असिस्टेंट प्रोफेसर, इलाहाबाद विश्वविद्यालय। काव्य संग्रह ‘जिसे वे बचा देखना चाहते हैं’।            

मैं जहाँ भी जाता हूँ
इक स्याहपन साथ लिए जाता हूँ
जिस भी कस्बा या शहर के बारे में
जो कुछ भी सुना था कभी पहले
वह सबका सब बेमानी लगता है
फिर लगता है कि सुना हुआ तो

सही ही रहा होगा
मेरे पाँव में शामिल होकर
आई होगी वह धूल
कि जिसको ओढ़कर
हवा साँसों में घुटन पैदा करती है
मेरे पंजों में लगकर
आई होगी वह स्याही
कि जिससे मिलकर हो जाते हैं
सारे रंग बदरंग

 

मैं अपनी ही ज़ुबान पर ले आया था
नफ़रत के बीज बोने वाले वे शब्द
कि जिसकी ताप से
झुलस जाती है प्रेम में डूबी देह
जो हँसी मेरे साथ आई थी
उसके जन्म में शामिल थी
वे सारी क्रूरताएँ
जिन्हें मैंने अर्जित किया था
अपने ही जन्मदाताओं की हत्या से
सच कहूँ तो
मेरी संपूर्ण निर्मिति में
जगत की सारी दुर्बलताएँ शामिल थीं
मेरे मस्तिष्क में ठूँसे गए थे
दुनिया के सारे स्याह किस्से
मैं रात से भी ज्यादा घना था
अपनी पूरी बनावट में
इसी से पूरे विश्वास के साथ कहता हूँ
हर कस्बा
हर शहर
मेरे आगमन से पहले उतना ही पवित्र था
जितना कि तुम्हारी नींद में दिखाई देने वाला
उजला-उजला दिन !

संपर्क: असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज-211002  मो.  6306659027