इंग्लैंड में प्रवासी कथाकार और कवि। 10 से अधिक कहानी संग्रह प्रकाशित। लंदन से प्रकाशित ‘पुरवाई’ का संपादन। नेहरू सेंटर में हिंदी कार्यक्रमों का आयोजन, साहित्यिक रूप से लगातार सक्रिय। अद्यतन पुस्तक ‘तू चलता चल’।
‘रिची, मैं किसी नेत्रहीन व्यक्ति की सहायता नहीं कर पाऊंगा।’ रिचर्ड को सब रिची कह कर ही पुकारते हैं।
नरेन समझ नहीं पा रहा था कि इतनी कड़वी बात उसके मुंह से निकल कैसे गई। वह इतना असंवेदनशील कैसे हो सकता है! वह तो हमेशा शारीरिक रूप से कमजोर यात्रियों की आगे बढ़-बढ़ कर सहायता करने को तत्पर रहता था। उसके जीवन का मंत्र तो बहुत सरल था- ‘यदि रात को गहरी नींद चाहिए, तो दिन भर अच्छे कर्म करिए।’ मगर हालात बदल चुके थे। आज किसी भी व्यक्ति के निकट जाने का अर्थ था कोरोना वायरस को दावत देना कि आओ और मुझे अपने लपेटे में ले लो।
‘लुक बडी, यूनियन और मैनेजमेन्ट के बीच बातचीत चल रही है। जल्दी ही इस पर कोई फैसला हो जाएगा। मगर इस मामले में तुम जो भी एक्शन लोगे, यूनियन तुम्हारा साथ देगा।’
रिचर्ड भी परेशान है। यूनियन का सचिव होना उसे इन दिनों खासा परेशान किए हुए है। हर सदस्य उससे अपने सवालों के जवाब चाहता है। और यह उनका हक भी है… मगर क्या उसके पास तमाम सवालों के जवाब मौजूद हैं?
आज नरेन को जब कंट्रोल का फोन आया कि उनकी नियमित यात्री मोनिका बुशी स्टेशन से आ रही है तो उसने बहुत ही बेरुखी से जवाब दिया था कि वह मोनिका को लेने नहीं जाएगा। कंट्रोल ने हैरानी से पूछा था, ‘क्या तुम जानबूझ कर आदेशों का पालन करने से इंकार कर रहे हो?’
नरेन को कंट्रोलर की आवाज में कुछ तल्खी-सी सुनाई दी। उसका अनुभव था कि आमतौर पर लंदन ओवरग्राउंड का कोई भी अधिकारी अपनी आवाज में नाराजगी का पुट महसूस नहीं होने देता। मगर कंट्रोल की समस्या यह थी कि मोनिका को बुशी में ट्रेन पर बिठाया जा चुका था और नरेन ने अब यात्री को अपने स्टेशन पर उतारने से इंकार कर दिया था। अपनी बीस वर्षीय रेलवे की नौकरी में उसने ऐसा पहली बार किया था। या कहा जाए तो उससे ऐसा पहली बार हुआ था।
वह पिछले कई दिनों से व्हट्सऐप और फेसबुक मैसेंजर में लगातार वीडियो देख रहा था कि स्पेन, इटली और ईरान में किस तरह लोग मर रहे थे। चीन में तो इस प्रलय की शुरुआत ही हुई थी। इटली में तो परिजनों को अपने रिश्तेदारों की लाश तक ले जाने की अनुमति नहीं मिल रही थी। आखिर यह कैसी परीक्षा है। कैसा वायरस है जो पहले तो मरीज को अपने परिवार से दूर कर देता है ताकि वह यह वायरस उन तक न पहुंचा दे। और मरने के बाद भी परिवार वालों को लाश के पास जाने की इजाजत नहीं देता। मरने से दो सप्ताह पहले ही उसे अकेला कर देता है ताकि वह अपनी अंतिम यात्रा पर अकेला जाने का रिहर्सल कर ले।
एक मामले में नरेन भाग्यशाली रहा कि मोनिका के साथ कोई हादसा पेश नहीं आया। एक रेलवे कर्मचारी उस डिब्बे में मौजूद था जिसमें मोनिका यात्रा कर रही थी। उसने मोनिका को रेलगाड़ी से प्लैटफॉर्म पर उतार कर सिक्योरिटी स्टाफ के हवाले कर दिया। मगर नरेन आज मोनिका से आंखें नहीं मिला पा रहा था। जानता था कि मोनिका देख नहीं सकती… मगर फिर भी उसे महसूस हो रहा था कि मोनिका की आंखें उसे घूर रही हैं और उनमें एक सवाल छिपा है, ‘तुम इतने कठोर-हृदय कैसे हो सकते हो नरेन। तुम तो रोजाना मेरे साथ इतनी इंटरेस्टिंग बातें किया करते थे। मुझे हँसाते थे… मेरा मनोबल बढ़ाते थे… फिर आज यह कैसा व्यवहार!’
जब मैनेजर ने नरेन के स्टेशन पर आकर पूछताछ की तो नरेन की आवाज में भी तल्खी आ गई, ‘मार्क, तुम समझने का प्रयास क्यों नहीं कर रहे। हमारी कंपनी ने हमें कोई इक्विपमेंट ही नहीं दिया है कि हम इस महामारी का मुकाबला कर सकें। हम ग्राहकों से कैश ले रहे हैं; हमें उनकी सहायता करने के लिए टिकट मशीन पर जाना पड़ता है। जब पूरी दुनिया में कहा जा रहा है कि हमें आपस में कम से कम एक मीटर की दूरी बनाए रखनी है, तो यहां स्टेशन पर हम इसे कैसे बनाए रख सकते हैं? याद रखो अब यह सिर्फ महामारी नहीं है, अब यह पूरी दुनिया में फैल चुकी है।’
मार्क भी एक मंजा हुआ मैनेजर है। जल्दी से अपने पत्ते नहीं खोलता। पहले कर्मचारी को अपना दिल खोलने का मौका देता है। जब पूरी बात सुन लेता है तो एक बार गला खंखारता है; और उसके बाद जो तर्क देता है तो सामने वाले को निरुत्तर कर देता है। ‘नरेन, मैनेजमेंट सभी कर्मचारियों को हर रोज कोरोना पर अपडेट तो दे रहा है। इससे अधिक आप मैनेजेमेंट से क्या उम्मीद रखते हैं?’
‘मार्क, मैनेजमेंट हमें केवल सूचना दे रहा है। देश में कितने केस कोरोना पॉजिटिव के हैं और कितने मर गए हैं। हमें साबुन से हाथ धोने चाहिएं, एन्टीबैक्टीरियल हैंड वॉश से हाथों की सफाई करनी चाहिए। वगैरह वगैरह… मगर क्या कंपनी ने अब तक किसी भी कर्मचारी को एन्टीबैक्टीरियल हैंड वॉश मुहैय्या करवाया है? और फिर फेस मॉस्क हमें कब मिलेंगे?’
‘वैल, एन.एच.एस. का कहना है कि फेस मॉस्क जरूरी नहीं है। फेस मॉस्क सिर्फ और सिर्फ कोरोना वायरस से ग्रस्त मरीज को ही लगाने चाहिए, न कि स्वस्थ इंसानों को।’ मार्क ने सपाट चेहरे से जवाब दिया। ‘हां, अगर तुम्हें लगता है कि तुम्हें एक्स्ट्रा सेफ्टी की जरूरत है तो तुम बाजार से एक मास्क खरीद लो।’
‘यह तो कोई जिम्मेदाराना जवाब नहीं हुआ मार्क। तुम तो हमारे साथ ऐसा व्यवहार कर रहे हो जैसे हम इंसान नहीं, बल्कि कोई कुर्सी मेज या कोई अन्य फर्नीचर आइटम हैं।… फर्नीचर और इंसान में अंतर तो तुम्हें समझना होगा मार्क!’
‘तुम फिज़ूल में ग़ुस्सा हो रहे हो। अगर तुम्हें हमारे किसी फैसले से दिक्कत है तो तुम्हें रिचर्ड से बात करनी चाहिए। आखिरकार वह तुम्हारा यूनियन रेप है। पॉलिसी मैटर तो उसी के साथ तय होगा न!’
नरेन के कानों से धुआँ निकल रहा था। एक तो यह मार्क कभी किसी की सुनता नहीं है। जब कभी किसी से कोई एहसान चाहिए तो सपाट चेहरा बना कर उससे गुजारिश कर लेता है। मगर जब किसी और को मार्क से कोई फेवर चाहिए हो तो बैठ कर रूल गिनवाने लगता है। आज उसका हर स्टाफ मेंबर उससे नाराज है। अगर कोई अलोकप्रियता का अवार्ड होगा तो वह मार्क आसानी से जीत जाएगा।
वैसे तो कंपनी रोजाना एक कोरोना वायरस अपडेट भेजती है। मगर उससे कोई फर्क पड़ता है क्या? कितने कर्मचारी बीमार हैं… कितने काम पर वापस आ गए हैं और कितने कर्मचारियों को कोरोना वायरस ने जकड़ लिया है। ‘टु हैल विद सच इन्फार्मेशन!’
साला कंपनी को क्या फर्क पड़ता है अगर कल को हम भी केवल एक आंकड़ा बन कर रह जाएं। ऐसे प्रश्न के जवाब में भी मार्क का सवाल आसानी से खड़ा हो जाता है, ‘अभी तक कोई मरा तो नहीं न?’
‘यह इंसान है या कोई रोबोट? इतना निष्ठुर सवाल पूछने की उसे हिम्मत कैसे हुई? कल जब आठ बस ड्राइवरों के मरने का समाचार मिला तो मार्क ने चेहरे पर ऐसे भाव बना रखे थे जैसे उसे कोई ख़बर ही नहीं है।… औऱ अब तो अंडरग्राउंड के भी एक ट्रेन ड्राइवर की मौत हो चुकी है।’ अगर पुराने दिन होते तो सारी रेलवे एक ही होती न… इस प्राइवेटाइजेशन ने रेलवे कर्मचारियों को भी टुकड़ों में बांट दिया है।
रिचर्ड भी कोई तसल्लीबख़्श जवाब नहीं दे पा रहा। दरअसल इस कोरोना वायरस ने सारा मामला ही उलझा कर रख दिया है। किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा कि आखिर यह बला है क्या। हर इंसान पूरी तरह से कंफ्यूज़्ड है।
दो हफ्ते पहले तक यूनियन और स्टाफ इस बात पर मैनेजमेंट से लड़ रहे थे कि हम यात्रियों को टिकट बेचना बंद नहीं करेंगे। मैनेजमेंट ने नई मशीनें हर स्टेशन पर लगवा दी हैं। मैनेजमेंट चाहता है कि सभी यात्री अब मशीनों से टिकट ख़रीदा करें। ताकि सभी बुकिंग ऑफिस बंद किए जा सकें। अंडरग्राउंड ट्यूब स्टेशनों के साथ ऐसा बरताव कर भी चुके हैं। अब शायद हमारी बारी है। इस डर के माहौल में नौकरियों से हाथ धो बैठने के बारे में सोच कर ही दहशत होती है। कुछ ही दिनों में सबकी सोच कैसे बदल जाती है। वरिष्ठ अधिकारी मन ही मन मुस्करा रहे थे।
मैनेजमेंट चाहे कहीं का भी क्यों न हो, एक बात तो तय है कि वे कभी भी कोई भी काम अपने स्टाफ की बेहतरी के लिए नहीं करते। उनकी हर चाल बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स को दिखाने के लिए होती थी कि उन्होंने किस तरह कंपनी के कितने पैसे बचा दिए। ट्रेन पर अच्छे भले गार्ड और कंडक्टर हुआ करते थे। तीन साल पहले सबकी छटनी कर दी गई। कंपनी के सैलेरी बिल में पचास प्रतिशत से अधिक तो केवल ड्राइवरों की तनख्वाह में निकल जाता है। फिर डायरेक्टर्स… बेचारा आम कर्मचारी तो जैसे तैसे राम-राम करते गुजारा कर लेता है।
मैनेजमेंट को खूब मजा आ रहा था… उनका अनुमान था कि यह वायरस साल दो साल तो चलने ही वाला है। तब तक यात्रियों को भी बिना स्टाफ के मशीनों से टिकटें खरीदने और ऑयस्ट्र में पैसे डालने आ जाएंगे। उसके बाद स्टाफ से निपटना आसान होगा।
पहले नरेन भी खुल कर मार्क से भिड़ जाया करता था, ‘आप समझते क्यों नहीं कि हर आदमी मशीन से सहज रूप से टिकट नहीं ले सकता। हमारे इलाके में बहुत से सीनियर सिटीजन हैं। वे बेचारे मशीन का इस्तेमाल नहीं कर सकते। अगर मेरे पास कोई यात्री सहायता के लिए आएगा तो मैं उसकी सहायता करूंगा और उसे उसकी जरूरत का टिकट दूंगा।’
मार्क बस मुस्करा भर दिया करता था। उसे कभी समझ नहीं आता था कि मार्क कभी भी ग़ुस्सा नहीं करता था… अपनी आवाज ऊंची नहीं किया करता था। मगर फिर भी अपने दिल की बात एक रोबोट की तरह पहुंचा दिया करता था।
एक दिन मारग्रेट ने नरेन को समझाया भी था, ‘नैरी… तुम हिंदुस्तानी बहुत इमोशनल लोग हो। याद रखो, यहां लंदन में ऐसा नहीं चलता। हम लोग तुमसे पूरी तरह अलग हैं। हमारा तरीका है – ‘नेवर गेट एंग्री, गेट ईवन!…’ तुम बताओ, अगर तुमने ग़ुस्से में कुछ अपशब्द कह भी डाले तो उससे मुझे क्या फर्क पड़ेगा। तुम्हारी कोशिश यही होनी चाहिए कि तुम अपनी बात इस ढंग से कहो कि मार्क तुम्हारी बात मानने को मजबूर हो जाए। लगातार मुस्कराते रहो। मार्क को परेशान कर दो कि तुम्हें मार्क की किसी बात पर ग़ुस्सा आ ही नहीं रहा। उसको उसकी ही गेम में मात दो।’
क्या जीवन केवल शह और मात ही होता है? समस्या तो यह है कि पूरे इंग्लैंड में कोरोना इंसान को मात देने की तैयारी करके आया है। लोग रोज़ मर रहे हैं… लगता है जैसे मुर्गियों को कोई बीमारी हो गई हो और वे मरी जा रही हों… कुछ ऐसा ही तो हो रहा है इंग्लैंड में। बत्तीस हजार लोग मर चुके हैं। सरकार जैसे नींद से जाग ही नहीं रही।
नरेन भी तो अब कोई जवान लड़का नहीं है। पूरा मीडिया बता रहा है कि उसकी उम्र के लोगों को कोरोना का खतरा युवा लोगों के मुकाबले कहीं अधिक है। मगर मार्क न तो पहले कुछ सुनता था और न ही उसे आज भी कोई फर्क पड़ रहा है।
उसने मार्क से कहा भी, ‘मार्क, कंपनी अपने एंप्लाइज़ को तीन हफ्ते की फ़रलो दे रही है। वो पगार के साथ तीन महीने की छुट्टी पर भेजे जा रहे हैं। मुझे लगता है कि मुझे यह सुविधा मिलनी चाहिए।’
‘क्यों, तुम्हें क्यों? तुम तो एकदम फ़िट हो। तुम तो कभी सिक रिपोर्ट भी नहीं करते हो।’
नरेन ठहरा इमोशनल इंसान। भूल गया कि इस वक्त उसे मार्क से कोरोना वायरस की बात करनी है। भटक गया। और शायद यही मार्क चाहता भी था। नरेन लगभग भड़क उठा, ‘मैं सिक-रिपोर्ट नहीं करता मगर तुमने तो मुझे अटेंडेंस के चक्कर में स्टेज टू पर पहुंचा ही दिया था।’ नरेन यह भी भूल गया था कि मार्क उसका मैनेजर है। मगर मार्क यह बात कभी नहीं भूलता। जैसे ही नरेन आपा खोता है मार्क खंखार कर, या बात को पूरी तरह से नजर-अंदाज करके नरेन तक अपनी भावना पहुंचा देता है।
‘देखो नरेन, मैं न तो किसी कर्मचारी के साथ पक्षपात करता हूँ न अन्याय। मैं कंपनी के नियमों के अनुसार चलता हूँ। जिस विषय में जैसा नियम है, उसका पालन करता हूँ।’
‘कभी तुमने सोचा है मार्क कि जब कभी कर्मचारी हड़ताल पर जाने की बाबत सोचते हैं तो सबसे पहला कदम होता है ‘वर्क-टु-रूल’ – यानी कि नियमों के अनुसार काम करना। यदि कर्मचारी भी तुम्हारी तरह नियमों के अनुसार काम करना शुरू कर दें तो रेलवे एक दिन नहीं चल पाएगी।’
हर बार की तरह इस बार भी मार्क ने नरेन की एक नहीं सुनी। मगर यूनियन को बात समझ में आ गई और यूनियन ने मैनेजमेंट को सीधे-सीधे नोटिस थमा दिया कि इस कोरोना काल में स्टेशन कर्मचारी न तो व्हील-चेयर यात्रियों और न ही नेत्रहीन यात्रियों की सहायता कर पाएंगे। इससे कोविड वायरस पकड़ने का डर लगा रहता है। नरेन ऐसे लोगों में से है जो किसी को थप्पड़ मार कर सोचता है कि सामने वाले को चोट लग गई होगी। वह न तो तरीके से लड़ सकता है और न ही मार-पिटाई कर सकता है। बस बहस कर सकता है, अपनी बात मनवाने की क्षमता रखता है।
जब उसे वैक्सीन लगवाने के लिए हस्पताल का संदेश आया तो उसने पूछा कि कौन सी वैक्सीन लगाई जाएगी। सामने से टका-सा जवाब मिला, ‘यह अभी नहीं बताया जा सकता। जिस दिन आप वैक्सीन लगवाने जाएंगे, उस दिन जो भी वैक्सीन दी जा रही होगी, वही आपको भी लगा दी जाएगी।’
जितनी वैक्सीन उतनी ही उनके बारे में अफ़वाहें। वैक्सीन के विरोध में नारेबाजी और जुलूस भी दिखाई और सुनाई दे रहे थे। वैक्सीन के प्रतिकूल प्रभावों की चर्चा जोरों पर थी। मगर कोई चारा ही कहां था… लगवानी तो होगी ही। नरेन को डर भी था, क्योंकि वह अकेला रहता था। अपने एकांत में वह कोरोना का अनधिकृत प्रवेश भी नहीं चाहता था।
आज जैसे भरी दोपहरी में भी भयानक रात के सन्नाटे का सा अहसास होने लगा था। सड़कें वीरान… लोग अपने ही रिश्तों की लाशों से डरे हुए… अपनों से दूरियां बन रही थीं… चेहरे पर मास्क… बॉरिस जॉन्सन जैसा प्रधानमंत्री जो परिजनों की मौत पर भी सतर्कता बनाए रखने की सलाह देता है और अपने ही दफ्तर में अपने साथियों के साथ रंगरलियां मनाता है…फ्रंटलाइन वर्कर्स की कोई परवाह नहीं… नर्सें, डॉक्टर, बस ड्राइवर, स्टेशन स्टाफ सभी कोविड-19 की भेंट चढ़ रहे हैं। हर देश में जैसे होड़ लगी है कि कहां अधिक लोगों की मृत्यु हो रही है। लाशों की कब्रों के लिए जमीन नहीं मिल रही… ऐसे हालात में भला कोई कैसे सकारात्मक रह सकता है?
नरेन की समस्या कुछ अलग है… भारत में मौसा जी, छोटी बुआ, दोस्त कमल और उसकी पत्नी आभा और उसके अपने जीजा… सब कोरोना की भेंट चढ़ गए। अपनी बहन के भविष्य को लेकर बहुत चिंतित है। समस्या तो यह भी है कि न तो वह भारत जा सकता है और न ही कोई भारत से लंदन आ सकता है। इंसान केवल एक संख्या बनता जा रहा है। आज इतने मरे तो कल उतने।
ऐसे में मार्क जैसा मैनेजर सिर पर होना कुछ ऐसा ही था जैसे लिफ्ट में हम सवार हों और लिफ्ट अचानक खराब हो कर रुक जाए। नरेन ने अपने ग्रुप के सभी स्टेशनों के स्टाफ से संपर्क साधा और स्थिति की विकटता के बारे में बातचीत की। अचानक उसके फोन की घंटी बज उठी। स्क्रीन की तरफ देखा… अलार्म बज रहा था। स्टेशन के सिक्यूरिटी चेक का समय… वह अपनी कुर्सी से उठा और प्लेटफॉर्म नंबर दो पर पहुंचने के लिए दरवाजा खोला। बाहर पांव रख कर अभी पहला ही कदम उठाया था कि पांव कहीं फंसा और वह धड़ाम से मुंह के बल गिरा। माथे और कलाई पर चोटें भी आईं। कोई उसके निकट उसकी सहायता करने के लिए नहीं आया… सब डरे हुए थे! कुछ समय लेटे रहने के बाद उसने अपने को समेटा और उठ कर कपड़े झाड़े।
नरेन घबरा गया, जब उसे पता चला कि उसका मोबाइल फोन फिसल कर पटरियों में जा गिरा था। उसने हिम्मत कर के अपने कमरे में से सफाई कर्मचारी की चिमटी निकाली और उससे अपना मोबाइल उठा लिया। अपने कमरे में वापस पहुंचा और चकरा कर गिर गया। हिम्मत करके किचन से पानी का गिलास भरा… पानी पिया और अपने मैनेजर मार्क का नंबर मिलाया… घंटी बजती रही मगर कोई फोन नहीं उठा रहा था। मार्क तो दो घंटियां बजते ही फोन उठा लिया करता है। फिर आज ऐसा क्या हो गया जो वह फोन की तरफ से लापरवाह था।
नरेन ने कंट्रोल को फोन किया और अपने हादसे के बारे में बताया, ‘बॉस, नरेन बोल रहा हूँ। यहां एक एक्सीडेंट हो गया है।’
‘रिपोर्ट नरेन। क्या हुआ है। क्या किसी यात्री को चोट लगी है?’
‘नहीं, चोट मुझे लगी है।’
‘क्या किसी यात्री ने तुम पर अटैक किया है?’
‘नहीं, मेरा पैर प्लेटफार्म पर किसी चीज से उलझ गया और मैं मुंह के बल गिर पड़ा।’
‘यानी कि गलती आपकी थी कि आप प्लेटफार्म पर पड़ी चीज को देख नहीं पाए?’
‘जी नहीं, दरवाजे के ठीक बाहर एक गटर नाली है जिस पर कोई ढक्कन नहीं लगा है। पैर उसी में उलझा और मैं गिर गया।’
‘आपकी बात को नोट कर लिया गया है। क्या आपको कोई चोट लगी है?’ सवाल ऐसे पूछे जा रहे थे जैसे कोई मशीन बोल रही हो।
‘जी, कलाई में और माथे पर चोट लगी है। माथे पर गूमड़ उभर आया है।’
‘कहीं से खून निकला है, या बह रहा है?’
‘जी नहीं, ख़ून नहीं निकला है।’
‘ओके नरेन, हम तुम्हारे लिए टैक्सी का इंतजाम कर रहे हैं। तुम घर जाओ… हम तुम्हारे मैनेजर से बात करके तुम्हारी फ़रलो का इंतजाम करते हैं।’
नरेन को अचानक महसूस हुआ जैसे उसने मार्क को हरा दिया है। मगर उसने सपाट आवाज में कहा, ‘बॉस, मैंने मार्क को फोन मिलाया था मगर वह उठा नहीं रहा। क्या वह आज छुट्टी पर है?’
‘नहीं, छुट्टी पर नहीं है। दरअसल दो दिन पहले उसे कोविड का अटैक हुआ है। उसकी हालत गंभीर है। वो वॉटफ़र्ड जनरल हस्पताल में दाखिल है। उसको वेंटीलेटर लगा है।’
नरेन को एक झटका लगा… उसका मन हुआ कि जोर से ठहाका लगाए… चिल्लाए… मगर वह कुछ नहीं कर पाया… टैक्सी आ गई… उसे कुछ कदम चलने में भी मुश्किल हो रही थी…’
संपर्क : मो. 07400313433 ईमेल – tejinders@live.com
Interesting story. Naren, Mark interesting characters