युवा लेखक और अनुवादक। पुस्तक ‘एक थी इंदिरा’ (इंदिरा गांधी की जीवनी)। मल्टीमीडिया एडीटर वागर्थ’।

तुम कर सकते हो क्रांति

क्रांति के लिए जरूरी नहीं कि
चस्पा की जाएं
लेनिन, मार्क्स, चेग्वेरा की तस्वीरें
दोहराए जाएं जलते हुए गीत
या इंतजार किया जाए किसी ब्लडी संडे के आने का

अगर तुम्हारी वर्णमाला में गुंजाइश है
एक और अक्षर की
तो तुम कर सकते हो क्रांति
अगर तुम्हारे जेहन में अफ्रीका
एक रंग नहीं, एक आवाज है
तो तुम कर सकते हो क्रांति
चांद अगर तुम्हारे भीतर
रोमान नहीं
रोटी बनकर उतरता है
तो तुम कर सकते हो क्रांति
अगर भूख
तुम्हारे लिए कविता नहीं
मुद्दा है
तब भी तुम कर सकते हो क्रांति

और सबसे अहम बात
अगर तुम जानते हो
शांति किस चिड़िया का नाम है
तब तुम
निश्चय ही कर सकते हो क्रांति।

पिकासो के कैनवास को पढ़ते हुए

मेरे हाथों में
बहती है एक नदी
जाल डाले
मैं पकड़ता रहता हूँ
दुख, यातना में डूबा हुआ संसार
उघड़ी हुई सच्चाइयां
और खोए हुए से चेहरे
मेरे हाथों को छूकर
बिखर जाती है
एक ठहरी हुई सी लय
झक सफेद कैनवास पर
मैं खोया रहता हूँ अक्सर
नीले आसमान
पीली धरती
लाल आंखों और
काले अंधेरों के बीच
मेरे आसपास रंग बहुत है
मुझे बस थोड़ा सा पानी चाहिए
जिंदगी को जिंदगी जैसा दिखाने के लिए।

विस्थापित प्रश्न

सुनो
सीपियों के लिए लड़ते-लड़ते
मोती गवांने की उम्र में
कब सीख लिया तुमने
आंसुओं को डराना?
दर्जनों पैबंद लगी
मां की साड़ी के
किस छेद ने करा दिया
तुमको आत्म-दर्शन?
कैसे गुलमोहर के रंगों को भुलाकर
खोजने लगी
उनका बोटोनिकल नाम?
क्या
कांपते नहीं तुम्हारे हाथ
आपरेशन थियेटर में?
खून मांस मज्जा देखकर भी
नहीं आती उबकाई?
उघाड़ने से पहले इतना तो बता दो
ढांपने के लिए
तलाशोगी कौन सा आसमान?

कहो सिद्धार्थ

शोकाकुल है ज्ञान
हतप्रभ है प्रज्ञा
लेकिन क्यों?
सत्य के स्वीकार में शोक कैसा
और शोक करने वाला ज्ञान कैसा?
जीवन की धारा में बहते हुए
जीवन की धारा में छटपटाते हए
एक रात सन्नाटों की स्याही में लिपटकर
गए थे तुम
सत्य की खोज में
सत्य के संधान को

सत्य
जिसके आमंत्रण की चीत्कार सुनी थी तुमने
वीणा के तारों में
जिसकी आहटें महसूस की थीं
घुंघुरुओं की रुनझुन में
सरल निष्पाप सौंदर्य भी
कहां छुपा पाया था
सत्य को?

सत्य जिसकी खोज में निकले थे तुम
एक रात सन्नाटों की स्याही में लिपटकर
अनदेखी करके
मासूम मुस्कान
निर्दोष आंसू
भटके यहां-वहां सालों-साल

वह सत्य
चिरंतन है और शाश्वत भी…
यही तो खोजा था तुमने
फिर
शोकाकुल क्यों है ज्ञान
हतप्रभ क्यों है प्रज्ञा
सत्य के स्वीकार में शोक कैसा सिद्धार्थ…?

कोहरे की सुबह में अख़बार

कोहरे की सुबह में अखबार
ऐसे आता है
जैसे अपने साथ दर्जनों सूरज लाया हो
एक सूरज
जो तड़पता रहा रात भर
दिल्ली की सड़क पर
लेकिन किसी ने देखा भी नहीं
एक सूरज
जिसने निकालने में जरा देर की
और मिल गए कितने ही नन्हें सितारे
सड़क की धूल में
कुछ इस तरह
कि हम यह भी न कह सके
‘चलो उठो, कोई बात नहीं,
बस थोड़ी चींटियां ही तो मसली हैं।’
एक सूरज
बहुत रंगीन होकर निकला इस बार
अपने घरों से
और लिख गया
अतृप्ति का शोकगीत
राजपथ के आसमान पर…
अखबार लाता है एक वो सूरज भी
जिसमें शामिल होते हैं
कुछ फटे हुए बादल
कुछ टूटे रिकार्ड
और झुलसी हुई मानवता…
एक सूरज
सुबह के चेहरे पर उछालकर तेजाब
यूं हँसता है
जैसे हँसता हो
कोई पुराना चुटकुला, नई कविता के नाम पर
लेकिन सूरज का आना
यहीं नहीं रुकता
अब भी
घने कोहरे को चीरकर
हर सुबह अखबार ऐसे आता है
जैसे लाया हो अपने साथ
दर्जनों सूरज।

चांद

बहुत मुश्किल है चांद को पाना
क्योंकि चांद
तो छिपा बैठा होगा कहीं
मां की गुदाज हथेली पर
गहरा तांबई होकर
जिसे बहुत जतन से नहीं
बस यूं-ही
एक उंगली से
घुमा भर लिया था
घर का चूल्हा-चौका समेटने के बाद
शगुन के नाम पर…।

निशान

जिंदगी
जैसे कोई पुराना अखबार
बदलना चाहो
तब भी
नहीं जाते
रह जाते हैं निशान
सिलवटों के…