एक सदी लंबे उपनिवेशवाद, अलगाववाद और तानाशाही के विरुद्ध लोकतंत्र के लिए संघर्ष से गुजरने के बाद दक्षिण कोरियाई लेखकों के पास लिखने के लिए अनगिनत अनसुनी कहानियां बची रही हैं और कलम में पर्याप्त स्याही भी। यही वजह है कि 2014 के लंदन पुस्तक मेले के केंद्र में ‘दक्षिण कोरियाई लेखन’ था। 2024 में हान कांग के नाम नोबल साहित्य पुरस्कार घोषित होने के बाद पूरी दुनिया आंख होकर दक्षिण कोरियाई शब्दों को पढ़ने और कान बनकर ऐसी तमाम अनसुनी कहानियों को सुनने के लिए लालायित है, जिनमें ऐतिहासिक आघात हैं, जीवन की अनिश्चितता है, मानव की क्रूरताएं भी और भय भी।
सामान्यतः नोबल साहित्य पुरस्कार की घोषणा के बाद अकसर विवाद खड़े होते हैं। चयन की वैधता पर बहस होती है और राजनीति के आरोप-प्रत्यारोप लगाए जाते हैं। लेकिन विभिन्न राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय सम्मान प्राप्त दक्षिण कोरियाई मूल की लेखक हान कांग के मामले में माहौल थोड़ा भिन्न है। वाशिंगटन पोस्ट में इस पुरस्कार को अन्य कोरियाई लेखकों के लिए एक संभावना के रूप में देखा जा रहा है। ‘द गार्जियन’ कांग की प्रशंसा में लेख प्रकाशित कर रहा है। देश के भीतर और देश की सीमाओं के बाहर दोनों जगह कांग की स्वीकार्यता का स्पष्ट कारण उनके शब्दों की गहराई और सचाई है। वस्तुत: हान जितनी ईमानदार लेखक हैं, उतनी ही ईमानदार मनुष्य भी हैं। जब उनसे पूछा गया कि वे इस उपलब्धि को कैसे ले रही हैं, तो उन्होंने एक महत्वपूर्ण बात कही। उन्होंने कहा, ‘एक लेखक साहित्य के द्वीप में खोया हुआ अकेला प्राणी नहीं होता। वह एक राजनीतिक-सामाजिक प्राणी है, जो दुनिया के बीच रहकर दुनिया के बारे में लिखता है। इसलिए मुझे नहीं लगता कि यह व्यक्तिगत उपलब्धि का उत्सव मनाने का समय है। नहीं, यह शोक का समय है!’
सच ही कह रही हैं हान! आखिर ग्वांगजू से गाजा तक लंबा समय बीत गया, लेकिन इस लंबे समय में बदला क्या? मानवता तब भी पीड़ा में थी, अब भी पीड़ा में है। हिंसा तब भी थी, अब भी है। मानवीय डर तब भी थे, अब भी हैं। विद्रोह, नरसंहार तब भी थे, अब भी हैं। क्या ऐसे में यह हर किसी की नैतिक जिम्मेदारी नहीं होनी चाहिए कि वह उन सवालों के बारे में सोचे जो समय ने मानव के अतीत में अंकित किए थे, लेकिन जो वर्तमान तक घिसटकर चले आए हैं? बेशक किसी एक के सोचने से दृश्य नहीं बदलेगा। हम सबको इन सवालों के बारे में सोचना होगा। हम सबको सोचना होगा इनके जवाब के बारे में। कुछ समय पहले ‘बनाना राइटर्स’ के साथ एक साक्षात्कार में हान जीवन पृष्ठ पर लिखे ऐसे ही तमाम स्याह -स़फेद सवालों के बारे में बात करती पाई गई हैं। आइए, गुजरते हैं समय की उस पिछली पगडंडी से और सुनते हैं नेपथ्य में खड़े उनके विचारों की अनुगूंज, वर्तमान के संदर्भ में!
प्रश्न : आप क्यों लिखती हैं?
हान कांग : मेरे लिए लिखना सवाल करने का एक रास्ता है। मैं जवाब तलाशने की कोशिश नहीं करती, लेकिन सवाल को मुकम्मल करने और जहां तक मेरे लिए मुमकिन हो सके, उसके साथ रहने की कोशिश ज़रूर करती हूं। एक अर्थ में, फिक्शन लिखने की तुलना आगे-पीछे जाने से की जा सकती है। आप आगे जाते हैं, फिर पीछे लौटते हैं और उन सवालों पर सोचते हैं जो कहीं न कहीं आपको अंदर से खरोंचते भी हैं और राहत भी देते हैं।
प्रश्न : आपके दोनों उपन्यासों ‘द वेजिटेरियन’ और ‘ह्यूमन एक्ट्स’ में कुछ बहुत गहन सम्मोहक है, लेकिन साथ ही विचलित करने वाले हिंसात्मक और भयानक दृश्य भी हैं। जब आप इन दृश्यों को लिख रही थीं, तो आपके मन में क्या चल रहा था?
हान कांग: अति-सरलीकरण के जोखिम के साथ आप कह सकते हैं कि ‘द वेजिटेरियन’ और ‘ह्यूमन एक्ट्स’ दोनों ही मानवीय हिंसा और मर्यादा की संभावना से पीड़ादायक ढंग से गुजरते हैं। मुझे यह स्वीकार करना होगा कि मैं ख़ुद किसी भी प्रकार की हिंसा के प्रति संवेदनशील हूं। मुझे याद है, जब मैं छोटी थी और ऑशविट्ज़ (द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान यूरोप में नाज़ियों द्वारा स्थापित यातना केंद्र) के बारे में कोई फिल्म देख लेती थी, तो सबकुछ फेंकने लगती थी। दोनों किताबों में हिंसात्मक दृश्यों का वर्णन करना मेरे लिए सरल नहीं था, लेकिन उनके माध्यम से मुझे ‘मनुष्य’ और ‘मनुष्यता’ से जुड़े अपने सवालों को जांचना था।
प्रश्न : आपका एक कथन है, ‘मनुष्य डरावने होते हैं और मैं उनमें से एक हूँ।’ इस कथन से आपका क्या मतलब है?
हान कांग: मैं जनवरी 1980 में 9 साल की उम्र में अपने परिवार के साथ ग्वांगजू से सियोल चली गई थी। यह ग्वांगजू विद्रोह/नरसंहार से ठीक चार महीने पहले की बात है। कुछ साल बाद, इससे जुड़ी कुछ फोटो-बुक सामने आईं जो साक्ष्य सुरक्षित रखने के उद्देश्य से गुप्त रूप से मुद्रित और प्रसारित की गई थीं। ऐसी ही एक फोटो बुक मुझे अपने पिता की बुकशेल्फ़ पर मिली। यह एक तरह से मेरे जीवन का निर्णायक अनुभव बन गया। यदि मैं उतनी छोटी न होती, तो निश्चय ही इसके राजनीतिक पहलू के प्रति अधिक जागरूक होती। लेकिन मैं सिर्फ 12 साल की थी। फोटो बुक में गहरे घावों वाले कई मृत चेहरे थे। किताब के अंत तक पहुंचने पर मैंने खुद को सोचते पाया कि ‘मनुष्य डरावने होते हैं।’ इसके बाद मेरे पास यह स्वीकार करने के अलावा अन्य कोई रास्ता नहीं था कि मैं भी उन ‘मनुष्यों’ में से एक हूँ। हालांकि, उस फोटोबुक में मानवीय गरिमा और अकथनीय शक्ति के उदाहरण भी थे। मिसाल के तौर पर, मैंने उसमें ऐसी तस्वीरें भी देखीं जिनमें मार्शल लॉ सेना की सामूहिक गोलीबारी से घायलों को अपना रक्त दान करने के लिए आम आदमी लंबी कतारों में खड़े हुए थे। यह देखना ऐसा था, जैसे दो अनसुलझे प्रश्न मेरे दिमाग पर अंकित हो गए हों : पहला यह कि हम मनुष्य इतने हिंसक कैसे हो सकते हैं? और दूसरा यह कि अति-हिंसा के विरुद्ध खड़ा होने के लिए मनुष्य क्या कर सकते हैं?
प्रश्न: अपनी किताब ‘ह्यूमन एक्ट्स’ में आपने दक्षिण कोरिया में हुए ग्वांगजू विद्रोह और क्रूर नरसंहार के विषय में लिखा है। आपने इस घटना से जुड़ी क्रूरताओं पर लिखने का निर्णय क्यों लिया?
हान कांग: मेरा परिवार किसी खास कारण या मकसद के बगैर ही सियोल चला गया था। हालांकि उस निर्णय की वजह से हमें कोई नुकसान नहीं हुआ, लेकिन लंबे समय तक मेरा परिवार एक गिल्ट, एक अपराधबोध में रहा। ज़िंदा रह जाने के अपराधबोध में…! मैं इस संवेदना के साथ बड़ी हुई कि हमें छोड़कर बाकी तमाम लोग वहां बंधक बने, चोटिल हुए और मारे गए।
प्रश्न: कुछ देशों में स्कूल में पढ़ाया जाने वाला इतिहास उससे बिल्कुल अलग होता है, जैसा वास्तव में घटित हुआ था। इतिहासकार उन सचाइयों पर रोशनी डाल सकते हैं जिन्हें सरकारें छिपाने या मिटाने की कोशिश करती हैं। आपको क्या लगता है, क्या अतीत से सच्ची कहानियों को बाहर लाना लेखकों की एक जिम्मेदारी है?
हान कांग: मेरे मामले में, ‘ह्यूमन एक्ट्स’ लिखने की प्रबलतम प्रेरणा मेरे भीतर से प्रकट हुई थी। मुझे इसका कारण जानने के लिए अपने अंतस को टटोलना होगा कि मैं मानवीय अनुभवों को सहेजने, थामने के लिए इतनी संकल्पित क्यों थी। फिर मेरा सामना ग्वानजिउ से हुआ, इस घटना ने मेरे मन में सबसे पीड़ादायक और सबसे महत्वपूर्ण पहेली जड़ कर दी। और मैंने मानवीय स्वभाव की क्रूरताओं और गतिशीलताओं के बारे में सीखा।
फिर भी मैं कहना चाहूंगी कि इसके पीछे एक और प्रेरक शक्ति थी। 2009 में सियोल के योंग्सन जिले में, एक इमारत की छत पर एक प्रदर्शनकारी बैठा हुआ था। बताया गया कि इस इमारत के किरायेदारों को पर्याप्त मुआवज़ा दिए बिना ही ध्वस्त करने की योजना बनाई गई थी। जाहिर है, उसका विरोध हो रहा था। सरकार ने विरोध को ख़त्म करने के लिए बल का प्रयोग किया। आग लगने से पांच प्रदर्शनकारियों और एक पुलिस अधिकारी की जान चली गई। मैंने समाचार में जलती हुई इमारत देखी और ग्वांगजू के बारे में सोचा। मुझे लगा कि ग्वांगजू एक अलग चेहरा लेकर हमारे पास लौट आया है। ग्वांगजू अब व्यक्तिवाचक संज्ञा नहीं रह गया। बल्कि एक सामान्य संज्ञा बन चुका है। हम इस पूरे समय अनजाने में ग्वांगजू के अंदर रह रहे हैं!
प्रश्न: आपकी सबसे ज्यादा सराही गई कृति ‘द वेजिटेरियन’ एक उपन्यास की शक्ल में आने से पहले, तीन भाग में लिखी गई थी। इस प्रक्रिया के बारे में कुछ बताएंगी तो बेहतर होगा।
हान कांग: जी, मैंने 1997 में एक कहानी लिखी थी, ‘द फ्रूट ऑफ माई वूमेन।’ यह कहानी एक ऐसी स्त्री के बारे में है, जो एकदिन पेड़ बन जाती है। एक आदमी जो उसके साथ रहता है, वह उसे एक गमले में लगाकर अपने अपार्टमेंट की बालकनी में रख देता है। उंस दौर में, जब वे एक साथ थे, आदमी उस स्त्री को समझ नहीं पाता था। लेकिन स्त्री के पेड़ बन जाने के बाद, वह उसे पानी से सींचता रहता, उसकी देखभाल में लगा रहता। पतझड़ के बाद पेड़ बनी स्त्री में कुछ फल आए, मगर गर्मी के कारण मुरझाकर सूख गए। खिड़की के बाहर झांकते हुए, आदमी अपनी हथेली पर रखे उन फलों को देखते हुए सोच रहा था कि आते वसंत में उसकी स्त्री फिर से फलवती होगी या नहीं…!
इस कहानी के प्रकाशित होने के साथ ही मुझे अहसास हुआ कि कहानी खत्म नहीं हुई। मैं फिर से उस पर काम करना चाहती थी। उसे फिर से लिखना चाहती थी शायद किसी नए बिंदु से!
बाद में जब मैं ‘द वेजिटेरियन’ लिख रही थी, तो मुझे लगा कि उपन्यास कथा कुछ अधिक कष्टकारी हो गई है। कुछ अधिक पीड़ादायक! मैंने इसे 2003 में लिखना शुरू किया था। इसके तीन भाग अलग-अलग साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। मुझे ठीक से याद है वह 2005 का पतझड़ था, जब मैंने इसका अंतिम भाग पूरा किया।
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अंग्रेजी से अनुवाद और प्रस्तुति : उपमा ऋचा |
संपर्क : upma.vagarth@gmail.com