चर्चित लेखिका। अद्यतन कहानी संग्रह ‘न नजर बुरी न मुँह काला‘।
यदि पूछें सबसे अबूझ और अजीब क्या है तो धनुषधारी कहेंगे – जीवन!
जीवन को लमहों में बांट कर देखें तो लगता है सुख-दुख की ऊंचाई और तराइयों से गुजरते हुए बहुत धीरे-धीरे हिचकोले खाते हुए बीतता है। जीवन को संपूर्णता में समेट कर देखें तो लगता है एक बहुत ऊंची कूद लेकर बहुत जल्दी बीत गया है। पचहत्तर के पड़ाव पर आ पहुंचे धनुषधारी को एकाएक लगने लगा है कि जीवन कुछ ऐसी जल्दबाजी में बीतता चला गया है कि बीतना मालूम नहीं हुआ। लगता है जीवन ऐसा प्रमेय रहा है जिसे सुलझाने में वे असफल रहे हैं।
अमानगंज में आज व्यापक स्तर पर अंत्योदय मेले का आयोजन है। प्रदेश के मुख्यमंत्री ठीक बारह बजे पहुंच कर अमानगंज के लिए कई फलदायी योजनाओं की घोषणा करेंगे, साथ ही लाड़ली लक्ष्मी योजना के अंतर्गत चयनित नन्ही बालिकाओं में पांच को अपने हाथों से एक लाख का चेक देकर, कन्या पूजन कर उनके चरण पखारेंगे और स्वागत लक्ष्मी योजना के लिए चयनित दो कर्मठ महिलाओं का सम्मान करेंगे। महिला बाल विकास विभाग की प्रमुख अधिकारी तारिणी ने कोरोना काल में अपनी कर्मठता साबित करने वाली ग्राम किटहा की रूपा और धनुषधारी की अपना एनजीओ चलाने वाली पुत्री देवमाया का चयन किया है। धनुषधारी की तीसरी सबसे छोटी पुत्री देवमाया का एक पैर दूसरे पैर से लगभग छह इंच छोटा है, अत: उसका विवाह नहीं हुआ। ईश्वर ने उदार होकर उसे कर्मठता जरूर दी है। देवमाया पैर का खेद न मना अपने एनजीओ में निमग्न रह जिंदगी का पूरा मजा लेती है, धनुषधारी और मां क्षिप्रा के योग क्षेम का ख्याल रखती है, बड़ी बहनों वेदमाया और योगमाया से टेलीफोनिक संपर्क बनाए रखती है। कहीं भी जाती है ‘बुढ़ापे का मजा लूटो’ कह कर धनुषधारी और क्षिप्रा को चलने के लिए सहमत कर लेती हैं।
अंत्योदय मेले में भी दोनों को ले गई। बी.टी.आई. के विशाल मैदान में विशाल जनसमूह दाखिल था। देवमाया को समझ में न आया कहां जाए। उसने तारिणी को मोबाइल पर अपने आने की सूचना दी। तारिणी ने परामर्श दिया वह मंच के समीप आ जाए ताकि नाम पुकारे जाने पर तत्काल मंच पर जा सके। देवमाया मंच के समीप पहुंची। मंच के नीचे दाहिनी ओर कुछ कुर्सियां रखी थीं। रूपा और बच्चियों की माताएं कुर्सियों पर बैठी थीं। तारिणी ने देवमाया को वहीं बैठने का संकेत किया।
कार्यक्रम ठीक वक्त पर आरंभ हुआ। औपचारिकताओं के बाद मंच पर पांचों बच्चियों को एक साथ बुलाया गया। पांचों की उम्र चूंकि एक या डेढ़ वर्ष थी, उनकी माताएं उन्हें गोद में लिए मंच पर गईं। मुख्यमंत्री ने पांचों को चेक भेंट किए। पश्चात पांत में बैठा कर पूजन किया। इसके बाद देवमाया का नाम पुकारा गया। संचालक ने परिचय दिया – एनजीओ चलाने वाली देवमाया जी अमानगंज का गौरव हैं। लॉक डाउन में इन्होंने किचन नाम से भोजनालय चलाकर गरीबों, जरूरतमंदों, प्रवासी मजदूरों को दो वक्त का मुफ्त भोजन उपलब्ध कराया था। इन्होंने अपने बल पर किचन शुरू किया था, धीरे-धीरे अमानगंज के सक्षम लोग आर्थिक सहयोग करने लगे और किचन सफलतापूर्वक चलता रहा। आप लोगों को याद होगा 2020 और 2021 में कोरोना और लॉकडाउन ने हम सबको किस तरह हताश कर दिया था। देवमाया जी का सम्मान करते हुए हमें प्रसन्नता है।… मुख्यमंत्री ने देवमाया को शॉल, श्रीफल, अभिनंदन पत्र और पचीस हजार रुपये का चेक भेंट किया। देवमाया के बाद रूपा को मंच पर बुलाया गया। संचालक ने परिचय दिया- ग्राम किटहा की रूपा जी ने सिद्ध कर दिखाया है कि संकल्प हो तो ग्रामीण स्त्रियां भी आय के उपाय कर सकती हैं। अन्य गांवों की तरह किटहा के किसान भी धान की खेती में निकले पुआल (धान का पैरा) को निस्तारण के लिए जला देते थे। इससे पर्यावरण प्रदूषित होता था। रूपा जी पुआल से भूसा और जैविक खाद तैयार कर आय का प्रबंध करती हैं। अब किटहा के किसान पुआल नहीं जलाते। रूपा जी उनके खेतों से स्वयं पुआल एकत्र करती और खरीदती हैं। कई स्त्रियों को रोजगार दे रही हैं…।
रूपा सम्मान लेकर अपनी सीट पर बैठ गई। देवमाया ने अपना परिचय देकर कहा- ‘आपको कुछ भी मदद चाहिए तो मेरा एनजीओ मदद करेगा।’
रूपा ने उसे आशीष दिया, ‘बिटिया, कभी किटहा आओ। मेरा काम देखो, तीन साल पहले लॉकडाउन में शुरुआत की थी। अब काम बहुत बढ़ गया है।’
‘जरूर आऊंगी। अपना मोबाइल नंबर बताइए, सेव कर लेती हूँ।’
‘आओगी तो मुझे अच्छा लगेगा।’
शनिवार की शाम देवमाया ने धनुषधारी को प्रस्ताव दिया-
‘पापा, कल इतवार है। किटहा चलते हैं। रूपा जी का काम अच्छा लगा तो मैं अपने समूह के माध्यम से लोगों को पुआल से धन कमाने का तरीका बता सकती हूँ।’
‘चलते हैं। मुझे गांव हमेशा आकर्षित करता है।’
‘आपने अपने गांव का क्या नाम बताया था? भूल जाती हूँ।’
‘बेरमा। अब अस्तित्व में नहीं है। वहां बाण सागर बांध का पानी ही पानी नजर आता है।’
सुबह दस बजे किटहा के लिए प्रस्थान हुआ। कार में धनुषधारी चालक के साथ आगे तथा देवमाया और क्षिप्रा पीछे बैठ गईं। किटहा की ओर बढ़ते हुए धनुषधारी ने बेरमा की मानसिक यात्रा कर डाली। अम्मा की मृत्यु के बाद दद्दा (पिता) उनके लिए निर्मल गंगा बन गए थे। एक मेले में स्टूडियो में दद्दा ने उनके साथ तस्वीर खिंचवाई थी। श्वेत-श्याम तस्वीर की तीन कॉपी मिली थी। एक कॉपी वे अपने साथ ले आए थे, जो उनकी अलमारी में सुरक्षित रखी है।
बेरमा।
कम आबादी वाला अविकसित गांव। चौमासे में मुख्य सड़क मार्ग से संपर्क टूट जाने के कारण अपरिहार्य आवागमन नाव द्वारा करना पड़ता था। सारे प्रसंग, प्रकरण इतने पुराने हो चुके हैं कि उन्हें पूर्वजन्म या प्राचीन युग का अनुभव लगते हैं, लेकिन अनगढ़ कच्चे घर के द्वार की वह देहरी आज भी मानस में ज्यों की त्यों अंकित है, जहां से वे भागे नहीं थे, खदेड़े गए थे। वे जब आठवीं में पढ़ रहे थे, अम्मा चल बसीं। अम्मा को प्रसव से ही कोई ऐसा रोग लग गया था कि वे न दुबारा गर्भवती हुईं न स्वस्थ हुईं।
पट्टीदारों ने दूसरे विवाह के लिए दद्दा पर दबाव बनाया, पर वे अपनी विमाता की क्रूरता सह चुके थे। नहीं चाहते थे, धनुषधारी के साथ क्रूरता हो। जब धनुषधारी साइकिल से कस्बे के स्कूल आने- जाने वाले ग्यारहवीं के छात्र थे, दद्दा ने वैकल्पिक व्यवस्था के तौर पर उनका विवाह करा दिया कि बहू घर संभाल लेगी। उन दिनों बाल विवाह आमतौर पर होते थे, अत: धनुषधारी को विवाह अनोखा नहीं, उपलब्धि लगा था। उन्होंने अपने पक्के साथियों को समोसे खिलाए थे। पत्नी का शालीन-शीतल मुख और गृह कौशल उन्हें आश्वस्ति दिए रहता कि अब दद्दा को खाना नहीं बनाना पड़ेगा। वे गृह जिला अमानगंज में किराए का कामचलाऊ कमरा लेकर कॉलेज की पढ़ाई करने लगे। पत्नी के लिए गदगद हुए जल्दी-जल्दी बेरमा आते।
दद्दा मारे प्रेम के उनसे देर रात तक इस तरह बतकहाव करते रहते कि बस चलता तो अपनी खटिया में सुला कर ही अमन पाते। दद्दा के चंगुल से किसी तरह छूटकर वे पत्नी के संपर्क में पहुंचते। लालटेन के अपर्याप्त प्रकाश में वह अलौकिक लोक की रचना करती प्रतीत होती। मास्टर्स करते ही उन्हें शासकीय माध्यमिक पाठशाला में मास्टरी मिल गई। प्रथम नियुक्ति अमानगंज से दूर ग्रामीण क्षेत्र में मिली। दूरी और प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी के मद्देनजर वे बेरमा कम आते, पर मनीऑर्डर नियत समय पर भेजते। मास्टरी के चौथे साल नायब तहसीलदार के लिए चयनित हो गए। दद्दा पूरे टोले में शुभ समाचार बांट आए- धनुषधारी कानूनगो बन गया। गांवों में कनूनगो और पटवारी को पदवी वाला माना जाता था। नायब तहसीलदार जैसा पद दद्दा की सोच से बाहर था।
धनुषधारी सुदूर निमाड़ में हुई प्रथम नियुक्ति पर अकेले गए। बेरमा का यही चलन था। बेटे परदेस कमाने जाते, बहुएं ससुराल में पड़ी हुकुम बजातीं। ऑफिसर कॉलोनी की शिक्षित अधिकारी पत्नियों का अच्छा रहन-सहन, बोली-भाषा देखकर धनुषधारी को पहला ख्याल आया कि पत्नी की संगत भाती है, पर भला रहा जो अपनी पोजीशन खराब करने के लिए उसे नहीं लाए। उन्हें आधुनिक और नए चाल-चलन का चस्का लग गया। खुद को बेरमा का नहीं, अमानगंज का बाशिंदा बताते। डिजाइनर कपड़े, जूते पहनते। क्लब जाते। अतिरंजना को ऊंचाई देते हुए खुद का विवाहित होना छिपा ले गए। सुस्थापित अधिवक्ता रायजादा की पुत्री क्षिप्रा जब भी क्लब आती, उन्हें भरपूर देखती। उसका देखना उन्हें गहरी नींद का वह सुरुचिपूर्ण सपना लगता, जिसे देखना नींद को सफल कर देता है। इतनी आधुनिक बाला उनसे मेल-जोल रखना चाहती है, भांप कर वे फूले न समा रहे थे। उसके लगाव में मुब्तिला हो उन्होंने सीमित अवकाश और भौगोलिक दूरी जैसे पुष्ट बहाने बनाकर बेरमा से अलगाव बना लिया। जब कभी जाते पिछड़ा बेरमा बहुत पिछड़ा लगता। पत्नी डपोरसंख लगती। कनपटी पर प्रतिध्वनित होतीं क्षिप्रा की मधुसिक्त बातें तय समय से पहले ही जाने के लिए अधीर करने लगतीं। वे लौटने की बात कर रहे थे कि एकाएक दद्दा ने कहा –
‘बहू को कुछ दिन घुमा-बगा दो। हम यहां का संभाल लेंगे।’
वे क्षिप्रा की संगत में मंगल देख रहे थे, दद्दा गिरह बांधने जैसी बात कर रहे थे।
‘दद्दा, शहर में बहुत धोखाधड़ी है। मैं दिन भर दफ्तर और दौरे पर रहता हूँ। ऐसा न हो मेरे पीछे घर में (ग्रामीण पारंपरिक अनुशासन के कारण वे पत्नी का सीधे जिक्र नहीं करते थे।) कोई ठगी कर ले। पास में तबादला हो जाए तो ले जाऊं। तुम भी आते-जाते रहना।’
एक गिरह से छूटे तो दूसरी तैयार थी। क्षिप्रा ने खुलकर मकसद बताया-
‘तुम्हें यहां तीन साल हो रहे हैं। तबादला हो सकता है। शादी कर लेते हैं। साथ ही जाऊंगी।’
इसे मंगल में दंगल कहते हैं।
‘मतलब?’
‘तुम कुलीन ब्राह्मणों में रायजादा।’
यदि यह मतलब है तो नजदीकी बढ़ाने से पहले सोचना था।’
‘ऐसे अचानक… एकदम दद्दा नहीं मानेंगे।’
‘मैं मना लूंगी।’
‘थोड़ा वक्त…’
‘हमारी संगत किसी से छिपी नहीं है। ऐसा न हो तुम तबादले पर चले जाओ, मैं सामाजिक प्रताड़ना झेलूं।’
उन्होंने खुद को आकस्मिक यातना में पाया।
‘अपने पापा से पूछा?’
‘तभी कह रही हूँ। वे तुमसे मिलने आएंगे।’
रायजादा अगली शाम उनके घर हाजिर हो गए। चाहते थे इकलौती दुलारी पुत्री को ऐसा व्याकुल प्रेमी मिल जाए जो रसूख भी रखता हो। उनका अधिकारी होना बहुत बड़ी प्रतिश्रुति थी।
‘सामाजिक कायदा समझता हूँ। आप अकेले पुत्र हैं। दद्दा की राय जरूरी है। शादी कर लीजिए फिर मैं बेरमा जाकर साष्टांग हो जाऊंगा।’
धनुषधारी ने स्पष्ट महसूस किया कि उनका आंतरिक ताप बढ़ गया है। एक मजबूत हिंस्त्र पंजा कंठ को दबा रहा है। न्याय की बात यह है कि वे क्षिप्रा के इंद्रजाल से नहीं निकलना चाहते थे, पर वैवाहिक झंझट में नहीं पड़ना चाहते थे। लगा अपना विवाहित होना जाहिर कर दें, पर वे क्षिप्रा की संगत को जहां तक ले आए हैं वहां ऐसा उद्घोष उन्हें झूठा, लंपट, मक्कार सिद्ध करेगा। यह बलशाली अधिवक्ता उनके साथ किसी किस्म की हिंसा कर सकता है।
वे दूसरी बार दूल्हा बने।
क्षिप्रा का घर में पदार्पण हुआ।
सोचते थे, लंबी दूरी तय कर खबर दद्दा तक नहीं पहुंचेगी, पर कितनी ही सावधानी बरतो पता नहीं कैसे सही सूचना सही ठिकाने पर पहुंच जाती है। दद्दा ने मनीऑर्डर लौटा कर उन्हें पूरी सचाई से अवगत कराया।
‘क्षिप्रा, दद्दा के चरण पकड़ने जा रहा हूँ। अनुकूल रहा तो अगली बार तुम्हें ले चलूंगा’ कह कर वे बेरमा कूच कर गए। कुछ लोगों के साथ चौगान में सुशोभित दद्दा छीछालेदर को इस तरह तत्पर मिले जैसे जानते थे वे आएंगे और उन्हें अपना मंतव्य तैयार रखना है –
‘इसी सप्ताह बहू को बालक हुआ है। उसकी तबीयत ठीक नहीं है। हमको उपद्रव नहीं चाहिए। ए हो, कोउ कह दो लउट जाए। भीतर आना है तो वकील की बिटिया को तेग (त्याग) के आए…।’
उनका ध्यान दद्दा के विद्रोह की ओर कम, वे पिता बन गए हैं इस तथ्य की ओर अधिक गया। लोगों के सम्मुख तमाशा बन कर खड़े थे फिर भी पिता बनने के बहुत मुलायम उद्दीपन को भरसक महसूस किया। यदि जानते, जब पिछली बार आए थे, पत्नी गर्भवती हो गई थी तो क्षिप्रा से जुदा हो जाते। या कि वह ऐसा प्रगाढ़ व्यामोह बन चुकी थी कि न हो पाते। शिशु को देखने की, प्रसव में शिथिल हुई पत्नी को हौसला देने की प्रबल इच्छा हुई, पर दद्दा वर्जना बन कर ठीक सामने डटे थे। वे भीतर जाने की अनुमति की चाह में दद्दा के पैर छूने को बढ़े। दद्दा ने पैर सिकोड़ कर परदनी में छिपा लिए। वे दूरी बना कर शीश झुकाए बैठ गए कि कोई दद्दा को अवसर की नजाकत बताए। लोग उन्हें गुनहगार की तरह देखते रहे। बेरमा का यह पहला अपयश ग्रहण करने लायक नहीं था। जी चाहा बलपूर्वक भीतर चले जाएं। एक पसली के दद्दा में उन्हें रोक लेने का बल नहीं है, पर पिता-पुत्र का नाता बल का नहीं, लिहाज का होता है। वे दद्दा का इतना लिहाज करते थे, बल्कि डरते थे कि उनके सामने अक्सर मौन, बल्कि मूढ़ बने रहते थे।
‘हमको भीतर काम है।’ कह कर दद्दा भीतर चले गए। लोग धनुषधारी को अकेला छोड़ एक-एक कर लौट गए। धनुषधारी को बैरंग लौटना पड़ा। दद्दा ने भीतर जाकर देखा सोबर में बहू रो रही है। बाहर का प्रसंग सुन कर फक्क चेहरा लिए पनिहारिन ने बहू को यथार्थ सुना डाला था। जब दद्दा को बहू के गर्भवती होने का संज्ञान मिला था, उन्होंने पानी भरने के लिए पनिहारिन नियुक्त कर दी थी कि गर्भवती स्त्री को भार नहीं उठाना चाहिए। पनिहारिन को विवेक नहीं था कि शारीरिक-मानसिक तौर पर शिथिल सद्य:प्रसूता से संघात देने जैसी चर्चा न करे-
‘लल्ल (बच्चा, बाद में जिसका नाम नटराज रखा गया) के बाबू सहर मा कउनो कुटनी से बियाह कइ लिहिन। अबहिन आए रहे। दद्दा दुअरा से कूकुर अस दुरदुरा दिहिन। दुलहिन सहर के हवा लग गय ही। बरिस दुइ बरिस मा सहरी मेम सिंगट्टा (अंगूठा) देखा देई। तब यहँय अइहैं…।’
बहू के लिए तड़ित गिरने जैसा मामला था। हमेशा सोचती थी, दद्दा ने धनुषधारी को आने वाले बच्चे की खबर भेजी या नहीं, परदेस में क्या खाते होंगे, प्रेम के दो आखर बोलने वाला कोई न होगा। नहीं जानती थी, आखर नहीं प्रेम की पोथी लिखी जा चुकी है। छठे-छमासे कुछ लमहों का साथ मिलता था, पर उनका बोध हमेशा बना रहता था। अब तो बच्चे की वही भूरी आंखें, वही चितवन बोध को खत्म न होने देगी। अपनी आह-कराह पनिहारिन से कहने लगी ‘दद्दा का हुकुम बजाय। दद्दा के साथ खेत गई, फसल काटी, इसके (बच्चे के) बाबू जब भी आए बिथा न कही… हमारी आज किस्मत फूट गई काकी…।’
एकाएक दद्दा की तेज आवाज सुनाई दी ‘काहे रोती है? कोउ मर गया है का? आज से तैं हमार बहू नहीं बेटी है… तकलीफ न मान…’
इस दरमियान दो बरस बीत गए।
दद्दा ने खदेड़ दिया था, लेकिन चौगान में बैठ कर धनुषधारी की राह देखा करते। धनुषधारी एकमात्र बेटा था। स्थिति विलोम थी, पर भीतर के तंतु पुत्र मोह से मुक्त नहीं हो पा रहे थे। रोज-रोज प्रतीक्षा कर आखिर बोले-
‘चल बहू उसकी छाती में बैठेंगे… हमारी नाक लिया है, हम उसकी लेंगे… सबको बताएंगे यह जो आपका हाकिम है, लबरा (झूठा) है। दुइ ठो काज किया है…।’
बहू समझ रही थी पिता पुत्र के बिछोह में सूख रहे हैं।
‘जानते भी हो दद्दा, ऊंई कउने देस में हैं? पता-ठिकाना जानते हो? हम नहीं जाएंगे। जो गया है वह आए। तुम हो, नटराज है, खेती-बाड़ी है …बहुत है।’
रूपा अल्प साधन में तोष ढूंढ़ रही थी। तोष बाण सागर बांध के पानी में डूब गया। ग्रामवासी देहरी छूटने का क्रंदन कर रहे थे। रूपा आश्वस्त थी कि देहरी के साथ धनुषधारी का बोध भी यहीं छोड़ जाएगी। शासन ने मुआवजा और पुनर्वास का प्रबंध किया। पुनर्वास में कुछ जमीन मिली, दद्दा ने कुछ मुआवजे की राशि से खरीदी। चार एकड़ के उजाड़ में सत्ता बनाने के लिए दद्दा और रूपा ने हाड़ तोड़ श्रम किया। तीन प्राणियों के लायक छोटा घर बनवा कर चारों ओर की खुली जमीन में खेत तैयार किए, बीज बोए, फसलें उगाईं। प्राथमिक पाठशाला में पदस्थ दो शिक्षक नलिनी और जटाशंकर मिल-जुल कर पांच कक्षाओं को एक साथ पढ़ाते थे। सुरुचिसंपन्न नलिनी अक्सर शाम को गांव घूमने निकल जाती। लोगों को परामर्श देती। उसे रूपा की कार्य पद्धति प्रेरक लगती। एक शाम रूपा के चौगान में पड़ी खटिया पर बैठ गई-
‘रूपा, तुम्हारा हरा-भरा परिसर मुझे अच्छा लगता है। गुलाब की खेती क्यों नहीं करती?’
रूपा को लगा नलिनी दिल्लगी कर रही है-
‘अरी बहिन जी, गेहूं, धान, चना, अरहर की खेती होती है। गुलाब को क्या खाऊंगी?’
‘बेचोगी। शहरों में, हमारे अमानगंज में भी गुलाब खूब बिकते हैं।’
‘बिकते हैं? हम तो जानते थे देवता को चढ़ते हैं।’
‘फूलों की खेती में बहुत लाभ है।’
‘अब आप कहोगी रुपिया – पइसा की खेती करो। अमानगंज के कॉलेज में पढ़ रहे नटराज को पइसा की कमी न होगी।’
‘रुपिया-पैसे की फसल नहीं उगती पर फसल से रुपिया-पैसा मिलता है। कुछ जमीन में सब्जी लगाओ। टमाटर और आलू की मांग पूरे साल रहती है। गांव के किसान अन्न उपजाने को ही खेती समझते हैं, जबकि सब्जी में बहुत फायदा है।’
‘आपकी बात तो ठीक है बहिन जी। दद्दा से पूछूंगीं।’
दद्दा को योजना फलदायी लगी।
आलू, टमाटर आर्थिक उठान देने लगे। उन्हीं दिनों गांव में उल्टी-दस्त की बीमारी फैल गई। कई लोगों के साथ दद्दा भी अपनी मियाद पूरी कर गए। अपनी बिगड़ती तबीयत को भांप कर रूपा से याचना सी करने लगे थे-
‘हमारे जीवन का कउनो ठिकाना नहीं है बहू। नटराज ने हमसे कबहूं नहीं पूछा। नहीं जानते तुमसे कबहूं पूछा कि नहीं। इसको फोटो दिखा दो। यह जान ले इसका बाबू है, जो पता नहीं कहां है… हमने धनुषधारी के साथ मेले में फोटो उतरवाई थी। तीन कापी मिली थी। एक कापी धनुषधारी अपने साथ ले गया था… हमको एतना मानता था पै बुद्धि नसा (नष्ट हो गई) गई…।’
रूपा उन सूत्रों को सामने नहीं लाना चाहती थी, जो उसकी तरह नटराज को भी आकुल करें, पर दद्दा का चेहरा उस समय जो हो रहा था निश्चित रूप से जाते-जाते धनुषधारी की छवि देखना चाहते थे। जाते हुए की आस पूरी हो। वह तस्वीर ले आई थी। दद्दा निर्मिमेष देखते रहे, फिर नटराज को पकड़ा दी। कुछ सच बहुत अधिक सच होते हैं। अपनी ताकत से सामने आ जाते हैं।
‘दद्दा, तुम ठीक हो जाओ। मुझे तुम्हारी जरूरत है।’
दद्दा सोच रहे थे नटराज तस्वीर को देख कर चौंकेगा पर उसने ऐसे शांत, सधे हुए लहजे में कहा कि दद्दा दंग हो गए। पिता को लेकर इसे शायद कभी विद्रोह, अचंभा या उत्सुकता हुई होगी, पर अब इस तरह दिख रहा है जैसे मान लिया है पिता का जिक्र इतनी बड़ी बात नहीं है कि अतिरंजना जाहिर करनी चाहिए। उसने तस्वीर को दद्दा के औलट ले जाकर धनुषधारी वाले भाग को इस तरह अलग कर दिया जैसे उन्हें न जानता है, न प्रयोजन रखना चाहता है। दद्दा के न रहने पर अमानगंज के अच्छे स्टूडियो से दद्दा वाले हिस्से को यथासंभव बड़ा करवा कर बैठक की भित्ती में स्थापित कर तुलसी की माला पहना दी।
नटराज ने विज्ञान में स्नातक किया। एक फार्मा कंपनी में जॉब मिल गया। 2020 में हुए कोविड 19 और लॉकडाउन में जॉब चला गया। वह पत्नी और जुड़वा पुत्रों को लेकर गांव आ गया। इस आकस्मिक-अकल्पित आपदा पर लोग विमूढ़ हो रहे थे, जबकि नटराज के साथ मिल कर रूपा ने आपदा को आय बढ़ाने वाला ऐसा अवसर बना लिया कि स्वागत लक्ष्मी की गरिमा हासिल की।
देवमाया उसी अवसर को देखने आ रही है।
किटहा।
मुख्य पथ से लगे पहुंच मार्ग पर बोर्ड में लिखा था- किटहा जनसंख्या सात हजार। किटहा की कुल पैंतालीस किलोमीटर की दूरी तय करते हुए धनुषधारी ने नहीं सोचा था कि उनके जीवन के पचहत्तर साल पुराने पन्ने पलट कर पहले पृष्ठ पर पहुंच जाएंगे। वे खुद को उस देहरी पर पाएंगे जहां से भागे नहीं थे, बल्कि खदेड़े गए थे।
रूपा के घर के आगे चालक ने कार रोक दी। धनुषधारी, क्षिप्रा, देवमाया उतर गए। देवमाया चारों ओर देखने लगी। उसने नहीं सोचा था कि गांव में चारों तरफ हरीतिमा से घिरा ऐसा सलीके वाला घर होगा। परिसर में संपन्नता नहीं, पर सुरुचि और सृजनशीलता दिख रही थी। ट्रैक्टर ट्राली, लंबी सार में बंधी तीन गाएं, क्यारियों में गुलाब और गेंदा। पीछे दिखते खेत, खलिहान। नमी है, खुला प्रकाश है, माटी की महक है। सार में काम कर रहा आदमी उन्हें देख कर चला आया –
‘जी?’
देवमाया ने मंतव्य बताया ‘रूपा जी से मिलना है।’
‘हौ। अम्मा जी और नटराज भइया पीछे खेत में हैं। बुलाता हूँ।’
देवमाया ने चूंकि रूपा के मोबाइल पर सुबह ही अपने आने की सूचना दे दी थी, अत: प्रतीक्षारत नटराज तत्काल ही चौगान में आ गया। आदरभाव से सभी को प्रणाम किया-
‘मैं नटराज, रूपा जी का बेटा।’
देवमाया ने सराहना की ‘आप लोग तो नंदन वन में रहते हैं। बहुत सुंदर जगह है।’
नटराज गौरवान्वित हुआ, ‘हां, यहां रहना बहुत अच्छा अनुभव है।’
‘परिचय करा दूं। ये मेरी मां, ये पापा।’
धनुषधारी ने अपना परिचय दिया। वे जहां भी जाते हैं खुद के डेप्यूटी कलेक्टर होने का ब्योरा जरूर देते हैं –
‘मैं धनुषधारी। रिटायर्ड डेप्यूटी कलेक्टर।’
दद्दा अंतस में यह नाम कील की तरह ठोंक गए हैं। वह इस तरह नजर गड़ा कर उनके चेहरे का अध्ययन करने लगा मानो उनके धनुषधारी होने का सत्यापन करना चाहता हो। लेकिन पिता उसके लिए ऐसा विस्मृत प्रसंग थे कि उग्रता या व्यग्रता दिखाने की चेष्टा न कर अतिथियों को बैठक में ले आया।
दो दीवान और चार कुर्सियों वाली सादा बैठक धनुषधारी के लिए ऐसा प्रमेय बन गई जिसका हल उन्हें ढूंढना था। वे जिस कुर्सी पर बैठे उसके ठीक सामने की भित्ती पर दद्दा की तस्वीर टंगी थी। तस्वीर पर पड़ी माला बताती थी, वे चोला छोड़ गए हैं। लगा समाज या कानून भले ही दंड न दे, लेकिन कई बार ऐसी स्थिति आ जाती है कि अपने अपराध खुल कर याद आ जाते हैं। उनका चेहरा जो हुआ उसे पीला पड़ना कहते हैं। सालों बाद जब इस इलाके में पोस्टिंग मिली थी, ज्ञात हुआ बेरमा डूब में आ गया है।
दद्दा, पत्नी, अनदेखे बालक के लिए उन्हें करुणा हुई थी, प्रार्थना का भाव आया था, पर ढूंढने का सम्यक प्रयास नहीं किया था कि प्रयास क्षिप्रा और तीन बेटियों वाले परिवार को ध्वस्त कर देगा। लगा किटहा में नहीं बेरमा में हैं। कमरे में यद्यपि तीन बड़ी खिड़कियां हैं, पर उन्हें लगा कोई सांद्र गैस तेजी से फेफड़ों में भर रही है। लगा धरती में बड़ा होल हो गया है, जिसमें उनका समा जाना तय है। लगा वे पोषक तत्व सूख गए हैं जो देह को साधे रखने के लिए जरूरी होते हैं। लगा दद्दा की तस्वीर में एक पूरा कालखंड ठहरा हुआ है। वे दद्दा का इतना आदर करते थे, उनसे इतना डरते थे कि पहली प्रतिक्रिया स्वरूप कुर्सी से उठ कर खड़े हो गए। मौसम आरामदायक था फिर भी कनपटियों पर पसीना आ गया। नटराज अन्वेषी दृष्टि से उनके भावों को जांच रहा था। बोला-
‘आप खड़े क्यों हो गए? यह मेरे दद्दा की तस्वीर है।’
‘ओह …….. हां।’
वे कुर्सी में धसक से गए। याद नहीं आ रहा था कि पत्नी का क्या नाम था। वह भदनपुर वाली पुकारी जाती थी। ये दद्दा हैं तो रूपा उनकी प्रथम पत्नी और नटराज…? वे नटराज को इस तरह देखने लगे जैसे साम्य ढूंढ रहे हों। भूरी आंखें, उन्नत भाल, सोहती सी कद-काठी। इसका चेहरा बड़ी पुत्री वेदमाया से थोड़ा मिलता है। मेदबहुल देह, केश पतन, मोटे फ्रेम के चश्मे के कारण वे इतने बदल गए हैं कि इसके हमशक्ल नहीं लगेंगे, पर स्पष्ट रूप से कुछ साम्य दिख रहा है।
देवमाया ने दद्दा की तस्वीर को एक-दो बार देखा है पर उस छोटी धुंधली हो चली तस्वीर और इस बड़ी तस्वीर, जिसे स्टूडियो वाले ने आधुनिक तरीके से ताजा और जीवंत बना दिया था, मैं उसे ऐसा कोई रहस्य नजर नहीं आ रहा था कि तस्वीर राजदार लगे। कल्पना नहीं, तस्वीर बरसों पहले बंद हो गया ऐसा अध्याय है जो खुलने पर गूढ़ अर्थ और परिभाषाएं विस्तार से बता सकता है। उसने यह जरूर समझ लिया कि तस्वीर को देखकर पापा परेशान हो गए हैं। शायद अपने पिता को याद कर रहे हैं। बोली-
‘पापा, तबीयत ठीक नहीं लग रही क्या? बीपी की गोली खा ली थी न? जल्दबाजी में भूल तो नहीं गए?’
‘तबीयत ठीक है देवमाया।’
‘बेकार डरा देते हो।’ कहकर देवमाया, नटराज से संबोधित हुई –
‘ऐसी ही फोटो मैंने अपने घर में देखी है।’
नटराज ने अचंभा दिखाया ‘यह तो फिल्म वाले मेले में बिछड़ गए दो भाइयों की कहानी हो गई। शुरुआत में बिछड़ते हैं, अंत में मिल जाते हैं।’
‘ऐसी समानता दुर्लभ है, पर मैंने कहीं पढ़ा है कि हमारे चेहरे जैसा दूसरा चेहरा कहीं न कहीं होता है। लगता है मेरे दादा जी और आपके दद्दा ऐसे ही दो चेहरे थे।’
‘मैं पानी लाता हूँ। अंकल आप पानी पीकर अच्छा महसूस करेंगे। अम्मा को भी बुला लाऊंगा।’
नटराज भीतर चला गया। उसने रूपा को अपना अनुमान बता दिया कि वह खुद को संयत करके स्थिति का सामना दृढ़ता से करे। रूपा के लिए विगत अब वाहियात सा मसला हो गया है। जो भी घटित सामने आता है उसे वह भाग्य रेखा मान लेती है। देवमाया ने कहा था काम देखने किटहा आएगी, रूपा इसे औपचारिक सदाशयता समझ कर भूल गई थी। देवमाया आई है, यह उसके लिए प्राथमिक भाव होना चाहिए।
नटराज पानी लेकर बैठक में आ गया। साथ में रूपा थी। धनुषधारी उसे दृष्टि भर देखने का साहस न कर पाए। तिरछी नजर से देखा। सीधे पल्ले की सूती साड़ी, सर पर आंचल, शीतल, शालीन मुख, दुबली रूपा ने हाथ जोड़ कर सबको नमन किया। दिन भर घूंघट, रात में कंदील के अपर्याप्त उजास में वे ठीक-ठीक नहीं जानते थे उसके चेहरे के भाव क्या होते थे। इस वक्त उसका चेहरा उस पुस्तक की भांति जान पड़ता था जिसके पृष्ठों में अक्षर नहीं छपे होते। उन्हें बिलकुल याद नहीं आया वह कैसी दिखती थी। रूपा ने उन्हें सीधे देखा। यह वह पति नहीं लग रहा है जिसके लिए लालसा होती थी कि दद्दा के चरण दबाना छोड़ कर कोठरी में आए। चेहरा ऐसा लग रहा है जैसे संयत रखना चाहते हैं, रख नहीं पा रहे हैं। रूपा ने क्षिप्रा को देखा- इसकी फैली हुई देह यदि पहले भी फैली रही होगी तो धनुषधारी ने इसमें पता नहीं क्या देखा था। आधुनिकता और शिक्षा देखी होगी तो आधुनिक और शिक्षित लग रही है। जो भी है, छली गई है। इसके लिए विधाता पति बनाना भूल गया। किसी अन्य के पति से काम चला रही है।
देवमाया ने खड़े होकर रूपा को आदर दिया –
‘यहां कितनी शांति है। फूल, पशु, पक्षी, सब्जियां, खेत। अलग ही दुनिया में पहुंच गई हूँ।’
रूपा ने देवमाया को देखा- ऐसी अलग दुनिया जो तुम्हारे ख्यालों में नहीं है। प्रत्यक्षत: बोली-
‘देवमाया, आप जो भी देख रही हो दद्दा, नटराज और मेरी मेहनत है। मैंने प्रयोग के तौर पर जो भी शुरू किया, किस्मत वाली हूँ कि सफलता ही मिली।’
धनुषधारी का विचलन तेज हो गया। परित्यक्ता है, लेकिन खुद को किस्मत वाली मानती है। संभव है किस्मत वाली कहना मुझे तिरस्कृत करने या प्रतिशोध का तरीका हो। वैसे किस्मत वाली है। इसके पास जो भी है समाजस्वीकृत है। देवमाया पर तस्वीर ने असर नहीं डाला, पर क्षिप्रा का नजरिया आयु और अनुभव के साथ पैना हो चुका है। उसे स्पष्ट लग रहा है कि तस्वीर बिछुड़े हुए दो भाइयों की नहीं, एक ही व्यक्ति की है। इसमें दद्दा अकेले हैं, उसमें धनुषधारी भी है। क्षोभ हुआ, धनुषधारी की पृष्ठिभूमि जानने की जिज्ञासा तक नहीं दिखाई। अच्छा लग रहा था कि ससुराल जैसे खटराग से आजाद रहेगी। यहां आ ही गई है तो पृष्ठभूमि का खुलासा होना चाहिए। रूपा से स्पष्टीकरण मांगने जैसे लहजे में बोली-
‘आपने दद्दा, नटराज का जिक्र किया। आपके पति…’
धनुषधारी को नाड़ी डूबती सी लगी। लेकिन रूपा मुस्तैद थी –
‘बहुत पहले साथ छोड़ गए।’
कूट उत्तर से जाहिर न हुआ कि इसको त्याग कर चले गए या भगवान को प्यारे हो गए।
‘पता नहीं क्यों लग रहा है, आप लोगों से कोई पहचान जुड़ रही है।’
‘जुड़ी है। यही कि मुख्यमंत्री ने मुझे और देवमाया को एक साथ स्वागत लक्ष्मी सम्मान दिया।’
देवमाया नजाकत नहीं समझ रही थी। बात का रुख अपनी ओर मोड़ लिया ‘जिस काम के लिए आपको सम्मान मिला वही देखने आई हूँ। दिखाइए।’
नटराज दीवान से उठ गया ‘दिखाता हूँ, थोड़ा जलपान हो जाए।’
नटराज भीतर गया। जल्दी ही पत्नी के साथ लौटा। पत्नी ने बेसन के लड्डू, आलू चिप्स और लस्सी के पात्रों को सेंटर टेबुल पर रख दिया। रूपा ने परिचय दिया-
‘मेरी बहू। इसके जुड़वा बेटे हैं। नटराज का जहां जॉब था, वहां पढ़ते थे। अब नानी के साथ अमानगंज में रहकर पढ़ते हैं।’
धनुषधारी को लगा रूपा प्रयत्नपूर्वक अपना पारिवारिक विवरण देकर उन्हें अफसोस में डालना चाहती है।
बहू ने उनको और क्षिप्रा को प्रणाम किया। अभाव जागा। औपचारिक अभिवादन कर रही है। उनका चयन होती तो पैर छूती। बेसाख्ता लगा पोतों की उम्र पूछे। किस इलाके में रहते हैं? किस अधिकार से पूछे? बहू भीतर चली गई। नटराज सबको बड़े-बड़े गिलास पकड़ाने लगा-
‘लस्सी पीजिए। अम्मा का गउ प्रेम। तीन दुधारू गाएं हैं। कस्बे का एक होटल वाला दूध ले जाता है।’
नजाकत को भांप चुके क्षिप्रा और धनुषधारी इस कदर चुप थे कि देवमाया प्रमुख वक्ता जान पड़ती थी –
‘आप लोग शुद्ध दूध, दही, घी खा रहे हैं। शहरों में दूध, दही, घी, अनाज, फल, सब्जी, मसाले सब जहरीले हैं।’
‘इसीलिए मैंने और अम्मा ने आर्गेनिक खेती का विचार बनाया। अम्मा बहुत पढ़ी-लिखी नहीं हैं, पर सूझ-बूझ रखती हैं। कोरोना काल को लोग आपदा की तरह देख रहे थे, अम्मा ने आपदा को अवसर बना लिया।’
‘वही देखने आई हूँ।’
धनुषधारी और क्षिप्रा को लस्सी पीनी पड़ी बाकी लड्डू और चिप्स उदर में न उतरा। धनुषधारी संदिग्ध की तरह बैठे रहे।
देवमाया बोली- ‘चलो पापा। देखते हैं।’
वर्तमान से निरपेक्ष दिखने के लिए उन्होंने मोबाइल खोल लिया- ‘देख आओ। मैं यहीं बैठूंगा।’
‘तबीयत ठीक है?’
‘थोड़ी थकान लग रही है।’
नटराज मर्म जानता है। बोला ‘दीवान पर लेट लें। आराम मिलेगा।’
‘ठीक बात।’
वे कुर्सी से उठ कर दीवान पर आ गए। रूपा, क्षिप्रा से बोली –
‘आप तो आइए। खुली जगह देख कर आपको अच्छा लगेगा।’
क्षिप्रा चाहती थी जोरदार हस्तक्षेप कर धनुषधारी पर अपराध स्वीकार करने का दबाव बनाए, पर उसे यह चेष्टा अशिष्ट लगी। जो भी अपयश है स्वत: सामने आएगा। उनकी तबीयत की फिक्र न कर वह सबके साथ बाहर चली गई।
नटराज सबको जहां ले गया वहां पुआल के ढेर लगे थे। वह चारों तरफ इस तरह देख रहा था जैसे जो भी देखता है बड़ी खुशी से देखता है। उसकी आवाज की ऊर्जा बताती है कि उसे अपने इलाके और काम से बहुत लगाव है। देवमाया को अपने काम की बारीकियां बताने लगा-
‘देवमाया जी, इस पुआल के कारण अम्मा स्वागत लक्ष्मी बनीं। हम लोग भी धान की फसल कटने के बाद अगली फसल की बुवाई के लिए पुआल जला देते थे। नहीं जानते थे कि पर्यावरण पर बुरा असर पड़ता है। लॉकडाउन में लोगों का काम-काज ठप्प हो गया था। मैं जिस फार्मा कंपनी में काम करता था, वहां एम्प्लाइज की छटनी कर दी गई। मेरा जॉब चला गया। मैं परिवार को लेकर किटहा आ गया। उसी दौरान दीनदयाल शोध संस्थान, चित्रकूट ने कुछ ऑनलाइन प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाए। कार्यक्रम से पता चला पुआल से भूसा बनाया जा सकता है। डीकम्पोज कर जैविक खाद बनाई जा सकती है। अम्मा ने मेरे साथ ऑनलाइन प्रशिक्षण लिया। हमने अपने खेत के पुआल से भूसा और खाद तैयार किए। अच्छे रिजल्ट मिले। हमारे पास बहुत नहीं, कुल चार एकड़ जमीन है। उससे बहुत कम पुआल मिला। अम्मा सरपंच से मिलीं कि वे पुआल न जलाने के लिए लोगों को प्रेरित करें। वे पुआल खरीदेंगी। हमारे पास एक ही ट्रैक्टर है। हमने कुछ ट्रैक्टर ट्रॉली किराए पर लिए। खेतों से पुआल लाए। किसानों को पुआल के पैसे दिए। कटाई मशीन और ट्रैक्टर वाले थ्रेशर से भूसा बनाने लगे। 2020 में 352 ट्रॉली पुआल जमा हुआ था। भूसा बेच कर लगभग 50,000 रुपये मिले। 2021 में 167 ट्रॉली पुआल जमा हुआ। लगभग दो लाख की आय हुई। 2022 में 480 ट्रॉली पुआल मिला। लगभग सवा लाख खर्च हुआ। साढ़े तीन लाख की आय हुई। अब तो लोग खुद बताते हैं उनके पास पुआल है।’
‘यह सब आप दोनों करते हैं?’
‘अम्मा गांव की महिलाओं को काम पर लगाती हैं। मेहनताना देती हैं।’
‘आप खुश हैं?’
‘बहुत। जॉब छूटने पर घबराहट हुई थी। अम्मा ने यहां इतना अच्छा इंतजाम कर रखा है कि कंपनी वाले बुलाएंगे तब भी नहीं जाऊंगा। लोग बेरोजगारी का दुख मनाते हैं, जबकि गांवों में बहुत स्कोप है। वैज्ञानिक तरीके से की गई खेती अच्छा लाभ देती है।’
देवमाया ने देखा नटराज के मुख कर कुछ नायाब करने का तोष है।
‘यही तो मैं सोचती हूँ। बढ़ती जनसंख्या के हिसाब से जॉब पैदा नहीं किए जा सकते। स्वरोजगार पर विचार करना चाहिए।’
‘यही तो। मैं भी पुरस्कार पाने लायक काम करता हूँ, पर पुरस्कार लक्ष्मियों को मिलता है। विष्णुओं की कद्र नहीं होती।’
‘आप पुरस्कार के लायक क्या करते हैं?’
‘आइए, दिखाता हूँ।’
देवमाया ने क्षिप्रा से कहा ‘आओ मां, देखें।’
क्षिप्रा का चित्त नटराज की कार्यप्रणाली पर नहीं था। वह खुलासा चाहती थी। बोली-
‘देवमाया, तुम्हारे मतलब का काम है। तुम देखो। मैं यहां बैठूंगी।’
वह पीपल के पेड़ के चौगिर्द बने सीमेंटेड गोल चबूतरे पर बैठ गई। रूपा, क्षिप्रा की खलबली को समझ रही थी। बोली –
‘नटराज, तुम देवमाया को काम दिखाओ। मैं बहन जी के पास हूँ।’
‘आइए देवमाया जी।’
नटराज, देवमाया को खाद बनाने वाले स्थल पर ले गया।
‘देखिए। मैंने खाद बनाने का भी ऑनलाइन प्रशिक्षण लिया। फार्मा कंपनी में काम करने के कारण मैं जानता हूँ अनाज, फल, दूध जैसे पदार्थ में मानक से अधिक रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाइयों के उपयोग से लोगों में डायबिटीज, ब्लड प्रेशर, हाइपर टेंशन जैसी समस्याएं तेजी से बढ़ रही हैं। मैंने इंटरनेट पर जैविक खेती की बारीकियां समझीं। ऑनलाइन प्रशिक्षण लिया। आधे एकड़ में चौकोर तालाब बनवाया है। बरसात का पानी इसमें पूरे साल भरा रहता है। जरूरत होने पर मोटर लगा कर सिंचाई कर लेता हूँ। इधर की कुछ जमीन में खाद बनाने का काम होता है। गो मूत्र और नीम से बीजामृत, ब्रह्मास्त्र, आग्नेयास्त्र, नीमास्त्र जैसे कीटनाशक और खाद बनते हैं। फल, सब्जी के छिलके, गोबर सब कुछ उपयोगी है। सुन कर हँसेंगी, लेकिन हमने कई बार गोबर भी खरीदा है।’
देवमाया पूरी रुचि से चारों ओर का नजारा ले रही थी।
‘अद्भुत है।’
‘आगे चलिए। आइए… यहां केंचुओं से वर्मी कंपोस्ट तैयार होता है। वर्मी कंपोस्ट यूनिट कृषि विज्ञान केंद्र के योगदान से लगा है। वर्मी कंपोस्ट से अच्छी आय हो जाती है। केंचुएं भी बिकते हैं। वर्मी कंपोस्ट से उत्पादन बढ़ता है।’
‘वर्मी कंपोस्ट और केंचुओं का मार्केट कैसे मिला?’
‘केंचुएं, वर्मी कंपोस्ट, कंपोस्ट के वीडियो बनाकर यू-ट्यूब, फेसबुक में डाले। अब तो ऑनलाइन बुकिंग मिलने लगी है।’
‘यहां न आती तो इतनी जरूरी बातें न जान पाती।’
‘मुझे भी नहीं मालूम था। कोरोना को लोग आपदा कहते थे, पर उस दौरान जितने ऑनलाइन प्रशिक्षण दिए गए, अधिक से अधिक लोगों तक बात पहुंची, पहले नहीं हुआ था। कृषि विज्ञान केंद्र ने मधुमक्खी पालन का तरीका बताया। व्यवसाय के लिए यूरोपियन प्रजाति की मधुमक्खियां अच्छी मानी जाती हैं। एक-दो लोग हैं जो मधुमक्खी पालन से साल भर में कई टन शहद प्राप्त कर रहे हैं। इनका ढंग भी उपयोगी है। कई तरह के इंजेक्शन, टिंचर ढंग से बनाए जाते हैं। मधुमक्खी पालन से अच्छी आय होती है। अखबार में मैंने पढ़ा था कि एक लड़के ने कड़कनाथ का पोल्ट्री फार्म खोला है। मध्य प्रदेश के झाबुआ जिले के कड़कनाथ (मुर्गा-मुर्गी) उत्तम माने जाते हैं। लड़का अंडे, चूजे, मुर्गे-मुर्गियां बेच कर बहुत कमा रहा है। उसने भी मार्केट के लिए सोशल मीडिया की मदद ली। पहला आर्डर उसे बहरीन से मिला था…’
‘आपकी बातें सुनकर लग रहा है कि मैं कितना कम जानती हूँ। अब मेरा मिशन लोगों को स्वरोजगार के लिए प्रेरित करना होगा। वह उधर इतने बाँस लगे हैं। आप लोगों ने लगाए?’
‘हां। कीट-पतंगें अक्सर हवा के माध्यम से आते हैं। उन्हें रोकने के लिये पूर्वी और पश्चिमी छोर पर बाँस लगा कर एग्रोक्लाइमेट जोन बनवाया है। उस जोन में फलदार वृक्ष तैयार कर रहा हूँ। वैसे मैं खुद हैरान होता हूँ। खेतिहर परिवार का हूँ, पर खेती कैसे की जाए, कैसे फसल बचाई जाए, बहुत नहीं जानता था। कोरोना न होता तो अब भी न जान पाता। जॉब में उलझा रहता। यहां अम्मा अकेले जूझती रहतीं। उन्होंने नलिनी बहन जी के सुझाव पर थोड़ा-बहुत आलू, टमाटर लगाना शुरू किया था। मैंने काम को विस्तार दिया। समझ में आ गया कि बारह-पंद्रह एकड़ के अनाज से उतना मुनाफा नहीं होता जितना तीन-चार एकड़ की सब्जी से होता है। एक एकड़ में मटर, एक में टमाटर, आधे एकड़ में आलू लगाता हूँ। मटर की फसल आने के पहले एडवांस बुकिंग हो जाती है। अमानगंज में पहले जबलपुर से मटर आता था। अब किटहा से भी जाने लगा है। गर्मी में मिर्च, मूली मंहगी बिकती है। मौसम के अनुसार तरह-तरह की सब्जियां लगाता हूँ। आठ-दस लोगों को रोजगार दे रखा है। खेती लगन से की जाए तो अच्छा मुनाफा होता है।’
‘और शुद्ध चीजें खाने को मिलती हैं।’
‘यह तो है ही।’
देवमाया इधर प्राकृतिक साम्राज्य को देखकर चमत्कृत थी, उधर क्षिप्रा की समझ में नहीं आ रहा था कि रूपा से क्या कहे- पूछे। कल्पना नहीं थी कि यहां आकर इत्मीनान खो देगी। नतीजा जो भी हो तस्वीर की पुष्टि होनी चाहिए।
‘आपके ससुर की तस्वीर है?’
‘हां।’
‘यही तस्वीर धनुषधारी के पास है। साथ में वे भी हैं।’
‘इसमें भी थे। नटराज ने फाड़ कर अलग कर दिया।’
रूपा का लहजा ऐसा संतुलित था जैसे धनुषधारी ने उसका नहीं, उसने धनुषधारी का परित्याग किया है। सुनकर क्षिप्रा पूरी तरह दीन हो गई। इस अल्पशिक्षित उद्यमी स्त्री के सम्मुख उसकी बड़ी डिग्री फर्जी है। इसके पास कम-अधिक जो भी था इसका था। इसका है। मेरे पास जो है, मेरा नहीं इसका है। यदि मेरा है तो पहले इसका, बाद में मेरा है। धनुषधारी के पद, कद-काठी का ऐसा आकर्षण रहा कि पृष्ठभूमि जानने की रुचि न हुई। अच्छा लग रहा था कि ससुराल का टंटा न रहेगा। अब तो ऐसे कुरूप हो गए हैं कि विश्वास नहीं होता इस आदमी पर फिदा हुई थी। इनके खर्राटों के कारण अलग कमरे में सोने लगी हूँ। मालूम नहीं था खर्राटे ऐसे असहनीय होते हैं कि कमरा अलग करना पड़ता है। रूपा सोच रही होगी कि मैंने इसका पति हड़पा है। मैं नहीं जानती थी यह बहुरूपिया विवाहित है। बेटियों के ससुराल तक गाथा पहुंचेगी तो क्या बयान सामने आएंगे? जीवन एकाएक ऐसा प्रमेय बन गया है जिसका कोई हल नहीं होता।
‘मुझे नहीं मालूम था धनुषधारी विवाहित थे।’
‘बुरे दिन भूलने के लिए होते हैं। मैं भूल गई हूँ।’
‘नटराज जानता है?’
‘नाम सुनकर ही समझ गया था। मुझे पहले ही बता दिया इसीलिए बैठक में मैं संभल कर आई, वरना कुछ देर के लिए जरूर लड़खड़ा जाती।’
‘मैं आपकी तरह तोष कहां से लाऊं?’
‘अपने भीतर से। एक प्रश्न उठेगा तो हजार प्रश्न उठेंगे। कुछ अपवाद राज ही रहें तो बेहतर।’
‘सजा किसे मिली?’
‘तीनों को या किसी को भी नहीं। हमारी भाग्य रेखाएं ही ऐसी… नटराज और देवमाया इधर आ रहे हैं। बात को दिल से न लगाएं। मैं यहीं से आपको विदा करूंगी। बैठक में मेरा कोई काम नहीं है।’
रूपा ऐसे अंदाज में खड़ी हो गई जैसे जीवन को भरपूर जी रही है।
वापसी।
नटराज ने आलू, टमाटर कार की डिग्गी में रखवा दिए। धनुषधारी का मुख बता रहा था कुछ लमहों में वे कमजोर इंसान में बदल गए हैं। उन्होंने नटराज को देखा। उसके शीश पर हथेली रख आशीष देने की ललक हुई, पर हाथ न उठा। इसे देख कर लग रहा है जैसे खुद को देख रहे हैं। ऐसा गबरू लग रहा है कि देखते रहने को जी कर रहा है। परिवार न छोड़ते तो रसूखदार बनकर रहते। नटराज दायित्व बांटता।
क्षिप्रा को देखा- इस तरह देख रही है जैसे शिनाख्त कर रही है कि मैं दरअसल किसका पति हूँ। खर्राटे के कारण अलग कमरा अपना लिया है। अब अलग ही न हो जाए।
देवमाया को देखा- खुश लग रही है। पता नहीं, इसकी खुशी कब तक बची रहेगी।
तिरछी नजर से रूपा को ढू़ंढा- जब इसने सोबर में जाना होगा, दद्दा ने मुझे द्वार से खदेड़ दिया है तो क्या यह दीन होकर रोई होगी? मेरा इंतजार किया होगा? बेरमा छोड़, किटहा में बसते हुए क्या-क्या यत्न किए होंगे?
वे आगे की सीट पर बैठ गए।
जा रहे हैं पर जाकर भी पूरी तरह नहीं जा पाएंगे। नटराज और रूपा साथ न आते हुए भी कुछ तो साथ आएंगे। अनदेखा नटराज और अपर्याप्त प्रकाश की झिलमिल छवि वाली रूपा साबुत चेहरा बन गए हैं। किसी को याद करो तो सर्वप्रथम चेहरा ही याद आता है। दोनों चेहरे याद आएंगे। बार – बार।
कार चल पड़ी।
उन्हें लगा एक बार फिर अपने दर से लौट रहे हैं। बल्कि खदेड़े जा रहे हैं।
संपर्क : द्वारा श्री एम. के. मिश्र, जीवन विहार अपार्टमेन्ट़ फ्लैट नं0 7, द्वितीय तल, महेश्वरी स्वीट्स के पीछे, रीवा रोड, सतना (म.प्र.)-485001 मो.8269895950