कविता संग्रह मुझे कविता से डर लगता हैसमकालीन अभिव्यक्ति पत्रिका का संपादन।

1. दीवारें

दीवारें नहीं बाँटतीं
बाँटती है दीवार खड़ी करने वाली मानसिकता

यह मानसिकता दिखाई दे जरूरी नहीं
लेकिन दिखाई जरूर देता है उसका परिणाम
ऐसे परिणामों से केवल घर, समाज या देश ही नहीं
अभिशप्त रहा है इतिहास

यह सोचना स्वयं को धोखे में रखना है
कि ऐसी मानसिकता होती है उन्हीं की
जो दिखाई देते हैं शातिर
मानचित्र को बाँटनेवाली रेखाएँ
प्रायः खींची गई हैं उनके द्वारा
जिनकी शिष्टता मानी जाती रही है असंदिग्ध

चेहरे, पोशाक और वाणी से शरीफ़ दिखनेवाले
सोच से भी होते हैं शरीफ़ अतीत इससे सहमत नहीं
वे जब बोते हैं अलगाव के बीज
तो उसका असर दिखता है कई पीढ़ियों तक

शातिर दिखने वालों से हम रह सकते हैं सावधान
लेकिन जो लगते हैं शरीफ़
उनके खूंखार मंसूबों से बचना होता नहीं है आसान

कभी – कभी तो चुप्पी या तटस्थता भी
कर जाती है वह काम
जो नहीं कर पाती कभी वाचाल पक्षधरता
दीवारें तो केवल बदनाम होती हैं।

2. एक समय था ऐसा भी

आपको विश्वास तो नहीं होगा
लेकिन एक समय था ऐसा भी
जब हमें झकझोरती थीं अमानवीय घटनाएँ
उस समय प्रचलन नहीं था
हाथों में मोमबत्तियाँ लेकर विरोध – प्रदर्शन करने का
न इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का था इतना प्रभुत्व
जो हर चीज़ को बना दे तमाशा
हमारा आक्रोश मोमबत्तियों के जलने से लेकर बुझने तक
या मीडिया चैनलों पर दिखने तक नहीं था सीमित

हम दहल उठते थे ऐसी घटनाओं से
होते थे सचमुच शर्मसार
करते थे आत्मचिंतन
खंगालते थे अपनी परंपराओं को
जाति-धर्म से ऊपर उठकर
तय करते थे समाज की जवाबदेही
खेत-खलिहानों चौक-चौपालों की आंखों में भी
उबलता था आक्रोश
पीड़ित की चीखें गूँजती रहती थीं हमारे कानों में
समाज के संगठित विरोध के समक्ष
अपराधियों का मुंह दिखाना होता था मुश्किल

अदृश्य चलता रहता था मन के अंदर
क्रुद्ध विचारों का धरना-प्रदर्शन
जो सरकार से नहीं हमसे माँगते थे जवाब –
हम बना रहे हैं कैसा समाज
दे रहे हैं बच्चों को कैसा संस्कार
क्रूरता कैसे हो सकती है हमारी पहचान
हम क्यों होते जा रहे हैं
इतने बेरहम, निरंकुश और संवेदनहीन

लेकिन आज
अब हम नहीं पूछते अपने से कोई सवाल
हो चुके हैं आदी
ऐसी घटनाएँ देखने, सुनने और पढ़ने के
इसे रोजमर्रा की बात मान बदल देते हैं चैनल
पलट देते हैं अखबार का पन्ना
अब भीड़ की हिंसा हमें नहीं करती विचलित
जो ख़ून पहले खौल उठता था छेड़छाड़ की ख़बर सुनकर
अब सामूहिक बलात्कार की दरिंदगी तक पर
चौंकता नहीं है
अब होता है सिर्फ इतना
हमारी सहनशीलता रोज़ आगे बढ़ाती जाती है
अपने द्वारा खींची गई क्रूरता की सीमारेखा को।

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