चर्चित अनुवादक, पुस्तक ‘हिंदू धर्म प्रवेशिका’

समकालीन हिंदी कहानी के प्रकाश स्तंभ स्वयं प्रकाश को विशिष्ट पहचान दिलाने वाले प्रमुख तत्व हैं – यथार्थ की उनकी गहरी समझ, उनका वैज्ञानिक दृष्टिकोण और रचनात्मक विवेक, सोद्देश्यता और शिल्प के प्रति उनकी सजगता। इन सभी तत्वों का संश्लेषण उनकी कहानियों को पठनीय एवं रोचक बनाता है। स्वयं प्रकाश का कहानी लेखन इस बात को झुठलाता नजर आता है कि लोकप्रिय कहानियाँ श्रेष्ठ कहानियाँ नहीं हो सकतीं।

स्वयं प्रकाश का कहानी कहने का अलग अंदाज रहा है। एंटोन चेख़व उनके कथा-गुरु थे। प्रेमचंद कहानी परम्परा के सशक्त कथाकार स्वयं प्रकाश, अपने एक कहानी संग्रह की भूमिका में कहते हैं,

‘कहानी की दुनिया में मैं प्रेमचंद को पढ़कर नहीं, चेख़व को पढ़कर आया। और जिन्होंने मेरी पहली कहानी ‘प्रभाव’ और पहला कहानी संग्रह ‘मात्रा और भार’ देखा है, वे आसानी से समझ सकते हैं कि मैं तब से लेकर अब तक अपने गुरु जी की नकल करने की असफल कोशिश करता रहा हूँ।’

उनके पहले कहानी संग्रह ‘मात्र और भार(1974) से लेकर ‘छोटू उस्ताद’ (2015) पर दृष्टिपात करने पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि समय के साथ कदमताल करते हुए स्वयं प्रकाश की कहानियों ने लगातार नयी भाव-भंगिमाओं को अख्तियार किया है।

स्वयं प्रकाश ने अपनी कहानियों में एक विशिट शैली विकसित की, वे कहानियाँ लिखते नहीं, सुनाते हैं। ‘पार्टीशन’ और ‘बलि’ कहानियों से उद्धरण लेते हुए रेखा सेठी लिखती हैं- ‘यह शैली किस्सागोई की वह शैली है जिसमें कहानी सुनाने का रस विद्यमान है। इन कहानियों ने पाश्चात्य पद्धति की शोर्ट स्टोरी के ढाँचे में भारतीय कथा परंपरा को जीवित किया है। हमारे यहाँ तथाकथित कहानी से बहुत पुरानी एक कथा-परंपरा रही है जो लेखक और पाठक की सहभागिता से विकसित होती है। स्वयं प्रकाश की कहानियाँ उसकी याद दिलाती हैं। पाठक से सीधे संवाद स्थापित करने की कला इन कहानियों कों अधिक विश्वसनीय बनाती है…’  राजस्थान की लोककथाओं की ऊर्जा-उष्मा लिए, समकालीन संदभों से जोड़ती ये कहानियाँ विजयदान देथा की कहानियों की याद दिलाती हैं। यहाँ स्वयं प्रकाश की ‘जंगल का दाह’, ‘कानदांव’, ‘गौरी का गुस्सा’, ‘बिछुड़ने से पहले’ आदि कहानियों का संदर्भ लिया जा सकता है।

मूलतः स्वयं प्रकाश जनवादी कहानीकार थे। उनके लेखन के पीछे मार्क्सवादी दृष्टि है जो उन्हें जीवन को स्वस्थ, सुखी और पूर्ण रूप से विकासशील बनाने का वैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रदान करती है। स्वयं प्रकाश की कहानियों में जनवाद के अतिरिक्त आवेश का बहाव नहीं है, बल्कि उनकी   विचार-सरिणी का प्रभावी रूपांतरण है। उनका संतुलित दृष्टिकोण एवं स्पष्ट आलोचनात्मक रुख एक ओर जहाँ उनकी वैचारिक पक्षधरता को आँच नहीं आने देता, वहीँ दूसरी ओर कहानी की उष्मा को भी बनाए रखता है।

स्वयं प्रकाश की कहानियों में दोहराव नहीं है। यथार्थ को बारीकी और सघनता से पकड़ने और विविधता में पैठने की क्षमता उन्हें अपनी पीढ़ी के कहानीकारों के बीच विशिष्ट बनाती है। उनके लेखन में निरंतरता के साथ-साथ अर्थवत्ता भी है। हम कह सकते हैं कि पिछले दो दशकों में बहुत कम कथाकार अपनी सार्थक कहानी-यात्रा को जारी रख पाए हैं। कहानियों के अलावा स्वयं प्रकाश हिंदी साहित्य की अन्य विधाओं में भी सृजनरत रहे हैं। उनके साहित्यिक अवदान के चलते उन्हें कई प्रतिष्ठित संस्थानों द्वारा सम्मानित एवं पुरस्कृत किया गया है।

आधुनिक हिंदी कहानियों का प्रारंभ द्विवेदी युग से और उनका विकास प्रेमचंद युग में माना जाता है। वर्ष 1950 के बाद की कहानियों में मार्क्स और फ्रायड के साथ-साथ अस्तित्ववाद के दर्शन का प्रभाव भी देखा जाता है। वर्ष 1955 के आस-पास हिंदी कहानी में एक गुणात्मक परिवर्तन आता है, जिसे ‘नई कहानी’ नामक एक कथा आंदोलन के रूप में जाना जाता है। उसके बाद अनेक आंदोलनों के दौर से हिंदी कहानी गुजरती है, जिनमें सचेतन कहानी, सहज कहानी, अ-कहानी, समानांतर कहानी और जनवादी कहानी आंदोलन प्रमुख हैं।

वर्ष 1970-75 के आस-पास जनवादी कहानी हिंदी कहानी के केंद्र में आती है। कहानीकारों की एक नई पीढ़ी उभरती है, जिनमें संजीव, असगर वजाहत, पंकज बिष्ट, नमिता सिंह, उदय प्रकाश, अरुण प्रकाश, स्वयं प्रकाश आदि शामिल हैं। ये कथाकार अपनी पहचान ‘जनवादी’ कथाकारों के रूप में बनाते हैं। समकालीन कहानी लेखन में स्वयं प्रकाश उन गिने-चुने कथाकारों में से है जिन्होंने प्रेमचंद द्वारा प्रवर्तित जनपक्षधारा को फिर से मुख्यधारा से जोड़ा।

समकालीन कहानी की बात करें तो हमारे समय के तीन वरिष्ठतम प्रतिनिधि कहानीकारों में स्वयं प्रकाश, संजीव और उदयप्रकाश के नाम सम्मान के साथ लिए जाते हैं। इन तीनों कहानीकारों की स्थिति के बारे में आलोचक रविभूषण का यह वक्तव्य दृष्टव्य है:

‘समकालीन हिंदी कथाकारों में स्वयंप्रकाश, संजीव और उदयप्रकाश की भिन्नता सहज स्पष्ट है। स्वयंप्रकाश, हिंदी कहानी विकास की परंपरा से सहज जुड़ते दिखाई देते हैं, प्रेमचंद के बाद अमरकांत और स्वयं प्रकाश जिस प्रकार एक सहज विकास की परंपरा में हैं, उस प्रकार न तो संजीव हैं और न ही उदय प्रकाश।  उदय प्रकाश अपनी फैंटेसी के कारण और कहानी की कलात्मक प्रस्तुति के कारण हिंदी कहानी की विकास परंपरा में अपनी अलग पहचान निर्मित करते हैं और संजीव इन दोनों से भिन्न हैं, उनका मुख्य स्वर भारतीय राजसत्ता और व्यवस्था का वास्तविक रूप दिखाना तथा उसकी सहयोगी शक्तियों का वास्तविक चित्र प्रस्तुत करना है।’

प्रेमचंद की विकास परंपरा से जुड़ने का अर्थ क्या है? यहाँ स्वयं स्वयं प्रकाश को उद्धृत करना  यथेष्ट रहेगा। अपने एक कहानी संग्रह की भूमिका में स्वयं प्रकाश कहते हैं: ‘इसका अर्थ था यह समझना कि अनुभववाद यथार्थवाद नहीं है। कि दुनिया साहित्य से नहीं राजनीति से बदलती है। कि इतिहास कुछ नेता नहीं, जनता बनाती है और बदलती है। कि राजनीति परहेज की चीज नहीं है। कि यथार्थ गतिशील है, समाज वर्गों में विभक्त है। कि समाज के अंतर्वर्गीय अंतर्विरोधों को समझना अच्छी कहानी के लिए भी ज़रूरी है। कि लोकप्रियता और श्रेष्ठता में कोई अनिवार्य विरोध नहीं है और अपने समय के प्रश्नों से कतराकर कोई रचना कालजयी नहीं हो सकती।’

स्वयं प्रकाश की कहानियाँ सांप्रदायिकता की समस्या, स्त्री विमर्श, जातिवाद, छुआछूत आदि विभिन्न सामाजिक विद्रूपताओं और विडंबनाओं को प्रभावी ढंग उजागर करती है, साथ ही संघर्षरत नायकों को रास्ता दिखाती है। यहाँ हम ‘आदमी जात का आदमी’, ‘उनका ज़माना’, ‘बेमकान’, ‘बर्डे’, ‘रशीद का पजामा’ का उल्लेख कर सकते हैं। स्वयं प्रकाश का सामाजिक सरोकार बहुत ही व्यापक और बहुत ही विविधतापूर्ण है। कथाकार के रूप में उनकी नजर चारों तरफ घूमती है। जैसे ही कोई विसंगति या असंगति नजर आती है वे उन्हें कहानी में ढाल देते हैं। उनकी एक कहानी ‘तलबी’ है – इस कहानी का आधार ही वैचारिक है। दो विचारधाराओं का सीधा संघर्ष है। इस कहानी में भारतीय जीवन, समाज, दुनिया, इतिहास आदि को वैज्ञानिक दृष्टि से देखने वाला एक युवक भारतीय संस्कृति का प्रचार करने वाले एक शाखा गुरु से उलझता रहता है और अपने वैज्ञानिक और तर्कसंगत प्रश्नों से उसके खोखले सांस्कृतिक ज्ञान को बेपर्द करता रहता है। वह पूरी-की-पूरी कहानी वैचारिक योजना से लिखी गई है फिर भी इसमें कहीं बोझिलपन नहीं आता, क्योंकि प्रश्नों का संदर्भ इसे रोचक बना देता है।’

पिछले तीन-चार दशक में समकालीन कहानियों में काफी बदलाव आया है। कहानी की संरचना, भाषा, कथ्य, और शिल्प के स्तर पर लगातार विकास हुआ है और कहानियों में बदलते समय के संश्लिष्ट यथार्थ को पकड़ने की चेष्टा की गई है। इस परिदृश्य में स्वयं प्रकाश की कहानियों को पढ़ना और विश्लेषण करना अपने आप को समृद्ध करना है। इस दौर में स्वयं प्रकाश ने ‘संधान’, ‘गौरी का गुस्सा’, कानदाँव’, जंगल का दाह’, ‘लडोकन’, तीसरी चिट्ठी’, लड़कियाँ क्या बातें कर रही थीं’, ‘ट्रेफिक’ जैसी कई स्तरीय कहानियाँ लिखी हैं। “उनकी विशेषता यह है कि ऐसे संक्रमण को संकट मानकर वे जूझते नहीं हैं और न ही परेशान होते हैं, बल्कि उसे चुनौती देकर खारिज करने का माद्दा रखते हैं, उसे ठीक करने की राह दिखाते हैं। जीवन में आस्था की फिर फिर प्रतिष्ठा करते हैं।” [i]

स्वयं प्रकाश ने सांप्रदायिक समस्या को बिलकुल अलग ढंग से देखा है।  इस विषय पर उनकी प्रसिद्ध कहानियाँ हैं: ‘क्या तुमने कोई सरदार भिखारी देखा?’, ‘पार्टीशन’, ‘आदमी जात का आदमी’, ‘रशीद का पजामा’, ‘उल्टा पहाड़’। इस समस्या पर लिखी गई स्वयं प्रकाश की कहानियों पर प्रसिद्ध आलोचक डॉ। विश्वनाथ त्रिपाठी कहते हैं: “स्वयं प्रकाश की इन कहानियों की विशेषता यह है कि वे सांप्रदायिकता पर लिखी इकहरी कहानियाँ नहीं हैं… स्वयं प्रकाश ने शायद पहली बार हिंदी कहानी में सांप्रदायिकता को व्यापक सामाजिक संदर्भ दिया है, यह भी समझ का– पर्यवेक्षण का और विक्षोभग्रस्त मानसिकता की रचनात्मक मानसिकता की छटपटाहट का परिणाम है। ब्योरों का डिटेल्स का यह संश्लेषण समय-संवेदन का परिणाम है।’

‘पार्टीशन’ कहानी उस प्रक्रिया को तलाशती है, जिसमें एक सुलझा हुआ इंसान सांप्रदायिक व्यक्ति में परिणत हो जाता है। यह कहानी कुर्बानअली नामक एक ऐसे भारतीय की कहानी है, जो यहाँ की मिट्टी से प्रेम के कारण विभाजन के समय पाकिस्तान नहीं गया; जो यहाँ अपना सब कुछ लुट जाने के बाद भी सबसे हिलमिल कर रहता है, समाज में अपना स्थान बनाता है; यह सब सांप्रदायिक ताकतों को नागवार गुजरता है, परिस्थितियाँ ऐसी बनाई जाती हैं कि वह नितांत अकेला रह जाता है – लुटा-पिटा। यह कहानी दो भयावह तथ्यों को उजागर करती है। पहला लंबे समय से सांप्रदायिकता का घोला हुआ नफरत का जहर और दूसरा मध्यवर्गीय बुद्धिवादियों की कायरता, जिनकी वजह से हमारी साझा संस्कृति का ताना-बाना बिखर रहा है। सुधीश  पचौरी के अनुसार, कुर्बान अली को यदि पढ़े-लिखे मुस्लिम समाज का प्रतिनिधि मान लिया जाए तो यह कहानी नेहरू युग की ‘कंपोजिट कल्चर’ के खत्म हो जाने का प्रमाण देती है। ‘तमस’ में कंपोजिट कल्चर के तहस-नहस किये जाने और फिर से कंपोजिट कल्चर में लौटने की व्याख्या है। वह एक पुरानी साझी संस्कृति से हटकर, एक नई साझी संस्कृति की तलाश थी भले ही उजड़े हुए परिवारों के टेंटों में रहने से उसकी शुरुआत होती थी। ‘पार्टीशन’ उस साझी संस्कृति का अंत है।’

यहाँ स्वयं प्रकाश की एक और कहानी ‘क्या तुमने कभी कोई सरदार भिखारी देखा?’ की चर्चा की जा सकती है। यह कहानी इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उपजे माहौल के बीच सरदारों की मानसिकता को केंद्र में रख कर लिखी गई कहानी है। किस प्रकार राजनीतिक षड्यंत्र के तहत उन्माद फैलाया जाता है, उन्मादी भीड़ हिंसक और बीभत्स हो जाती है, सत्तर वर्षीय बुजुर्ग सरदार को लूटती-पीटती है और बाकी सभी लोग बेबस-से तमाशा देखते हैं। इस कहानी में आभिजात्य वर्ग की स्वार्थपरक तटस्थता और मध्यवर्ग की कायरता की बहुत ही निकट पहचान होती है। विडंबना यह है कि जो लोग सरदार जी के साथ दुर्व्यवहार करते हैं, मार-पीट करते हैं, वे निम्न, मध्य वर्ग के लोग ही हैं।‘जिस निम्न और निम्न मध्यवर्ग को सहारा बनाना था वे सांप्रदायिक, प्रतिक्रियावादी या लुंपेन बन गए थे। इस देश में शोषकों की निर्मम हत्याएँ, ऐसा अग्नि-दहन कभी नहीं हुआ जैसा अल्पसंख्यकों का हुआ और यह सब शोषकों, पूंजीपतियों, साम्राज्यवादियों ने नहीं किया। संभावित-सर्वहारा, निम्नवर्ग, निम्न मध्यवर्ग ने किया। अमरकांत के ‘हत्यारे’ के पात्रों जैसे नवयुवकों ने किया।’

राजस्थान की धरा स्वयं प्रकाश की कर्म-स्थली रही है। स्वयं प्रकाश का करीब-करीब पूरा सेवाकाल – ओड़िसा में बिताए उनके सात साल को छोड़ दें तो – राजस्थान में डाक-तार विभाग व हिंदुस्तान जिंक लिमिटेड में विभिन्न पदों पर कार्य करते हुए, भीनमाल, जोधपुर, जैसलमेर, सुमेरपुर, चितौड़गढ़, जावरमाइंस (उदयपुर) जैसे कस्बों-शहरों में बीता। अतः उनके लेखन में राजस्थान के विभिन्न अंचलों का परिवेश रचा-बसा है। यहाँ के मध्य-वर्गीय, निम्न-वर्गीय जीवन के साथ ग्रामीण जीवन की पीड़ा-व्यथा गहरी संवेदना के साथ उभरी है, जिसे हम उनकी कहानियों – ‘अगले जनम’, ‘सूरज कब निकलेगा’, ‘नैनसी का धूड़ा’, ‘बिछुड़ने से पहले’ आदि में देख सकते हैं।

स्वयं प्रकाश ने स्थानीय जन-जीवन की रंगत के साथ-साथ राजस्थान की लोक-कथा से प्रेरणा लेकर भी कहानियाँ लिखी हैं। यहाँ ‘जंगल का दाह’, ‘नैनसी का धूड़ा’, ‘कानदाँव’, ‘गौरी का गुस्सा’ आदि कहानियों का संदर्भ लिया जा सकता है। स्वयं प्रकाश ने अपनी कहानियों में स्थानीय भाषा के शब्दों और वाक्यांशों के प्रयोग को महत्त्व दिया है। उन्होंने अपनी कहानियों में भाषा को वहाँ वर्णित परिवेश के अनुसार बड़े ही जतन से बेहद कलात्मक ढंग से ढाला है। यही कारण है कि उनके पात्र सजीव एवं विश्वसनीय लगते हैं। उन्होंने परसाई और ज्ञानरंजन की भाषा को आगे बढाया है। सुपरिचित समालोचक नवलकिशोर का मत है –‘कहानी भाषा की उनकी (परसाई व ज्ञानरंजन) परंपरा को स्वयं प्रकाश ने आगे बढ़ाया और महारत हासिल की है। … यह भाषा उनकी कहानियों को बेहद पठनीय बनाती है। स्वयं प्रकाश की यह भाषा पाठक को गुदगुदाने के लिए नहीं है, वह लेखकीय संदेश से उसे अंततः झकझोरने के लिए है।’  पाठकों को गुदगुदाने वाली भाषा के बारे में स्वयं प्रकाश ने कहा है- ‘चेखव से क्षिप्रता और चुटीलापन, मार्कट्वेन से खिलंदड़ापन और बेदी से सलीकेदार और प्रसन्न भाषा सीखने की मैंने कोशिश की है।’  प्रख्यात आलोचक शंभुनाथ कहानीकार स्वयं प्रकाश पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं- ‘वे गहरी लोक संसक्ति के कहानीकार हैं। लोकशब्दों की खनखनाती ताजगी, कला का पता नहीं चले ऐसी कला और कथा के इस छोर से उस छोर तक ज़िंदा दृश्य उनकी कहानियों में अलग किस्म की खूबियाँ पैदा करते हैं। पढ़ो और फेंकों की तेज दुनिया में ये टिकने वाली चीजें हैं।’

स्वयं प्रकाश की कहानियों में अधिकांश पात्र ऐसे हैं जो यथावत नाम और गुण के साथ कहानी में उतर आए हैं। स्वयं प्रकाश की कहानियों में राजस्थान का स्थानिक परिवेश विविध स्तरों पर विभिन्न अर्थों को उद्घाटित करता है। कहीं वह पात्रों की व्यक्तिगत जिंदगी के प्रति अतिसंवेदनशील है, तो कहीं सामाजिक व्यवस्था के प्रति आक्रोश के भावों को व्यक्त करता है। इसलिए ये कहानियाँ एक ओर संघर्षरत व्यक्ति की दयनीय स्थिति तो दूसरी ओर सामाजिक जीवन में व्याप्त क्रूर विसंगतियों को उजागर करती है। ‘सूरज कब निकलेगा’, ‘क्या तुमने कभी कोई सरदार भिखारी देखा?’, ‘अगले जनम’, ‘नैनसी का धूड़ा’ आदि स्वयं प्रकाश की श्रेष्ठ कहानियाँ हैं, जिनके माध्यम से विविध अर्थों में जीवनगत संदर्भों के साथ परिवेश को उद्घाटित किया गया है।

‘धूप में नंगे पाँव’ उनकी लिखित अंतिम पुस्तक है। यह आत्मकथात्मक संस्मरण पुस्तक उनके द्वारा नौकरी करते हुए बिताए 36 वर्षों के कालखंड पर आधारित है। इन 36 वर्षों के दरमियान स्वयं प्रकाश से अनगिनत दिलचस्प लोग मिले, उन्हें अनेक खट्टे-मीठे अनुभव हासिल हुए, जो उनकी स्मृति के स्थाई अंग बन गए। हालांकि स्वयं प्रकाश द्वारा लिखी ढाई सौ से ऊपर कहानियों में अधिकांश पात्र उनके आस-पास के लोग रहे हैं। फिर भी कुछ लोग, कुछ घटनाएं, कुछ किस्से उनके कथा-संसार का हिस्सा नहीं बन पाए, उन्हें स्वयं प्रकाश ने अपनी कथा-यात्रा के अंतिम पड़ाव पर इस पुस्तक में आत्मीयता से याद किया है।

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