हाल ही में नोबल साहित्य पुरस्कार से सम्मानित पहली दक्षिण कोरियाई लेखिका हान कॉग का जन्म 27 नवम्बर 1970 को ग्वांगजू में हुआ। बचपन से ही वह किताबों के बीच रहीं। शब्दों के संसार में… बाद में यही शब्द उन्हें ‘सियोल इंस्टीट्यूट ऑफ आर्ट्स’ के क्रिएटिव राइटिंग विभाग की ओर ले गए, जहां उन्होंने 2007 से 2018 तक प्रोफेसर के रूप में कार्य किया। इस दौरन भी हान लगातार लिखती रहीं। 2016 में बुकर पुरस्कार के लिए चयनित होकर उनका उपन्यास ‘द वेजिटेरियन’ अन्तरराष्ट्रीय सम्मान पाने वाली कोरिया भाषा पहली रचना बना। अपने गहन काव्यात्मक गद्य के लिए (जो ऐतिहासिक आघातों का सामना करता है और मानव जीवन की भंगुरता को उजगार करता है।) नोबल सम्मान से सम्मानित हान की कविताएं भी भाषा एवं भाव के स्तर पर उतनी ही गहरी हैं। उतनी ही सघन… आइए पढ़ते हैं टुकड़ों-टुकड़ों में एक समग्र विचार वृत्त बुनती उनकी कविता ‘विंटर थ्रू द मिरर’ का हिन्दी अनुवाद…
1अग्निशिखा की पुतली को देखो
नीलाभ हृदयकार आंखें
सर्वाधिक तप्त, स्पष्ट वस्तु
जो इसे घेरे हुए है
अंतरस्थ नारंगी ज्योति
जो सर्वाधिक फड़फड़ाती है
और फिर से घेर लेती है
अर्ध-पारदर्शी बाह्य अग्नि पुंज
कल की भोर
वह भोर, जब मैं प्रस्थान करूंगी
किसी सुदूर शहर के लिए
यह भोर
अग्निशिखा की नीलाभ आंखों-सी
प्रकट होती है
मेरी दृष्टि के परे।
2
अब मेरा शहर वसंत की सुबह है
यदि आप पृथ्वी के गर्भ से गुजरें
बिना हिले, बगैर थरथराए सीधे बीच में खोदें
तो वह शहर प्रकट होता है
वहां समय ठीक बारह घंटे पीछे है
और मौसम ठीक आधा साल पीछे
इसलिए वह शहर
अभी एक पतझड़ की शाम है
जैसे कोई चुपचाप किसी का पीछा करता हो
ऐसे ही मेरे पीछे-पीछे चलता है मेरा शहर
रात से गुज़र जाने के लिए
गुज़र जाने के लिए शीत से
मैं प्रतीक्षा करती हूँ चुपचाप!
जबकि मेरा शहर हौले-से आगे निकल जाता है
जैसे कोई चुपचाप आगे निकल जाता है
कोई किसी को पीछे छोड़कर
3
दर्पण के भीतर प्रतीक्षारत है शीत
यह जगह सर्द है
बहुत सर्द
चीजें (चाहें तो भी) कांप नहीं सकतीं
(एकबार जमा हुआ) तुम्हारा चेहरा
खंडित हो बिखर नहीं सकता
मैं अपना हाथ नहीं बढ़ाती
तुम भी
नहीं बढ़ाना चाहते अपना हाथ
यह जगह सर्द है
बहुत सर्द
पुतलियां हिल नहीं सकतीं
पलकें
नहीं जानतीं कि कैसे बंद हों (एकसाथ)
दर्पण के भीतर
प्रतीक्षा कर रहा है शीत
और दर्पण के भीतर
मैं नहीं बच सकती
तुम्हारी दृष्टि से
पर तुम अपना हाथ बढ़ाना नहीं चाहते।
4
उन्होंने कहा, हम पूरे दिन उड़ान भरेंगे
उन्होंने कहा, चौबीस घंटे कसकर मोड़ो
इसे अपने हलक में रखो
और भीतर चले जाओ दर्पण के
उस शहर के एक कमरे में
मैं खोलती हूँ अपना सामान
मुझे निकालना चाहिए समय
अपना चेहरा धोने के लिए
अगर इस शहर के दुख, इसकी पीड़ाएं
चुपचाप आगे बढ़ेंगी
तो मैं हौले-से कदम पीछे खींच लूंगी
जब तुम
एक क्षण के लिए
नहीं देख रहे होओगे
उस ओर
तुम झुकना दर्पण की ठंडी पीठ के सामने
और गुनगुनाना बेपरवाही से
जब तक, कसकर मुड़े न हों चौबीस घंटे
और उगल देना इसे अपनी गरम जीभ से
(फिर) तुम लौटना और देखना मेरी ओर।
5
मेरी आंखें मोमबत्ती के दो ठूंठ हैं
उनसे टपकती रहती हैं मोम की बूंदें
जब वे निगलते हैं बाती
यह न तीक्ष्ण है
न कठोर
न पीड़ादायक
वे कहते हैं कि नीलाभ हृदयकार
अग्निशिखा का कांपना
संकेत है आत्माओं के आगमन का
आत्माएं मेरी आंखों पर आ बैठती हैं
कांपती हैं
गुनगुनाती हैं
अग्निशिखा का बाहरी हिस्सा लहराता है
डगमगाता है आगे बढ़ने के लिए
कल तुम सुदूर शहर के लिए प्रस्थान करोगे
(और) यहां मैं जल रही हूँ
अब तुम अपने हाथ डालो शून्य की कब्र में
और प्रतीक्षा करो
स्मृति के दंश तुम्हारी उंगलियों को काटते हैं
किसी सर्प की तरह
(लेकिन) तुम झुलसते नहीं
न पीड़ा, न यंत्रणा, न वेदना
तुम्हारा निश्चल चेहरा
जलता नहीं, न ठूंठ होता है…।
(कोरियन से अंग्रेजी अनुवाद : सोफी बोमन)
उपमा ऋचा |
संपर्क : upma.vagarth@gmail.com