उसका पति साल भर पहले ही दुनिया से गुजर चुका था। अब अपने तीन बच्चों का पालन-पोषण उसके जिम्मे था।

वह दिन भर शहर के बाजारों में घूम-फिर कर कागज, प्लास्टिक और गत्ते आदि के टुकड़े चुनती थी। उसकी सबसे बड़ी आठ वर्षीय बेटी भी यही काम करती थी। मंझला और छोटा बेटा, दोनों दिन भर झुग्गी में पड़े रहते।

दिन भर की जान तोड़ मेहनत के बाद जो पैसे मिलते उनसे रात में बस गिनती की आठ रोटियां ही पकतीं, जो हर एक के हिस्से में दो-दो आती थीं।

एक दिन छोटा बेटा बहुत बीमार हो गया। बचने की आशा नहीं थी। पैसे ही नहीं थे कि उपचार होता। उसे देख कर मंझला बोला। ‘माई! इ मर जाए तो हम लोगन को एक-एक रोटी और मिलेगा न?’

 

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