन सारे खतरों के बीच रचनात्मकता लोगों में साहस को जन्म देती है और भविष्य को भांपने की शक्ति भी। रचनात्मक लोगों ने वीभत्स होते जाते समाज को सुंदरता की ओर ले जाने का काम किया है। इसने बचे रहने की आशा दी है। इसने प्रतिरोध जताने, असहमत होने की लोकतांत्रिक जगह बचा कर रखी है। इसने मनुष्य के हर भाव को अभिव्यक्त करने, आजाद होने के रास्ते दिए हैं। मुक्ति का कोई रास्ता खुलेगा तो वह रचनात्मकता की राह से ही खुलेगा।

 

द्वारा मनोज प्रवीण लकड़ा, म्युनिसिपल स्कूल के बग़ल में, ओल्ड एच.बी रोड, खोरहटोली, कोकर, रांची, झारखंड 834001 मो. 7250960618

 

संदीप शिवाजीराव जगदाळे
मराठी के चर्चित युवा कवि। कविता संग्रह ‘असो आता चाड’ विशेष रूप से चर्चित। संप्रति औरंगाबाद, महराष्ट्र में शिक्षण।

हमें अपनी रचनाओं के माध्यम से मातृभाषा की ताकत खोजनी होगी

जब हम सभ्यता के बारे में सोचते हैं, तो पहली चीज जो हमारे जेहन में आती है वह है सिंधु घाटी की सभ्यता! शायद यह पाठ्यपुस्तकों का प्रभाव है या फिर एक समृद्ध सभ्यता के प्रति हमारा जुड़ाव। सिंधु घाटी सभ्यता से लेकर आज तक हम लगभग पांच हजार वर्षों की यात्रा कर चुके हैं। इस बीच पर्यावरण, मानवीय संबंध, अभिव्यक्ति के माध्यम और तरीकों में बदलाव आए हैं। इन परिवर्तनों के आधार पर ही हम अपने वर्तमान समय को अतीत से अलग कर सकते हैं। वर्तमान सभ्यता को पिछली सभ्यता से अलग किया जा सकता है।

वर्तमान सभ्यता पर विचार करते समय उसके विशिष्ट काल का निर्धारण कर उसपर चर्चा करना आवश्यक है। हमारे देश में नए युग की शुरुआत 15 अगस्त, 1947 को भारत की आज़ादी के साथ हुई है। परंपरागत रूप से 75 साल का यह समय भारतीय गणराज्य के इतिहास का समय है। लेकिन जिस समाज का पांच-छह हजार वर्षों की सभ्यता का इतिहास है, उस समाज की सभ्यता सिर्फ आज या इसी क्षण की बनी नहीं हो सकती। आजादी से पहले के भारत और आजादी के बाद के भारत में तुलनात्मक रूप से बहुत बड़ा अंतर है। 1947 की शानदार घटना के बाद भारत के प्रत्येक नागरिक के दैनिक जीवन में अनेक स्तरों पर परिवर्तन आया।

आजादी के बाद हमने खुद को उपनिवेशवाद के पिंजरे से मुक्त कर, एक लोकतांत्रिक राष्ट्र के रूप में अपनी यात्रा शुरू की। हमारे लिए लोकतंत्र सिर्फ जन प्रतिनिधियों को चुनने की व्यवस्था नहीं बल्कि जीने का एक तरीका है। इसलिए एक गणतंत्र के रूप में भारत ने आज़ादी के बाद जो अच्छे और बुरे दिन देखे हैं, वे ही हमारी ‘वर्तमान सभ्यता’ हैं।

हमारी सभ्यता के दो केंद्र हैं। पहला है ‘शहरी सभ्यता’ और दूसरा है ‘ग्रामीण सभ्यता’। दोनों सभ्यताओं का वर्तमान अलग-अलग है। पिछले कुछ सालों में ‘ग्लोबल विलेज’ की संकल्पना का बड़े जोर-शोर से प्रचार किया गया। कुछ लोग जिनमें कुछ लेखक भी शामिल हैं, कह रहे हैं कि अब सारी दुनिया एक हो गई है, गांव और शहर के बीच की दूरी खत्म हो गई है। मैं इन लोगों से सहमत नहीं हूँ। ‘ग्लोबल विलेज’ की संकल्पना संपर्क क्रांति की उपज है। दुनिया के अलग-अलग कोने में रहनेवाले लोगों को संपर्क क्रांति से एक दूसरे से संवाद करना या एक दूसरे से मिलना आसान है। केवल इसी वजह से पूरी दुनिया एक गांव बन गई है, ऐसा हम नहीं मान सकते। शहर और गांव में कुछ बुनियादी फर्क हैं, जो इन सभ्यताओं को अलग बनाते हैं। जीवन जीने का ढंग, व्यवसाय, मनुष्य संबंधों के प्रति दृष्टिकोण, इस तरह के बहुत अंतर बताए जा सकते हैं। कोई कितने भी ‘ग्लोबल विलेज’ के नारे लगाए, फिर भी दोनों सभ्यताएं अलग-अलग हैं। मैं गांव की सभ्यता से आया हूँ। इसी सभ्यता के प्रतिनिधि के रूप में कुछ कह रहा हूँ।

गांव के निर्माण की नींव खेती ने रखी है। लगभग दस हजार साल पहले मनुष्य ने खेती करना प्रारंभ किया। महिलाओं ने खेती की तकनीक खोज निकाली, आज भी भारत में कृषि क्षेत्र में बहुसंख्य महिलाएं हैं। खेती हमारा सिर्फ व्यवसाय नहीं बल्कि जीवन व्यतीत करने की पद्धति है। खेती के कारण भारत में एक मूल्य-व्यवस्था विकसित हुई । मनुष्य के साथ-साथ इस परिसर में रहनेवाले जीव-जंतुओं के जीवन का ख्याल रखनेवाली यह एक खास मूल्य-व्यवस्था है।

ग्रामीण भारत की भाषा, चित्र, शिल्प, संगीत खेती से ही उपजे हैं। गांव में जो सांस्कृतिक संपन्नता है उसकी जड़ें किसानी जीवन में हैं। लेकिन आज गांव की समृद्धि की चमक धीरे-धीरे फीकी पड़ रही है। यह अवनति सांस्कृतिक और भौतिक दोनों क्षेत्रों में हो रही है।

गांव का वर्तमान विरोधाभास और विडंबनाओं से भरा है। हमारी व्यवस्थाएं एक तरफ किसान को अन्नदाता कहकर कवितामय भाषा में उसका बखान करती हैं और दूसरी तरफ, जब प्रत्यक्ष नीति की बात आती है तो इस श्रमिक वर्ग के विरुद्ध हो जाती हैं। यह दोमुंहेपन का लक्षण है। हमने विकास की जिस अवधारणा को स्वीकार किया है, उसमें ‘कृषि केंद्रित विकास’ का विचार ठीक तरीके से कभी नहीं किया गया।

आज के नए ‘पूंजीवाद’ के दुष्प्रभाव के कारण गांव आज बर्बादी के कगार पर खड़े हैं। गांव में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उपभोक्तावादी उत्पादों की बाढ़ आ गई है। ये उत्पाद ‘एक के साथ एक मुफ्त’ कहकर बेचे जा रहे हैं। दूसरी तरफ खाद के लिए किसान दिन-रात कतार में खड़ा रहता है। फिर भी उसे वक्त पर खाद की एक बोरी भी आज नहीं मिल पा रही है, यह कैसा विकास है? यह ऐसा उदाहरण है जो हमारे ‘विकास’ के पूंजीवादी चरित्र को उजागर करता है। अमेरिका या यूरोप के किसी देश की ‘करप्ट कॉपी’ बनने की होड़ में हम शामिल हो गए हैं।

हमने कभी यह समझने की कोशिश नहीं की कि हर समाज की अपनी एक देसी आधुनिकता होती है। यह देसी आधुनिकता अपनी मिट्टी से आती है, उसे यूरोप से आयात नहीं किया जाता। हम अगर पराए ख्वाबों के पीछे नहीं भागते तो हमारी देसी आधुनिकता विकसित होती। हम गांव के माध्यम से प्रकृति-पूरक विकास के पथ पर होते। महात्मा गांधी ‘ग्राम स्वराज’ के माध्यम से देसी आधुनिकता की बात कर रहे थे। गांधी ने गांव को ही देश के विकास का मुख्य केंद्र माना था। गांधी जी ने कहा था- ‘हमारी जनसंख्या की 75 फ़ीसदी आबादी खेती पर निर्भर है। हम अगर इन लोगों की मेहनत का सारा फल छीन लेते हैं या फिर दूसरों को छीनने देते हैं तो हम यह नहीं कह सकते कि हममें स्वराज की भावनापूर्ण रूप से मौजूद है।’ (स्पिचेस एंड राइटिंग्स ऑफ़ महात्मा गांधी)। गांधी का यह कथन हमें आईना दिखाता है। इस आईने में हमें अंधकार के सिवाय कुछ नहीं दिख रहा है।

पूंजीवाद के साथ-साथ आज गांव पर विस्थापन का संकट है। औद्योगिकीकरण, बांध जैसे अलग-अलग कारणों से खेती, गांव अधिग्रहित किए जा रहे है। गोदावरी नदी पर जायकवाड़ी बांध बनाने के लिए 107 गांव डूबाए गए थे। उनमें एक गांव मेरा भी था। इसलिए विस्थापन की पीड़ा को मैं नजदीक से जानता हूँ। जब एक गांव विस्थापन की चपेट मे आकर नष्ट होता है, तो उसके साथ-साथ वहां की भाषा, लोकोक्तियां, मुहावरे, रीतिरिवाज भी नष्ट हो जाते हैं। विस्थापित मनुष्य के अंदर की दुनिया खत्म हो जाती है। वह दुख से भर जाता है। गांव बसने में हजारों साल लग जाते हैं, लेकिन हमारी योजनाएं उन्हें बड़ी क्रूरता से कुछ ही दिनों में नष्ट कर देती हैं। वे गांव फिर कभी पुनर्जीवित नहीं हो पाते। यह गांव की मृत्यु का और महात्मा गांधी ने जो ‘ग्राम स्वराज’ का सपना देखा था, वह सपना मिट्टी में मिल जाने का समय है।

कृषि क्षेत्र के सांस्कृतिक पक्ष की हमेशा अनदेखी की गई है। बाजार व्यवस्था ने हमारा आत्मविश्वास कम कर दिया है। इसी कारण हम अपनी मातृभाषा के प्रति भी लगाव खत्म कर रहे हैं। हमारी मातृभाषाओं पर अंग्रेजी का साम्राज्यवादी संकट मंडरा रहा है। अंग्रेजी स्थापित करने के लिए  अंग्रेजी भाषाई साम्राज्यवाद के सभी पैंतरे आजमाए जा रहे हैं। हमारे समाज में एक अभिजन वर्ग है, जो अंग्रेजी के बल पर बाकी समाज का शोषण कर रहा है और अंग्रेजी के प्रचार-प्रसार में लगा हुआ है। ऐसा नहीं है कि हमारी मातृभाषा पर पहली बार किसी अन्य भाषा का आक्रमण हुआ है। संस्कृत का आक्रमण हम देख चुके हैं। अभिजन वर्ग ने ‘इश्वरीय भाषा’ कहकर संस्कृत को स्थापित करने का प्रयत्न किया था।

महाराष्ट्र में भक्तिकाल के महान रचनाकारों ने संस्कृत के वर्चस्ववाद को नकारते हुए मराठी जैसी जनभाषा में अपनी रचनाएं लिखीं। चक्रधर-नामदेव-जनाबाई-ज्ञानेश्वर-एकनाथ-तुकाराम जैसे श्रेष्ठ रचनाकारों ने मराठी को ज्ञानभाषा बनाया। मेरे गांव, पैठण के भक्तिकाल के कवि संत एकनाथ ने संस्कृत विद्वानों से एक सवाल पूछा था। उन्होंने पूछा था- ‘संस्कृत देवे केली। मरहाटी काय चोरापासूनी झाली?’ अर्थात संस्कृत अगर ईश्वरीय भाषा है तो फिर मराठी क्या चोरों द्वारा निर्मित भाषा है? संत एकनाथ का प्रतिरोध के भाव मे 15वीं सदी में पूछा गया यह सवाल मातृभाषा की श्रेष्ठता को दर्शता है।

संस्कृत की तुलना में अंग्रेजी का संकट अधिक गहरा है। बाजार व्यवस्था ने अंग्रेजी को ‘विश्वभाषा’ के रूप में लोगों के सामने रखा है। उन्नति का मार्ग अंग्रेजी के दरवाजे से होकर जाता है, ऐसा लोगों का भ्रम है। मुझे लगता है कि हमारे गांव के लोग मातृभाषाओं और अपनी बोलियों को जीवित रखेंगे, क्योंकि इन देहाती लोगों ने ही मातृभाषाओं को बनाया और संपन्न किया है। यह भी एक कड़वा सच है कि हमारी मातृभाषा की कुछ लोकोक्तियां, मुहावरे लोगों की जुबान से नष्ट हो चुके हैं। बोलचाल से शब्दों के गायब होने की प्रक्रिया हर दिन जारी है। हमारी मातृभाषाएं अपाहिज हो रही हैं। मातृभाषा का अपाहिज होना एक लिखनेवाले के लिए सबसे बड़ा दुख है।

मैंनें अब तक वर्तमान सभ्यता की जिन विशेषताओं पर चर्चा की है, मुझे लगता है कि वे ही रचनात्मकता की जमीन हैं। हमारे समय में जो घटनाएं घट रही हैं, जो विचारधाराएं प्रभावी हैं, लोगों का जो आचरण है उनके सम्मिलित प्रभाव से रचना का जन्म होता है। हम अपने वर्तमान से खुश नहीं हैं। हमारी दुनिया कैसी है और कैसी होनी चाहिए, इसके बीच के अंतर को नापने का काम रचनात्मकता करती है।

हमारा समाज असमंजस के दौर से गुजर रहा है। आम आदमी के सामने अनगिनत सवाल हैं। सिस्टम उसे मूल सवाल से गुमराह कर रहा है। सिस्टम द्वारा दूसरे ही आभासी सवाल सामने प्रस्तुत किए जा रहे हैं जो कि आम लोगों के नहीं है। फिर भी वे अनजाने में इन आभासी सवालों पर ही सोचने के लिए बाध्य हैं। इस कारण उनके अंदर उद्विग्नता पैदा होती है। निराशा और पराभव की भावना उनकी हर सांस और धड़कन से प्रकट होती है। ऐसे समय में एक अच्छा रचनाकार आम आदमी के सीने से कान लगाकर उसकी धड़कन को सुनता है। इस धड़कन के मर्म को समझता है और अपनी रचना के माध्यम से उस आदमी की आवाज बनता है।

विस्थापन, कृषि-विरोधी नीति, क्षेत्रीय भाषाओं पर अंग्रेजी का अतिक्रमण ऐसी अनेक चुनौतियां वर्तमान सभ्यता ने रचनात्मकता के सामने खड़ी कर दी हैं। अब हर चीज में राजनीति है। इस राजनीति में एक खास वर्ग का हित शामिल है। हमें इस राजनीति को समझना होगा। इसे रचनात्मकता के केंद्र में लाकर उजागर करना होगा। इसके लिए सबसे अधिक जरूरी है कि हम जिस मिट्टी से आए हैं, उस मिट्टी को उत्कटता से अनुभव करें, उसे सीने से लगा कर रखें। यदि हमने किसान के नाखूनों में बसी हुई मिट्टी की खुशबू और उसका स्वाद चखा है, तभी हम आज एक नई सभ्यता की रचना रच सकते हैं। किसी द्वीप पर बैठकर, समाज से कटकर रचना का निर्माण नहीं हो सकता जो सच्चे अर्थ में वर्तमान युग की आवाज बने।

वर्तमान सभ्यता ने रचना के रूप और आशय पर असर डाला है। 1990 तक हम स्थितिशिल समाज में थे, लेकिन वित्तीय पूंजीवाद के आगमन के बाद तेजी से बदलाव होने शुरू हुए। हम वैश्विक स्तर पर एक गतिशील समाज में रूपांतरित हो गए। इस बदलाव का असर हमारी विचार-प्रक्रिया, भाषा, जीवनमान और दृष्टिकोण पर पड़ा। रचनात्मकता पर भी उसका प्रभाव है। हमें समय के अनुसार कथन के नए तरीके और भाषा की खोज करने की जरूरत है।

भक्तिकाल के रचनाकारों के सामने भाषा का जो संघर्ष था, वही संघर्ष कुछ अलग रूप में हमारे सामने भी है। अंग्रेजी और हमारी मातृभाषाओं में संघर्ष की स्थिति है। अंग्रेजी का आक्रमण रचनात्मकता के लिए एक चुनौती है। इस विपरीत स्थिति में हमें अपनी रचनाओं के माध्यम से मातृभाषा की ताकत को तलाशना होगा। मातृभाषा के प्रयोग की नई संभावनाएं ढूंढ़नी होगी। हमारी मातृभाषाओं को अंग्रेजी साम्राज्यवाद के विरुद्ध डटकर खड़ा करना होगा। यह काम सिर्फ हमारी रचनात्मकता ही कर सकती है।

वर्तमान सभ्यता में रचनात्मकता का कितना स्थान है? अगर हम इस सवाल का जवाब ढूंढ़ेंगे तो हमें निराशा हाथ लगेगी। लोगों के दैनिक जीवन से कलाएं लुप्त हो रही हैं। समाज में रचनात्मकता के प्रति लगाव रखनेवाले लोग अल्प संख्या में हैं। ऐसे में हर रचनाकार की जवाबदेही बढ़ जाती है। हमें समझना होगा कि जब तक रचनाएं बची रहेंगी, तब तक आम इंसान की आवाज बची रहेगी। जब तक मनुष्य सुख-दुख की भावनाओं से ओतप्रोत है, तब तक सृजन की संभावना जीवित है।

मराठी के श्रेष्ठ कवि संत तुकाराम की कुछ रचनाओं का बांग्ला अनुवाद गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने और अंग्रेजी अनुवाद महात्मा गांधी ने किया था। गांधी जी ने संत तुकाराम की कविताओं के हिंदी अनुवाद की एक पुस्तक की प्रस्तावना भी लिखी थी। इस पुस्तक के आवरण के लिए संत तुकाराम का चित्र बनाने का काम गांधी जी ने प्रसिद्ध चित्रकार नंदलाल बोस को सौंपा था। संत तुकाराम कहते हैं- ‘बुडतां हे जन न देखवे डोळां।  येतो कळवला म्हणउनि’।  अर्थात, ये लोग पतन की ओर जा रहे हैं। मुझसे यह देखा नहीं जाता, इसलिए मै चिंतित हूँ। मुझे लगता है, वर्तमान सभ्यता में रचनात्मकता की यही मुख्य चिंता है।

 

इर्जिक’, अन्नपूर्णा नगर, पैठण, तहसिलपैठण जि. छत्रपती संभाजीनगर, पिन431107 महाराष्ट्र मो.9822635347

 

गुंजन श्री
मैथिली के युवा लेखक और पत्रकार। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े। प्रकाशित पुस्तकों में ‘प्रेमक टाइमलाइन’ (कथा संग्रह), ‘तरहत्थी पर समय’ (कविता संग्रह) और ‘भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में मिथिलाक दलित समाजक योगदान’ (शोध ग्रंथ)।

दुनिया कविता जैसी सुंदर होनी चाहिए

दुनिया में कई सभ्यताएं हैं। समग्र रूप से आज की सभ्यता का कोई आधिकारिक नाम नहीं है। इस सभ्यता में धार्मिक यात्रा उन्माद में बदलती गई है। अक्सर मैं सोचता हूँ, इस कारण वर्तमान सभ्यता आगे गई या पीछे? जहां भी गई हो, यह एक चीज अलग ही विमर्श को आमंत्रित करती है, लेकिन इन स्थितियों में एक रचनाकार की क्या जिम्मेदारी बनती है? क्या कहती है लेखक की रचनात्मकता?

यह सभ्यता भी एक अंत तक पहुंचेगी। कोई नई सभ्यता इसका स्थान लेगी। कवि राजेश रेड्डी कहते हैं-  ‘जो नया है वह पुराना होगा, जो पुराना है नया था पहले’।

आधुनिक युग की सबसे बड़ी देन है कनेक्शन! आज की मशीन-आधारित जीवन शैली को देखते हुए मुझे लगता है कि आने वाली अगली सभ्यता ‘मशीन युग’ के नाम से जानी जाएगी या इंसानी सभ्यता शांति की तलाश में पुराने युगों की तरफ लौट जाएगी।

छोटे शहरों और गांवों में भारतीय सभ्यता और संस्कृति कुछ बची है। लेकिन वहां भी पाश्चात्य सभ्यता के झोंके देखे जा सकते है। ऊंची एड़ी की सैंडिल पर संभल कर चलती छोटी लड़कियां, बीयर की शॉप पर मॉडल लड़के, सेल्फी, डूड और ब्रो जैसे शब्दों के साथ ही फेसबुक और व्हाट्सअप पर अपडेट होते स्टेटस को देखकर लगता है कि वह दिन दूर नहीं है, जब वीडियो कॉलिंग से ही बहन भाई की कलाई पर राखी बांधेगी और बेटा प्रेम विवाह के बाद फेसबुक पर फोटो लगाकर मां-बाप और दूसरे रिश्तेदारों को टैग करेगा!

मैथिली के कवि कमल मोहन चुन्नू कहते हैं-  ‘कोन बसात सिहकलै जनमारा पछबा/गामक गाम रोगाह लगैयै, की बाजू!’

रचनात्मकता का मतलब है पारंपरिक विचारों, रिश्तों, रूपों, व्याख्याओं आदि को नया बनाने की क्षमता। यह एक महत्वपूर्ण कलात्मक क्षमता है जो आपको ‘बक्से के बाहर सोचने’ का अवसर देता है। मैथिली के एक दिवंगत लेखक श्याम दरिहरे ने एक बार मुझे कहा था, ‘कभी यह सोचना कि तुम्हारी उम्र के हजारों-लाखों युवा हैं इस देश में, लेकिन क्यों तुम्हें ही या तुम्हारे ही समानधर्मा व्यक्ति को वह सब दिखता या मिलता है जो सामान्य से अलग हटकर है।’ मैं अब समझ पाता हूँ कि रचनात्मकता सामान्य से परे जाने की क्षमता है। यह एक आर्ट है बक्से के बाहर कुछ सोचने या करने का। हम अकसर रचनात्मकता को कला तक सीमित मानते हैं, लेकिन यह जीवन के सभी क्षेत्रों में एक आवश्यक तत्व है। रचनात्मकता जीवन का समानधर्मा है, जीवन है तो रचनात्मकता भी है।

हरेक आदमी अपने ढंग का एक अलग रचनात्मक मनुष्य है। समस्या यह है कि हम गिलहरी से तैरने की उम्मीद लगाए रहते हैं या फिर शार्क से दौड़ने की। कई बार स्कूल या कॉलेज जीवन से ही कुछ लोग अच्छी कहानी लिखने लगते हैं या सुंदर चित्र बना लेते हैं। उन्हें ‘क्रिएटिव’ माना जाता है। कभी किसी ने नहीं  सुना होगा कि दिन भर घूमने वाले बच्चे के भीतर एक उम्दा यात्री होने की संभावना है। इस दुनिया में ऐसे कई लोग हैं जिन्हें हम मात्र उनकी यात्राओं के लिए याद रखे हुए हैं। जैसे- फाहियान, कोलंबस। इतनी बड़ी जो दुनिया है, इसकी खोज यात्रियों ने ही की। उन्हीं सबों के यात्रा के कारण हम कनेक्ट हुए। तो हमने गुनाह यह किया कि संभावना ही नष्ट कर दी हमने। क्या कारण है कि हम सुगम जीवन के लिए जिस किसी भी वस्तु का प्रयोग करते हैं, उनमें से ज्यदातर चीजों को हमने आविष्कृत नहीं किया है। ज्यादातर आविष्कार पश्चिम में हुए। पश्चिम की अपनी यात्राओं में मैंने देखा है कि वहां जो कोई कुछ नया करना चाहता है, वह कर पाता है। उसकी वैल्यू है वहां। हम क्यों नहीं कर पाते, क्योंकि हमने संभावनाओं पर काम ही नहीं किया। हमने संभावनाएं ही नष्ट कर दीं। हमने अपने अनुभव और निर्णय को अपने बच्चों पर जबरदस्ती थोपना चाहा। और जहां संभावना नहीं होती है, वहां  रचनात्मकता कितने दिन तक आश्रय पाएगी?

जॉर्ज लैंड ने 1968 में कुछ बच्चों पर उनकी अलग-अलग उम्र में रचनात्मकता का परीक्षण किया था। 5 साल के बच्चों में रचनात्मकता 98% थी, 10 साल की उम्र तक पहुंचने पर यह संख्या घटकर 30% हो गई थी। जब 15 साल की उम्र में उनका परीक्षण किया गया तो यह केवल 12% थी। सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि यही परीक्षण जब 2,80,000 वयस्कों पर किया गया, तो उनमें रचनात्मकता केवल 2% थी। क्या कारण है कि वयस्कों में बस इतनी ही रचनात्मकता थी? मुझे लगता है कि तथाकथित सभ्य और बुद्धिमान होने के नियम और कानून मूल रूप से रचनात्मकता को खत्म करते हैं। हमारी स्कूल प्रणालियां आम तौर पर कल्पना करने वाले, स्वप्न देखने वाले बच्चों को अयोग्य की श्रेणी में रखती हैं। वे सभी गुण जिनके बारे में महान दिमाग कहते हैं कि वे उनके सबसे क्रांतिकारी विचारों की ‘की-पॉइंट’ थे, उपेक्षित किए जाते हैं। हमारी शिक्षा व्यवस्था अकसर हमें अलग तरह से सोचने के लिए नहीं, बल्कि निर्देशों का पालन करने और यथास्थिति का पालन करने की सीख देती है। उसे हमें मानव से मशीन बनाते रहना है। क्या मशीन कोई रचनात्मक काम कभी कर पाएगी?

आज के समय में रचनात्मकता को लगभग ‘इंस्टेंट आइसोलेटेड इवेंट’ मान लिया गया है, जबकि यह एक सतत और लगभग दीर्घकालिक प्रक्रिया है। मैं समझता हूँ कि रचनात्मकता कभी भी ‘इंस्टेंट इवेंट’ नहीं हो सकती है।

2024 के दशक में टेक्नोलॉजी और इंटरनेट हमारे जीवन के हरेक मामले में दखल देते हैं। कल्पना करें कि कुछ ऐसा हो कि एक घंटे के लिए इस दुनिया से इंटरनेट बंद हो जाए तो हमारे दैनन्दिनी जीवन पर इसका क्या असर होगा! आप जानते हैं कि आपको कितनी मुश्किलें होंगी! मैं कहना चाहता हूँ कि टेक्नोलॉजी ने हमें सुविधाएं दी हैं, लेकिन इसके बदले में जो लिया है वह जरूरत से ज्यादा है। इसने हमारी रचनात्मकता को लगभग शून्य कर दिया है।

एक ज़माने मे लोग चिट्ठियां लिखा करते थे। कई लेखकों के पत्र-संकलन प्रकाशित हैं और प्रशंसित भी। आप देखें कि उनमें कितने अच्छे ढंग से रचनात्मकता आई है। एक अद्भुत-अनजाना आदमी आपके सामने खुलता है, जब आप उसके पत्रों को पढ़ते हैं। समय बदला है और हम ईमेल पर लिखने लगे। इससे रचनात्मकता का क्षरण हुआ। आज ‘चैट जीपीटी’ को बोलते हैं कि मेरे लिए ईमेल लिखो। कई सारे काम आज एआई कर रहा है।

आज दुनिया में पर्यावरण एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। यहां तक कि पश्चिम में ‘क्लिलिट’ के नाम से साहित्य में एक अलग जोन है, जो मूल रूप से पर्यावरण से संबंधित साहित्य के लिए है। कई पर्यावरणविद बताते हैं कि जलवायु परिवर्तन से कैसे-कैसे संकट आएंगे। मैं समझता हूँ कि रचनात्मकता बरकरार रहे, इसके लिए व्यक्ति को प्रकृति के निकट होना आवश्यक है। यदि प्रकृति और पर्यावरण ही नहीं बचेंगे तो फिर एसी कमरे में बैठ कर लेखक एवरेस्ट की खूबसूरती पर कैसे लिखेंगे और अगर लिख भी लेंगे तो शब्दों में प्राण कहां से आएगा?

साफ-सुथरी दिख रही चीजों के पीछे व्यक्ति का जो खुरदरापन होता है, वही असल में रचनात्मकता का बीज है। हमारी वर्तमान सभ्यता खुरदरे होने को लगभग असभ्यता मानती है। फिर कैसे बचाएंगे रचनाकार अपनी रचनात्मकता? अमूमन साफ-सुथरी चीजें फिसलन लिए होती हैं, लेकिन रचनात्मकता दीर्घ आश्रय चाहती है।

हजारों वर्षों की इस यात्रा के बाद भी क्या हम सभ्य हैं? अगर हैं तो फिर क्यों बार-बार जाति के नाम पर, धर्म के नाम पर, नस्ल के नाम पर या फिर क्षेत्र के नाम पर हमारी आदिम बर्बरता बाहर निकल आती है? इन सबके बीच अगर किसी की जिम्मेदारी सबसे ज्यादा है, तो वह है हम-आप जैसे रचनाधर्मी लोगों की। हमें यह तय करना होगा कि अपनी रचनात्मकता को बचाकर विपरीत परिस्थिति में भी दुनिया को कैसे सुंदर बनाए रखना है। वर्तमान सभ्यता में सबसे सुंदर जो है, वह है उसका लोकतांत्रिक होना। हमें सोचना होगा कि क्या यह सुंदरता बरकरार है। यदि नहीं है तो क्यों नहीं है। हम रचनाकार क्या कर रहे हैं दुनिया के लिए? हम कैसे अनुभव करेंगे उन अनुभूतियों को जिनके बारे में कहा गया है कि ‘मैं निपट अकेला, कैसे बचा पाऊंगा तुम्हारा प्रेम-पत्र?’

मुझे लगता है कि सभी क्षेत्रों में जीवन के लिए रचनात्मकता की बहुत आवश्यकता है। मैं मानता हूँ कि दुनिया किसी ‘कविता’ जैसी सुंदर होनी चाहिए। (अंश)

 

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