सेवानिवृत शिक्षक। कहानी–संग्रह ‘बबूल’। लघुकथा संग्रह ‘खोल दो’। ‘बबूल’ पर उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी एवं बिहार उर्दू अकादमी का पुरस्कार।
दंगल की तारीख की घोषणा हो चुकी थी।
जिले के दंगल-प्रेमी बड़ी बेसब्री से उस दिन की प्रतीक्षा कर रहे थे।
नया बाज़ार गांव के धनाढ्य ठाकुर भानु प्रताप सिंह ने इस बार ज़हूर पहलवान से मुक़ाबले के लिए एक लाख रुपये के पुरस्कार का एलान कर दिया था और पूरे जिले में बड़े पैमाने पर इसका प्रचार कराया था।
साठ वर्षीय ठाकुर भानु प्रताप सिंह जमींदार घराने के थे। जमींदारी तो खत्म हो गई थी, लेकिन उनके ठाट-बाट अब भी जमींदारों जैसे ही थे, क्योंकि वह गांव के इकलौते करोड़पति थे। उनके ईंट के दो भट्ठे और कालीन का एक बड़ा कारखाना था। गांव के छोर पर आम के कई बगीचे थे। बीसों एकड़ कृषि-भूमि थी, जिसमें हर साल सैंकड़ों टन अनाज पैदा होता था।
इतने धनी होने के बावजूद वे विनीत स्वभाव एवं उदार हृदय वाले थे। गांव में क्या हिंदू क्या मुसलमान, क्या सवर्ण क्या दलित, सभी की नज़रों में वह सम्मानीय थे। और क्यों न होते कि उन्होंने गांव में सांप्रदायिक सद्भाव का एक अभूतपूर्व वातावरण स्थापित कर रखा था। गांव की उन्नति एवं समृद्धि के लिए सदा तत्पर रहते। हरेक के दुख-सुख में बढ़-चढ़ कर भाग लेते। उन्होंने गांव वालों को कभी इसका अनुभव नहीं होने दिया कि वह एक धनवान, रईस एवं सूर्यवंशी क्षत्रिय हैं।
उस्ताद ज़हूर पहलवान हालांकि उनसे दस साल छोटे थे, लेकिन वह उस्ताद के साथ बड़े स्नेह एवं सम्मान से पेश आते, क्योंकि उस्ताद गांव की प्रतिष्ठा एवं मर्यादा थे। वह पूरे गांव की आंखों का तारा थे।
ज़हूर पहलवान का अपना एक अखाड़ा था, जहां दस-बारह पहलवान उनसे कुश्ती के दाव-पेंच सीखते थे। उनके चेलों में हिंदू, मुसलमान, क्षत्रिय, दलित हर समुदाय के पहलवान थे। उनका यह अखाड़ा ठाकुर भानु प्रताप सिंह के संरक्षण में ही चलता था। अखाड़े का सारा खर्च ठाकुर जी ही उठाते थे। उन्होंने उस्ताद का मासिक वेतन भी तय कर रखा था।
ज़हूर पहलवान पंद्रह वर्षों से कुश्ती लड़ रहे थे। वह अपने गांव और जिले के दूसरे दंगलों में पचासों बार भाग ले चुके थे, लेकिन उन्होंने कभी हार का मुंह नहीं देखा था।
यूं तो हर साल सावन के महीने में बनारस जिले के कई गांवों में जगह-जगह दंगल होते थे, लेकिन नया बाज़ार गांव के दंगल की बात ही कुछ और थी। उस दंगल में एक तो कुश्ती के कई मुकाबले होते थे, दूसरे यह कि कुश्ती जीतने वालों को एक बड़ी राशि पुरस्कार स्वरूप ठाकुर भानु प्रताप सिंह स्वयं अपने पास से देते थे। एक विशेष बात यह भी थी कि ज़हूर पहलवान के कुश्ती लड़ने का अंदाज़ दंगल-प्रेमियों को लुभाता था। वह नए-नए दाव-पेंच से प्रतिद्वंद्वी को पल भर में धूल चटा देते थे। यही कारण है कि दूसरे दंगलों की अपेक्षा नया बाज़ार के दंगल में बहुत भीड़ हुआ करती थी।
उक्त दंगल में दूसरे पहलवानों के लिए इनामी रकम दस हजार रुपये प्रति कुश्ती होती थी, जबकि ज़हूर पहलवान के मुकाबले के लिए बीस हजार रुपये। लेकिन इस बार ज़हूर पहलवान से मुकाबले के लिए ठाकुर जी ने पूरे एक लाख रुपये के पुरस्कार की घोषणा कर दी थी।
अभी कुछ दिनों पूर्व उस्ताद की इकलौती बेटी की मंगनी थी तो ठाकुर जी अपने स्नेह एवं अपनत्व समेत मंगनी की रस्म में उपस्थित थे। उन्होंने स्वयं उस्ताद की बेटी की शादी की तारीख आगामी ईद के चांद की चौदहवीं को निश्चित की थी। उस्ताद को ठाकुर जी इतने प्रिय थे कि उन्होंने जरा भी परेशानी का इजहार नहीं किया था कि इतनी जल्दी पैसों का इंतज़ाम कहां से होगा। लेकिन ठाकुर जी उनकी परेशानी को अच्छी तरह जानते थे। मंगनी की रस्म समाप्त होने पर घर जाते समय उन्होंने कहा था। ‘उस्ताद, सालेहा इस भानु प्रताप की भी बेटी है, चिंता मत कीजिएगा।’
और उसके एक सप्ताह के बाद ही ठाकुर जी ने अगले महीने होने वाले दंगल में उस्ताद के मुकाबले पर एक लाख रुपये का इनाम रख दिया और लगभग पूरे जिले में, जहां-जहां दीवारों पर खाली उचित जगहें मिलीं, उनपर विज्ञापन करवा दिया।
दीवारी-विज्ञापन के चौथे दिन ठाकुर जी के पास, ज़हूर पहलवान से मुकाबले के लिए इस बार प्रगासपुर के हीरा लाल अहीर ने अपना इरादा जाहिर किया।
सप्ताह भर बाद पूरे जिले में फिर बड़ी संख्या में, एक और आकर्षक पोस्टर चिपकाया गया, जिसमें दोनों पहलवानों की तस्वीरें और मुकाबले की तारीख छपी थी।
जिस दिन दीवारों पर पोस्टर लगाए गए, उसी संध्या उस्ताद ज़हूर अपनी बखरी (वह कच्चा मकान जिसके बाहरी भाग में लंबा दालान होता है) के बाहर खाट पर बैठे अपने सात-आठ शागिर्दों (चेलों) के साथ बात-चीत में व्यस्त थे।
‘उस्ताद!…..ई साला अहिरा को का सूझा जो आपसे मुकाबला करे।’ झुमरू पासी ने घृणास्पद स्वर में कहा।
‘अरे भई, कोई तो मुकाबले पर आएगा ही… तभी तो कुश्ती होगी।’ उस्ताद मुस्करा कर बोले। ‘मेरे मुकाबले पर हर साल दो-चार लोग तो आते ही हैं।’
चूंकि उस्ताद थोड़े शिक्षित थे, इसलिए उनके लहजे में शांति एवं शालीनता थी। पारंपरिक पहलवानों जैसा अक्खड़पन नहीं था।
‘का समझा, साला उस्ताद को चित कर देगा!’ उस्ताद के मुंहलगे जुम्मन पहलवान ने मुंह बिचकाया।
‘क्यों तुम लोग अपना खून जला रहे हो!’ उस्ताद ज़हूर ने समझाया।
‘नहीं उस्ताद, ऊ ससुरा का हिम्मत कैसे हुआ… अरे कोई बड़ा पहेलवान होता तो कौनो बात था…. तीन चार बरस से कुस्ती लड़ रहा है….दो तीन दंगल का मार लियस की…’
‘हिम्मत का बात सुबराती भाई…’ फलगू यादव ने शुबराती की बात बीच में ही काट कर कहा। ‘हम बताते हैं… असल बात ई है उस्ताद कि ओकर बिटिया का अगले माह सगाई है और लड़का वालन तिलक में लाख रुपया का मांग किए हैं, एही वास्ते उसने…’
फलगू यादव, हीरा लाल अहीर का दूर का रिश्तेदार था और प्राय: प्रगासपुर जाया करता था। अभी उसकी बात पूरी नहीं हुई थी कि ठाकुर भानु प्रताप सिंह वाकिंग स्टिक टेकते पहुंच गए। उस्ताद ज़हूर जल्दी से खाट पर से उतर कर खड़े हो गए। सारे चेलों ने भी आदर में ऐसा ही किया।
उस्ताद ने ठाकुर जी को सम्मान के साथ खाट पर बिठाया और उनकी छड़ी को स्वयं पकड़े खड़े रहे।
‘सब तो कुशल है न उस्ताद?’ ठाकुर जी ने ज़हूर पहलवान की ओर देख कर पूछा।
‘हां ठाकुर जी, इधर तो सब ठीक है, लेकिन आप बेवक्त… ख़ैरियत तो है न?’’
‘एकदम ख़ैरियत है। हम केवल इतना कहने आए हैं कि अब गांव की मर्यादा का सवाल है। इस बार भी पुरस्कार गांव से बाहर नहीं जाना चाहिए। वैसे भी यह आपका अंतिम दंगल है।’
‘ऐसा ही होगा ठाकुर जी इंशा अल्लाह… आप बिलकुल बेफिक्र रहें। अभी मैं इतना बूढ़ा नहीं हुआ हूँ।’
मुकाबले की तारीख आ पहुंची थी।
गांव के बाहर ठाकुर जी के ही एक बगीचे में बने बीस-बीस फुट लंबे-चौड़े अखाड़े को नए सिरे से तैयार किया गया।
अखाड़े के पूर्वी सिरे पर प्रगासपुर के तीन-चार नवजवान हीरा लाल अहीर के साथ कुसिर्र्यों पर बैठे थे और उसी गांव के बहुत से लोग उनके पीछे खड़े थे। पश्चिमी ओर ज़हूर पहलवान अपने शागिर्दों के साथ तशरीफ फरमा थे और उनके पीछे लगभग पूरा नया बाज़ार खड़ा था। उत्तर की ओर एक बड़ा मंच सजाया गया था, जिस पर ठाकुर जी सभापति के रूप में उपस्थित थे। साथ में गांव के सरपंच, मुखिया और जनपद के डी.एम. साहब ठाकुर जी के निमंत्रण पर विशिष्ट अतिथि के रूप में विराजमान थे। इनके अतिरिक्त कुश्ती में भाग लेने वाले पहलवानों के गांवों के एक-एक प्रतिष्ठित व्यक्ति भी थे। दक्षिणी छोर पर बनारस जिले के पास-दूर के गांवों से आए हुए पहलवान कुर्सियों पर बैठे थे और उनके पीछे उन ही गांवों के दंगल-प्रेमियों का एक जमघटा था। इनके अलावा अनगिनत किशोरों-नवयुवकों ने अखाड़े की चारों ओर के पेड़ों पर अपने बैठने का प्रबंध कर लिया था।
मंच पर सामने एक लंबी सी मेज़ थी, जिस पर नोटों की कई गड्डियां सजा कर रखी गई थीं। मंच पर मौजूद अतिथियों के सामने पानी की मुहरबंद बोतलें और कांच के साफ-सुथरे ग्लास रखे हुए थे। माइक सेट की भी व्यवस्था की गई थी।
निश्चित समय पर कुश्ती के मुकाबले शुरू हुए।
पहले छोटे-बड़े बारह मुकाबले स्थानीय एवं बाहरी पहलवानों के होते रहे। जीतने वाले पहलवानों के नाम की उद्घोषणा माइक से होती और डी.एम. साहब अपने हाथों से नोटों की एक गड्डी पुरस्कार में देते। हारने वाले पहलवानों को एक-एक गमछा, जांघिया, गंजी, लंगोट और दो खिल्ली पान पेश किए जाते। यह दायित्व सरपंच जी निभा रहे थे।
अंतत: वह घड़ी आ पहुंची, जिसकी जनसमूह को प्रतीक्षा थी और जिसके लिए पूरे जनपद में ढिंढोरा पीटा गया था।
सबसे पहले ज़हूर पहलवान के नाम का एलान हुआ। वह कुर्सी से उठकर अखाड़े में पहुंचे और किनारे खड़े होकर आसमान की ओर देख कर कुछ बुदबुदाए। फिर माइक पर हीरा लाल का नाम पुकारा गया। वह अपने शुभचिंतकों के बीच से उठकर अखाड़े के समीप पहुंच कर किनारे की एक मुट्ठी मिट्टी लेकर माथे से लगाया और उछल कर अखाड़े पर चढ़ गया।
हीरा लाल पैंतीस-चालीस वर्ष का डील-डोल वाला जवान था। बगीचे के पेड़ों से छन-छन कर आती सूरज के प्रकाश में उसका कसरती एवं गठीला बदन चमक रहा था। लेकिन देखने वालों ने देखा कि उसक क़द ज़हूर पहलवान से कुछ दबता ही था।
पूरा जनसमूह सांस रोके हुए था।
दोनों पहलवानों ने सबसे पहले अखाड़े की परंपरा के अनुसार हाथ मिलाया और छोड़ दिया। उसके बाद कुश्ती शुरू हो गई। बहुत देर तक दोनों पहलवान ज़ोर लगाते रहे। ज़हूर पहलवान दाव लगाते तो हीरा लाल उसकी काट कर देता। हीरा लाल कोई पेंच लगाता तो ज़हूर पहलवान उसका तोड़ कर देते।
पूरा जनसमूह किंकर्तव्यविमूढ़ सा था। कहीं से किसी प्रकार की आवाज़ नहीं आ रही थी। सिर्फ अखाड़े में दोनों पहलवानों के ताल ठोंकने या उनके बदन के टकराने की आवाज़ आ रही थी।
मंचासीन अतिथिगण भी चुप, टकटकी बांधे अखाड़े का द़ृश्य देख रहे थे।
अचानक हीरा लाल ने ऐसा दाव लगाया कि उस्ताद ज़हूर उसका तोड़ न कर सके और चारों खाने चित हो गए।
तालियों की तड़तड़ाहट और वाह-वाह की ध्वनि से पूर्वी एवं दक्षिणी छोर पर एक शोर मच गया। पश्चिमी ओर पर तो मानो बिजली गिर पड़ी हो। केवल सांसों के उतार-चढ़ाव की आवाज़ें थीं। खुद ठाकुर जी की यह हालत थी कि काटो तो खून नहीं। उन्होंने कुर्सी के हत्थों को अपनी हथेलियों से मज़बूती से पकड़ रखा था। ऐसा लगता था जैसे उन्हें आशंका हो कि वह कुर्सी समेत मंच से गिर पड़ेंगे।
फिर दंगल-प्रेमियों ने वह द़ृश्य देखा जो उन्होंने आज तक किसी दंगल में नहीं देखा था। हीरा लाल ने अखाड़े में चित पड़े उस्ताद ज़हूर के हाथों को पकड़कर आदरपूर्वक उठाया और झुक कर उनके पांव छुए। उस्ताद ने जल्दी से उसे कंधों से पकड़ कर सीधा किया और गले लगा लिया। यह दिलों को छू लेने वाला द़ृश्य था।
दंगल की समाप्ति का एलान कर दिया गया।
नया बाजार के सभी दर्शक बोझिल कदमों से गांव लौटने लगे। इस साल यह थोड़ी-सी दूरी बहुत कठिन और लंबी लगी।
इस बार नया बाजार से जो लोग किसी कारण दंगल देखने नहीं जा सके थे। वे घर के बाहर खाट डाले, कुएं के चबूतरे या किसी मकान के खुले बरामदे पर, लौटने वालों की राह में आंखें बिछाए बैठे थे। गांव की महिलाएं दरवाज़ों और पर्दों से लगीं, विजयी होकर आने वालों के नारों के साथ जुलूस की प्रतीक्षा कर रही थीं।
लौटने वालों की भीड़ जैसे ही गांव में प्रवेश की प्रतीक्षकों के दिल धकधक करने लगे। सभी की आंखों में अनजान सी आशंकाएं झिलमिलाने लगीं। इस बार वह नारा नहीं था, वह हुड़दंग नहीं था, हिप-हिप हुर्रे की वह चीख नहीं थी, जिसका गांव वालों को इंतज़ार था। लोगों का बस एक मूक जंगल था, जो गांव की ओर बढ़ता आ रहा था।
हर बार उस्ताद ज़हूर और उनके दो-तीन चेलों के गले में फूलों की माला होती थी और वे जुलूस में सबसे आगे होते थे। पर इस बार ऐसा कुछ नहीं था। मालाएं तो गांव वालों ने वहीं अखाड़े के पास ही तोड़ कर फेंक दी थीं। हालांकि उस्ताद के दो-तीन चेलों ने कुश्ती जीती थी, लेकिन उस्ताद की पराजय का आघात इतना गहरा था कि किसी को जीतने वालों को माला पहनाने की सुध ही न रही।
उसी शाम उस्ताद अपनी बखरी के बाहर खाट पर सिर झुकाए बैठे थे। उनके आसपास जीतने वाले एवं दूसरे चेले भी थे। पूरे गांव में एक अजीब सन्नाटा छाया हुआ था। हर साल तो जगह-जगह लॉऊड स्पीकर पर ख़ुशी के गीत गाए जाते थे, पूरी आवाज़ से रेडियो पर गाने सुने जाते थे। गांव के क्या बूढ़े, क्या जवान, क्या बच्चे, क्या महिलाएं सबके अंदर एक तरंग, एक मस्ती भरी होती थी। घरों में महिलाएं काम करती थीं तो गुनगुनाती थीं, लेटी रहती थीं तो गुनगुनाती थीं। यहां तक कि बात करती थीं तो उनमें भी गुनगुनाहट का आभास होता था। लेकिन इस बार ऐसा कुछ नहीं था। ऐसा लगता था कि पूरे गांव के हर घर से एक अर्थी निकाली गई हो।
सिर झुकाए बैठे उस्ताद ज़हूर को अचानक आभास हुआ कि कोई उनके सामने आ खड़ा हुआ है। उन्होंने नज़रें उठाकर देखा तो हड़बड़ा कर खड़े हो गए। ठाकुर भानु प्रताप सिंह अपने पूरे वैभव एवं प्रताप के साथ खड़े थे। उस्ताद ने उनकी छड़ी ले ली और उन्हें खाट पर बिठाया।
इस बार उस्ताद ने आने का कारण नहीं पूछा। वह जानते थे कि ठाकुर जी क्यों आए हैं।
‘उस्ताद!…’ ठाकुर जी का गला रूंधा हुआ था। आंखों से झरना जारी था। ‘आज गांव में कितना सन्नाटा पसरा है… पूरा गांव शोकाकुल है, ऐसा तो किसी ने सोचा भी न था।’
‘मुझे इसका अहसास है ठाकुर जी!’ उस्ताद के स्वर में पश्चाताप था।
‘हमने यह सोच कर इतना बड़ा पुरस्कार रखा था कि आपकी बेटी की शादी का बोझ कुछ कम हो जाएगा… हम तो सोच ही नहीं सकते थे कि आप अंतिम कुश्ती हार जाएंगे।’
ज़हूर पहलवान चुपचाप खड़े रहे।
‘अच्छा उस्ताद!… यह बताइए… हीरा लाल ने जो दाव मारा था उसका तोड़ तो आप कर सकते थे।’ ठाकुरजी के लहजे में कटुता थी।
‘जी हां ठाकुर जी… कर सकता था।’
‘फिर आपने ऐसा क्यों नहीं किया?’
‘बात यह है ठाकुर जी, पहलवान लोग अखाड़े में सिर्फ बदन को चित करने को जीत समझते हैं, दिलों को कोई जीतना नहीं चाहता।’
‘हम आपकी बात का मतलब नहीं समझे।’ ठाकुर जी की आंखों में गहरा आश्चर्य था।
जवाब में उस्ताद ने बड़े ठोस लहजे में कहा। ‘ठाकुर जी, इनामी रकम की ज़रूरत मुझसे ज्यादा हीरा लाल को थी।’
ठाकुर जी अचरज से उस्ताद ज़हूर को देखने लगे। अचानक उठे और लपक कर उनको सीने से लगा कर बोले। ‘भगवान कसम… इस बार भी आप ही जीत में रहे उस्ताद!’
संपर्क : 59ए चूना शाह कालोनी, डाक–मानगो, जमशेदपुर-831012 (झारखंड) मो.7004384853
Munshi Premchand ji ki lekhni ki yaad aa gayi
बहुत ही सुंदर तरीके से कुश्ती की परंपरा और उसके उद्देश्य को प्रदर्शित किया गया है।