युवा लेखिका, दार्जिलिंग गवर्मेंट कॉलेज में प्रोफेसर

उपन्यास को आधुनिक जीवन का महाकाव्य कहा गया है। अपने उत्पत्ति काल से ही उपन्यासों ने जीवन को उसकी समग्रता में पकड़ने और व्यक्त करने की कोशिश की है। समकालीन दौर में जब नए-नए विमर्शों ने अपनी अभिव्यक्ति के सबसे सशक्त माध्यम के रूप में इस विधा को चुना तो स्वाभाविक रूप से उपन्यासों में रूप और अंतर्वस्तु के स्तर पर कई परिवर्तन हुए। वर्तमान समय में कुछ उपन्यास गांवों को विषय बनाकर आए हैं। उनमें विस्थापन से लेकर स्त्री प्रश्न तक कई मुद्दे हैं। यह एक महत्वपूर्ण घटना है। आइए एक विस्तृत चर्चा करें। 

मृत्युंजय का ‘गंगा रतन बिदेसी’ भोजपुरी में प्रकाशित उनका पहला उपन्यास है, जिसका खड़ी बोली रूप भी आया है। यह अपनी कथा और कथ्य में स्थानीयता का अतिक्रमण करता गिरमिटिया मजदूरों के विस्थापन की पीड़ा को एक व्यापक पटल पर, विस्तृत देशकाल में उभारता है। इसमें इतिहास के पन्नों से लेकर वर्तमान की कथा भी दर्ज होती है। बतौर लेखक, ‘यह कथा विस्थापन के दुर्भाग्य की कथा है, और इसलिए यह निरंतर बन रही है। इसका आरंभ मनुष्य जाति के आविर्भाव से हुआ है, और यह निरंतर चल रही एक सभ्यतागत प्रक्रिया है जिसका अंत भी सुनिश्चित नहीं किया जा सकता। अतएव अनगिनत कथाएं हमारे इर्दगिर्द आज भी निरंतर हर दिन बन रही हैं, हर दिन मिट रही हैं।’

यह उपन्यास एक साधारण मनुष्य के जीवन में पैदा हुए संघर्षों की असाधारण कथा है, जिसे केदारनाथ सिंह ने ‘धारावाहिक संघर्षों के बीच खिलता शृंगार’ कहा है। लेखक ने इतने विस्तृत फलक पर, इतने विविध आयामों के साथ कथा को बुना है, मानो वह एक पूरे देशकाल को उसकी समग्रता में उकेर देने की मासूम-सी जिद ठाने बैठा है। यहाँ एक तरफ गिरमिटिया मजदूरों के जीवन संघर्ष, अपनी मिट्टी से उखड़ने-बिछड़ने की कथा है तो लौटने के बाद अपनी ही मिट्टी, अपने देश में बेगाने हो जाने की व्यथा भी है। अपनी जड़ों की तलाश में दक्षिण अफ्रीका के नटाल से भारत आकर यहाँ के स्वतंत्रता संघर्ष में खुद को झोंक देनेवाले सत्याग्रही रतन दुलारी का जीवन देश की आजादी के बाद उद्देश्यहीन और आश्रयहीन हो जाता है। अपने जीवन को नए सिरे से शुरू करने की अभिलाषा लिए रतन दुलारी और गंगझरिया बनारस के एक गांव पहुंच कर तिनका-तिनका घर जोड़ते हैं। उन्हें आगे चलकर इसे बिखरते हुए भी देखना पड़ता है। इसके बाद संघर्ष का दूसरा दौर शुरू होता है दूसरी पीढ़ी गंगा रतन के साथ। अपने रेहन पर चढ़े खेतों को बचाने के लिए गंगा रतन की यात्रा बंगाल के हावड़ा से शुरू होती है, जो कलकत्ता के पोस्ता बाजार, सियालदह से होते हुए दार्जिलिंग के चाय बागान पहुंचती है और अंत में प्रेसिडेंसी जेल में आकर खत्म होती है।

गंगा रतन के लिए यह यात्रा अपने घर-परिवार को बचाने की संघर्ष कथा से शुरू होकर चाय बागान के मालिक मिस्टर मजुमदार की बेटी डोना के जीवन को संजोने और संवारने की संकल्प कथा बन जाती है। दो पीढ़ियों के बीच फैली इस संघर्ष कथा में और भी कई प्रासंगिक कथाएं हैं। अंग्रेजों का दमन चक्र और स्वतंत्रता सेनानियों का संघर्ष, तत्कालीन जेलों में गलत ढंग से बंद कैदियों की कथा, पाश्चात्य संस्कृति और सभ्यता में मदहोश होता धनिक वर्ग और अकेला पड़ता बचपन, कर्ज के बोझ तले डूबकर अपना घर-बार-बैल खोते गांव के गरीब किसान और इन किसानों का खून चूसते महाजन – इन सबकी कथा गंगा रतन बिदेसी को एक बृहद आयाम देती है।

इतने विस्तृत फलक पर, इतने ‘पसार’ के साथ कथा को रचने के बावजूद मृत्युंजय की लेखनी कहीं कथा को बिखरने नहीं देती, इसे जोड़े रखती है। लेखक के शब्दों में उसके सूत्र की पहचान इस तरह की जा सकती है, ‘कुछ तो विरल था उनके रक्त में। वही विरलता अमीनवा में थी, वही अभिज्ञान में थी, और आज वही विरलता बिदेसिया को लछीमिया की बोली में भी दिखी। उसको शायद मालूम नहीं था कि एक ऐसा ही विरल रूप डोना में भी तैयार हो रहा था। ये सब लोग हिंसावादी नहीं थे, लेकिन किसी अत्याचार के सामने सीना खोल कर लड़ना इन लोगों की आत्मा का गुण था। विधाता कम ही भेजते हैं ऐसी आत्माएं, जिनसे भीरु लोगों को तनिक साहस मिले।’

उपन्यास एक तरफ डोना जैसी सुशिक्षित, आधुनिक शहरी स्त्री की कथा है। वह अपने व्यक्तित्व की प्रखरता, ईमानदारी और संकल्प शक्ति के लिए विशेष रूप से ध्यान खींचती है। दूसरी तरफ, गंगझरिया और लछीमिया जैसी ग्रामीण स्त्रियाँ भी हैं, जो संकल्प के अपने धनी व्यक्तित्व के प्रकाश से घर-परिवार समेत पूरे समाज को आलोकित करती हैं। उपन्यास में सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है इनके व्यक्तिगत संघर्ष का सामाजिक संघर्ष में रूपांतरण। अपने रेहन पर चढ़े खेतों का ब्याज भर जुटाने के लिए शुरू हुआ लछीमिया का करघा आंदोलन धीरे-धीरे विस्तार पाते हुए पूरे गांव के गरीब किसानों के खेतों को महाजन के चंगुल से छुड़ाने के संकल्प में बदल जाता है।

सर्वविदित है कि गांधी ने अपने अहिंसात्मक आंदोलन के कई हथियार स्त्री-जीवन से चुने थे। गांधी के ही हथियार ‘करघा’ के दम पर ये स्त्रियाँ महाजनी व्यवस्था को चुनौती देने की तैयारी में होती हैं। लछीमिया की इस संगठन शक्ति को उजागर करते हुए मृत्युंजय लिखते हैं, ‘उसका सपना था कि इसी करघा-आंदोलन से वह एक दिन छोटी जाति और किसानों के रेहन पर चढ़े खेतों को बनवारी साव के चंगुल से छुड़ाएगी। बनवारी साव को अपने खिलाफ शुरू हुए इस गाँधीवादी आंदोलन की भनक भी नहीं लगी। वह गंगझरिया और लछीमिया के करघों को केवल उनके जीवन यापन का एक उपाय समझते रहे, और उनको कभी शक ही नहीं हुआ कि धीरे-धीरे उनकी साहूकारी पर एक बड़ा धक्का लगने वाला है। गांधी बाबा के चरखे से एक बड़े स्वदेशी-आंदोलन का जन्म हो सकता है, क्या अंग्रेजों ने कभी सोचा था?     

रतन दुलारी के किसान से मजदूर बनने की पीड़ा कथाकार के शब्दों में इस तरह व्यक्त हुई है, ‘खेत से वंचित किसान अपनी मिट्टी में ही जैसे एक अछूत बन कर जीने लगता है। अपनी ही रसोई में पका अन्न भी अपना नहीं लगता। खेत किसान के जीवन की धुरी होता है। उसके साथ जुड़ा होता है उसके पूरे दिन, महीने और साल की दिनचर्या – सुबह की जमहाई, गाय-बैल की देख-रेख, खेत में उपजते एक-एक फसल का इतिहास-भूगोल, दिन-भर मिट्टी में लोटने-लड़ने का सुख, और साँझ को पसीना पोंछते हुए अपने घर लौटने का संतोष। लेकिन इससे भी बढ़कर होती है एक इज्जत – किसान कहलाने की। बनिहार या मजदूर बनकर खेत में काम करना, ठीक वैसा ही होता है, जैसे कि किसी दूसरे का बच्चा पालना।’ निश्चय ही ‘गंगा रतन बिदेशी’ ‘गोदान’ से अनुभूति की अलग भूमि लेकर उपस्थित है।

यह पाठक को सुकून देनेवाली एक सुखद कथा बनकर आता है। कथा के हर मोड़ पर डॉ. एजाजी, हेमवती देवी, रहमत साहब, बाबू रामाश्रय, दामोदर माझी, विभूति बाबू, डोना मजुमदार जैसे कई भले मानुष हैं, जो रतन दुलारी और उनके परिवार की सहायता करते हैं, उन्हें हारने नहीं देते। उपन्यास का अंत इस सुखद आश्वासन के साथ होता है कि दुनिया से मनुष्यता अभी मिटी नहीं है।

उपन्यास चूंकि भोजपुरी से अनूदित होकर हिंदी में आया है, कथाकार भोजपुरी संस्कृति को उसकी पूरी जीवंतता और प्रामाणिकता के साथ बचाए रखने के लिए लेखक विशेष सावधान दिखाई देता है। उदाहरण के लिए गांव की होली का यह वर्णन देखिए, ‘गांव का फगुआ सबेरे पानी-कीचड़ से शुरू होकर शाम के रंग-अबीर तक पहुंचता है। उसी बीच में चलती रहती है ठंडई, भांग और गाँजा। हर फगुआ में गांव के लोगों को वह किस्सा याद आता है जब रतन दुलारी को भांग चढ़ी थी, और वह नाच-नाच गाने लगी थी – ‘आहो गंगा, तोहरे पिरीतिया में मन भइल चंगा।’ गंवई समाज में रचे-बसे बिंबों और मुहावरों में पूरा उपन्यास रचा-बसा है, ‘इज्जत-आबरू तो मिट्टी का ढेला है। भादों में गला तो अगहन में फिर बन के तैयार।’ इसी तरह, ‘टूटी थाली और फूटा हुआ लोटा, चाहे जितना भी कीमती क्यों न हो, किसी काम का नहीं होता। तो आज बिदेसिया नामक थाली टूट गई थी, और उसके पिता की इज्जत का लोटा फूट गया था।’ जिस तरह की काव्यात्मक भाषा में पूरा उपन्यास सिरजा गया है, वह मृत्युंजय के कवि हृदय की चुगली खाता हुआ गद्य में पद्य की सरसता का आनंद देता है। यहाँ चाँदनी रात में, ‘बादलों के दो-चार टुकड़े रजाई की तरह ओढ़े, चांदनी झलमल चमक रही थी।’ कुल मिलाकर ‘गंगा रतन बिदेशी’ विस्थापन और किसानी जीवन की समस्याओं से रूबरू कराने वाला, अपनी मिट्टी के प्रति लगाव की भावना से परिपूर्ण ऐसा उपन्यास है जो लंबे समय तक पाठक की स्मृतियों में बना रहेगा।  

जिज्ञासा : उपन्यास में गांधीवाद का सचेत प्रभाव माना जाए या भारतीय जनमानस की अदम्य जिजीविषा की स्वाभाविक अभिव्यक्ति?

मृत्युंजय : मेरे लिए दोनों बातें सत्य हैं। मैं किसी ‘वाद’ का अनुगामी नहीं हूँ, लेकिन जो जनहित में है, वह मेरे लिए काम्य है। गांधी का दर्शन भारतीय समाज के मनोविज्ञान का ही दर्पण रहा है। गांधी की सोच जनमानस की सकारात्मक मानसिकता को ही रेखांंकित करती है। उनकी सोच भारतीय जनमानस में उनकी पैठ और समझ का ही फल है, जिसमें आने वाले समय में बढ़ते बाज़ारवाद की स्वार्थपरकता और आत्मकेंद्रीयता के प्रति सजग रहने की तैयारी दिखती है। हर सभ्यता में सादा और अनुशासित जीवन को बल दिया गया है। गांधी का सत्याग्रह हर उस चुनौती से लड़ने की तैयारी का प्रतीक है जो भिन्न-भिन्न रूपों में उभर कर सामने आया है। रतन दुलारी और गंगा रतन – दोनों ही उस संस्कार के वाहक हैं। स्वयं से अधिक अपने घर-बार की सुरक्षा हर नारी का पहला ध्येय होता है।  लछीमिया का चरखा-आंदोलन, एक अहिंसक और युक्तिसंगत तरीके से, बहुत ही छोटे स्तर पर ही सही, उसी ध्येय को पाने का साधन है। उसकी और उसके गंगा रतन या रतनदुलारी की जिजीविषा, यदि मुक्तिबोध के शब्दों में कहूँ तो, हर भारतीय की ‘ज़मीन में गड़ कर भी जीने’ के जीवट का ही परिचायक है।

 

जिज्ञासा : इतने विस्तृत फलक पर लिखकर भी उपन्यास को  बिखरने न देना काफी चुनौतीपूर्ण रहा होगा?

मृत्युंजय : सच कहें तो मेरे लिए समय चुरा कर इस कथा को लिख पाना ही सबसे ज़्यादा चुनौतीपूर्ण रहा है। मेरे लिए आपसी जीवन की अंतर्क्रियाओं से पोषित संश्लिष्ट जीवन की घटनाओं में झांकने का यह बिलकुल कुंवारा अनुभव था। कथाओं से कथाएं निकलती गईं, पात्र मिलते गए, परिवेश और परिदृश्य बनता रहा, और मैं उनके साथ धीरे-धीरे चलता रहा। कुछ कल्पना, कुछ इतिहास और कुछ अपने जीवनबोध की जोत से ही इस उपन्यास का तानाबाना रचा गया है।

जिज्ञासा : ‘गंगा रतन बिदेसी’ को प्रेमचंद से लेकर अखिलेश तक की उपन्यास-परंपरा में रखने की बात की गई हैं। आप इस विषय में क्या सोचते हैं?

मृत्युंजय : यह तो ‘गंगा रतन बिदेसी’ का सौभाग्य है, और साथ ही मेरा भी, कि इसमें हिंदी साहित्य के मनीषियों को कहीं भारतेंदु, कहीं प्रेमचंद, कहीं अखिलेश, तो कहीं रेणु की झलक दिखती है। मैं यह मानता हूँ कि हर रचनाकार, अपनी परवरिश और अपने जीवन की परिस्थितियों से गढ़ा जाता है। उसमें कुछ भी असाधारण नहीं होता, क्योंकि साधारण भी कुछ नहीं होता। वह मात्र अपनी संवेदना के स्पर्शबोध से अभिव्यक्ति टटोलता फिरता है और उसे ही अपनी रचनाओं में उजागर करता है।

जिज्ञासा : पुरुष पात्रों की अपेक्षा स्त्री पात्रों के अधिक जुझारूपन के बारे में आप क्या कहना चाहेंगे ? 

मृत्युंजय : हमारे पुरुष-प्रधान समाज ने अपनी सुविधा के अनुसारस्त्रियों के कुछ जातिगत लक्षण निर्धारित कर रखे हैं। इनकी कसौटी पर ही उनके चरित्र का आकलन होता है। आज के वैश्विक और आधुनिक काल में भी शायद स्त्रियों के चरित्र की कसौटी नहीं बदली। सच यह है कि जुझारू होना शरीर का नहीं, बल्कि आत्मा का गुण है। अभाव और विपत्ति पुरुष को बहुधा दया का पात्र बना देती है, जबकि नारियों में यह तितिक्षा का संचार करती है, विशेषकर ऐसी स्थिति में जब खोने को कुछ न बचा हो। ठीक वही हुआ है गंगझरिया और लछीमिया के जीवन में भी। सच पूछिए तो उन्होंने अपने परिवार तथा स्वयं के आत्मसम्मान को अक्षुण्ण रखते हुए वह सब किया जो उनके वश में था। इसमें कोई शक नहीं कि उन दोनों की जिजीविषा से रतन दुलारी और गंगा रतन के जीवन को बल मिला है।

जिज्ञासा : यह उपन्यास पहले भोजपुरी में आया, फिर विस्तृत पाठक जगत की तलाश में हिंदी में। क्या भोजपुरी का मान बढ़ाने के लिए ऐसी कोई और योजना भी है?

मृत्युंजय : प्रकाश उदय जी ने इस उपन्यास पर बोलते हुए कहा है कि यह भोजपुरी उपन्यास सिद्ध करता है कि भोजपुरी में केवल भोजपुरी-भाषी या भोजपुरी क्षेत्र की बात ही नहीं, बल्कि सारे विश्व की बात की जा सकती है। उनका कथन इस परिप्रेक्ष्य में था कि अब तक भोजपुरी रचनाएं सामान्यतः भोजपुरी क्षेत्र और वहां के जन-जीवन की कथा कहती आई हैं। इस गाथा के पात्र चाहे भोजपुरी क्षेत्र के हों, लेकिन उनकी जीवन-कथा उन तमाम जगहों के जीवन से जुड़ी है जहाँ जा-जा कर वे बसे हैं, या जहाँ-जहाँ उनके तलवे घिसे हैं। इस उपन्यास में जितना भोजपुरी गांव है, उतना ही दक्षिण अफ्रीका और भारत का औपनिवेशिक परिवेश भी है। जितना बंगाल है, उतनी ही दिल्ली। जितनी कल्पना है, उतना ही यथार्थ। और जितना इतिहास है, उतना ही भूगोल। इससे यदि भोजपुरी भाषा का मान बढ़ता है तो मेरे लिए यह गर्व की बात होगी।

मिथिलेश्वर ने अपने नए उपन्यास ‘संत न बांधे गांठड़ी’ में गंवई धरती को अपनी मुख्य कथा-भूमि के रूप में चुना है और सादगीपूर्ण रचना शैली से विशिष्ट प्रभाव उत्पन्न करने में सफलता पाई है। अपने सात उपन्यासों और ग्यारह कहानी-संग्रहों से हिंदी साहित्य को समृद्ध करनेवाले मिथिलेश्वर का यह नवीनतम उपन्यास है। यह धार्मिक आस्था के नाम पर चलनेवाले धर्म-व्यापार की सचाइयों से रूबरू कराता है। उपन्यास का शीर्षक कबीर की इस उक्ति को चरितार्थ करता है कि संत गठरी नहीं बांधते, अर्थात भौतिक संचय नहीं करते। भारतीय जीवन के इस आदर्श के विरुद्ध पिछले कुछ सालों में धर्म का व्यापार तेजी से फैला है। बड़े-बड़े धर्मगुरुओं-बाबाओं ने धार्मिक मठों-आश्रमों में लाखों-करोड़ों की संपत्ति अपनी गठरी में बांध ली है। समय-समय पर जब मीडिया और भारतीय कानून व्यवस्था ने इनकी गठरियां खोलीं तो उनमें से काले धन, मुक्त यौनाचार और नैतिक पतन के इतने  काले नाग निकले कि इन चीजों ने समस्त धार्मिक-आध्यात्मिक जगत को अचंभित कर दिया।

भारत जैसे देश में जहां धार्मिक विश्वास, आस्था और आध्यात्मिक मूल्य सदियों से जीवन और दर्शन के अभिन्न अंग रहे हैं, वहाँ धर्म के नाम पर लोगों को ठगना, धर्म को व्यापार बना देना कितना बड़ा नैतिक-आध्यात्मिक अपराध है, उपन्यास बतलाता है।

उपन्यास धार्मिक आस्था के रास्तों से चलकर कुछ जरूरी सामाजिक प्रश्नों तक पहुंचता है। लेखक ने मुक्तलोक आश्रम की जीवन शैली और उसके अलग-अलग विभागों की व्यवस्था का विश्लेषण करते हुए एक व्यापक और गंभीर सामाजिक-सांस्कृतिक विमर्श तैयार किया है। वर्तमान शिक्षा व्यवस्था, चिकित्सा जगत, स्त्रियों और अन्य पिछड़े तबकों की सामाजिक स्थिति, महानगरों में आत्मीय संबंधों का अभाव, परिवारों में बुजुर्गों की बढ़ती उपेक्षा और उनका एकाकीपन – ऐसी तमाम समस्याओं की तरफ लेखक की पैनी दृष्टि गई है। इन आश्रमों में आनेवाले भक्तों में एक बड़ी संख्या उन संपन्न घरानों के वृद्धों की होती हैं, जिनके पास अथाह संपत्ति है, संतति है लेकिन परिवार नहीं है। उनके बच्चे या तो विदेशों में जाकर बस चुके हैं या अगर साथ हैं भी तो उनके पास इतना समय नहीं  है कि अपने परिवार के बुजुर्गों के साथ बैठकर उनका अकेलापन बाँट सकें। ऐसे में आश्रम के सदस्यों का अपनत्व और प्रेमपूर्ण  व्यवहार इनके जीवन की उदासी और अकेलेपन को कम करने का एकमात्र जरिया बन जाता है। 

लेखक ने इस ओर भी ध्यान आकर्षित किया है कि धार्मिक संस्थान होने के बावजूद इन आश्रमों का राजनीतिक महत्व बहुत ज्यादा है। ये संस्थान और धर्मगुरु जन भावना को किसी भी राजनीतिक पार्टी के पक्ष या विपक्ष में मोड़ने में सक्षम होते हैं। यही कारण है कि बड़े-बड़े नेता, मंत्री-संत्री चुनाव के पहले बाबाजी के आशीर्वाद को अपनी जीत की गारंटी के रूप में देखते हैं और बदले में दिल खोल कर इन संस्थानों को दान देते हैं। कई बार आय का कोई ठोस साधन न होते हुए भी धार्मिक मठों-आश्रमों के नाम करोड़ों की संपत्ति होती है। लोकचंद अनुभव करते हैं, ‘जिस देश के उद्योगपति, केंद्रीय मंत्री और उच्च पदाधिकारी ऐसे आश्रमों की भक्ति में समर्पित हों, वहाँ फिर अन्य देशवासियों का क्या कहना? इस आश्रम की भक्ति में ऐसे कितने उद्योगपति घराने, मंत्री परिवार तथा उच्च पदाधिकारी और उनके कुटुंबी शामिल होंगे। शायद यही वजह है कि बाहरी समाज जहां बेरोजगारी, गरीबी, भूख और विभिन्न समस्याओं से परेशान है, वहाँ इस आश्रम में चारों ओर सुख-शांति ही सुख-शांति है। कहीं दुख, तकलीफ, ईर्ष्या-द्वेष और आपसी संघर्ष नहीं।’ ऐसे में सवाल उठता है कि धार्मिक संस्थान शुद्ध स्वैच्छिक दान से चलनेवाले गैर-मुनाफाकारी संस्थान हैं या फिर काले धन को सफेद बनाने, उसे खपाने और बदले में राजनीतिक तख्तापलट में हिस्सेदार बननेवाले मुनाफा-केंद्रित संस्थान? 

लेखक ने प्रभावशाली ढंग से दिखाया है कि किस तरह हमारे समाज से खत्म हो रहा परस्पर सद्भाव, सहयोग और भाईचारे का संबंध आश्रमों की ओर लोगों को आकर्षित कर रहा है। सामाजिक विसंगतियों के मारे, हाशिए के लोग भेदभाव रहित समाज में समान अधिकार और सम्मानपूर्ण सह जीवन की तलाश में ऐसे आश्रमों तक पहुंच रहे हैं।  उपन्यास में कई ऐसे अनाथ, गरीब, पिछड़ी जाति के लड़के-लड़कियों की कथा दर्ज है, जिनके जीवन को आश्रम ने एक नई दिशा दी है। यह स्थिति सोचने पर मजबूर करती है कि क्यों इन तबकों तक लोकतांत्रिक भारत की विकास योजनाएं नहीं पहुँच पाईं?

कथाकार ने आश्रम के परिवेश के अनुकूल धार्मिक-आध्यात्मिक शब्दावली और मुहावरों से परिपूर्ण सरस और सुरुचिपूर्ण कथाभाषा का सफल प्रयोग किया है। तर्क-वितर्क ऐसे हैं कि एकांतिक ढंग से किसी भी एक पक्ष को सही या गलत मान लेना पाठक के लिए आसान नहीं है। धार्मिक संस्थानों की सामाजिक भूमिका और आध्यात्मिक सत्य के अच्छे-बुरे पक्षों की प्रभावशाली और पूर्वग्रहरहित अभिव्यक्ति मिथिलेश्वर जैसे सिद्धहस्त कथाकार की लेखनी से ही संभव था। यह उपन्यास धर्म के बहाने पूरी सामाजिक व्यवस्था और आधुनिक जीवन शैली का क्रिटिक रचता है।   

जिज्ञासा : धार्मिक मठों – आश्रमों को उपन्यास का विषय बनाने का विचार आपके मन में कैसे और क्यों आया?

मिथिलेश्वर : भारतीय जीवन और समाज पर धार्मिक-आध्यात्मिक चेतना का गहरा प्रभाव रहा है। हमारा जीवन और समाज धार्मिक-आध्यात्मिक मूल्यों से संचालित रहा है। विवेकानंद ने वैश्विक स्तर पर हमारी इस चेतना का महत्व प्रतिपादित किया था। भारत को विश्वगुरु बनाने के पीछे हमारी इस चेतना की भूमिका नियामक रही है। इस परिप्रेक्ष्य में हमारे धार्मिक मठों और आश्रमों का बहुत महत्व रहा है। हमारे धार्मिक मठ और आश्रम आदर्श जीवन मूल्यों और उच्च विचारों के आध्यात्मिक केंद्र रहे हैं। आज भी हमारे अनेक आश्रम और मठ अपनी उस भूमिका में कायम हैं। लेकिन बदलते समय में धर्म और अध्यात्म के नाम पर लोगों की अंधश्रद्धा का दोहन कुछ बाबाओं और स्वामियों ने जिस तरह शुरू किया तथा अपने मठों और आश्रमों को वैभव से सम्पन्न कर इन्हें अपने भोग-विलास का केंद्र बना दिया, इस घटना ने हमारी धार्मिक-आध्यात्मिक चेतना को बड़े पैमाने पर बर्बाद और विकृत करने की कोशिश की है। ऐसी अवांछित और अनपेक्षित स्थितियों ने इस विषय पर लिखने के लिए मुझे प्रेरित किया।

जिज्ञासा : धार्मिक संस्थानों और धर्मगुरुओं के भ्रष्ट आचरण से संबंधित तमाम खुलासों के बावजूद इनके भक्तों और अनुयायियों की संख्या में कोई विशेष कमी नहीं आई, जैसा कि आपने भी उपन्यास में दिखाया है। इसके क्या कारण हैं?

मिथिलेश्वर :  भक्तों और अनुयायियों की संख्या में इसलिए कमी नहीं आती कि उनके अंदर धार्मिक जागरूकता नहीं होती। ऐसे लोगों की श्रद्धा, अंधश्रद्धा होती है। ये धर्मगुरुओं को ईश्वर का प्रतिरूप समझते हैं। सचमुच यह स्थिति चिंतनीय है। धार्मिक-आध्यात्मिक क्षेत्र में निरंतर पनपते और विस्तार पाते भ्रष्टाचार की वजह यही है।

जिज्ञासा : आश्रमों में केवल गरीब, अशिक्षित जन ही नहीं, बल्कि कई शिक्षित, संपन्न घरों के स्त्री – पुरुष भी शामिल होते हैं। ऐसे शिक्षित, विवेकसंपन्न लोगों के भीतर पनपती अंधश्रद्धा का क्या कारण है?

मिथिलेश्वर : सिर्फ शिक्षित होना विवेकसंपन्न और जागरूक होने का प्रमाण नहीं। मैंने अनुभव किया है, अंधश्रद्धा से जुड़े शिक्षित लोग भी होते हैं। उनके पास नीर-क्षीर विवेक नहीं होता। पारंपरित आस्था, श्रद्धा, अंधविश्वास से वे अलग नहीं हो पाते। ऐसे लोग सच जानने की  कोशिश नहीं करते। जो प्रचारित होता है, उसे ही सच मान लेते हैं। इसलिए मैं शिक्षा में जागरूकता की आवश्यकता पर जोर देता हूँ। जागरूक और विवेकसंपन्न लोग ही सही-गलत का निर्णय कर पाते हैं। लेकिन ऐसे लोगों का हमारे यहाँ बहुत अभाव है। इसलिए हमारे शिक्षित-संपन्न लोग अंधश्रद्धा और अंधभक्ति के शिकार हैं।

जिज्ञासा : धार्मिक आश्रमों की समाज के पिछड़े तबकों के बीच एक सकारात्मक – सुधारपरक भूमिका रही है। इस भूमिका को आप कैसे देखते हैं? क्या इसके लिए हमारे समाज और सरकार की घटती जवाबदेही जिम्मेवार है?

मिथिलेश्वर : संदेह के घेरे में होने के बावजूद आश्रमों के बने रहने और विकसित होने के पीछे आश्रमों का भेदभाव रहित जीवन है। प्राचीन काल में हमारे यहाँ छुआछूत और जाति-पाँति का भेदभाव प्रबल था। लेकिन कबीर, सूर, तुलसी, जायसी, रहीम, रैदास आदि संत कवियों ने अपनी वाणियों से इसे दूर कर समरस मानवीय समाज बनाने की कोशिश की। शायद यही वजह है कि हमारे ऐसे आश्रमों में वंचितों, उपेक्षितों और दलितों को हेय दृष्टि से न देखकर समान भाव से देखा जाता है।

मुख्यतः नाटककार हृषिकेश सुलभ लोक और शास्त्र की परंपराओं को समान क्षमता से साधने और रंगमंच पर नए प्रयोगों के लिए जाने जाते हैं। इन्होंने भिखारी ठाकुर की प्रसिद्ध लोकनाट्य शैली ‘बिदेसिया’ की अंतर्निहित शक्ति और संभावनाओं को पहचान कर रंगमंच से जोड़ने का दायित्व निभाया है। उनका पहला उपन्यास है ‘अग्निलीक’। यह उपन्यास आजादी के बाद बदलते गांवों की तस्वीर प्रस्तुत करता है, जिसे बकौल वंदना राग, ‘इक्कीसवीं सदी के ग्रामीण यूनिवर्स की जातक उर्फ जात कथा का आख्यान’ कहा जा सकता है। पुस्तक के फ्लैप पर इसे रेणु की याद दिलानेवाला उपन्यास बताया गया है। रेणु ने जहां कोसी तट के आसपास बसे गांवों के बदलने की कथा कही थी, वहीं हृषिकेश सुलभ ने घाघरा और गंडक नदी के आसपास बसे गांव- देवली और मनरौली – की सामंती सामाजिक संरचना में आते सूक्ष्म परिवर्तन को दर्ज करने का प्रयास किया है।

उपन्यास का आरंभ शमशेर साईं की हत्या से और अंत मनोहर रजक की हत्या के साथ होता है। इन दो हत्याओं के बीच फैली कथाभूमि में राजनीतिक-सामाजिक परिवर्तनों के साथ सामंती सामाजिक संरचना और मानसिकता की आहट छिपी हुई है। यह विचित्र विडंबना है कि 1857 की स्मृतियों को अपने गर्भ में छुपाए होने के बावजूद ये गाँव उसकी सांप्रदायिक सौहार्द की विरासत को बचा नहीं पाए हैं। यहाँ हिंदुओं और मुसलमानों के बीच वर्चस्ववादी राजनीति अपने क्रूरतम रूप में सामने है। इसकी एक परिणति है शमशेर साईं की हत्या। दूसरी तरफ, उपन्यास के अंतिम पृष्ठ पर दर्ज मनोहर रजक की हत्या सामाजिक परिवर्तन के सपनों पर सवर्ण-जातिवादी मानसिकता का क्रूर अट्टहास बनकर आती है।

लेखक ने इस उपन्यास में बदलते गांव की तस्वीर रची है, जो असल में बेहद धीमी गति से बदलते कुछ दृश्यों के कोलाज से बनी है। यहाँ एक तरफ खेती और साथ ही खेतिहर समाज का बदलता हुआ प्रारूप है तो दूसरी तरफ बदलते जातिगत समीकरण हैं। बाबुओं की बबुआनी में यादवों और अंसारियों द्वारा सेंध लगाई जा चुकी है। शादी-ब्याह और मरनी -जीनी में जब राजपूतों के खेत बिकने लगे तो ‘पूर्वजों की जंग लगी प्रतिष्ठा और गरूर का बोझ लादकर जीवन की गाड़ी खींचने में कमर टूट रही थी।’ कायस्थ घर-दुआर और खेती-बारी बेचकर शहर जा बसे हैं। शिक्षा के उजास में दलित और अनुसूचित जातियों का जीवन बदल रहा है। उनमें साहस और आत्मविश्वास आ रहा है। यादवों और पिछड़ी जातिवालों ने खेती-किसानी और अपने हुनर के दम पर जब अपनी आर्थिक स्थिति मजबूत की तो सामाजिक स्थिति में भी परिवर्तन होना ही था। अब ये ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा देने की हैसियत रखने वाले गांव की नई आर्थिक शक्ति हैं। इन सबके बीच सबसे असमंजस की स्थिति में ब्राह्मण समाज पड़ा हुआ है। पुराने जजमानों की स्थिति ऐसी नहीं रही कि उनके भरोसे जीवन आराम से कट जाए। यादवों-पिछड़ी जाति वालों के रूप में जो नए धनैत हुए हैं, उन्हें अपना जजमान मान लेने में पारंपरिक संस्कार आड़े आ रहा है। लेकिन समय के खेल को समझते हुए अपना पेट पोसने के लिए मन मार कर विनम्र और सहिष्णु बने रहने के अलावा ब्राह्मणों के पास और कोई चारा नहीं है। गांव की व्यवस्था में आते इन सूक्ष्म परिवर्तनों को लेखक ने बड़ी सावधानी के साथ दर्ज करने की कोशिश की है।

इन बदलती तस्वीरों के बीच स्त्री की सदियों पुरानी नियति नहीं बदली है। जसोदा देवी और उनकी परपोती रेवती के बीच की चार पीढ़ी की स्त्रियों की जीवन यात्रा मानो आज भी पुरुषों के तय किए रास्तों पर चलने के लिए बाध्य है। जसोदा देवी जहां अपने पिता के फैसले के अनुसार अपने प्रेमी लीला शाह को छोड़कर देवली के अकलू यादव के साथ विवाह-बंधन में बंधती है, वहीं उनकी परपोती रेवती न चाहते हुए भी अपने बाबा लीलाधर यादव के फैसले के अनुसार मुखिया के चुनाव में खड़ी होती है। हालांकि रेवती के लिए मुखिया के चुनाव की उम्मीदवारी राजनीतिक सत्ता के जरिए सामाजिक सत्ता और वैयक्तिक शक्ति हासिल करने का जरिया भी थी। इसका उद्देश्य अपने जीवन की बागडोर अपने हाथों में लेकर स्वनिर्णय का अधिकार पाना था, ताकि वह अपने प्रेमी और सहपाठी मनोहर रजक के साथ विवाह कर सके। लेकिन कथा का अंत रेवती के चचेरे भाई सुजीत द्वारा मनोहर की हत्या के साथ होता है। एक बार फिर एक स्त्री अपने प्रेम को पाने में असफ़ल स्त्रियों की जमात में शामिल हो जाती है। ऐसा लगता है मानो शिक्षा, स्वावलंबन के बावजूद स्त्री के स्वनिर्णय के अधिकार की लड़ाई अधूरी और बेमानी साबित हो रही है, क्योंकि सुजीत जैसे पुरुषों की दंभी मानसिकता में कोई परिवर्तन नहीं आ पा रहा है। लेखक ने कहना चाहा है कि स्त्री को बदलने, उसे साहसी-स्वावलंबी बनाने की तमाम कोशिशों के साथ सुजीत जैसे पुरुषों का नया संस्कार करना भी जरूरी है जो आज भी श्रेष्ठतादंभ और परिवार की झूठी मर्यादा के नाम पर खून की होली खेल रहे हैं।

लेखक की एक बड़ी उपलब्धि है स्त्रियों के संघर्ष की जटिलता की पहचान कराना। गाँव के सामंती परिवेश के भीतर इन सभी स्त्रियों का संघर्ष, चाहे वे किसी भी जाति अथवा वर्ग से संबंधित हों, इसलिए जटिल है कि दलितों या आदिवासियों की तरह इनका अपना कोई अलग समाज नहीं है। इनका संघर्ष किसी व्यक्ति, वर्ग या समुदाय के खिलाफ नहीं, बल्कि उस पितृसत्तात्मक मानसिकता के खिलाफ है, जिसके वाहक इनके अपने ही हैं। संघर्ष की इसी जटिलता को स्पष्ट करते हुए रेवती मनोहर से कहती है, ‘तुम नहीं समझ सकते मनोहर। तुम सिर्फ गरीबी से लड़ रहे हो … जाति से लड़ रहे हो। मैं एक लड़की हूँ और अपने से कई गुना ताकतवर हर जाति और धर्म के पुरुषों से लड़ रही हूँ। तुम्हारी दरिद्रता और जाति कुछ देर के लिए तुम्हारे मनोबल को तोड़ सकती है, पर मैं जिनसे लड़ रही हूँ, ये लोग बाबा, पिता, भाई या परिजन होते हुए भी मेरी पूरी जिंदगी को तबाह कर सकते हैं।’  

उपन्यास की इस विशेषता की तरफ भी ध्यान जाना चाहिए कि विपरीत परिस्थितियों का सामना होने पर जहां पुरुष पात्रों के लिए हत्या और आत्महत्या के विकल्प हैं वहीं स्त्री पात्रों को लंबा संघर्षपूर्ण जीवन देकर लेखक ने उनकी जिजीविषा को पहचान देने की कोशिश की है। ये सभी स्त्रियाँ गांव के सामंती परिवेश में जीने की जद्दोजहद के साथ कुछ सपने देखने की हिमाकत करती हैं। उन सपनों को जी लेना तो संभव नहीं होता, लेकिन उन्हें अगली पीढ़ी की आंखों में वे रोप जरूर देती हैं।

लेखक ने स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन के लिए राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी को एक महत्वपूर्ण हथियार के रूप में दिखाया है। रेवती और रेशमा दोनों चुनाव में खड़ी होती हैं। हालांकि यहाँ भी ‘किंगमेकर’ की भूमिका में लीलाधर यादव उपस्थित हैं, क्योंकि उन्हीं के फैसले का अनुसरण करते हुए दोनों स्त्रियाँ गांव की महिला आरक्षित सीट की उम्मीदवार बनती हैं। ऐसे में यह संदेह स्वाभाविक है कि तथाकथित बदले समय में भी असल सत्ता पुरुषों के हाथों में रहेगी और स्त्री कठपुतली ही बनी रहेगी। जिस तरह रेवती अपने बाबा और गाँववालों की इच्छा के विरुद्ध बिना किसी तमाशा-जुलूस के शांत ढंग से अपना नामांकन करती है, उससे यह उम्मीद जरूर बंधती है कि उसका प्रखर व्यक्तित्व किसी के हाथ की कठपुतली नहीं बनेगा।

उपन्यास में ग्रामीण परिवेश रचने के लिए लेखक ने जिस तरह की गंवई भाषा और बिंब-विधान की शैली को अपनाया है, वह अलग से ध्यान खींचती है। गांव के घरों में तमाम मुसीबतों के बाद भी ‘हँसी पुरइन पात पर शीत के दानों की तरह छलछल’ करती है तो दुख के दिनों में ये ही घर-आंगन ‘कांसे की खाली बटलोही की तरह उदास’ हो जाते हैं। इन क्षेत्रों में प्रचलित लोकगीतों का उपन्यास में इस्तेमाल किया गया है। हालांकि लेखक ने लोकगीतों का केवल अर्थ देकर काम चला लिया है, अगर उनका सीधे-सीधे प्रयोग किया जाता तो प्रभाव कुछ और होता।

कथा का बेहद आकर्षक पक्ष है प्रकृति का किसी जीते-जागते पात्र की तरह हर जगह मौजूद होना। प्रकृति के अलग-अलग घटकों, ऋतुओं के सजीव वर्णन में लेखक का मन रमा है। घाघरा का ऐसा वर्णन है मानो वह कोई नदी नहीं, एक आदिम स्त्री हो। जसोदा देवी, कुंती, रेवती जैसी तमाम स्त्रियों की पूर्वजा, जो सदियों से स्त्रियों के आंसुओं को अपनी गोद में समेटे चुपचाप बह रही।

जिज्ञासा :  आपका यह उपन्यास रेणु और श्रीलाल शुक्ल की याद दिलाता है। पुस्तक के फ्लैप पर रेणु का जिक्र भी है। तो क्या उपन्यास लिखते हुए कहीं ये लेखक कसौटी के रूप में आपके जेहन में मौजूद थे?

हृषिकेश सुलभ : मेरे लिए यह सम्मान की बात है कि अग्निलीक को रेणु और श्रीलाल शुक्ल की परंपरा से जोड़कर देखा जा रहा है। ये दोनों हमारी भाषा के बेहद महत्वपूर्ण रचनाकार हैं, जिन्होंने भाषा ही नहीं अपने समय के यथार्थ के कहन के लिए नई भंगिमाओं का पुनराविष्कार किया है। इनकी परंपरा से तभी आप जुड़ सकते हैं या इनकी परंपरा का विकास प्रस्तुत कर सकते हैं, जब आप अपने समय के यथार्थ के गर्भ में छिपी भाषा और कहन के अंदाज़ को खोज पाते हैं और यथार्थ को नई भंगिमा के साथ अभिव्यक्त कर पाते हैं। … रही बात पुस्तक के फ्लैप की तो वह प्रकाशक के ज़िम्मे होता है। … हर पीढ़ी के सामने उसकी पूर्व पीढ़ी चुनौती की तरह होती है, पर साथ ही साथ दूसरा सत्य यह भी है कि आप अपनी पूर्व पीढ़ी के साथ नाभिनालबद्ध  होते हैं। जाने-अनजाने आपकी निर्मिति में आपकी पूर्व पीढ़ी का योगदान होता है। आप उनसे स्पर्धा करते हुए नहीं लिख सकते हैं। साहित्य स्पर्धा है भी नहीं।  

जिज्ञासा : आपने इस उपन्यास में बदलते गांवों की तस्वीर प्रस्तुत की है। इसमें बदलते जातिगत समीकरणों की बात काफी महत्वपूर्ण है। नीची मानी जाने वाली जातियों तक शिक्षा का उजास पहुँच रहा है, खाड़ी देशों से आने वाले पैसों के बल पर अकरम अंसारी जैसे मुसलमान धन और जनबल से बाबुओं की बबुआनी में सेंध लगाने में किसी हद तक सफल हो रहे हैं। इन सबके बीच गांव की सामंती मानसिकता, जाति-व्यवस्था में क्या कोई ठोस परिवर्तन आ रहा है?

हृषिकेश सुलभ : यह उपन्यास हमारे गांवों में आज़ादी के बाद आए हर तरह के बदलावों को अभिव्यक्त करता है, … रेखांकित करता है। यह अभिव्यक्ति जीवन के माध्यम से होती है। जीवन के अंतर्द्वंद्व, घात-प्रतिघात और मानवीय प्रपंचों के ताने-बाने से उपन्यास की कथा बुनी गई है। ढहती हुई सामंती-व्यवस्था और जाति-व्यवस्था के हिंसक आचरण और नए प्रपंचों के बीच भी एक अलग जीवन लगातार आकार ले रहा है, … गहन मानवीय संवेदना से आर्द्र और मनुष्यता के प्रति गहन बोध से पूरित यह जीवन मनुष्य की संघर्षशीलता का प्रतिफल है। यह जीवन ही इस उपन्यास की केंद्रीयता है। 

जिज्ञासा : इस उपन्यास में राजनीति एक बहुत महत्वपूर्ण घटक के रूप में मौजूद है। उपन्यास का आरंभ ही राजनीतिक उद्देश्य से हुई शमशेर साईं की हत्या से होता है। पूरे उपन्यास में राजनीतिक गहमा-गहमी चलती रहती है और अंत भी रेवती और रेशमा की चुनावी उम्मीदवारी से होता है। लेकिन वास्तव में गांवों की राजनीतिक चेतना का स्तर कैसा है?

हृषिकेश सुलभ : साहित्य राजनीति-निरपेक्ष नहीं होता। जब जीवन राजनीति निरपेक्ष नहीं है, तो भला साहित्य कैसे राजनीति निरपेक्ष हो सकता है। इस उपन्यास में हमारे गांवों की वास्तविक राजनीतिक चेतना ही अभिव्यक्त हुई है। इसे अभिव्यक्त करते हुए मेरा प्रयास रहा है कि इसकी अभिव्यक्ति में कलात्मकता बनी रहे। यथार्थ को अभिव्यक्त करने के लिए रचनात्मक हुनर की बड़ी भूमिका होती है। यथार्थ अगर कलात्मकता के साथ अभिव्यक्त नहीं होता, तो वह प्रभावशाली नहीं हो सकता और न ही दीर्घजीवी हो सकता है। एक लेखक-कवि ठीक उसी भाषा और भंगिमा में बात नहीं कर सकता, जिसमें कोई राजनीतिक नेता करता है।  

जिज्ञासा : स्त्री के स्वनिर्णय के अधिकार के लिए आपने शिक्षा और आर्थिक स्वावलंबन की बात की है। लेकिन उपन्यास के अंत में हम देखते हैं कि इन हथियारों के बावजूद रेवती सुजीत से यह जंग हार जाती है। तो आपको क्या लगता है, जसोदा देवी से लेकर रेवती तक की चार पीढ़ियों के बाद स्त्रियों को अभी और कितना इंतज़ार करना होगा अपने हिसाब से अपना जीवन जीने के अधिकार को पाने के लिए? इस देरी का कारण क्या है?

हृषिकेश सुलभ : युगों से चली आ रही मानसिकता को रातोंरात नहीं बदला जा सकता। पितृसत्तात्मक समाज की जड़ें बहुत गहरी हैं। इस समाज ने जिस मन को, हृदय को, जीवन-पद्धतियों को, सामाजिक व्यवहारों को बनाया है, उसे पलक झपकते नहीं बदला जा सकता। विकसित समझे जाने वाले अमरीकी और यूरोपीय देशों में भी आज स्त्री के संघर्ष जारी हैं। यह लंबी लड़ाई है, जिसे अभी निरंतरता में चलना है। … रेवती जंग नहीं हारती, बल्कि  अपने प्रेमी की हत्या के बाद उसे एक नया युद्ध लड़ना होगा। अग्निलीक का समापन एक नए संघर्ष का प्रस्थान-बिंदु है।

जिज्ञासा : आपने स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन के लिए राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी को भी एक महत्वपूर्ण हथियार के रूप में दिखाया है। रेवती और रेशमा दोनों चुनाव में खड़ी होती हैं लेकिन यहाँ भी ‘किंगमेकर’ की भूमिका में लीलाधर यादव उपस्थित हैं, क्योंकि उन्हीं के फैसले का अनुसरण करते हुए दोनों स्त्रियाँ गांव की महिला आरक्षित सीट की उम्मीदवार बनती हैं। तो क्या यह मान लिया जाए कि तथाकथित बदले समय में भी असल सत्ता पुरुषों के हाथों में सुरक्षित रहेगी और स्त्री कठपुतली ही बनी रहेगी?

हृषिकेश सुलभ : यह सोचना या यह चिंता  भी इस उपन्यास का एक महत्वपूर्ण लक्ष्य है। राजनीति में स्त्रियों की उचित भागीदारी के बिना परिवर्तन संभव नहीं। किंगमेकर की उपस्थिति एक बड़ा अंतर्द्वंद्व है और इस प्रपंच को भेद कर स्त्रियों को आगे आना होगा और वे धीरे-धीरे आ रही हैं। अग्निलीक में ही रेवती और रेशमा उम्मीदवार के रूप में मुखिया लीलाधर यादव का चुनाव जरूर हैं, पर दोनों नॉमिनेशन और चुनाव-प्रचार अपने ढंग से करती हैं। अकरम अंसारी की पत्नी नाज़ बेगम भी चुनाव का संचालन अपने अंदाज़ में करती हैं। इन तमाम स्त्रियों ने संकेत दिया है, जिसे समझा जाना चाहिए।

समीक्षित पुस्तकें :

(1) गंगा रतन बिदेसी (उपन्यास), मृत्युंजय, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, भोजपुरी संस्करण-2019, हिंदी संस्करण-2020

(2) संत न बांधे गाँठड़ी (उपन्यास), मिथिलेश्वर, लोकभारती प्रकाशन, प्रयागराज, पहला संस्करण-2020

(3) अग्निलीक (उपन्यास), हृषिकेश सुलभ, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पहला संस्करण-2019

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