वरिष्ठ लेखक। राजस्थान साहित्य अकादमी बालसाहित्य सम्मान से सम्मानित। सेवानिवृत्त व्याख्याता।
सुमरेश बाबू उत्साहित थे कि आज उन्हें वर्षों बाद अपनी जन्मभूमि छावनी, कोटा जाने का अवसर मिल रहा है। कई बार प्रयास किया, लेकिन लखनऊ से व्यस्तता के चलते कभी आना ही नहीं हुआ। पैंसठ साल की उम्र में उनके बेटे-बहू उन्हें अकेले जाने नहीं देते। लेकिन इस बार उनके घनिष्ठ साथी राघवेंद्र के पौत्र की शादी थी, सो कोटा आने का एक कारण बन गया।
इस बार भी उनके बेटे-बहू ने मना कर दिया था अकेले सफर करने को, लेकिन इस बार तो उन्होंने साफ कह दिया ‘वे पूरी तरह स्वस्थ हैं और अकेले ही कोटा के लिए सफर कर सकते हैं।’ ईश्वर का शुक्र है कि इस उम्र में भी उन्हें बीपी, शुगर, घुटनों के दर्द से राहत है और सुखद जीवन जी रहे हैं।
कोटा रेलवे जंक्शन पर ट्रेन से उतर कर वह अपनी अटैची लिए बाहर निकल आए। उन्होंने बाहर का नजारा देखा। अब यहां भीड़-भाड़ व ट्राफिक की मारा-मारी नजर आई। पहले की तरह शांति भरा माहौल नहीं था। नवंबर माह की सुबह। गुलाबी सर्दी शुरू हो गई थी। उन्होंने शाल ओढ़ लिया। जल्द ही वह एक ऑटो लेकर मित्र के यहां शादी वाले घर गुमानपुरा के लिए रवाना हो गए। ऑटो वाला तेजी से चलाकर रास्ता तय कर रहा था। उन्होंने यहां की चौड़ी सड़कों, बड़े चौराहों और जल से भरे तालाब को देखा। यह सब देख उनके मुंह से निकला- ‘वाह! बहुत बदल गया शहर।’ ऑटो वाले ने उनकी आवाज सुन कहा- ‘बाबू जी! क्या बहुत समय बाद आए हो कोटा?’
‘हां भैया, वर्षों हो गए।’
‘बाबू जी, जरूरत अनुसार कोटा चारों दिशाओं में फैलता जा रहा है। जयपुर, जोधपुर की तरह बढ़ता जा रहा है। पहले जहां सुनसान मैदान थे, आज वहां मार्केट बन गए। कई कॉलोनियां बन गईं। तालाब के एक किनारे पर दुनिया के सेवन वन्डर्स बन गए।’
वह ऑटो से दाएं बाएं देख कोटा की प्रगति पर आश्चर्य प्रकट कर रहे थे। वह अपने को सौभाग्यशाली मानते हैं कि आज उन्हें अपनी जन्मभूमि को देखने का अवसर मिला। वह बड़े उत्साह से दूर-दूर तक देख सोचते रहे।
थोड़ी ही देर में उन्हें राघवेंद्र के मकान के सामने ऑटो ने पहुंचा दिया। राघवेंद्र ने उन्हें गले लगा कर आने के लिए बहुत खुशी जाहिर की। शादी के व्यस्त घर में चाय नाश्ते के साथ थोड़ी बहुत बातचीत हुई। कुछ समय बाद सुमरेश बाबू भी नहा धो लिए। फिर अखबार पढ़ते रहे। खाने का समय हो गया, तब खाना खाकर थोड़ी देर लेट लिए।
दिन में तीन बजे, वह उत्साह उमंग से अपनी जन्मभूमि छावनी और बचपन में पढ़े प्राइमरी स्कूल व सहपाठी मित्रों से मिलने का सोच कर पैदल ही दो कि.मी. छावनी के लिए निकल लिए।
वह पिछले चार-पांच दशक में आए बदलाव को देख आश्चर्यचकित रह गए। आज जहां शॉपिंग सेंटर है, वहां सुनसान खाली मैदान था। बस सिटी हाई स्कूल बना था। वह शाम को अपने मित्रों के साथ यहां तक घूमने आया करते थे। छावनी चौराहा जहां है वहां केवल एक इलेक्ट्रिक पोल था। चारों ओर कुछ नहीं था। बरसाती पानी वहां से निकल कर छावनी के तालाब में मिल जाता था। अब नहर के पानी से वह भरा रहता है। चंबल नदी का वरदान है कोटा को।
पहले छावनी से चलें तो तेल फैक्ट्री के बाद सीधा छावनी चौराहा दिखता था। कभी किसी को फोन करना होता तो उसे तेल फैक्ट्री ऑफिस में रिक्वेस्ट करने पर फोन करने दिया जाता। पहले मुंह से नंबर या ऑफिस का नाम लेते ही फोन पर बात हो जाया करती थी।
जहां छावनी की बस्ती शुरू होती, वहां से सँकरा मार्ग प्रारंभ हो जाता। अब सुमरेश बाबू ने अपनी गति धीमी कर ली और अपनी मातृभूमि को दिल से प्यार करते, निहारते रहे। वह यह जानते थे कि अब जीवन में दोबारा यहां आना संभव नहीं होगा। जहां पहले इस मार्ग पर पैदल चलने वालों और साइकिल चलाने वालों का आना जाना रहता था, आज वहां ऑटो, कारें, स्कूटर, मोटर साइकिलें की रेलम-पेल मची हुई है। पैदल भी संभल कर चलना पड़ रहा है।
वह अब प्राइमरी स्कूल के पास पहुंच गए। पहली से पांचवी कक्षा तक वह इसी स्कूल में पढ़े थे। आज वह सैकेंडरी स्कूल में क्रमोन्नत हो गया। स्कूल सामने से आज भी वैसा ही है। वहां नीम का पेड़ आज भी गौरवान्वित होकर खड़ा है। स्कूल के पीछे वाले हिस्से को विस्तारित किया गया है। उनका मन हुआ कि वह आज भी स्कूल में जाएं और उन क्लास रूमों में घूमें जहां वह पढ़ा करते थे। स्कूल को नमन करते वह आगे बढ़े। अब वह उस मकान के पास पहुंचे जहां उनका जन्म हुआ था। स्कूल व जन्मस्थान वाले मकान को देख उनकी आंखें नम हो गईं।
मकान के बाहर जहां कच्चा-मिट्टी वाला चौक था, आज वहां डामर की सड़क बन गई है। वहीं तो वह गोली कंचे कौंड्डी, छुपम-छुपाई, चड्डम घोड़ी और भंवरे चलाने के खेल का आनंद लेते थे।
उन्होंने अपने बचपन के मित्रों के बारे में हम उम्र व्यक्तियों से जानकारी प्राप्त की। कौन कहां है? लेकिन वे ठीक से बता नहीं पाए। पंडित श्रीनाथ जी के मकान में जाकर मालूम किया तो उनके पोते ने कुछ मित्रों के बारे में बताया कि कई यहां से शहर में बसी नई कॉलोनियों में चले गए। कोई दादाबाड़ी विज्ञान नगर तो कोई महावीर नगर से भी आगे बसी कॉलोनियों में रहने लगे हैं।’
उन्होंने पूछा- ‘राम मोहन तो यहीं रहा करते थे? वह अब कहां रहते हैं?’
उसने बताया, ‘उन्होंने रेलवे लाइन मार्ग निजामत के पास राम चंद्रपुरा में मकान बनाया था, आज भी वहां उनके भाई-बंद रह रहे हैं।’
सुमरेश बाबू उसी ओर आगे बढ़ गए। बाजार में जहां भीमा दर्जी की दुकान हुआ करती थी, वहां अब रेडीमेड का शो रूम है। सेठ सुंदरलाल जी की दुकान के ऊपर बालकोनी में आज भी वहां घड़ी लगी हुई है। वहां पेंडुलम वाली घड़ी के स्थान पर बड़े डायल की सैल वाली घड़ी लगी हुई थी। कई बार हेडमास्टर जी उन्हें टाइम देखने भेजते तो वह उसी पेंडुलम वाली घड़ी को देख कर समय की जानकारी देते। इन्हीं सेठ जी की पत्थर की खान में वर्षा के दिनों में नहाने का मजा लिया करते थे। उस समय घरों मे नल नहीं हुआ करते थे। बाकी दिनों भूतेश्वर के कुएं पर जाना होता था। तीसरी क्लास में पढ़ाने वाले किशनलाल जी मास्टर साहब जहां रहा करते थे, आज उनके पास सड़क किनारे सब्जी मंडी लगी हुई है। अब छोटे मोटे सामानों के लिए शहर की ओर नहीं जाना पड़ता।
सुमरेश बाबू पूछते-पाछते मित्र राममोहन के भाई-बंदों के मकान के पास पहुंच गए। वहां राममोहन के बड़े भाई के बेटा-बहू रहा करते थे। उन्होंने अपना परिचय उन्हें दिया। वह खुश हुए। वहां चाय पी और कुछ देर बात हुई। फिर उनसे राममोहन, जो उनका प्रिय मित्र था, उसका पता लिया। वह विज्ञान नगर रहने लगा था।
अब संध्या ढलने लगी, तो वह फिर से शादी वाले घर लौट आए। राममोहन के यहां दूसरे दिन रविवार को जाने का मन बनाया। दूसरे दिन सुमरेश बाबू, चाय नाश्ता कर ऑटो से निकल पड़े। ऑटो वाले ने उन्हें उस मकान के बाहर छोड़ दिया, जहां राममोहन रहता था। गेट पर नेम प्लेट लगी थी, राममोहन रिटायर्ड एकाउंटेंट। मकान के बारे में आश्वस्त होते ही उन्होंने काल बेल बजाई। अंदर से बीसेक साल की एक युवती निकली। उसने पूछा- ‘रामबाबू जी से मिलना है।’ ‘अच्छा, आपको दादा जी से मिलना है। मैं उन्हें जानकारी देती हूं।’ पांच मिनट बाद फिर वह आई और पूछने लगी- ‘आप कौन हैं? कहां से आए हैं? उन्हें अभी कहीं बाहर जाना है। आप फिर कभी आ जाएं।’ उसने रूखेपन के साथ जवाब दिया।
सुमरेश बाबू को जवाब सुन दुख हुआ। किस उत्सुकता से पूछते हुए वह यहां बचपन के मित्र के पास आए। और फिर ऐसा जवाब।
‘उनसे बोलना उनके मित्र सुमरेश लखनऊ से आए हैं।’ युवती ने सुमरेश जी के बारे में अपनी मां को बताया।
इस बार पत्नी ने अपने पति को पूरी बात बताई। तब राममोहन को पता चला। बचपन का साथी, आज यहां। वह उनसे मिलने बाहर आया। बढ़ती उम्र में दोनों के चेहरे मोहरे बदल गए थे। आंखें बचपन तलाश रही थीं। वे अंदर गए। बातें हुई। राममोहन की पोती चाय के साथ नाश्ता लेकर आई। वह जल्दी में थे। उन्हें किसी मीटिंग में जाना था। सो थोड़ी बहुत यहां वहां की बातें कर वह जाने के लिए उठ खड़े हुए। ‘मुझे कहीं जाना है।’
सुमरेश बाबू, राममोहन से वर्षों बाद मिले। मन में उत्साह उमंग लेकर मिलने आए। पर उन्हें लगा कि उनके व्यवहार में कहीं अपनापन नहीं है। वह तो बचपन के उस मित्र से मिलने आए थे, जिसके साथ पढ़ाई की, साथ खेले, कभी दोपहरी में खाना साथ खाया, घंटों साथ समय बिताते। आज वह मित्रता का सही मूल्यांकन नहीं कर पा रहा था। आखिर सुमरेश ने उससे कहा- ‘राममोहन, मैं इतनी दूर से, इतने वर्षों बाद आया। और आया तभी से तुमसे मिलने को उत्सुक था। छावनी जाकर तुम्हारा पता लिया और फिर यहां तक पहुंचा हूं। चाय-नाश्ता तो मैं शादी में आया हूं वहीं से कर के आया हूं। मैं तुम्हारे यहां घड़ी दो घड़ी बैठकर बातें करने, अपने बचपन के दिनों को याद करने, यहां आया हूं। आज के बाद अपना मिलना फिर कभी नहीं होगा। वर्षों बीत गए मिले, आज मिले हैं और फिर भी तुम कह रहे हो- ‘मुझे जाना है।’ मेरे पास तुम्हारे मोबाइल नंबर नहीं हैं अन्यथा फोन करके टाइम लेकर आता।’ इस पर भी राममोहन को जाने की जल्दी हो रही थी।
सुमरेश सोचने लगे क्या यह वही राममोहन है जो बचपन में धूप-छांव की तरह साथ खेलता-पढ़ता-स्कूल जाता और ढेरों बातें करता था। उन्होंने राममोहन के सामने बचपन की महत्वपूर्ण यादों में से एक बात कही- ‘राममोहन, हम वही मित्र हैं जो एक पैसे वाली रंग बिंरगी चुस्की को कभी तुम चूसते थे और कभी मैं। बस मैं उसी राममोहन से मिलने आया हूं। बस तुम्हारे साथ कुछ देर बैठकर बचपन की बातें याद करने आया हूं, जिसने हमें अभी तक जोड़ा हुआ है।’
राममोहन, सुमरेश बाबू की दिल से निकली अपनेपन की बातें सुन सचमुच में बचपन में खो गए। उनकी आंखें भर आईं। और सुमरेश के गले लगाते हुए बोले- ‘तुमसे बड़ा कोई काम नहीं। आओ बैठकर बातें करते हैं। वे दोनों कृष्ण-सुदामा की तरह समर्पित होकर बातें करने लगे। इस बीच उन्होंने एक-एक कप चाय और पी।
राममोहन ने अपनी पत्नी से सुमरेश का परिचय कराया और कहा, ‘लंच दोनों साथ ही करेंगे।’
पत्नी सोचती रही, कहां तो इन्होंने घर से मीटिंग में जाने की इतनी जल्दी मचाई कि सारे काम छोड़कर, पहले इनके लिए चाय नाश्ता बनाया। और अब बचपन के मित्र की खातिर सारा कार्यक्रम कैंसिल कर दिया।
दोनों अपने और सहपाठियों के बारे में बातचीत करने लगे। राममोहन ने बताया कि कुछ साथी तो अब इस दुनिया में नहीं रहे। कुछ यहीं शहर की विभिन्न कॉलोनियों में रह रहे हैं। राममोहन ने तीन मित्रों से सुमरेश बाबू की बात करवाई। वे भी बातें सुन भावविभोर हो गए। उन्होंने भी मिलने की इच्छा प्रकट की। पर सुमरेश को जल्दी थी। सुबह का रिजर्वेशन है, जल्दी निकलना है।
राम मोहन से बातें कर साथ लंच लिया। कुछ समय बाद सुमरेश ऑटो से निकल गए। राममोहन का विदा में उठा हाथ दूर तक उन्हें नजर आ रहा था।
राममोहन को लगा कि सचमुच बचपन से जुड़ी मातृभूमि की यादें किसी तीर्थ यात्रा से कम नहीं होतीं। जो सदा सुख शांति वाले अपनेपन के रिश्ते से जुड़ी रहती हैं।
संपर्क : 215, मार्ग-4 रजत कॉलोनी, बूंदी-323001 (राज.) मो. 9413128514/ ईमेल-dineshbundi@gmail.com
वास्तव में बचपन की मित्रता जीवन भर की मिठास और कभी न खाली होने वाली स्मृतियों की मंजुसा है।
सादर प्रणाम आभार आपका।
दोस्ती से बड़ी कोई दौलत नहीं।दोस्ती से बडा कोई सहारा नहीं ….।
बहुत बारीकी से बुनी कहानी है, दिनेश जी का ऑब्जर्वेशन शानदार है। बधाई।
बहुत अच्छी कहानी है। बधाई आपको।
बहुत ही शानदार कहानी। दिल की गहराइयों तक उतर गई।धन्यवाद।हार्दिक बधाई आपको
तीर्थ यात्रा कहानी अच्छी लगी।आज की व्यस्त जिंदगी में लोग मित्र तो दूर की बात है।अपने मातापिता को भूल जाते है।इस कहानी से शायद उन लोगो को प्रेरणा मिलेगी।जो भौतिकता की दौड़ में अपनी जन्मभूमि और मित्रों को भूल जाते है।बचपन की यादे जीवंत करने के लिये दिनेश विजय वर्गीय जी को हार्दिक धन्यवाद।
सुंदर कथानक, सबकुछ आंखों के सामने घटित होता रहा
आपकी तीर्थ यात्रा कहानी सचमुच में सुदामा कृष्ण की दोस्ती को याद दिलाती है। राम मोहन अनजाने बन कर भी सुमरेश
बचपन की दोस्ती को ना भुला सका।
बचपना की दोस्ती एक सचमुच सजीव यादगार सी होती है। जिसमें वास्तल्य की प्रेम सीधा सीधा उमर घूमर जाती है। कई सालों बाद मिलने पर भी दोस्ती में दरार नहीं दिखती।
सही रूप में आप की तीर्थ यात्रा कहानी में साक्षात दर्शन कराती है।
मैं सच्चिदानंद किरण भागलपुर बिहार रेलवे अवकाश प्राप्त रंगसाज साहित्यकार व कवि।
धन्यवाद व साधुवाद ंंं