वरिष्ठ कवि-कहानीकार। ‘समकालीन हिंदी कविता : व्यंग्य और शिल्प’ (आलोचना), ‘सुहैल मेरे दोस्त’ (कविता संग्रह) और ‘हवेली’ (कहानी संग्रह)।
महोख चिड़िया से
मौका मिला अगर
तो दोस्ती करूंगी तुमसे महोख
तुम जो किसी भी झुंड से दूर
अपने आपमें मस्त
लोक कथाओं में घुसी हुई बेधड़क पात्र सी
सुनहरे लंबे पंखों वाली अलबेली महोख
शायद कभी सीख सकूं
तुम्हारी भाषा और जान सकूं
तुम्हारी जिंदगी जिसमें
उल्लास है मजबूरी नहीं
यात्राएं हैं यातनाएं नहीं
बच्चों से प्रेम है मोह नहीं
पर पिंजरे में दिख जाओ कभी
ऐसी परजीवी नहीं हो
मिल जाओ सामने कभी अगर
तो पूछूंगी घर बनाने का हुनर
और उड़ान साधने की नजर
ढूंढ़ती रहती हूँ पर दिखती भी कहां हो
अंत में तुमसे जरूर पूछूँगी कि
जो एक समय उड़ना चाहती है
उसी समय जमीन पर
क्रांतिकारी परिवर्तन भी चाहती है
क्या तुम भी
वाम की ओर झुकी स्त्री की तरह हो
ओ मेरी सोनचिरैया
मुझे तुम्हारी आवारगी से प्यार है
एक हूक सी उठती है
जब तुम
अकेली टहलती हो तिरछी नजर रखकर
और ‘आओ छू लो’ की आवाज दे
तीर की तरह
आकाश की उजली ऊंचाइयों में उड़ जाती हो!
रोना
खाने का पहला कौर
उठाते ही मन दुख से भर जाए
आंखों में आंसू छलक आए
तो आओ न, रो लो जरा
पुरुष हो तो क्या हुआ
अपने भीतर देखो
वही डर वही मासूमियत है
कितनी बार रोए हो बचपन में
रोने को दोस्तों का
साथ जो मिल जाता था
तो आज क्यों नहीं
ऐसा बड़ा क्यों हुए
जो छिपानी पड़ीं बातें इतनी
सोचो जरा
अगर तुम भी स्त्रियों की तरह रोते होते
तो नदियां नहीं सूखतीं
प्यार एकतरफा न होता
राह चलती लड़की
इतनी भयभीत न होती
घरों से कर्कश आवाजें न आतीं
किसी सुधार से चीजें
इतनी नहीं सुधरती हैं
जितना रोने से
झूठा अहं ढल जाता है
सोचो जरा
अगर तुम रोते होते
गिले शिकवे पल में दूर हो जाते
गुजरे जमाने भी लपक-झपक
कर वापस आते
फिर अप्रेम के थोड़े से पानी में
इस तरह हम सबको डूबना न पड़ता
तुम रोते होते तो प्रेम लबालब भरा रहता।
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