साहित्य का नोबेल पुरस्कार - 2023

जब मैं कुछ ठीकठाक लिखने में कामयाब हो जाता हूं, तब एक दूसरी भाषा प्रकट होती है। मूक भाषा… यह भाषा बताती है यह सब क्या और किसलिए था। यह कोई कहानी नहीं, लेकिन आप इसके पीछे तैरता हुआ सा कुछ सुन सकते हैं। एक मूक भाषा को बोलते हुए! यही बात मेरे लिए साहित्य को महत्वपूर्ण बनाती है। 

6 अक्तूबर की शाम को नोबल साहित्य पुरस्कार 2023 की घोषणा के साथ ही दुनिया भर की खोज और दृष्टि का विषय बन गए ‘जॉन फॉसे’ मूलतः हार्डेंजरफजार्ड, नार्वे से हैं। यह खड़ी चट्टानों के बीच से गुज़रने वाला नॉर्वे का दूसरा सबसे बड़ा लंबा सँकरा समुद्री मार्ग है, जो उत्तरी सागर से वेस्टलैंड के सुदूर पहाड़ों तक अपना रास्ता बनाता है। इसके लगभग आधे रास्ते पर, जहां किनारे की रोशनी अंधेरों में घुली जान पड़ती है और गहरी रंगत वाला पानी रोशनी पड़ने से चमकता मालूम होता है, वहां स्थित है गांव स्ट्रेंडबर्म। दुनिया के नक्शे पर मौजूद किसी दूसरे गांव की तरह यह गांव भी ‘जीवन के सोंधेपन’ का साक्षी है और वाहक भी। इस गांव में सड़क के नीचे की ओर दो सफेद घर हैं, जहां कवि, निबंधकार, उपन्यासकार, अनुवादक और यूरोप के सर्वाधिक सक्रिय और प्रसिद्ध समकालीन नाटककार जॉन फॉसे पले-बढ़े और जहां आज भी उनकी मां रहती हैं।

इसी गांव में साम्यवाद और अराजकताओं के मिश्रण से फॉसे के भीतर एक ऐसे व्यक्तित्व ने आकार लिया, जिसे सारंगी बजाना पसंद था, लेकिन उससे भी ज़्यादा पसंद थीं किताबें। क्योंकि उनके पन्नों में फॉसे को शब्द और अर्थ के बीच ठहरा मौन आवाज़ देता मालूम होता था। कहना न होगा कि उनके समूचे कृतित्व के पीछे यही पुकार, यही मौन है!

लगभग 50 भाषाओं में अनूदित हो चुकी उनकी रचनाएं और दुनिया भर में 1000  से अधिक बार मंचित हो चुके उनके नाटक सिद्ध करते हैं कि वह अपनी तरह के अनूठे लेखक हैं, जो अपनी रचनाओं में शब्दों के अपव्यय से बचते हुए अर्थों की लंबी पगडंडी बनाते चलते हैं। मौन के अरण्य से गुज़रती पगडंडी… यूं तो इस पगडंडी पर जॉन ने पहला क़दम छुटपन में ही रख दिया था, लेकिन आधिकारिक शुरुआत 1983 में ‘रेड ब्लैक’ उपन्यास से हुई। इसके बाद उठा हर क़दम एक मील का पत्थर बना और अंतत: उन्हें नोबल तक ले आया।

शब्दों में मौन साधने की इस यात्रा के विषय में जॉन बहुत बढ़ा-चढ़ा कर बात नहीं करते। बस इतना कहते हैं, ‘जब मैं लिखने बैठता हूँ, तो कभी भी कुछ ‘घटित’ होने का इरादा नहीं करता। बस जो लिख रहा होता हूँ, उसे सुनता हूँ और तब जो घटित होना होता है, घटित होता है। बेशक आप इसकी कई तरह से व्याख्या कर सकते हैं, लेकिन उसे समझाना मेरा काम नहीं। मैं बस लेखक हूं। मेरी व्याख्याएं आपकी तुलना में कम मूल्यवान होंगी। पर मुझे लगता है कि अगर मैं ‘ठीक’ लिख रहा हूँ तो वहां बहुत से अर्थ मिल सकते हैं। संदेश भी! तथापि मैं उसे सरल नहीं कर सकता। मैं केवल अनुमान लगा सकता हूं और वह भी उतना ही, जितना कि आप!’ अच्छे चित्र, अच्छी कविताएं और अच्छा संगीत… मुझे लगता है जो बात इन्हें ‘अच्छा’ बनाती है वह न तथ्य है, न तत्व और न पदार्थ। यह विषयवस्तु, विचार, धारणा या कल्पना भी नहीं है। वह है – स्थूल और सूक्ष्म की एकता, कार्य और कारण की युति!

शायद इसीलिए जॉन फॉसे के रचना संसार में न शब्दों का आग्रह दिखाई देता है और न अर्थ का। भाषा भी उनकी चिंता नहीं। वह केवल उस युति, उस स्थिति के लिए प्रयासरत रहते हैं, जिससे ‘अनकही को आवाज’ मिलती है।

इस बारे में टिप्पणी करते हुए नोबल समिति कहती है कि ‘वह आधुनिक कलात्मक तकनीकों के साथ स्थानीय भाषाई एवं भौगोलिक संबंधों को मजबूती से जोड़ते हैं। हालांकि किसी हद तक वह अपने पूर्ववर्तियों के नकारात्मक नजरिए को साझा करते हैं, लेकिन उनकी रहस्यवादी दृष्टि को संसार की शून्यवादी अवमानना के परिणाम के तौर पर नहीं देखा जा सकता। वास्तव में उनकी रचनाओं में मानवीय अनुभव के प्रति एक स्पष्ट संवेदनशीलता है। वह दैनंदिन की ऐसी बातों को लिखते हैं, जिन्हें हम आसानी से अपने जीवन में चीन्ह सकते हैं। उनकी पहली किताब (उनका उपन्यास) पर्याप्त ठोस ढंग से उस शैली का परिचय देती है, जो ‘फॉसे मिनिमलिज़्म’ के रूप में सर्व-ज्ञात है। साथ-ही-साथ वहां एक दुविधा, एक डर, एक बेचैनी का भाव भी है, जो बाद में उनके नाटकों में बार-बार दिखाई देता रहा। यहां हमारा सामना ऐसे शब्दों या कृत्यों से होता है, जो अधूरे लगते हैं और एक कमी का एहसास लगातार हमारे दिमाग में बना रहता है। तथापि इसमें कोई संदेह नहीं है कि रोजमर्रा की जिंदगी की अनिश्चितताओं और चिंताओं के साथ कल्पना और प्रतीकात्मकता के साथ लयात्मक भाषा उनके लेखन की अहम विशेषता है।‘

हर किसी का सिर्फ अपने जैसा,
बल्कि पूरी तरह से अपने जैसा होना ही कला है

फॉसे जब बारह-तेरह साल के थे, तब उन्होंने पहली बार स्कूल की पढ़ाई के इतर कुछ लिखा था। न्यूयार्क टाइम्स पर प्रकाशित एक इंटरव्यू में वह उस क्षण को याद करते हुए कहते हैं, ‘मुझे महसूस हुआ कि जब मैं अपने लिए, अपने आप कुछ लिखता हूँ, जिसका ताल्लुक स्कूल से नहीं होता, वह बहुत अलग एहसास होता है। बहुत निजी… मुझे ऐसा लगा कि जैसे मुझे एक ऐसी सुरक्षित जगह मिल गई है, जहां मैं ठहर सकता हूँ।’

और फॉसे ठहर गए। उस जगह, उस स्थान पर जिसे उन्होंने बारह साल की उम्र में अकेले तलाश किया था। आज वह बासठ साल के हैं और वह जगह आज भी मौजूद है। लेकिन कहीं बाहर नहीं, उनके भीतर ही कहीं… वह ख़ुद स्वीकार करते हैं, ‘वह जगह मुझमें है। मैं आमतौर पर कहता हूं कि मैं जॉन हूं। इसके बाद मेरी एक आधिकारिक पहचान है। आधिकारिक छवि! वह जॉन फॉसे है। लेकिन लेखक, लेखक का कोई नाम नहीं है।’

इसीलिए जॉन फॉसे ख़ुद को किसी एक विधा से नहीं बांधते। उनके पास अनुभव के जितने रास्ते हैं, अभिव्यक्ति के उतने ही रूप। मसलन एक जॉन है, जो कवि है। एक जॉन नाटककार है। एक जॉन उपन्यासकार है, निबंधकार है और एक जॉन अनुवादक है। लेकिन इन तमाम अलग-अलग रूपों, अलग-अलग विधाओं के बीच ‘साझा’ रंग, एक ‘साझा लय’ है और मेरे देखे वही लय, वही रंग ‘जॉन’ को ‘जॉन’ बनाती है। फ्रांस 24 वेबसाइट पर प्रकाशित एक साक्षात्कार में उस ‘लय’ का परिचय देते हुए जॉन कहते हैं, ‘मैं जो भी मैं लिखता हूं उसका अपना आकाश होता है। अपने ही नियमों से संचालित आकाश! मेरा मानना है कि जब ऐसे आकाश को रचना हो, तब ख़ुद उसमें पूरी तरह समा जाना पड़ता है। बेशक मैं ब्रेक ले सकता हूँ, लेकिन मुझे उस आकाश से सतत जुड़े रहना होता है, जिसे मैं रच रहा हूं।  मैं समझा नहीं सकता, लेकिन मेरा अनुभव कहता है कि शायद इसमें सबसे अहम चीज़ होती है ‘लय,’ जो दरअसल एक ‘बहाव’ है, जिसमें मुझे बहना होता है।’

जो मैं लिख रहा हूँ, वह पहले ही लिखा जा चुका है

आमतौर पर जॉन फॉसे फेस टू फेस इंटरव्यू देने से बचते हैं। इसके बजाय वह मेल के माध्यम से साक्षात्कार देने को प्राथमिकता देते हैं। इसके पीछे भी वही कारण है, जो उनके लेखन का कारण है, यानी शब्दों के बीच ठहरा मौन, जो उन्हें कहने से पहले कहने से रोकता है! वह कहते हैं ‘जिस चीज़ के बारे में हम बात नहीं कर सकते, उन्हें हमें छोड़ देना चाहिए।’

लॉस एंजल्स रिव्यू ऑफ बुक के लिए एमिल रूथहूट और रेमो वेर्डिक्ट के साथ हुए साक्षात्कार में जॉन ने अपने लेखन के विषय में कई मुखर स्वीकारोक्तियां कीं, ‘मैंने लेखन यात्रा की शुरुआत कवि और निबंधकार के रूप में की थी, लेकिन उसमें बड़ा मोड़ तब आया, जब मैंने नाटक लिखने शुरू किए। 15 साल तक मैंने केवल रंगमंच के लिए लिखा। यह ख़ुद मेरे लिए एक बड़े आश्चर्य जैसा था और (आरंभिक दौर में) थोड़ा रोमांचक अनुभव भी। मैं ज़्यादातर गर्मियों में नाटक लिखता था। साल के बाकी दिनों में आराम करता था। उन दिनों मैंने बहुत समय घूमने, इंटरव्यू देने में बिताया। फिर अचानक मुझे एहसास हुआ, बहुत हुआ! और मैंने घूमना बंद कर दिया। पीना बंद कर दिया। बहुत-से दूसरे काम भी बंद कर दिए और वहीं लौटने का फैसला किया, जहां से मैं आया था। माने वापस ‘अपनी शैली’ अपने ‘गद्य और कविता’ की ओर। मैंने बहुत लंबे समय से ऐसा कुछ नहीं लिखा था। मैं थोड़ा डरा हुआ महसूस कर रहा था और मुझमें नई यात्रा का जोखिम उठाने की हिम्मत नहीं थी। क्योंकि लिखना मेरे लिए अज्ञात में दाखिल होने का रास्ता है। जिसके लिए अपने मन की सीमाओं तक जाना होता और फिर उन्हें पार करना होता है। मैं अगर अच्छी मनःस्थिति में होता, तो ठीक था, लेकिन मैं बहुत कमजोर हो रहा था और यह बात मुझे डरा रही थी, क्योंकि जब आप ख़ुद को कमजोर मानते हैं तो इन सीमाओं को पार करना कठिन हो जाता है। यही वजह रही कि मैं अपनी बातें लिखने का जोखिम नहीं उठाता था। क्योंकि मैं अपने भीतर इन सीमाओं को लांघने से डरता था। जब मैं ठीक-ठाक लिखने लगा, तब मेरे भीतर यह भाव बहुत स्पष्ट रूप से प्रकट हुआ कि जो मैं लिख रहा हूं, वह पहले ही लिखा जा चुका है। वह वहां से कहीं दूर है। मुझे बस उसे पन्नों पर उतार देना है, उसके ओझल होने से पहले।’

आप मेरी किताबों को कथानक के लिए नहीं पढ़ते

सामान्यतः जॉन फॉसे के किरदार ज्यादा नहीं बोलते और जो बोलते हैं, उसमें अक्सर एक दोहराव होता है, लेकिन हर एक बार बहुत-छोटे, पर महत्वपूर्ण बदलाव के साथ। कई बार शब्दों को विराम चिह्नों के बगैर, हवा में झूलता हुआ भ्रम की स्थिति में छोड़ दिया जाता है। अक्सर यह पाठक के लिए चुनौतीपूर्ण हो जाता है, लेकिन उनकी रचनाओं को परे हटाने की कोशिश व्यर्थ है। आप बस फिर से किताब उठा लेंगे, धुन में फंस जाएंगे। क्योंकि जॉन के नाटक हों, उपन्यास हों, निबंध या कविताएं, उनमें कथ्य और तथ्य के बराबर, बल्कि कई बार उनसे भी ज़्यादा, महत्व उस बारीक ‘गैप’ को दिया जाता है जो अनुभव और अभिव्यक्ति के बीच होता है। जो शब्द और अर्थ के बीच होता है। जो कहे-अनकहे के बीच होता है।

जॉन के लिए लेखन में सबसे ज़रूरी होता है यह देखना कि कथ्य और किरदारों के बीच की दरारों, सुराखों में क्या है। इस बाबत उन्होंने 2018 में फाइनेंशियल टाइम्स में बड़ी टिप्पणी दर्ज करते हुए कहा था, ‘मैं शब्द के पारंपरिक अर्थ में किरदारों के लिए नहीं लिखता। मैं लिखता हूँ मानवता के लिए।’

उपर्युक्त टिप्पणी की रोशनी में अगर उनके साहित्य को परखें तो उनके कथानक आम तौर पर संयमित होते हैं और अनावश्यक फैलाव से बचते हैं। तथापि वे महत्वपूर्ण विषयों को संबोधित करने से नहीं कतराते। मिसाल के तौर पर जन्म और मृत्यु, प्रेम और एकांत बार-बार आने वाले विषय हैं। उनके बाद के कार्यों में, धार्मिक झुकाव भी प्रकट होते हैं। वे कहते हैं, ‘मुझ पर कई लेबल लगे : मैं पोस्ट-मोर्डनिस्ट (उत्तरआधुनिकतावादी) हूँ, मिनिमलिस्ट (न्यूनतावादी) हूँ। मैं जॉक देरीदा से प्रभावित रहा हूँ, इसलिए कहूंगा कि हां ऐसा ही है और लोगों का ऐसा कहना गलत नहीं है। बेशक, एक तरह से मैं न्यूनतावादी हूँ, और उत्तरआधुनिकतावादी भी हूँ, लेकिन अपने लेखन के लिए मैं कभी भी ऐसी अवधारणा का उपयोग नहीं कर सका। मैंने खुद पर एक अलग ही लेबल लगाया है। मैंने खुद को ‘धीमे गद्य’ का लेखक करार दिया है। इसके अलावा मैं अपने आपको कुछ भी कहलवाना नहीं चाहता।’

मैं भाषा को बहने का अवसर देना चाहता हूँ

जॉन फॉसे नार्वेजियन नाइनोर्स्क भाषा में कविता, उपन्यास और नाटक लिखते हैं। उनके इस (भाषा) चयन को कई बार राजनीति से जोड़कर देखा जाता है, लेकिन इस तरह के आरोप उन्हें सीमित नहीं कर पाते। न एक लेखक के रूप में और न एक व्यक्ति के रूप में… एक साक्षात्कार में उन्होंने इसका बड़ा ही सटीक उत्तर दिया, ‘लोग पूछते हैं कि मैं नाइनोर्स्क में ही क्यों लिखता हूं, बोकमाल में क्यों नहीं लिखता। वे सोचते हैं कि इसके पीछे मेरी कोई राजनीतिक मंशा है! लेकिन ऐसा सोचनेवाले लोगों को मैं यह बताना चाहता हूँ कि नाइनोर्स्क मेरी अपनी भाषा है और इसलिए मैं हमेशा उसमें लिखता हूं। दूसरी बात यह है कि यह मायनोरिटी की भाषा है। एक लेखक के तौर पर इसका मेरे लिए एकमात्र यही मुनाफ़ा है। शिक्षण, साहित्य और चर्च में इसका इस्तेमाल होता है, जबकि विज्ञापनों या व्यवसाय में इसका उपयोग नहीं के बराबर होता है और चूंकि इसका बहुत अधिक उपयोग नहीं किया जाता है, इसलिए इसमें एक प्रकार की ताजगी है, जो बोकमाल में नहीं होती। गाइल्स डेल्यूज़ और फेलिक्स गुआतारी ने 1975 में एक किताब लिखी थी, जिसका शीर्षक था ‘काफ्का: टुवार्ड ए माइनर लिटरेचर’। जब मैंने इसे पढ़ा तो मुझे लगा कि नाइनोर्स्क में लिखना काफ्का की स्थिति से काफी मिलता-जुलता है।’ इस क्रम में जॉन पर अक्सर ‘धीमी गति’ का आरोप लगता है, लेकिन वह इसका जवाब नाटकों में देते हैं। यूँ भी रंगमंच की प्रवृत्ति ऐसी है ही नहीं कि वहां आप बातों को लंबा खींच सकें। अलबत्ता गद्य में वह हर घटना, हर क्षण को उतना समय और उतनी तफ़सील देने की कोशिश करते नज़र आते हैं, जितनी कि उन्हें ज़रूरत लगती है। क्योंकि ‘हर भाषा हमें अपने सत्यांश तक पहुंच प्रदान करती है। भिन्न-भिन्न धर्मों के पास भिन्न-भिन्न भाषाएं हैं, जिनमें प्रत्येक के अपने-अपने सत्य हो सकते हैं या सत्य के अभाव भी…मुझे लगता है कि यह बात सोचना मूर्खतापूर्ण है कि ईश्वर को परिभाषित किया जा सकता है या तुम उसके विषय में एक शब्द भी कह सकते हो…!’

अक्सर हमारी गलतियां ही हमें सही रास्ते की ओर ले जाती हैं

हालांकि अपने नवोन्मेषी नाटकों के चलते जॉन फॉसे को अक्सर समकालीन रंगमंच के प्रवर्तक के रूप में देखा, जाना और उल्लिखित किया जाता है, लेकिन उनके भीतर कविता भी उतनी ही जगह घेरती है, जितना गद्य। याद आ रहा है नोबल साहित्य पुरस्कार मिलने से पूर्व जब किसी स्थान पर उनसे सवाल किया गया कि ‘नाटकों के बीच आप अपनी कविताओं को किस तरह देखते हैं?’ तो उनका संक्षिप्त किन्तु गहरा उत्तर था, ‘कुछ प्रवहमान और प्रक्षिप्त सा!’ यह उत्तर फॉसे के लिए सर्वथा उपयुक्त है, क्योंकि वहां कुछ है, जो सतत तैरता रहता है। बहता रहता है कवि से कविता तक और कविता से कवि तक… लेकिन यह जो बहता रहता है, तैरता रहता है कवि से कविता तक और कविता से कवि तक, वह  शब्द है, पर शब्द नहीं। अर्थ है, पर अर्थ नहीं। आवाज़ है, पर आवाज़ नहीं। मौन है, पर केवल मौन भी नहीं।

यह कुछ ऐसा है, जो अपनी चुप्पियों में बोलता है। अपने अंधेरों में रोशन होता है। अपनी सीमाओं में फैलता है और खंड-खंड होकर भी प्रकट करता है और एक अखंड चेतना! जॉन इसी चेतना के कवि हैं। वे देखते हैं कि कविता कई बार भार होती है। कई बार मुक्ति और कई बार बिडंबना, लेकिन उनके लिए, ‘कविता लिखना दरअसल कान हो जाना है। यह महज कल्पनालोक में विचरना नहीं है, यह उस चीज़ को सामने लाना है जो पहले से मौजूद है। इसीलिए जब कोई व्यक्ति किसी अच्छी कविता से गुजरता है तो उसे लगता है कि अरे यह तो मैं पहले से जानता या महसूस करता था। बस मैंने उस एहसास को अनकहा छोड़ दिया। मेरे लिए लेखन पूरी तरह से रूपांतरण की चीज़ है। मैं इस यूनिवर्स को, इस ब्रह्मांड को सुनता हूँ और मेरे लिए लिखना इस ब्रह्मांड में जा छिपने का एक तरीका है। लिखते हुए मैं खुद को जाहिर नहीं करता, खुद से दूरी बनाता हूं। निःसंदेह, मैं जानता हूँ कि मैं किस बारे में बात कर रहा हूँ। मैं अपने जीवन का उपयोग कर रहा हूँ। सब कुछ रूपांतरित हो गया है। जब मैं लिखता हूं तो मेरा अनुभव कुछ भी नहीं रहता। सब जैसे सपाट हो जाता है। मेरे अनुभवों के पंख नहीं हैं, लेकिन जब-जब मैं अच्छा लिखता हूँ, तब-तब मैं उन्हें उड़ान देने में कामयाब हो जाता हूँ।’

 

उपमा ऋचा
युवा कवयित्री, लेखिका और अनुवादक। पुस्तक एक थी इंदिरा’ (इंदिरा गांधी की जीवनी)।  वागर्थकी ऑनलाइन मल्टीमीडिया संपादक।upma.vagarth@gmail.com