युवा रचनाकार।प्रमुख पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित।
देह पिघलाने वाली धूप, उस पर चारों ओर फैला एक अजीब सा रूखापन और आसमान का चटखपन, लगभग दो माह से दिखाई पड़ रहा था।गांव से लेकर शहर तक के सन्नाटे को बखूबी देखा था।सरकार ने लॉकडाउन में थोड़ी सी रियायत दी थी।लोगबाग अपनी जरूरतों की चीजों को इकट्ठा करने में मसरूफ थे।सड़कें इतने दिनों तक सुस्ताने के बाद दुबारा जाग चुकी थीं।पहले जैसी चहलकदमी उतनी इन सड़कों पर फिर भी दिखाई नहीं पड़ती थी।पुलिस की गाड़ियां दिन में दो एक बार घूमते-घामते दिख जाया करतीं।लोग बाग राशन किराना खरीदने के बहाने चोरी छुपे घूमने निकल पड़ते थे।हर मोहल्ले में दो एक सब्जीवाले सब्जी बेचते दिख जाते।वैसे तो कोई न कोई सब्जी बेचने वाले आ ही जाया करते थे।कोरोना जब से आया था सारे काम काज बंद हो चुके थे।जान है तो जहान है।इस सिद्धांत को लोग अपना चुके थे।
आनंद से भाव विभोर युवा पीढ़ी पूर्ण तरीके से मोबाइल में डूब चुकी थीं।घर का कोई कोना पकड़कर दिनभर मोबाइल में टिक टाक… वीडियो, फिल्म देखने में मस्त थीं।लॉकडाउन में प्रेमी और प्रेमिकाओं की परेशानियां बढ़ चुकी थीं, मिलन के सौभाग्य से लॉकडाउन में वंचित होना पड़ा था।और हो भी क्यों न! बीमारी ही ऐसी थी।
कोरोना ने छोटे दुकानदारों की कमर तोड़ दी थी।जो लोग रोज कमाते थे और रोज खाते थे उनकी चिंता दुगनी बढ़ चुकी थी।मातमों की खबरों में संवेदना की जगह कुछ लोग फायदा और नुकसान का गणित बिठा रहे थे।रोज कोई न कोई मरता ही था; फिर चाहे अपना हो या पराया।श्मशानों में जैसे होड़ सी लगी हो।लाशों की लंबी-लंबी कतारें जलने के इंतजार में घंटों लगी रहतीं।इन श्मशानों को देखकर लगता जैसे काल सब कुछ लीलना चाहता हो।
सरकार आम लोगों की जरूरतों का बराबर ख्याल रख रही थी, लेकिन उसमें भी कुछ लोग अपना स्वार्थ सिद्ध करने में लगे हुए थे।कंपनियां भी इस अवसर में आहुति डालना कैसे भूल सकतीं! जरूरत की चीजों के दाम बढ़ते जा रहे थे।
मेहता जी, रोज गली से गुजरती हुई लाशों को देखा करते और अंदर ही अंदर बेचैन होने लगते।ईश्वर से प्रार्थना करते… हे प्रभु! कैसा समय है? कब तक मौत का तांडव चलता रहेगा? हे प्रभु! जल्दी से सब कुछ पहले जैसा हो जाए।जीवन के बचे खुचे दिन शांति से गुजरे।
मेहता जी को रिटायर होकर इस कालोनी में आए अभी पांच महीने ही हुए थे कि पूरे देश में लॉकडाउन लग चुका था।बेटे के पास रहने का सुख लेना चाहते थे।देश दुनिया की धार्मिक जगहों पर घूमना चाहते थे।पोते के साथ खेलना चाहते थे।बहू कहा करती थी, ‘बाबूजी, आप तो हमारे पास रहते ही नहीं।चिंटू, अपने दादा को कितना याद करता है।जब भी आते हैं, दो दिन से ज्यादा नहीं रुकते।’ मेहता जी ने इस बार लंबा ठहरने का मन बना ही लिया था।और जाएं भी कहां! अब तो रिटायर होने के बाद अंतिम सांस तक बेटे के पास ही रहना था।मेहता जी पहले काफी सोचते रहे कि छोटे बेटे के पास रुकूंगा, लेकिन छोटी बहू के चिड़चिड़े व्यवहार को देखते हुए बड़ी बहू के यहां रुकने का निर्णय लेना पड़ा।इसी कालोनी में डीके साहब उर्फ दिनेश कुमार से अच्छी खासी मित्रता हो गई।उन्हें दिनेश कुमार से ज्यादा डीके नाम से ही सब लोग जानते थे।कालोनी के ज्यादातर लोग साहब ही कहते थे।एक साल ही हुए थे डीके साहब को इस कालोनी में आए हुए और लगने लगा था जैसे बरसों का रिश्ता हो।मेहता जी का मानना था ‘विचारों का मेल है, जिसके साथ बैठ गया, तो बैठा गया।कभी-कभी खून के रिश्ते भी पराए लगने लगते हैं।’
मेहता जी इन दो महीनों में घर में रहकर उकता चुके थे।घर की चारदीवार में रह रहकर बोरियत सी होने लगी थी।आखिर घर में भी कितना रहा जा सकता है! कोई कैदी ही इस तरह रह सकता है।मेहता जी को लगने लगा था जैसे दुनिया खत्म होने के कगार पर हो।एक अजीब सी बेचैनी उन्हें अंदर ही अंदर कुतर रही थी।मन के अंदर पैदा होते नकारात्मक विचार जीवन के उत्साह का गला दबा रहा रहे हों।वे जब भी किसी मित्र से फोन पर बातें करते अक्सर भावुक हो उठते और कहने लगते, ‘मन तो बहुत होता है, लेकिन कमबख्त ये कोरोना कहीं घूमने ही नहीं देता! क्या दुनिया इसी तरह खत्म हो जाएगी?’
दो महीने बाद घर से बाहर निकले थे।वैसे कोरोना के पहले गार्डन ही उनकी फेवरेट जगह हुआ करती थी।जहां मेहता जी और डीके साहब बैठकर खूब गप्पें मारा करते थे।वहां करीब दो महीनों से अब ताला लगा हुआ था।केवल सुबह-शाम माली आकर गार्डन में पानी दिया करता था।
मेहता जी घर से निकलते ही धीमे कदमों से गार्डन की तरफ चल पड़े।मन ही मन सोचने लगे आखिर घर में कितना रहें? बहू बेटे की किटकिट से थोड़ी देर के लिए राहत तो मिली।टीवी भी कितना देखें? बच्चे के साथ भी कितना खेलें।वह भी दादा के पास रहकर ऊब चुका है।रोज–रोज वही मरने की खबरें सुन–सुनकर कान पक चुके हैं।न्यूज वाले भी न जाने कैसी–कैसी डराने वाली खबरें सुनाते हैं।ऊपर से वैक्सीन कब बनेगी पता नहीं…!
गार्डन के भीतर पहुंचते ही चारों ओर नजरें घुमाईं।सबसे पहले उनकी नजर लोहे के बेंच पर पड़ी।मेहता जी उसे देखकर ठिठक गए।उन्होंने बैठने का सोचा, लेकिन बैठे नहीं।उस बेंच को देखकर थोड़ी देर के लिए अतीत की स्मृतियों में गुम से गए।कुछ महीनों पुरानी यादें ताजा हो गईं।थोड़ी देर के लिए जैसे स्मृति की गहरी घाटी में उतर गए।अचानक हवा का एक तेज झोंका आया और पत्तों की चरर्र… से उनका ध्यान टूटा।थोड़ी देर के लिए उन्हें लगा जैसे डीके साहब वहीं बैठे हैं।और बोल रहे हों, ‘मेहता, तुम सोचते बहुत हो… जिंदगी इतनी सोच कर नहीं जी जाती…’ मेहता जी ने गर्दन ऊपर की और उस आम के पेड़ पर कोयल को ढूंढने लगे जहां बैठकर वह रोज कुहूँ कुहूँ … किया करती थी।उन्होंने अपने आपको रोका और धीमे कदमों से गार्डन का मुआयना करने लगे।वे हर चीज को बारीकी से जांच रहे थे।फूल, क्यारियां, पेड़ सब कुछ उसी जगह पर व्यवस्थित थे।वे बार-बार उस बेंच को देखते और सोचने लगते।उन्हें लगता अभी डीके ठहाका मारकर हँसेगा और बोलेगा ‘देख भाई मेहता! मैं तो ऐसा ही हूँ…, खाओ दबाकर और जिओ दबाकर… कल किसने देखा है? इतना सोचकर कौन जीता है! आज है, कल नहीं।किसी के जाने से दुनिया को कोई फर्क नहीं पड़ता।’ मेहता जी के जेहन में डीके की बातें रह रहकर याद आ रही थीं।मेहता जी लोहे के बेंच के बगल में रखे चौखटे से पत्थर पर बैठे-बैठे काफी देर तक सोचते रहे।
बेंच पर काफी पत्तियां पड़ी हुई थीं।पेड़ से एक डाली तोड़ी और पत्तियों को हटाया।करीब दो महीने से उस गार्डन में कोई घूमने नहीं आया।एक माली था जो एक दो दिन में पौधों को पानी दे दिया करता।बेंच के आसपास बड़ी-बड़ी घास उग आई थी।मेहता जी ने गौर से देखा और घास को देखकर सोचने लगे, ‘ये उम्मीद की घास है, दुनिया इतनी आसानी से खत्म नहीं होगी’, दूसरे ही क्षण सोचने लगे, ‘दुनिया के मुल्क कितने लालची हो चुके हैं, हर कोई तीसरे मुल्क पर अपना आधिपत्य जमाना चाहता है।जब परमाणु बम पर रोक लगा दी तो नए नए हथकंडे अपनाकर दुनिया को तबाह करना चाहते हैं।थोड़े से अहंकार में मनुष्य कितना अंधा हो जाता है।’
हवा का एक झोंका झकझोरते हुए निकल गया।उतने में मेहता जी का मोबाइल घनघनाकर बज उठा, झट से तंद्रा टूटी।मेहता जी ने मोबाइल में देखा कि कंपनी ने एक अच्छा ऑफर दिया है।बहुत ही कम में रिचार्ज में ज्यादा फायदा; साथ ही डेटा भी फ्री मिल रहा है।मेहता जी सोचने लगे ‘हर कोई अवसर को भुना रहा है।सरकार से लेकर कंपनी तक…’
यह सोचकर झट से उठे और आगे बढ़ गए।गार्डन में घूमते हुए बीते दिनों के विचार दौड़ने लगे… ‘हे ईश्वर! कैसा समय है।तब यहां कितनी चहल-पहल हुआ करती थी और अब देखो कैसा सन्नाटा पसरा है।जब से कोरोना आया है, लोगों का जीवन कितना बदल सा गया।लोगों ने ज्यादा मिलना जुलना ही छोड़ दिया।बस, मोबाइल… मोबाइल…।मोबाइल पर ही हाल-चाल पूछ लिया करते।जिधर नजर घुमाओ उधर एक मास्क वाली दुनिया दिखाई देती है।लोग न तो हाथ मिलाते हैं, न किसी के यहां आते जाते हैं।गले मिलने से भी डरने लगे हैं।इस महामारी ने रिश्ते नातों को दूर कर दिया।गलियों में एक अजीब सा सन्नाटा पसरा दिखाई देता।मेहता जी के मन में कितने ही सवाल उमड़-घुमड़ रहे थे।
मेहता जी का बेंच के साथ एक लगाव था।उसी बेंच पर बैठकर डीके साहब के साथ देश दुनिया की बातें किया करते थे।लेकिन डीके साहब के जाने के बाद कम-सा हो गया।मेहता जी अक्सर कहा कतते थे ‘एक ही तो मित्र है जिससे अपने मन का प्रेम द्वेष सब कुछ खुलकर बांटता हूँ।मित्र तो और भी हैं, लेकिन डीके के साथ एक अपनापन सा लगता है।’ डीके साहब और मेहता जी अकसर इस गार्डन में घूमा करते थे।कॉलोनी वाले भी जानने लगे थे कि दोनों अच्छे मित्र हैं।
बेंच के पास इमली के पेड़ की घनी छाया हर किसी को बैठने पर मजबूर कर देतीं।डीके साहब कोयला खदान में इंजीनियर थे जो कुछ महीनों पहले ही रिटायर हुए थे।नया–नया मकान बनाया था।पास में ही मेहता जी रहते थे।एक दो बार घूमते हुए एक दूसरे से परिचय हो गया।परिचय के बाद तो देश–दुनिया, राजनीति, घर–परिवार पर घंटों तक विचार विमर्श किया करते।
कुछ महीनों पहले मेहता जी गार्डन में घूमते हुए कहा था, ‘देखो डीके, बच्चे पिता के संघर्ष को नहीं समझते।उन्हें केवल अपने हिसाब से जीना है।जिस पिता ने रात-दिन उनके लिए मेहनत की आखिर बच्चे उसे कब समझेंगे।जीवन भर घर परिवार के लिए मरते-खपते रहो और एक दिन बच्चे कह देते हैं, ‘आपने आखिर हमारे लिए किया ही क्या है?’
‘इसीलिए जीना चाहिए, भाई…’ डीके साहब ने कहा।
‘बात तो सही है, लेकिन भविष्य का किसको पता…?’ मेहता जी ने कहा।
‘बच्चे ऐसे ही होते हैं, जब तक शादी नहीं होती; माँ- बाप को सिर पर बिठाए रखते हैं।जिस दिन शादी होती है, उसके बाद उनका असली रूप दिखाई पड़ता है।’ डीके साहब ने कहा था।
‘सही कहा डीके।बच्चों का असली रूप शादी के बाद ही दिखाई पड़ता है।’ मेहता जी बोलते बोलते मायूस हो गए थे।
‘मेहता, तुम भी न फालतू ही सोचते हो।बेटे को पूरी जिंदगी बहू के साथ रहना है।हम तो दो चार दिन के साथी हैं…’ डीके की बातों से मेहता जी सहमत होते हुए बोले, ‘सही कहा…’
एक के बाद एक जैसे यादों की रेल चल पड़ी।मेहता जी जितना भूलाने की कोशिश करते उतनी ही यादें पीछा करतीं।
मेहता जी चलते चलते थोड़ा सा ठिठके।स्मृति में एक एककर पुरानी बातें कौंध रही थीं।शाम का समय था।सूरज डूबने ही वाला था।कुछ एक लोग टहलते दिखाई पड़ रहे थे।मुंह पर कुछ लोगों के मास्क लगे हुए थे।कुछ खुले मुंह निडर कोरोना को चुनौती दे रहे थे।कुछ जवान लड़कों ने मास्क लगाना उचित नही समझा।उन्हें लग रहा था सब बकवास हैं।कुछ होने वाला नहीं।आधी दुनिया अपने हिसाब से जी रही थी।मेहता जी तेज कदमों से घर की ओर चले जा रहे थे।मेहता जी का मन हुआ कि एक बार उस बेंच को फिर देखूं, लेकिन फिर विचार बदल दिया।मन ही मन सोचने लगे, जीवन में कुछ जगह भले ही खाली रहती हैं, लेकिन उनका एहसास लंबे समय तक बना रहता है।
संपर्क : श्रीराम रेसीडेंसी, मोतीवार्ड, चक्कारोड़, टिकारी, बैतूल नगर, बैतूल, म.प्र., पिन–४६०००१ मो.८९६६९४३९९८
Shandar
लाक डाऊन का बहुत बढिया चित्रण किया चर्पे जी ने। 🌷🌷
कोरोना काल की यादें ताज़ा कर दीं।
अच्छा लेखन।
सुंदर रचना 👌
Dk sahab और मेहता जी की बातें जीवन का निचोड़ समझा गईं।
शानदार अभिव्यक्ति चरपे सर।