‘ये देख लक्ष्मी… कितनी सुंदर साड़ी है!’ जमुना ने अपनी सखी से हर्षित स्वर में कहा। साड़ी का धानी रंग लक्ष्मी की आंखों को लुभा गया, पर साड़ी पर हाथ भी न धरा।
आगे एक चादर पर सुंदर जेवर सजे थे। जमुना ने चांद जैसे आकार वाले कुंडल उठा लिए- ‘ये देख लक्ष्मी, कितने सुंदर हैं न?’
लक्ष्मी ने देखा, ‘हां’ कहा, पर हाथ में न लिया।
हाट में तरह तरह की कई लुभावनी चीजें थी। सब पर जमुना का दिल आता जा रहा था। वह कभी पायल खरीद लेती, कभी हार, कभी चूड़ी।
‘तूने तो कुछ भी खरीदा ही नहीं। जब खरीदना नहीं था तो आई ही क्यों मेले में?’ जमुना ने चिढ़ कर कहा। लक्ष्मी शांत थी। दोनों मेले से लौटने लगीं।
जमुना थोड़ी देर बाद चहक कर बोली, ‘देखना, करवा चौथ पर मैं इन सब से सज-धज कर कैसे अपने पति को रिझाती हूँ।’ यह साल भर की बचत से खरीदी गई संपदा थी।
लक्ष्मी शांत थी, कुछ नहीं बोली। जमुना ने फिर कुरेदा, ‘बोलती क्यों नहीं? पैसे तो तेरे पास बहुत हैं। मैंने देखा है तुझे कनस्तर में छुपा कर रखते हुए।’
लक्ष्मी के मुंह से बोल फूट ही गया, ‘जीजी…पैसे जोड़ रही हूँ दो साल से। क्योंकि मुझे अपने लिए गहने नहीं, शौचालय बनवाना है। वह साज-सिंगार से कहीं अधिक जरूरी है।’
जमुना के बोल बंद हो गए। उसे लोटा लेकर जाते समय खेत में दबंगों के चेहरे याद आ गए।
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अच्छी लघुकथा है। अच्छी तरह मुकम्मल भी होती है।
Umda laghukatha… ant mut’assir karta hai…