वरिष्ठ लेखिका। अद्यतन कहानी संग्रह ऐ देश बता तुझे हुआ क्या हैऔर अद्यतन उपन्यास खैरियत है हुजूर

‘भाभी जी, मैं दिनेश बोल रहा हूँ। अरुण से बहुत जरूरी बात करनी है। उसका फोन नॉट रिचेबल आ रहा है।’

‘आप उनके दूसरे नंबर पर लगाकर देखें। लेकिन बात क्या है? आप बहुत चिंतित लग रहे हैं, सब ठीक तो है।’

‘बाद में बात करता हूँ भाभी जी। थैंक्स। नमस्कार।’

‘बाद में बात करता हूँ?’ ऐसी क्या बात हो सकती है। पारिवारिक बात या दोस्तों के बीच की बात या कुछ और…। उसका मन बेचैन हो उठा। सामान्य बात तो नहीं होगी अन्यथा दिनेश इतना चिंतित न होता। क्या अरुण को फोन लगाकर पूछूं। सभी दोस्तों का एक व्हाट्सअप ग्रुप है जिसमें सभी के परिवार के बारे में जानकारी शेयर होती रहती है। कब किसका जन्मदिन है। कब किसके विवाह की वर्षगांठ है। कब किसके परिवार में किस का निधन हो गया है? अरुण सुबह उठकर व्हाट्सअप चैक करते हैं। सबको मैसेज भेजते हैं। बात करते हैं। सूचनाओं का, भावनाओं का, संबंधों का, एक नया उत्साहजनक, रोमांचकारी और विराट संसार लेकर आया था व्हाट्सअप अरुण के जीवन में। हर पल नएपन की तलाश में भागता अरुण का मन नए-नए आइडिया लेकर आता। मसलन कहां-कहां घूमने जाना है? कहां किसकी बर्थडे मनानी है, किसकी मां या पिता का पचहत्तरवां वर्ष मनाना है? अरुण के साथ ही उन सबके बीच खुशियां, उल्लास, नयापन और अपनापन मानो थिरकने लगा था। लेकिन यह कौन सी खबर थी जो व्हाट्सअप पर नहीं थी।

‘दिनेश का फोन आया था। बात हो गई?’

‘हां हो गई। एक बड़ी समस्या आ गई है?’ अरुण की आवाज में दुख और चिंता थी।

‘कैसी समस्या! किसकी समस्या?’

‘हम लोग जिस अल्ताफ के घर में ठहरे थे न, फरजाना के भतीजे के घर में, उसी ने अपने माता-पिता को अपने घर से मार-पीटकर बाहर निकाल दिया है।’

‘क्यों? वो भी मार पीटकर! ऐसा क्या हो गया?’

‘क्यों का क्या जवाब दूं। घरेलू मसले हैं। बाद में बात करूंगा।’

‘घरेलू मसलों में क्या कोई माता-पिता को घर से बाहर निकालता है? अब उन लोगों का क्या होगा?’ वे लोग कहां हैं? कैसे हैं? उन्होंने पुलिस को बताया या नहीं।

‘बेचारी हमीदा मामी का एक पांव खराब है। हर तरफ से लाचार है। उनके हाथ में कुछ भी नहीं है। सारी जमा पूंजी उन्होंने इसका रिसोर्ट खुलवाने में खर्च कर दी थी।’

‘दिनेश क्या चाहता है? दिनेश तो वहीं पर है न!’

‘हम लोग विचार कर रहे हैं कि उन दोनों के लिए क्या किया जाए? फरजाना मेरी क्लासमेट थी। बहुत मानती थी। उसके जाते ही सारा परिवार बिखर गया।’

‘यहां बैठकर तुम लोग क्या कर सकते हो?’

‘वही तो सोच रहा हूँ।’

अरुण ने ग्रुप के सारे लोगों को फोन लगाया, ‘हमीदा मामी के लिए जल्द से जल्द कुछ करना है। सब लोग सोचो और एक घंटे में मुझे बताओ।’

‘अभी कहां हैं वे लोग?’

‘दिनेश के घर में। लेकिन दिनेश भी कितने दिन रख पाएगा; उसके परिवार में भी सात-आठ लोग हैं।’

‘फिर….।’

‘फिलहाल मैं बीस हजार रुपये भेज रहा हूँ।’

‘उससे क्या होगा?’

‘कुछ तो काम चलेगा।’

‘दिनेश, वहां किराए का मकान कितने में मिलेगा?’ अरुण जानकारी ले रहा था।

‘देखना पड़ेगा। कम से कम तीन-चार हजार रुपये महीना। इससे भी महंगा हो सकता है। कुछ एडवांस भी जमा करना होगा।’

‘हमलोग फिलहाल एक साल का किराया जमा कर देंगे। मैंने सभी को बोल दिया है। तुम्हारा एकाउंट नंबर भी शेयर कर दिया है।’

‘ठीक है। बहुत सदमे में हैं दोनों। रो-रोकर बुरा हाल है।’

‘हमीदा मामी और गफ्फूर मामा को जरा भी एहसास नहीं होना चाहिए कि हम उन पर दया कर रहे हैं या सहानुभूति दिखा रहे हैं। वे स्वाभिमानी, मेहनती और कर्मठ महिला हैं। गफ्फूर मामा भी कुछ न कुछ कर ही लेंगे।’

‘लेकिन ये पैसा कब तक चलेगा? धीरे-धीरे खत्म हो जाएगा! फिर? आज तुम सब दे रहे हो, जीवनभर दोगे क्या?’ उसने अरुण को ताकीद करते हुए कहा।

‘तो क्या न दूं? ऐसे ही छोड़ दूं सड़क पर भूखों मरने के लिए?

‘बिलकुल दो। देना भी चाहिए। तुम लोग नहीं करोगे तो कौन करेगा! पर कोई न कोई काम तो करना ही होगा जिंदा रहने के लिए। उन्हें भी अच्छा लगेगा कुछ काम करके।’ वह अरुण को समझाते हुए बोली।

अरुण सोच में पड़ गया। नंदा सच कह रही है, केवल पैसा दे देना समस्या का हल नहीं है। स्थायी व्यवस्था तो करनी ही होगी।

‘उनसे पूछकर देखो। पूरी जिंदगी का सवाल है। अल्ताफ कल के दिन अपनी गलती मानकर उन्हें ले भी जाता है, तब भी पैसे तो उनके पास अपने होने ही चाहिए!’

‘दिनेश, गफ्फूर मामा से बात करवाओ।’

गफ्फूर मियां अरुण की आवाज सुनते ही फूट-फूटकर रो पड़े- ‘अल्लाह किन गुनाहों की सजा दे रहा है। वो यूं बदल जाएगा, हमने कभी न सोचा था। सब कुछ तबाह हो गया! क्या करें? कहां जाएं? अल्लाह इसे कभी माफ नहीं करेगा।’

‘मामा, आप चिंता मत करो। हम लोग हैं न।’

‘सो तो है…।’

‘आप कोई काम कर सकते हो?’

‘इस बुढ़ापे में भाग-दौड़ हो पाएगी?’

‘भाग-दौड़ वाला काम नहीं। जैसे अंडों की दुकान। उसी में कोई छोटा-मोटा खाने-पीने का सामान रख सकते हैं। जो काम आप और मामी आराम से कर सको। काम करोगे तो मन भी लगा रहेगा और आपको जीवन में किसी पर निर्भर होने की जरूरत भी नहीं पड़ेगी।’

गफ्फूर मियां सोच में पड़ गए। कहां से दुकान मिलेगी? कहां से पैसा आएगा? नहीं चली तो इन सबका पैसा बर्बाद हो जाएगा। बेचारे बच्चे! बचपन में अरुण लगभग हर रोज हमीदा बानो के घर में खेलने जाता था। फरजाना के साथ पढ़ता था। ईद-बकरीद तो जैसे उसी के त्योहार होते थे। हमीदा बानो उसके पिता को राखी बांधती थी और उसके पिता हमीदा को अपनी बहिन की तरह स्नेह करते थे। ये वे साल थे, जब बच्चे स्कूल पूरा करके अपने भविष्य की तलाश में गांव-कस्बा छोड़कर अजनबी शहरों की गलियों में अपना ठिकाना तलाश रहे थे। अरुण वहां से आ जरूर गया था, लेकिन उसने कभी भी इस परिवार से अपने मन को दूर नहीं होने दिया था। फरजाना के प्रति अपनी रागात्मकता को कभी कम नहीं होने दिया था।

नंदा (अरुण की पत्नी) चाय बना रही थी। टीवी पर खबरें चल रही थीं। दो गुटों के बीच पत्थरबाजी के कारण माहौल तनावपूर्ण हो गया है। छत पर इकट्ठे पत्थरों, कांच की बोतलों का ढेर दिखाया जा रहा था। दूसरी खबर उत्तेजना से भरी थी। मासूम लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार करके उसकी हत्या कर दी गई थी। दो आरोपी इरफान और जुबैद गिरफ्तार कर लिए गए हैं। माहौल तनावपूर्ण है। पार्टी के नेता, मानव अधिकार आयोग की टीम पीड़िता के घर जा रहे हैं। सूबे के मुख्यमंत्री ने आपात बैठक बुलाई है!

रात के आठ बजे थे। यह समय सीरियल का होता है। नंदा और अरुण की मां अपनी पसंद के सीरियल देख रही थीं, मगर अरुण अब भी हँसी-ठहाकों, षड्यंत्रों के बीच ग्रुप के लोगों से बातें कर रहा था।

‘दिनेश, जल्द से एक दुकान देख लो। मामा अंडा-ब्रेड-बटर और रोजमर्रा की चीजें बेच सकते हैं।’ दिनेश अब भी तनाव में था। तनाव का कारण था हमीदा बानो और गफ्फूर मामा का यूं निष्कासित किया जाना। सारा परिचित समाज इस घटना से सदमे में था।

फिर सबने मिलकर एक छोटी सी दुकान तलाशी। किराए की दुकान। एग्रीमेंट बनवाया गया।

इधर नंदा ने टीवी चैनल बदला। चैनल पर अलग-अलग पार्टी के प्रवक्ता, जानकार लोग राजनीतिक विश्लेषक गला फाड़कर बहस कर रहे थे। हर चैनल पर यही बहस का मुख्य मुद्दा था कि कौन-कौन सी मस्जिदों के अंदर मूर्तियां और प्रतीक चिह्न मिले हैं। इतिहास को खंगाला जा रहा था। शब्दों की, भाषा की मर्यादा का चीरहरण हो रहा था। इन सबको अपने परिवार की, बच्चों की चिंता के बजाय, देश की चिंता थी। ये सब देश की चिंता में मरे जा रहे थे। सांप्रदायिक घटनाओं, हिंसा, लव-जिहाद और हत्याओं को ग्लोरीफाई किया जा रहा था। चीख-चीखकर आरोप-प्रत्यारोप का यह दौर लगातार चलता रहता, अगर अरुण ने चिल्लाकर टीवी बंद करने के लिए न कहा होता।

‘इन धर्मगुरुओं, मौलानाओं और शहर में बैठे नेताओं को नहीं मालूम है कि दूर देहातों के लोग कैसे आपस में अपना जीवन जी रहे हैं। ये सब नाटक करते हैं टीवी पर। इनका दोगला चेहरा और दोगली बातें सुन-सुनकर कान पक गए हैं।’

‘छोड़ो भी, टीवी चैनल को अपनी टीआरपी बढ़ानी है। तुम अपनी चाय पियोे। क्या हुआ?’ नंदा ने टीवी बंद करते हुए कहा।

‘दिनेश ने दुकान फाइनल कर दी है। सालभर का किराया इकट्ठा हो गया है।’

‘बहुत अच्छा। वे लोग काम करेंगे तो मन लगा रहेगा! मेरा यही तो कहना था।’

‘और कितने पैसों की जरूरत पड़ेगी?’

‘लगभग एक लाख की।’ दिनेश फोन पर सारा हिसाब-किताब समझा रहा था।

‘बस इतना ध्यान रखना कि अल्ताफ वहां न आ सके। हमीदा मामी से कहना कि हम लोगों के रहते उन्हें चिंता करने की जरूरत नहीं है।’

‘घर में किराना भर दिया है। पलंग और कपड़े भी ला दिए हैं। गैस चूल्हा मेरे पास था वह दे दिया है। अब वे अपने घर में रहकर खुश हैं। अरुण, कितने लोग उनकी मदद करने के लिए आ गए थे। हमीदा मामी और गफ्फूर मामा को लोग बहुत प्यार करते हैं। मुझे तो लग रहा था वे लोग कहीं गुस्से में आकर अल्ताफ की पिटाई ही न कर दें।’

‘हां यार, सबने मदद की एक दो को छोड़कर। उनका कहना था कि अल्ताफ तो सारी जिम्मेदारियों से मुक्त होकर ऐश की जिंदगी जी रहा है। बूढ़े मां-बाप की सेवा से छुटकारा मिल गया है उसे तो।’

‘उसको तो मैं बताऊंगा। तुम लोग चिंता मत करो। फरजाना का लिहाज करके चुप रहता था, पर उसके जाते ही उसने अपनी औकात दिखा दी।’ अरुण का मन अब जाकर चिंतामुक्त हुआ। वह पिछले कई दिनों से फोन करते-करते, बात करते-करते जैसे थक गया था। हमीदा मामी और गफ्फूर मामा का चेहरा आंखों से जाता ही न था।

दूसरे दिन की बात है। चाय पीकर वह बाजार जाने के लिए तैयार हो रहा था कि तभी फरजाना की बेटी अर्शी का फोन आ गया। वह भोपाल में रहकर नर्सिंग का कोर्स कर रही है। पेइंग गेस्ट बनकर एक पुरानी और सस्ती कॉलोनी में रह रही है। फरजाना ने ही अरुण का मोबाइल नंबर दिया था कि वक्त-वेवक्त वह अरुण को फोन लगा सकती है।

‘अंकल…।’

‘क्या बात है बेटा?’

‘अंकल…।’ वह फूट-फूटकर रो रही थी। उसकी हिचकियां साफ सुनाई दे रही थीं।

‘मामू ऐसा करेंगे मैं सोच भी नहीं सकती थी। क्या हो गया मामू को?’

‘बेटा तुम चिंता मत करो। तुम्हारे नाना-नानी ठीक हैं। तुम्हें अपनी पढ़ाई पर ध्यान देना है। अब तुम्हीं को उन्हें संभालना है।’

‘आप लोग न होते तो उनका क्या होता?’

‘अरे पगली। हम लोग कोई पराए थोड़े हैं। मामा-मामी ने हमें इतना प्यार दिया है कि… हमारा तो आधा समय तेरे नाना-नानी के घर में ही बीतता था। कितने आम, अमरूद और शहतूत खाए होंगे हमने, और मेरा तो ज्यादातर बचपन वहीं बीता था।’

‘मैं जाना चाहती हूँ। ईद पर उनके साथ रहूंगी तो उन्हें भी अच्छा लगेगा।’

‘तुम्हारी अम्मी ने तुम्हें कभी नहीं बताया कि अल्ताफ क्या चाहता था?’

‘अम्मी ने भी अपना सारा पैसा उनके रिसोर्ट में लगा दिया था यह सोचकर कि सब मिलकर रहेंगे। बाकी मुझे नहीं मालूम अंकल।’

‘अच्छा छोड़ो भी। तुम कब जाना चाहती हो?’

‘कल रात।’

अरुण ने मिठाइयां, फल, मेवे और कुछ कपड़े खरीदे और अर्शी के पास जा पहुँचा।

बेटा, रात में बस स्टैंड पर तुम अकेली कहां जाओगी? मैं और तुम्हारी आंटी तुम्हें छोड़ने चलेंगे।’

‘अंकल, आप परेशान हो जाएंगे। मैं तो हमेशा से इसी बस से जाती रही हूँ।’

‘फिर भी बेटा, जानते हुए तुम्हें अकेले कैसे जाने दें। तुम अपना पता भेजो, लोकेशन भी।’ नंदा ने कहा। वे दोनों खोजते-खाजते उस गली में पहुंचे जहां अर्शी रहती थी। यह एक घनी बस्ती थी। दोनों तरफ दुकानें और ठेले ठंसे थे। बीच-बीच में गलियां जो या तो बहुत गंदी थीं या अंधेरे में डूबीं।

‘ऐसी गंदी जगह में रहती है अर्शी?’ नंदा ने चारों तरफ देखते हुए कहा।

‘अंकल, मैं आपको यहां नहीं बुला सकती। मकान मालिक को पसंद नहीं है कि कोई भी यहां मिलने के लिए आए। दस तरह के सवाल पूछते हैं। शक भी करते हैं।’

‘हम बाहर खड़े हैं। फूलों की दुकान के पास।’

लगभग पंद्रह मिनट के इंतजार के बाद उन दोनों ने देखा कि एक दुबली-पतली लड़की हाथ में बैग और थैले टांगे अपने पांवों को घसीटते हुए चली आ रही है।

‘अंकल!’ अर्शी ने पुकारा।

उन दोनों ने देखा, सामने अर्शी खड़ी है। उसकी परछाई लंबी होकर सड़क पर पड़ रही थी। उसने आंखों में काजल लगाया था। बालों को रबर से बांधा था। स्ट्रीट लाइट में भी उसकी आंखें चमक रही थीं। वह इतनी दुबली दिख रही थी कि नंदा उसको एकटक देखे जा रही थी।

‘कुछ खाती-पीती भी हो या नहीं।’ नंदा ने मुस्कराकर कहा।

‘खाती हूँ न आंटी, जो मिलता है वही।’ अर्शी हँसकर बोली।

हँसते हुए उसके दांत सुंदर लग रहे थे। उसकी आंखों में दिए की ज्योति चमक रही थी। वह सचमुच बहुत सुंदर लग रही थी।

‘अंकल इतना सामान।’ अर्शी को इस नए सामान को भी जमाकर रखना था।

‘हमारी तरफ से मामा-मामी को देना।’ सिर पर हाथ रखते हुए अरुण ने कहा।

ग्यारह बजे की बस थी।

बस खचाखच भरी थी। ईद के लिए लोग अपने घर अपनों के पास लौट रहे थे। बस में दो तीन महिला सवारी थी। पूरी रात्रि का सफर था। इस भीड़ भरी बस में अर्शी को बैठाते हुए और इस कल्पना मात्र से कि सघन जंगलों के बीच अंधेरी सड़क पर दौड़ती बस में अर्शी अकेली जाएगी उन दोनों की रूह कांप उठी। दोनों के मन चिंता से घबराने लगे। उनको लग रहा था जैसे वे अपनी बेटी को विदा कर रहे हों।

‘आंटी।’ कहकर अर्शी नंदा के गले से लिपट गई- ‘थैंक्यू।’

‘जाकर फोन करना। नाना-नानी को समझाना। हौसला देना कि वे जरा भी चिंता न करें। हमलोग बहुत जल्द उनसे मिलने आएंगे। ईद अच्छे से मनाना।’

‘जी।’ अर्शी ने अपनी सीट पर बैठते हुए कहा।

बस के रवाना होते ही वे दोनों वापस लौट आए। अब रात के बारह बज चुके थे। सड़कें खाली होती जा रही थीं। शोर थमता जा रहा था। कहीं-कहीं अंधकार में डूबी सड़कें भय पैदा कर रही थीं।

घर आकर अरुण ने राहत की सांस ली।

‘अच्छा किया जो अर्शी से मिल आए।’

‘पता नहीं आज देश को क्या हो गया है। लोगों को क्या हो गया है? बच्चे इतने स्वार्थी कैसे हो सकते हैं? अल्ताफ का चेहरा देखकर कोई सोच सकता था कि वह अपने पेट में इतना बड़ा पाप और दुष्टता लेकर बैठा है।’ अरुण गुस्से में बोले जा रहा था।

‘अब छोड़ो भी। अभी तो सब ठीक है।’

‘छोड़ें। कैसे। …नंदा, उसने अपने मां-बाप पर हाथ उठाया है। उनके जीवन भर की मेहनत को मिट्टी में मिला दिया। उन्हें बेघर कर दिया।’

‘तुम जो कर सकते थे किया न, फिर…। आगे भी सब ठीक होगा।’ नंदा ने उसे उस विषय पर विराम लगाते हुए कहा।

‘न्यूज तो लगाओ।’

‘न्यूज में क्या होगा, वही सब! बहसें, आरोप, गालियां!’

‘फिर भी पता तो होना चाहिए।’

देश के किसी एक प्रदेश में मॉव लिंचिंग की घटना घटित हो गई थी। उसी पर बहस चल रही थी। शहर में तनाव था। दुकानें, बाजार बंद थे। पुलिस गश्त लगा रही थी। घायल हुए व्यक्ति का बचना मुश्किल था। परिवार वाले धरने पर बैठे थे। राजनीतिक पार्टियां आंकड़े गिनाने में लगी थीं।

‘उफ… लोगों को यही सब करने को बचा है क्या? धंधा पानी क्यों नहीं करते!’

‘काम-धंधा मिले तब तो करें।’ नंदा ने चिढ़कर कहा।

‘क्यों, जब हमीदा मामी और मामा इस उम्र में कर सकते हैं तो ये निठल्ले, आवारा क्यों नहीं कर सकते? कोई भी काम कर लें। जहां देखो वहां भीड़ लगाकर खड़े हो जाते हैं।’

‘तुम सबने सपोर्ट किया तब कर पाए न…।’ इनको कौन सपोर्ट कर रहा है? बताओ।’ नंदा का स्वर ऊंचा हो गया था। अरुण जानता है नंदा इस विषय पर दो घंटे बोल सकती है।

‘अच्छा टॉपिक बदलो और अर्शी को फोन लगाओ।’ अरुण ने नंदा से कहा।

‘हां अंकल, कोई परेशानी नहीं है। आप चिंता न करें। मॉर्निंग में कॉल करती हूँ। ओके अंकल। गुड नाइट। अब आप सो जाइए अंकल। रात के ढाई बजे हैं आप जाग रहे हैं अभी तक! क्यों? मेरी चिंता में। अंकल, आपके होते हुए मैं अकेली कहां! हां, बस में साथ बैठे लोग भी ठीक हैं। कॉल करती हूँ। गुड नाइट अंकल। खुदा हाफिज।’

लेकिन अरुण अब घड़ी की तरफ देख रहा था कि कब सुबह हो और कब अर्शी अपने घर पहुंचे और कब वह अर्शी से बात करके सबका कुशल-क्षेम पूछे।

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