हिंदी और पंजाबी के वरिष्ठ कथाकार।

ओस

ओस आंसू है आकाश का
दूर से धरती से मिलता हुआ दिखता हुआ भी
मिल नहीं पाता।

जब दायित्व नहीं निभता

मुझे भाषा की आंच बचा कर रखनी थी
यह मेरा अपना काम भी था
मैंने खुद के खिलाफ याचिका नहीं सुनी
और सूखे पत्तों की तरह भाग निकले शब्दों के अर्थ

मैं किसी भी तरह
बचा कर नहीं रख पाया फूलों की मुस्कान
अब कांटे मेरे खिलाफ
हँसने की सुविधा खोज रहे हैं

जिन बदबूदार नालों को
सदानीरा बताया राजा ने
वे प्यास की तृप्ति का बखान कर रहे हैं

मैं वही किताब हूँ
जिसे दूर किया जा रहा है
तुम जैसे अपनों से
राजा अर्थ बदल कर
इतिहास के पेट में
उतार रहा जहरीला खंजर
चुपचाप आधी रात को।

स्मृति

इन दिनों का कुछ नहीं रहेगा
फूल, पत्ते, चिड़िया, पेड़
कुछ भी नहीं

दिन कुछ अजीब से होने वाले हैं
अजीब और डरावने
मनुष्य मनुष्यता से कतराने लगेगा
संदेहशील रहेगा
हर बात पर पूछेगा
क्या यह सच है?

निष्पाप हँसी
गुल्लक में भी नहीं रहेगी
कितना कुछ बदल चुका होगा
हर चीज का बाजार भाव होगा
यहां तक कि पानी का, हवा का
ऐसे में स्मृति ही है
जो छूकर निकल जाएगी
हँसाएगी कभी, रुलाएगी कभी।

पिता का दर्द

कब पाया आंसू ने अपना खारापन
कब दर्द ने आंखों में जगह बनाई

कब सुलगना सीखा भूख ने
कब पिता पिता की जगह
शिला में बदल गए

वह जो बुनियाद थे जीवन की
धड़कता दिल थे
क्यों मील का पत्थर बने खड़े हैं
इस पराजित इतिहास में।

चिड़िया

चिड़िया की चोंच में दाना ही देखा तुमने
वह स्वप्न की छांव
वह नन्हा सा धूप का टुकड़ा नहीं देखा तुमने
वह भी तो लदा था
उसके छोटे से पर मजबूत पंखों पर।

विश्व गौरैया दिवस

हमारे घर की तरह
कम होती गई तेरी चहचहाहट
हमने कब मना किया
तुम खिड़की, दरवाजे या मुंडेर से न झांको

सुना है
आज ही है विश्व खुशी दिवस
पता नहीं चलता कब और कैसे
खुश रहा जा सकता है
तुम्हारे चहकने से जुड़ी हो खुशी जब
कोई सरकार राशन कार्ड पर खुशी नहीं बांटती

तुम्हें भी पता चल गया
संगदिल जमाना
जब मेरा घर और तेरा आकाश दोनों छोटे हो गए
पेड़ों के खजाने लुट गए
झरना आत्महत्या कर गया
तुम सूखी रेत में नहाती अच्छी नहीं लगी
कातिक तक तो ठहरते हैं प्रवासी पक्षी
तुम तो पहले ही गुमसुम थी।

शब्द ने जो कहना था

कह दिया
छुपाया कुछ नहीं
बचाया कुछ नहीं
भाषा से तो वायदा था
वही निभाया

शब्द शब्द ही होते हैं
कठोर या मुलायम नहीं
यह सिर्फ हमारी चाहत होती है
वे सदा मुलायम रहें, चिड़िया के पंखों जैसे
अपनी चहचहाहट में डूबते रहें
चिड़िया की तरह

पर सदा नहीं
कल जब सूखती नदी से होकर आएंगे
कल तब अंधेरे में डूबते आदमी की
गाली खा आएंगे
जब स्त्री की दुश्वारियों की जुबां बनेंगे
कहां से आएगी मुलायमियत, स्नेह स्पर्श

शब्द जब आंधी की धूल से उठ कर आएंगे
शब्द शब्द ही होंगे।

संपर्क : ४४४ए राजा गार्डन, पोस्टबस्ती बावा खेल, जालंधर१४४०२१, मो.९४६३६३२८५५