वरिष्ठ लेखिका। अद्यतन कहानी संग्रह ऐ देश बता तुझे हुआ क्या हैऔर अद्यतन उपन्यास खैरियत है हुजूर

शनिवार का दिन था। दोपहर के दो बजे होंगे। मई की तपती हुई दोपहर। बाजार सूने पड़े थे और लोग लू से बचने के लिए दुकानों में या घरों में बैठे थे।

एक वही थी जो अपनी थीसिस टाईप करवाने के चक्कर में आई हुई थी।

‘मैडम, इतनी दोपहरी में।’

‘जरूरी काम है।’

‘अंदर आकर बैठ जाइए। देखिए कूलर भी कम हवा फेंक रहा है।’ अनवर कंप्यूटर पर बैठा था और मेरी फाइल खोल रहा था। इसी दुकान के बाजू में इरफान की प्रेस और ड्रायक्लीनिंग की दुकान है। मेरे कपड़े यहीं प्रेस होते हैं। साड़ियां ड्रायक्लीनिंग होती हैं। इरफान घर से कपड़े ले जाता है, ठीक दुकान के बाहर इरफान के मामू ने एक सिलाई मशीन रख ली है। वह छोटे-मोटे कपड़े सिलता है, रिपेयरिंग और अल्टरेशन का काम भी कर देता है। इन लोगों को मैं कई वर्षों से देखती आ रही हूँ। पहले एक छोटी-सी दुकान थी जिसमें ये दोनों भाई बाहर टेबल लगाकर प्रेस किया करते थे। धीरे-धीरे उन्होंने अपना काम जमाया और पहले एक दुकान खरीदी फिर दूसरी। देखते ही देखते सामने एक बड़ा खूबसूरत बोर्ड भी लग गया। ‘हिना ड्रायक्लीनर्स’। सामने रंग-बिरंगी साड़ियां टंगी थीं और बगल में कोट-पैंट बगैरह। आंटी, मिठाई खाइए। आपकी दुआओं से हमारी दुकान का उद्घाटन हो गया है।’ वसीम खुश होकर बता रहा था!

‘बधाई! बहुत खुशी हो रही है।’

‘सबसे ज्यादा काम तो आप ही देती हैं।’

‘मैं आलसी जो हूँ। टी-शर्ट से लेकर पेटीकोट तक प्रेस नहीं करती, पर तुम लोगों का काम बहुत अच्छा है।’

इरफान और वसीम का विनम्रता और शिष्टता से भरा बोलने का अंदाज मुझे बेहद पसंद था। किसी भी वक्त फोन कर दो आ जाते! कभी कोई सामान लाने को कह दो, ला देते! कभी तबीयत खराब हो जाए तो ओला बुक कर देते और मुझे उन दोनों पर इतना भरोसा हो गया था कि मैं आधी रात को भी उन्हें बुलाती तो वे आते। पैसे के मामले में भी वे इतने ईमानदार थे कि दो रुपए हों या दो सौ, हमेशा हिसाब-किताब याद रखते।

‘वसीम! मैं बगल वाली दुकान पर आई हूँ। गाड़ी में कपड़े रखे हैं उठा लेना।’

‘जी आंटी।’

‘इरफान कहां है?’

‘गांव गया है।’

‘कब तक आएगा?’

‘शायद न आए।’

‘क्यों?’

‘अरे, गांव में झगड़ा हो गया था तो दूसरे लोगों के साथ वह भी पकड़ा गया था। हम मना करते थे कि यहीं काम करो। पर उनके भीतर नेतागिरी के कीड़े बढ़ने लगे थे। नेतागिरी करेंगे तो भुगतेंगे भी। हम क्या कर सकते हैं आंटी, उसका मन तो वहीं लगता है।’

‘उसकी बातों से तो ऐसा नहीं लगता था।’

‘उन्हें इज्जत और मेहनत की रोटी रास नहीं आ रही थी।’

‘नेतागिरी का नशा कम होगा तो लौट आएगा।’

‘देखिए, क्या होता है?’ वसीम के सफेद दांत हमेशा चमकते हुए दिखाई देते थे। इधर वह मोटा हो गया था जिससे उसका पेट बाहर निकल आया था और गाल फूल गए थे। मैं बाहर निकली तो धूप थोड़ी कम हो गई थी। लू के थपेड़े भी कम हो गए थे। लोगों का निकलना शुरू हो गया था।

‘जय शनि महाराज!’ मैंने देखा एक हट्टा-कट्टा युवक तेलभरी छोटी-सी बाल्टी में शनि महाराज के प्रतीक काले पत्थर को रखे हुए है। उसी में अगरबत्ती जला रखी है। उसने माथे पर काला पट्टा बांध रखा था। आंखों में काजल लगाया था। माथे पर लंबा काला टीका लगा रखा था। गले में काली पोत की माला और हाथ में मोटा काला धागा बंधा था। उसका चेहरा डरावना लग रहा था। उसके खुले बालों के बीच उसकी आंखें भी रहस्यमयी-सी खौफ पैदा करने वाली लग रही थीं। ‘शनि का दान करिए माता जी।’ वह गाड़ी के एकदम करीब आकर कांच के अंदर चेहरा करके बोला।

‘चेहरा बाहर करो।’ मैंने कांच चढ़ाते हुए कहा।

ड्रायवर शायद पानी पीने गया था।

‘जय शनि महाराज! माता जी दान दीजिए! शनि महाराज आपका कल्याण करेंगे!’

‘क्या उम्र है?’

‘बीस साल।’

‘काम क्यों नहीं करते।’

‘क्या काम करें? दान मांग रहे हैं।’ वह दांत निपोरकर बोला। मेरा हाथ बैग को जोर से पकड़ता जा रहा था पता नहीं कब मौका लगते ही बैग छीनकर भाग जाए। मैंने धीरे से अपनी चैन को भी पल्लू के अंदर छुपाना शुरू कर दिया। वह एकदम गाड़ी से टिका खड़ा था।

‘माता जी दे दो।’

‘जाओ, आगे जाओ।’ मैंने अपना चेहरा दूसरी तरफ फेरते हुए कहा। लेकिन वह टस से मस नहीं हो रहा था।

थोड़ी देर बाद मैंने देखा, उसी उम्र के, उसी वेशभूषा में सात-आठ लड़के छोटी-छोटी अलग-अलग गलियों से निकलते हुए इसी तरफ चले आ रहे हैं, ‘माता जी शनि का दान’ कहते हुए वे सब गाड़ी के आसपास आकर खड़े हो गए।

ड्राइवर पता नहीं कहां चला गया। मैं मन ही मन घबड़ा रही थी। मैंने गाड़ी का हार्न बजाया एक बार नहीं, कम से तीन-चार बार।

आसपास की सड़क पर इक्का-दुक्का लोग अपनी धुन में चले जा रहे थे।

‘तुम लोग जा रहे हो या मैं किसी को बुलाऊं।’

‘किसको बुलाएंगी! क्यों बुलाएंगी। हमें दान दे दीजिए, हम चले जाएंगे।’ वह उद्दंडता से बोला।

‘सुबह से चार-पांच बार दान दे चुकी हूँ। अच्छा धंधा बना लिया कि कहीं से भी सामान इकट्ठा किया और शनि के नाम पर दान मांगने निकल पड़े!’

‘आप देती हैं या नहीं।’ अब वह धमकी के अंदाज में बोला।

‘नहीं दूंगी तो।’

‘तो….।’ वह लड़का कांच पर हाथ रखकर खड़ा हो गया जिसे मैंने थोड़ा-सा खोलकर रखा था।

‘सोनू मोनू उस तरफ से आ जाओ।’ उसने दूसरे लड़कों को आदेश देते हुए कहा।

‘मैं पुलिस को बुला लूंगी यदि तुम लोग नहीं हटे तो।’ मैंने चिल्लाकर कहा। मेरी गाड़ी सड़क से उतरकर दूर खड़ी थी। जहां से सूनी सड़क शुरू हो जाती थी।

‘धर्म के नाम पर ठगी करने वाले तुम सब गुंडे, बदमाश हो जो जबरदस्ती करते हो।’

‘आंटी, मान जाओ।’ वे धीरे-धीरे गाड़ी को घेरते जा रहे थे। वे सात-आठ थे और मैं अकेली।

मैंने जोर से हार्न बजाया। मैं लगातर हार्न बजा रही थी!

ये तो आंटी की गाड़ी है। उसी से हार्न की आवाज आ रही है। वसीम ने प्रेस को अलग रखकर बाहर निकलकर देखा पर आंटी तो दुकान में नहीं थी। चलकर देखना चाहिए। वसीम बाहर निकलकर गाड़ी की तरफ बढ़ने लगा। दो लड़के उसकी तरफ दौड़कर गए और उसे धक्का मारने लगे।

‘क्या कर रहे हो?’ वसीम कुछ समझता, इससे पहले ही उन्होंने जोर का धक्का मारकर उसे गिरा दिया।

‘मामू…..। मामू जल्दी आओ।’ वसीम चिल्लाने लगा, उधर बाकी लड़के कांच को खोलकर उनका पर्स छीनने की कोशिश कर रहे थे।

‘वसीम… वसीम!’

वसीम तेजी से उठा और गाड़ी की तरफ आया। एक लड़के ने उसके सिर पर बाल्टी दे मारी। बाल्टी में रखा तेल, तिल सब वसीम के सिर पर फैल गया। उसके सिर से बस काला लहू-सा बह रहा था। तेल और खून दोनों मिल गए थे।

दूसरे लड़के ने पत्थर उठाकर दे मारा। अब तक लड़ाई-झगड़े की आवाजें एक दो लोगों को सुनाई दे गई थीं और वे दौड़कर पास आ गए थे।

वसीम ने आव देखा न ताव एक जोर का तमाचा पर्स छीनने वाले लड़के के चेहरे पर दे मारा। वह हड़बड़ाकर भागने लगा। उसके हाथ में उनका पर्स था, वसीम उसके पीछे भागने लगा। बिलकुल फिल्मी तर्ज पर वे एक-दूसरे के पीछे भाग रहे थे। बाकी चार लड़के अपनी-अपनी बाल्टियां और काली पट्टियां वहीं छोड़कर भाग गए थे। अब तक वे गाड़ी से बाहर आ गई थीं।

‘क्या था पर्स में?’

‘सामान था। चाबियां थीं। रुपए रखे थे।’

‘आप भी क्यों मुंह लगती हैं। इन लड़कों को दे देती दो-चार रुपए।’

‘एकाध बार देना हो तो दे दो। हर चौराहे पर, हर गली में, हर मंदिर के बाहर ये नकली शनि भक्त घूमते रहते हैं। अगर सच्चे शनि भक्त होते तो क्या मेरा पर्स छीनकर भागते।’

‘अब चला गया न पर्स।’

‘अजीब आदमी हैं आप। बजाय उनको पुलिस को सौंपने के आप मेरी निंदा कर रहे हैं। मुझे नसीहत दे रहे हैं कितना असुरक्षित है, एक अकेली महिला का निकलना।’

तभी मैंने देखा सामने से वसीम हांफता हुआ चला आ रहा है। उसके हाथ में मेरा पर्स था।

‘देखिए आंटी सब सामान तो है।’

‘अरे तुम्हारे सिर पर गहरी चोट लगी है।’

‘मैं अभी पट्टी करवा लूंगा, उसने बाल्टी से वार किया था न।’

‘जब तक आपका ड्राइवर आता है, तब तक आप शॉप के अंदर आकर बैठिए।’

मैं वसीम की चोट को लेकर चिंतित हो रही थी पर वह तसल्ली महसूस कर रहा था, कि मैं सुरक्षित हूँ और मेरा पर्स भी मिल गया है। अब तक उसके मामू पट्टी और व्यांटमेंट ले आए थे। ‘टिटनेस का इंजेक्शन लगवाना होगा।’ मैंने उसको अनवर के साथ भेज दिया। टाइप करने वाला लड़का भी आ गया था।

‘आतंक मचा रखा है इन मांगने वालों ने। दिनभर आकर खड़े रहते हैं। कहो कि काम कर लो तो करेंगे नहीं।’

‘आंटी, आप पुलिस में शिकायत जरूर कर दीजिए।’

‘अरे छोड़िए भी, अब नहीं आएंगे।’ एक आदमी ने उनका बचाव करते हुए कहा।

‘नहीं आंटी, अगर आज आपने शिकायत नहीं की तो उनके हौसले बढ़ जाएंगे।’

‘लीजिए आंटी, पानी पीजिए। ड्राइवर भैया भी आ गए हैं, आपको गाड़ी पर रहना चाहिए न। आज शनि का दान मांगने वालों ने आंटी को घेर लिया था। एक तो उनका पर्स लेकर भाग गया था।’

अचानक ही मेरे मुंह से चीख निकल पड़ी, देखा सात-आठ लड़कों का समूह बड़े-बड़े बांस के डंडे लेकर चला आ रहा है। मैंने चीखकर कहा, ‘वसीम भागो।’ वसीम भागता तब तक उन लड़कों ने उस पर डंडे बरसाने शुरू कर दिए। वसीम लोट-पोट कर रहा था। स्वयं को बचाने की कोशिश में हाथ-पांव पटक रहा था। सड़क पर आते-जाते लोग अपने-अपने रास्ते वापस लौट रहे थे। एक बड़े सांप्रदायिक दंगे की संभावना को लेकर बातें बना रहे थे!

‘साले हमारे धर्म को गाली देता है। हमारे देवता को फेंकता है, और देगा गालियां। जबान काट लेंगे। बहुत इतरा रहा है। दुकान में आग लगा देंगे। यहां रहने लायक नहीं छोड़ेंगे।’

‘अरे झूठ क्यों बोल रहे हो। ये झूठ बोल रहे हैं…।’

लगातार बढ़ती भीड़ देखकर मेरे हाथ-पांव फूलने लगे। हालांकि पुलिस को सूचना दे दी थी। मैं पुलिस के अलावा किसी पर यकीन नहीं कर सकती थी।

करीब दस मिनट बाद पुलिस आ पहुंची। कुछ लड़के भाग गए थे और कुछ पकड़े गए थे। वसीम को काफी चोटें आई थीं। उसे तुरंत हॉस्पिटल भिजवाया गया।

मैं थाने में बैठी थी। मेरे पीछे सात-आठ लोग खड़े थे। ये वो लोग थे जो लड़ाई के समय अपनी-अपनी दुकानों में मुंह छुपाकर बैठे थे लेकिन अब नेतागिरी करने के लिए आ गए थे।

‘आंटी, याद है न क्या बोलना है?’

वे मेरे ऊपर झूठ बोलने का दवाब बना रहे थे।

‘वसीम बेकसूर है…।’

‘पर उसने हमारे देवता को गाली दी थी।’

पुलिस इंस्पेक्टर आ गया था।

‘बताएं मैडम, क्या हुआ था?’

मैंने शुरू से आखिर तक सारी घटना बयान कर दी और आखिर में यह भी बता दिया कि न तो वसीम ने किसी को गाली दी और न पहले मार-पीट की, बल्कि ये लोग मेरा पर्स छीनकर भाग रहे थे। वह मेरा पर्स नहीं छीनने दे रहा था। बाल्टी उठाकर उन दोनों ने उसके माथे पर मार दी थी। इन लोगों ने धंधा बना लिया है। शनि देवता के नाम पर दान मांगना और लोगों को आतंकित करना। पैसा न दो तो गालियां देते हैं। ये झूठे हैं।  गुंडे हैं।’

मैं लगातार बोले जा रही थी।

‘आंटी। चलिए।’

वसीम ने मेरा हाथ पकड़ा और गाड़ी की तरफ चलने लगा।

‘अपनी नाजायज औलाद को कब तक बचाएगी।’ मेरे कानों में खौलते तेल की तरह वाक्य पड़ा।

मैंने पलटकर घूरकर देखा।

‘छोड़िए भी आंटी।’

‘उन दोनों लड़कों को जेल में बंद करा दिया है। आप चिंता न करें। आज इरफान भी आ जाएगा। वह आपकी हिफाजत करेगा। हम लोग हैं न आंटी, आप बिलकुल चिंता न करें।’

वसीम ने गाड़ी का गेट खोला, मुझे बैठाया और मेरे वहां से निकलने तक खड़ा रहा।

‘अपना ख्याल रखना वसीम, मेरे कारण तुम्हारी ये हालत हो गई, सॉरी…!’ मैं अपने आंसू पोंछते हुए बोली।

‘आंटी, मैं आपके बेटे की तरह हूँ। आपकी हिफाजत करना हमारा फर्ज है।’

मैंने देखा वसीम अब भी वहीं खड़ा था।

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