प्रस्तुति : विनोद कुमार यादव

शोध छात्र, विद्यासागर विश्वविद्यालय, मेदिनीपुर

कोरोना ने पूरे विश्व को हिला दिया है। अब वैक्सिन आने के बावजूद उसका दूसरा आक्रमण सामने है। दुनिया में जिस एक मुद्दे पर हाल के दशकों में सबसे ज्यादा चर्चा हुई है, वह कोरोना से होनेवाली क्षति और एक सुरक्षित विश्व के निर्माण को लेकर है।

उत्तर-कोरोना समाज आज सिर्फ आर्थिक संकट से ही नहीं घिरा है, वह कई सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक समस्याओं से भी जूझ रहा है। शिक्षा, कला और संस्कृति की दुनियाओं में कुछ हलचलों के बावजूद एक ठहराव आया है। कई गतिविधियां स्थगित हैं। काफी लोग अकेलेपन, निस्सहायता और अवसाद से घिरे हैं। इस बीच अंधविश्वास और झूठी खबरें कम नहीं फैलाई गई हैं। गैब्रियल गार्सिया मार्केज ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास में एक काल्पनिक उत्तर-महामारी के प्रभाव का चित्र खींचते हुए दिखाया है कि लोग स्मृति-ध्वंस के शिकार हो चुके हैं। क्या हम भी बहुत कुछ खो रहे हैं जो बहुमूल्य है? कोरोना महामारी के सामाजिक, सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक असर को लेकर विमर्श चल रहे हैं। इसी संदर्भ में ‘वागर्थ’ की यह परिचर्चा है।

 

सवाल

(1) कोरोना महामारी ने विश्व जनजीवन पर कैसे प्रभाव डाले हैं? उनमें क्या सकारात्मक है और क्या नकारात्मक?

(2) इस महामारी ने देश में सांप्रदायिक सौहार्द को किस तरह प्रभावित किया है या मानवता में किस तरह आस्था बढ़ाई है?

(3) लॉकडाउन से पारिवारिक जीवन किस प्रकार प्रभावित हुआ?

(4) कोरोना महामारी के दौरान सोशल मीडिया की क्या भूमिका थी? अफवाहों और अंधविश्वासों के प्रसार तथा इसके दुष्परिणामों के बारे में आपके विचार क्या हैं?

(5) कोरोना महामारी की आर्थिक मंदी बढ़ाने में क्या भूमिका है? यह किनके लिए आपदा है और किनके लिए अवसर है?

(6) कोरोना महामारी की वजह से जो आर्थिक समस्याएं बढ़ीं, उनका किस तरह सामना किया जा रहा है?

मृत्युंजय

प्रबुद्ध संस्कृति कर्मी और लेखक।

कोरोना ने पहिया उल्टा घुमा दिया, पर गंतव्य नया है

कोरोना? कोरोना??

एक समय था जब कोई दफ्तर नहीं जा रहा था। दुकानें बंद थीं। मंदिर के सब दरवाजों पर कुंडी चढ़ गई थी। आसमान खाली था। विमान धरती पर सूख रहे थे। आदमी घर में था। जो डर गया वो मर गया की बात नहीं थी। जो डरा  है, वही बचेगा और वही बचाएगा- यह नई सीख थी। शहर के सन्नाटे की खबर जंगल में फैल गई थी। तेंदुआ शहर की खबर लेने आ गया था। हिरण और बारहसिगें हाईवे पर आने लगे थे। नीलगायें निकल आई थीं। फसल तैयार, पर उन्हें कोई रोकनेवाला नहीं था। लॉकडाउन में ये हालात थे।

भारत में पहला केस तीस जनवरी को मिला था। केरल में। तीस जनवरी भारतीयों के लिए एक शोकपूर्ण तारीख है। इस दिन उनकी हत्या हुई थी जो हमें निर्भय होना सिखा रहे थे। उसी तारीख को कोरोना का मर्ज मिला। डर मिला। डर अब भी हमारा हमसफर है।

कोरोना चीन के वुहान शहर में प्रकट हुआ और पूरी दुनिया मे फैल गया। यह शरीर ढूंढ़ता है। एक की देह से दूसरे की देह में उतरता है। माइक्रोस्कोप से भी नहीं दिखता। नन्हा, मगर आदमखोर। हर मुल्क बेबस, बाजार जार-जार। दुनिया के विकास की मीनार जो चमचमा रही थी, चने का झाड़ निकली, जिसपर गौरैया भी घोंसला बना कर निश्चिंत नहीं हो सकती थी। सवाल था दुनिया की आठ सौ करोड़ की आबादी का। दुनिया के दरवाजे पर भुखमरी थी। विकास का ज्वालामुखी फट गया। देशवासी भी प्रवासी कहलाने लगा।

विश्व बाजार के इंजीनियरों ने उत्पादों की बिक्री के लिए नेटवर्किंग की एक ऐसी पद्धति विकसित की, जिसे बाईपास मार्केट कहा जा सकता है। यह पद्धति अपनी एक सेना तैयार करती है, जो उत्पाद के लिए  बाजार का विस्तार करती है। अमेरिका हो या चीन, दोनों के लिए बाजार अहम है। आदमी है एक संसाधन भर जो संवेदना, संवेग और सोच से रहित कल पुर्जा है। वह व्यवस्था और बाजार का उपनिवेश बनता गया है। अब हम एक कंधे पर बाजार और दूसरे कंधे पर कोरोना  भुगत रहे थे। मास्क और सैनिटाइजर हमारे जीवन साथी बन गए थे।

चीन ने संभवतः कोरोना के विष में छिपे हुए अवसर को पहचान लिया था। वह कई स्तरों पर सक्रिय और संजीदा था। विश्व का वित्तीय ताज चीन के मस्तक पर दस्तक देने लगा था। व्यापारी व्यवस्था की भूख और क्या हो सकती है? अपार,  असीमित और अमर्यादित अर्जन। चीन की व्यापारिक व्यवस्था उसकी अपनी अनूठी व्यवस्था नहीं है। यह दुनिया में फल-फूल रहे विकल्पहीन खुल्लमखुल्ला व्यापारिक राज की एक बानगी है। बानगी नहीं, जलवा है- जानलेवा।

ज्ञान के मामले में हमारे देश के कई नेता अमेरिका के राष्ट्रपति से टक्कर ले रहे थे। एक ने संजीदगी से कहा था, ‘कोरोना धूप सेंकने भर से ठीक हो जाएगा।’ हौसला यह था कि आखिर कोई महामारी उनकी महाशक्ति की सीमा में मनमानी कैसे कर सकती है?

लेकिन कोरोना ने केवल नागरिकों का शिकार नहीं किया, वह अर्थव्यवस्था पर भी आघात कर गया। अर्थव्यवस्था शिकार हुई तो होश ठिकाने आए। घिग्घी बंध गई। जिस अमेरिका को कोई आंखें नहीं दिखा सकता था, कोरोना ने उसकी बांहें मरोड़ दीं। कमर टूट रही थी उसकी। हथियारों को अपनी क्षमता पर तरस आया  होगा। जर्मनी जैसे अमीर देश की कमर ऐसी टूटी कि निजात पाने के लिए जर्मनी के वित्त मंत्री को खुदकुशी करनी पड़ी। इटली और स्पेन यूरोपीय संघ के देशों की उपेक्षा से ऐसे बिलबिलाए थे कि इटली में सोशल मीडिया में ईयू के झंडे जलाने के वीडियो वायरल हुए। कोरोना ने यूरोपीय संघ के वजूद पर सवाल उठा दिए, सोशल डिस्टेंसिंग का शाब्दिक अर्थ साकार होने लगा था।

कोरोना ने विकल्पहीन व्यापारिक राज में आदमी की औकात का खुलासा कर दिया है। आदमी मात्र एक संख्या है। कोरोना एक ऐसा वायरस है जिसने हमें सिखाया : तुम्हारा चेहरा और तुम्हारे हाथ दोनों अलग-अलग इकाई हैं, इनमें दूरी होनी चाहिए। सामाजिकता मौत की संवाहिका हो सकती है,  इसलिए सामाजिकता से बचो।

भारत जैसे विकासशील देश में नेशनल रजिस्टर ऑफ बेघर बनाने की जरूरत पर कभी गौर नहीं किया गया था। सरकारें इससे बेखबर थीं कि शहरों में बेघर लोग भी रहते हैं। टीवी के इतिहास में पहली बार यह हुआ कि पर्दे पर इन्हें पैदल चलते हुए प्रमुखता से दिखाया गया। एंकर डरे हुए थे। चिंतित थे कि विषाणु इन बेघर शरीरों में अपना घर बना सकते हैं। बेघर लोग विषधर हो सकते हैं। डर बेबुनियाद नहीं था। यह भी कम दिलचस्प नहीं था कि बेघर लोग जब पैदल चलते हुए अपने फटे कटे तलबे की पीड़ा झेल रहे थे, अपने धोनी और कपिल देव मजबूत घर के लिए उसी पर्दे पर टीएमटी बार बेच रहे थे। माधुरी दीक्षित घर के लिए ग्रिल बनाने के लिए स्टील बेच रही थीं। ‘शो मस्ट गो ऑन’ बाजार का एक निर्मम नीति वाक्य है।

भारत में भी बुलेट स्पीड का स्वप्न दिखाया गया, जिससे होड़ लेता हुआ कोरोना आया। इसने अपनी असीमित गति से हमारी गति खत्म कर दी।  यह विषाणु भविष्यहंता भी है।

कहा गया कि कोरोना की वजह से आर्थिक मंदी आई। मंदी माने बाजार खराब। बाजार खराब माने खरीददार कम। खरीददार कम, यानी व्यापारी औने-पौने दाम में माल बेचने को मजबूर। क्या हालात ऐसे बने? अगर हालात ऐसे बनते तो जनता को चीजें सस्ती मिलतीं। हुआ यह कि जीवन यापन की हर चीज महंगी होती गई। देश की बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लाभ बढ़े। ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री बढ़ी। शेयर के दाम चढ़े। सोने की कीमत चढ़ी। पेट्रोल की बढ़ी। बिजली महंगी हुई है। ट्रेन के किराए बढ़ाए गए। यह कैसी मंदी है कि बड़े व्यापारिक घरानों की बन आई? कोरोना के बहाने लाभ का केंद्रीकरण बढ़ गया। सरकार जो चाहती है करती है। कोरोना की वजह से निजीकरण की अंधी आंधी तैयार हुई। रेलवे और एअरपोर्ट बेचने के सुअवसर निकले। क्या इस मंदी में विलासी प्रवृत्ति में कोई कमी आई है? विलासिता के खर्च कम हुए हैं?

कोरोना के कहर से अगर किसी की कंपकंपी बढ़ी है तो वह जनता है। बेरोजगारी की गाज गिरी है। वेतन कटौती की कुल्हाड़ी चली है। काम के घंटे की सीमा टूटी है। पढ़ने-पढ़ाने की रीति बदल गई है। नई रीति कुछ ऐसी बनी है कि शिक्षा वंचितों की संख्या कमने के बजाए कुलांचे भरेगी। पहिया उलटा घूमने लगा है, मगर वह किसी पुराने स्टेशन पर नहीं पहुंचाएगा। बिलकुल नया गंतव्य है!

डॉक्टर्स एंड डॉक्टर्स, शॉप नं. एफ 20, एनबीसीसी शॉपिंग सेंटर, राजारहाट, कोलकाता-700156 मो.9433076174

वैभव सिंह

चर्चित आलोचक। दिल्ली के अंबेडकर विश्वविद्यालय में अध्यापन।

कोरोना ने नई अर्थव्यवस्था की सीमाओं को उजागर किया है

(1) इस महामारी ने विश्व को एक पिंजरे में कैद कर लिया है और उसके आर्थिक तथा सामाजिक जीवन को क्षतविक्षत कर दिया है। जब भी महामारियां आती थीं तो उसका ऐसा वैश्विक प्रभाव देखने को नहीं मिलता था, जैसा इस बार देखने को मिला है। इस कारण पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है और बीबीसी के एक अध्ययन के मुताबिक विश्व की कुल जीडीपी में लगभग साढ़े चार फीसदी की गिरावट आई है जो 1930 की महामंदी के बाद का सबसे गंभीर संकट है। भारत में इसका सर्वाधिक नकारात्मक प्रभाव व्यापक बेरोजगारी के रूप में प्रकट हो रहा है और आंकड़ों के अनुसार लगभग दो करोड़ से अधिक ‘सैलरीड’ लोगों ने अपनी नौकरियां गंवा दी हैं।

भारत जैसे देशों में बेरोजगारी का संकट पहले से ही विस्फोटक स्तर पर रहा है और हम जिसे ‘जाबलेस ग्रोथ’ कहते हैं, वह अब और बड़ी वास्तविकता बनती जा रही है। पहले तो उद्योग व सरकार पर थोड़ा बहुत दबाव भी था कि वह आर्थिक विकास को रोजगार सृजन से जोड़े। पर अब करोना के दबाव में उसने उद्योगों को इस बात की खुली छूट प्रदान कर दी है कि वह ‘रोजगारमुक्त विकास’ के माडल पर काम करे। वह केवल अपने मुनाफे की चिंता करे और उसकी संपत्ति में बढ़ोतरी में ही देश का विकास निहित है। पिछले दिनों ही देश की सरकार की तरफ से संसद में यह बयान आया कि निजी क्षेत्र में संपत्ति पैदा करनेवाले वस्तुतः देश के विकास में सहायक हैं और जब तक संपत्ति बढ़ेगी नहीं तब तक उसका वितरण नहीं किया जा सकेगा। वास्तव में यह साहसिक नहीं, बल्कि प्रतिक्रियावादी आर्थिक नीति है जिसका एक सिरा रजवाड़ों व सामंतवाद से और दूसरा सिरा लूटपाट करने वाले अफ्रीकी-लैटिन अमेरिकी देशों के उद्योगपतियों से जुड़ा हुआ है। पुराने सामंत भी यही कहते थे कि उनके ऐश-विलास तथा दौलत ही राज्य की ताकत के प्रतीक हैं। ‘प्रीडेटरी’ पूंजीवाद यही मानता है कि समाज की 99 फीसदी आबादी को पहले एक फीसदी आबादी की संपत्ति बढ़ने का इंतजार करना पड़ेगा और फिर उसे कोई लाभ मिलेगा। इस प्रकार करोना के बाद देश के चंद बड़े उद्योगपतियों तथा सरकार ने एक और मजबूत गठबंधन कायम कर लिया है जो जनता के रोजगार तथा बुनियादी सुविधाओं के सवालों की उपेक्षा कर रहा है। पहले हमारी आर्थिक नीति का संबंध सामाजिक जनकल्याण से था पर अब खुलेआम उद्योगपतियों को असीमित धन-दौलत कमाने, देश के प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा करने का अधिकार प्रदान कर दिया गया है। उद्योगपतियों द्वारा नियंत्रित पूरा मीडिया ऐसे विचारों का प्रचार कर रहा है। यह कोई नहीं पूछ रहा है कि जिन्हें ‘वेल्थ क्रियेटर’ कहा जाता है, उसी वर्ग ने आखिर देश में अरबों रुपये का टैक्स क्यों नहीं चुकाया है। अमीरों का लगभग 3 लाख करोड़ रुपये का लोन माफ कर दिया गया जिसे बैंकिंग की भाषा में ‘राइट ऑफ’ कहा जाता है। इससे भी गंभीर बात यह है कि कोरोना का लाभ उठाकर देश में श्रमशील जनता के अधिकारों में व्यापक कटौती की जा रही है। आने वाले अप्रैल महीने से 12 घंटे की नौकरी के नियम को भी लागू किया जा सकता है। इस प्रकार आम जनता को शिकागो से उठे आंदोलन के बाद जिस 8 घंटे की नौकरी का अधिकार मिला था, वह खत्म कर दिया जाएगा।

(2) दुनिया के शायद ही किसी देश में कोरोना महामारी की आड़ में देश के सांप्रदायिक सौहार्द को बिगाड़ने का ऐसा कुचक्र रचा गया होगा जैसा भारत में हुआ। विभिन्न प्रांतों में लव-जिहाद के कानून इसी दौर में बने तथा इसी दौर में मंदिर का शिलान्यास हुआ। तबलीगी जमात के नाम पर भी देश की मीडिया ने विषबीज बोने में कोई कसर नहीं उठा रखी। इस समय देश में हिंदू-मुस्लिम संबंधों को लगातार सोशल मीडिया के माध्यम से बिगाड़ा जा रहा है और सरकार किसी प्रकार की कार्रवाई करने में रुचि नहीं ले रही है।

ऐसा प्रतीत होता है कि महामारी की समस्या से ध्यान हटाने के लिए लोगों को सांप्रदायिकता की विचारधारा में दीक्षित किया जा रहा है। सरकारी नीतियों की आलोचना करने वाले तो गिरफ्तार हो रहे हैं, पर सांप्रदायिक घृणा फैलाने वालों को सरकारी संरक्षण प्राप्त है। देश के मीडिया संस्थान अपनी स्वतंत्रता को खोकर पूरी तरह सरकार की नीतियों व विचारधारा के प्रचारक बन चुके हैं जो चिंताजनक है। पर अच्छी बात यह है कि लोग समझ रहे हैं कि सरकार जिन सांप्रदायिक नीतियों की पोषक है, उसका स्वीकार करना उनके हित में नहीं है। इसलिए सरकार के अमर्यादित तथा असंयमित आचरण की तुलना में आम जनता, जो बहुधार्मिक तथा बहुसांस्कृतिक है, अधिक समझदारी तथा संयम का परिचय दे रही है। इसकी सर्वश्रेष्ठ मिसाल किसान आंदोलन है जिसकी तुलना आतंकवाद तथा शातिराना ढंग से शाहीन बाग से की गई, पर किसान आंदोलन ने बेहद परिपक्वता से इसका सामना किया। यह आसानी से समझा जा सकता है कि जनता में कोरोना के कारण पैदा असंतोष तथा उसके गुस्से को दबाने के लिए मंदिर, हिंदूवाद, हिंदू मुस्लिम विवाद, लव जिहाद आदि मुद्दों को हवा दी जा रही है। पर आम जनता जिस सम्मिश्र संस्कृति के ताने-बाने तथा आर्थिक संरचना से बंधी है, उसके कारण अभी भी सहिष्णुता के मूल्यों में विश्वास करने के अलावा उसके पास कोई विकल्प नहीं है।

(3) जनता का पारिवारिक जीवन उसके आर्थिक संसाधनों पर निर्भर करता है और जब अकाल, महामारी, मंदी एवं बेरोजगारी आदि के कारण अर्थव्यवस्था लड़खड़ाती है तो जनता का पारिवारिक जीवन प्रभावित होता है। कोरोना के कारण महिलाओं तथा बच्चों पर सबसे अधिक नकारात्मक प्रभाव पड़ा है, खासतौर पर निम्नवर्ग में। पुरुषों की नौकरी जाने के बाद स्त्रियों को अधिक श्रम करना पड़ रहा है और उन्हें घर तथा बाहर, दोनों जगह अधिक चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है।

मैंने कई परिवारों को देखा है जो महामारी से पहले हस्तकला, प्राथमिक शिक्षा, सिलाई-कढ़ाई, लघु उद्योग में लगे हुए थे, पर महामारी के बाद मजदूरी का काम करने लगे। ऐसी स्त्रियां जो घरों में सफाई करने-खाना बनाने आदि के काम करती थीं, वे भी पतियों के साथ ईंट ढोने और पत्थर तोड़ने जैसे कठिन कार्य करने लगीं। जो लोग निम्नमध्यवर्ग का हिस्सा बन गए थे, वे फिर निम्नवर्ग में चले गए। दिल्ली में एक परिवार मुझे मिला था जिसमें छह सदस्य थे और वे मकान का किराया न चुकाने के कारण गांव भाग गए थे। यानी सामाजिक सुरक्षा के अभाव में जो लोग पहले से वंचित-दरिद्र थे, कोरोना के कारण उनके कष्ट कई गुना बढ़ गए। अक्सर तो माता या पिता में किसी एक की बीमारी या मृत्यु ने कई बच्चों को अनाथ कर दिया है और टीवी चैनलों का वह दृश्य शायद ही कोई भूल सके, जिसमें एक मासूम बच्ची भूख से मर चुकी अपनी मां को जगाने की कोशिश कर रही थी।

(4)  सोशल मीडिया का निस्संदेह अब संसार भर में सर्वाधिक दुरुपयोग हो रहा है। इसे अब ‘एंटी-सोशल मीडिया’ भी कहा जाने लगा है जिसमें सूचनाओं, डेटा, विचार आदि के मामले में भयावह अराजकता व्याप्त है। अब यह बात पूरी तरह सत्य साबित हो गई है कि क्रांति, विरोध आदि के प्रसार को लेकर ट्विटर तथा फेसबुक आदि की भूमिका को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया गया था, ताकि समाज में उसे लोकप्रिय बनाया जा सके।

वर्तमान में भारत, पाकिस्तान, फ्रांस, ब्राजील आदि देशों में लोकतंत्र कमजोर हो रहा है, लेकिन फेसबुक-ट्विटर कोई प्रभाव नहीं डाल पा रहे हैं। यह पूरी तरह से मार्केटिंग और विज्ञापन की कंपनियों के हितों को पूरा कर रहा है। कोरोना काल में सोशल मीडिया के कुछ सकारात्मक उपयोग अवश्य हुए, जिसमें लोगों ने लाकडाउन से पैदा हुई गतिहीनता से बचने के लिए अपने वीडियो, लेक्चर आदि को सोशल मीडिया के माध्यम से लोगों तक पहुंचाया, लेकिन सोशल मीडिया दुनिया में व्याप्त विषमता, गरीबी तथा बेरोजगारी के संकट को हल करने में सक्षम नहीं है।

लोगों में सोशल मीडिया प्लेटफार्म के इस्तेमाल की लत का पैदा हो जाना भी गंभीर समस्या है और ‘फैड’ (फेसबुक एडिक्शन डिसआर्डर) तथा ‘फोमो’ (फियर आफ मिसिंग आउट) जैसी शब्दावली भी इसीलिए चल पड़ी है। कोरोना की महामारी ने सोशल मीडिया के उपयोग को बढ़ा दिया है, पर कुल मिलाकर मानव संबंधों की गहराई तथा उसकी सामाजिकता को इसने नुकसान पहुंचाया है। सोशल मीडिया अपने आकार और व्याप्ति में इतना विशाल हो चुका है कि वह अब किसी भी प्रकार के परिवर्तन का काम नहीं कर सकता है। लेकिन फासिस्ट, प्रतिक्रियावादी तथा पिछड़े विचारों वाली राजनीति के हाथ में इसका पड़ना संसार के लिए खतरनाक साबित हो सकता है।

(5) कोरोना ने विश्व अर्थव्यवस्था को क्षति पहुंचाई है, पर इसने पूंजीवाद की सीमाओं को भी उजागर किया है। पिछले कुछ दशक से पूंजीवाद सार्वजनिक स्वास्थ्य व शिक्षा, सरकारी नौकरी, राशन वितरण, न्यूनतम सुविधाएं देने आदि विषयों पर सरकार की भूमिका को घटाने में लगा हुआ है। पूंजीवाद लगातार विभिन्न देशों की सरकारों को अपनी जनता के प्रति जिम्मेदारी को नकारने के लिए प्रेरित करता रहा है। पर कोरोना काल में खुद वही पूंजीवाद टैक्स में छूट देने, सस्ती दरों पर कर्ज देने तथा इकोनामिक पैकेज जारी करने के लिए सरकारों पर निर्भर नजर आने लगा। पूंजीवाद के समर्थक अर्थशास्त्री जिस ‘बाजार’ को देवता साबित करने पर तुले थे, वह भी सरकारों से पूंजीवाद को बचाने की मांग करने लगे। पूंजीवाद अपने लिए पैकेज की मांग करने लगा और सरकार पर अपने संस्थानों के निजीकरण के लिए दबाव डालने लगा।

मध्यवर्ग का एक बड़ा हिस्सा विगत वर्षों में निजीकरण का समर्थक हो गया है पर यही मध्यवर्ग कोरोना में निजी स्कूलों की फीस भरने लायक नहीं बचा और सरकार पर दबाव डालने लगा कि वह निजी स्कूलों की फीस में कटौती करा दे। निजीकरण के समर्थकों को जब निजी अस्पतालों व निजी स्कूलों की लूट का शिकार होना पड़ा तब उन्हें पता चला कि सरकार की जिम्मेदारी क्या है। यानी कोरोना ने विश्व-पूंजीवाद के अर्थशास्त्र के खोखलेपन को प्रकट किया है और यह साबित किया है कि सरकार व राज्य का काम केवल कानून-व्यवस्था संभालना भर नहीं है, बल्कि जनता की आजीविका, रोजगार, शिक्षा, संपत्ति तथा सामाजिक सुरक्षा की जिम्मेदारी लेना भी है।

403, सुमित टॉवर, ओमेक्स हाइट्स, सेक्टर86, फरीदाबाद, हरियाणा121002 मो.9711312374

सौरभ बाजपेयी

दिल्ली विश्वविद्यालय के देशबंधु कॉलेज में इतिहास के सहायक प्रोफेसर। राष्ट्रीय आंदोलन फ्रंट के राष्ट्रीय संयोजक

सोशल मीडिया का ज्यादा इस्तेमाल अंधविश्वास और अफवाह फैलाने के लिए हुआ

(1) पिछले एक साल में विश्व जनजीवन बुरी तरह प्रभावित हुआ है। कोरोना ने सामाजिक विभाजनों को बहुत चौड़ा कर दिया है। अमीर और गरीब के बीच का अंतर एक विद्रूप की तरह सामने आया है। दुनिया भर में समाज के गरीब और निम्न मध्यमवर्गीय तबकों पर इसकी मार सबसे बुरी पड़ी है। विश्व अर्थव्यवस्था बुरी तरह डूब गई है और उसका सबसे स्वाभाविक शिकार इन्हीं तबकों के लोग हुए हैं। हमारे देश में रोजगार का भारी संकट दिन पर दिन गहरा होता जा रहा है। जब कमाई पर असर पड़ता है तो शिक्षा, स्वास्थ्य, भोजन सहित जनजीवन के सभी आयाम प्रभावित होते हैं।

रही बात सकारात्मक या नकारात्मक प्रभाव की तो किसी महामारी का सकारात्मक प्रभाव भला क्या हो सकता है? हाँ, अगर मानवता इस तरह की महामारियों से कोई सबक लेना चाहे तो अलग बात है। इतिहास में हमने तमाम महामारियों को आते और जाते देखा है। लेकिन मनुष्य ने उससे निपटने के लिए विज्ञान और तकनीक का सहारा तो लिया है, सहज बुद्धि का नहीं। अगर ऐसा हुआ होता तो उसने इस तरह के ज़ूनॉटिक वाइरस के फैलने के कारकों पर विचार किया होता। लेकिन कोरोना संकट के बाद उसके निदान के पीछे तो पूरी दुनिया काम कर रही है, उसके कारण के पीछे कोई जाए तो उसे ही सकारात्मक मानना चाहिए। साथ ही जिस तरह का स्वच्छ पर्यावरण हमने लॉकडाउन के दिनों में देखा था, लोगों में उसके प्रति भी कोई मोह नहीं जागा और अवसर मिलते ही लोग पुराने ढर्रों पर वापस लौट आए हैं।   

(2) दुनिया भर की सरकारों ने कोरोना जैसे संकट से निपटने के लिए भय को अपना माध्यम बनाया। उन्हें लगा कि कोरोना के प्रति जागरूकता से अधिक उसका भय पैदा करके लोगों को उससे बचाया जा सकता है। जिन देशों में दक्षिणपंथी सरकारें थीं उन्होंने इस अवसर को अपनी राजनीतिक एजेंडे के लिए भुनाने में भी गुरेज नहीं किया। जैसे भारत में तबलीगी जमात के मामले को पूरी तरह सांप्रदायिक बना दिया गया। मीडिया ने इसे दिन-रात एक साजिश की तरह प्रस्तुत किया और मुस्लिम समुदाय के प्रति घृणा फैलाने की अपनी मुहिम में इस्तेमाल कर लिया। कोरोना जैसी आपदा के समय यह एक तरह से आम जनमानस का सांप्रदायिक भयदोहन था। इसकी वजह से दुनिया ने देखा कि घोर संकट के समय भी भारत में सांप्रदायिकता का घृणास्पद दुष्प्रचार जारी रहा।

लेकिन आपके प्रश्न का दूसरा हिस्सा जरूर चर्चा योग्य है। बिना किसी चेतावनी और बगैर तैयारी के लगाए गए लॉकडाउन के समय भारत में मानवता जार-जार रो रही थी। कोरोना के चलते हुए लॉकडाउन के बीच लाखों मजदूर दूरदराज के शहरों से पैदल ही अपने घरों की ओर लौटने लगे थे। कंधों पर सामान लादे अपने छोटे-छोटे बच्चों और महिलाओं के साथ मजदूर एक-एक बूंद पानी और एक निवाला भोजन के लिए तरसते अपने गंतव्य की ओर बढ़ रहे थे। लेकिन सरकार की असंवेदनशीलता के बीच देशभर से तमाम स्वैच्छिक संगठन, राजनीतिक कार्यकर्ता, धर्मादा ट्रस्ट, उत्साही समाजसेवक और आम लोग कोरोना के भय के बीच सड़कों पर खाने-पीने का सामान लेकर इन मजदूरों की सहायता के लिए निकल आए। ये निश्चित ही मानवता में आस्था को मजबूत करने वाले दृश्य थे, जो एक बेहद मार्मिक त्रासदी के बीच सामने आए।     

(3) लॉकडाउन ने पारिवारिक जीवन को कई स्तरों पर प्रभावित किया। कई महीनों तक एक ही घर में बंद रहना एक तरह की कैद थी। इस कैद जैसी परिस्थिति ने कई लोगों के लिए अवसाद जैसी स्थितियां भी पैदा कर दीं। दुनिया-भर में तमाम मानसिक रोगों में इस दौरान भारी वृद्धि देखने को मिली। साथ ही तमाम लोगों का दवा-इलाज भी इस दौरान प्रभावित हुआ और कई लोगों को चिकित्सा सुविधाओं के अभाव में भी अपनी जान गंवानी पड़ी।

यह सच है कि आधुनिक समय में दुनिया की इतनी बड़ी आबादी ने शायद पहली बार इतनी लंबी अवधि के लिए पुरवक्ती तौर पर पारिवारिक जीवन बिताया। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि यह बेहद असामान्य परिस्थितयों के बीच बिताया गया समय था, जहां हर समय कोरोना वाइरस से संक्रमित होने का भय परिवार को घेरे रहता था। इस दौरान लॉकडाउन की वजह से तमाम निम्नमध्यमवर्गीय परिवारों के लिए आमदनी के स्रोत बंद हो गए, जिसने उनके पारिवारिक जीवन को बुरी तरह चकनाचूर कर दिया।

बच्चों और बुजुर्गों का जीवन तो आज भी, खास तौर पर महानगरों में, बेहद मुश्किल है। लॉकडाउन के बीच और उसके बाद भी सड़कों पर बच्चों और बुजुर्गों की आमद एकदम रुक-सी गई। महानगरीय जीवन में कम आमदनी वाले तमाम परिवार छोटे-छोटे कमरों या घरों में जीवन व्यतीत करने के लिए मजबूर होते हैं। कोरोना संकट के समय इनका घर से निकलना दूभर था और कई जगहों पर तो अब तक यह स्थिति सामान्य नहीं हुई है। 

(4) सोशल मीडिया आज एक डिजिटल वॉर जोन बन गया है। यह परसेप्शन मैनेजमेंट का एक जरिया बन गया है जिसके सहारे तमाम तरह के नैरेटिव गढ़े जाते हैं। कोरोना महामारी के दौरान सरकार ने अपनी असफलताओं को ढंकने के लिए सोशल मीडिया का सहारा लिया। चीन, अमेरिका और कई यूरोपीय देशों में कोरोना फैलने के बावजूद नमस्ते ट्रम्प जैसे आयोजनों को मंजूरी देने जैसी गलतियों को ढंकने के लिए सोशल मीडिया का सहारा लिया गया। इसके बाद लॉकडाउन लगाने के बाद मजदूरों के ऐतिहासिक पलायन के समय भी सरकार और सत्ताधारी पार्टी ने उसे विपक्ष की साजिश करार देने के लिए सोशल मीडिया का इस्तेमाल किया। जिस समय कोरोना के प्रति लोगों को जागरूक करने और उन्हें राहत मुहैया कराई जानी थी, सोशल मीडिया का ज्यादा इस्तेमाल अंधविश्वास और अफवाहों को फैलाने में किया गया। मुस्लिम समाज के प्रति तरह-तरह की अफवाहें कोरोना के दौरान फैलाई गईं, उन पर कई जगह हमले हुए। सबसे बुरी बात है कि यह सब सरकार की शह पर हो रहा था और सोशल मीडिया के साथ-साथ इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के तमाम चैनल इसी तरह की अफवाहें फैला रहे थे। 

(5) कोरोना के पीछे चीन की मंशा क्या थी, इस पर शक होता है। आज तक यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि यह एक नेचुरल वायरस है या इसे किसी लैब में बनाया गया है। अगर यह किसी लैब में तैयार वायरस है तब तो इसके पीछे वर्ल्ड आर्डर को बदलने की किसी बड़ी साजिश से भी इनकार नहीं किया जा सकता है। कोरोना महामारी के फैलने के साथ ही यूरोप और अमेरिका सहित दुनिया की तेजी से तरक्की कर रही भारत जैसी तमाम अर्थव्यवस्थाएं गहरे संकट में आ गई हैं। यह आने वाले सालों में स्पष्ट हो पाएगा कि चीन के अलावा क्या अमेरिका भी अपनी अर्थव्यवस्था को एक इस गहरे संकट से निकालने में सक्षम हो सकेगा या नहीं? वैश्विक स्तर पर यह अमेरिकी प्रभुत्व को चुनौती देते हुए चीन की मोनोपोली युग की शुरुआत भी हो सकती है। हालांकि ऐसा कहना अभी थोड़ी जल्दबाजी होगी।

लेकिन एक अन्य स्तर पर यह पूरी दुनिया के भीतर पूंजी के प्रभुत्व के एक नए दौर का भी परिचायक है। राष्ट्रीय सीमाओं के भीतर यह छोटी और मध्यम पूंजी के लिए भारी आपदा के सामान है और कुछ बिग कॉर्पोरेट के लिए यह एक अवसर के समान है। भारत में भी पिछले एक साल के भीतर कुछ चुनिंदा कॉर्पोरेट कंपनियों ने अभूतपूर्व तरक्की की है। इन कंपनियों की तरक्की पूरी तरह से क्रोनी कैपिटलिज्म का परिणाम है, जिसमें चुनिंदा कॉर्पोरेट और किसी प्रतिक्रियावादी राजनीतिक दल के बीच सांठगांठ ही किसी अर्थव्यवस्था का नीति-निर्धारक तत्व बन जाता है। इसलिए भारत के संदर्भ में कहें तो आपदा में अवसर का जुमला भी हमारे प्रधानमंत्री जी ने अपने प्रिय कॉर्पोरेट को नए अवसर प्रदान करने के लिए दिया है। 

(6) भारत सरकार ने कोरोना आपदा से निपटने में घोर लापरवाही और असंवेदनशीलता का परिचय दिया है, ऐसा कहने में मुझे कोई गुरेज नहीं है। सरकार ने अव्वल तो जिस राहत पैकेज की घोषणा की उसका बड़ा हिस्सा लोगों की जेब से ही वसूल लिया गया, जबकि वे स्वयं ही कोरोना की मार से कराह रहे थे। दूसरे, सरकार ने गरीबों और निम्न आय वर्ग के लोगों को सीधे राहत पहुंचाने के बजाय कॉर्पोरेट को ही राहत पहुंचाने की नीति अपनाई जो पूरी तरह अतार्किक थी। वित्त मंत्री सहित पूरी सरकार की नीयत किसी तरह कॉर्पोरेट के लिए आपदा में अवसर तलाशने की थी, क्योंकि यह सरकार बुरी तरह कॉर्पोरेट नियंत्रण में चल रही सरकार है। समस्या उत्पादन के स्तर पर नहीं थी, बल्कि लॉकडाउन और लोगों का रोजगार छिन जाने की वजह से उपभोग के स्तर पर थी। लेकिन सरकार की दिलचस्पी लोगों से अधिक कॉर्पोरेट को संजीवनी प्रदान करने में थी। दूसरे पलायन की वजह से और उत्पादन इकाइयों के लंबे समय तक बंद रहने की वजह से हुई छंटनियों के कारण बेरोजगार हुए मजदूरों को भी राहत देने का कोई काम सरकार ने नहीं किया, जो उसकी असंवेदनशीलता को दर्शाता है। सरकार अब तक किसी ठोस आर्थिक योजना के बजाय आंकड़ों की हेराफेरी करके काम चलाती रही है, यह बेहद निराशाजनक है। कहा जा सकता है कि सरकार ने जिस तरह कोरोना संकट का सामना किया, उसने इस संकट के प्रभाव को और गहरा और नकारात्मक बनाने में बड़ी भूमिका निभाई है। 

द्वारा रवि कुमार गोला, फ्लैट नं. 402, 35214 सी, एशियन चॉपस्टिक के सामने, निकट पाल डेरी, मुनिरका, नई दिल्ली110067

निशिकांत कोलगे

विकासशील समाज अध्ययन पीठ (सीएसडीएस), दिल्ली  में एसोसिएट प्रोफ़ेसर। गांधी अगेंस्ट कास्टइनकी नवीनतम पुस्तक।

इस संकट ने मानवता पर लाखों का विश्वास बढ़ाया

(1) जब हम बात करते हैं कि कोरोना महामारी ने किस प्रकार हमारे जीवन को प्रभावित किया है, तो हमें इसके प्रभाव के सामान्यीकरण से बचना चाहिए। हमें यह बात समझनी होगी कि इस महामारी का न कोई लिंग है, न जाति है, न वर्ग है, न धर्म है और न ही कोई क्षेत्र है। उम्र के मामले में भी यह तटस्थ नहीं है और न ही हम सभी एक ही नाव के सवार हैं। कोरोना को लेकर हम सबकी स्थिति एक जैसी बिलकुल नहीं है। इसने दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग समूहों को भिन्न-भिन्न रूपों से प्रभावित किया है। कुछ लोगों के समूह के लिए यह बिलकुल ही सकारात्मक नहीं रहा है और वे विभिन्न रूपों में बुरी तरह से प्रभावित हुए हैं।

दूसरी ओर, कुछ अन्य समूह के लोगों के जीवन पर इसका कोई असर नहीं पड़ा है। इस तरह कोरोना महामारी के सकारात्मक या नकारात्मक प्रभावों के संदर्भ में कोई सामान्यीकृत निष्कर्ष निकालना उचित नहीं होगा। लेकिन यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि कोरोना महामारी ने कुछ विशेष समूह के लोगों के जीवन को बुरी तरह से प्रभावित किया है। उदाहरण के तौर पर, इसने मजदूरों, खासतौर से प्रवासी मजदूरों के जीवन को पूरी तरह से बरबाद कर दिया है और विभिन्न प्रकार की कामकाजी महिलाओं, घरेलू महिलाओं और वेश्याओं के जीवन में इसने अधिक कठिनाई, हिंसा और मानसिक तनाव पैदा किया है।

समृद्ध कार्पोरेट घरानों एवं मध्यम वर्ग के लोगों ने कोरोना का असर अलग-अलग रूप में महसूस किया है। कुछ लोगों के लिए यह एक तरह से पिकनिक का समय था। कुछ लोगों ने इसका उपयोग घरेलू कामकाज सीखने एवं परिवार के सदस्यों के साथ आत्मीय समय बिताने के लिए किया। भारतीय समाज पर कोरोना महामारी के प्रभाव के संबंध में मेरा सामान्यीकृत आकलन यह है कि इसने गरीबी को तो चरम सीमा पर पहुँचाया ही, हमारे समाज में अनेक तरह की असमानताओं को भी बढ़ाया।

(2) जहाँ तक कोरोना महामारी के समय भारतीय समाज में सांप्रदायिक सौहार्द एवं सांप्रदायिक वैमनस्य का प्रश्न है, इसने मिलीजुली प्रतिक्रिया दिखाई। कोरोना महामारी के दौरान इससे संबंधित कुछ विशेष घटनाओं और फैलाए गए कुछ अफवाहों के कारण भारत में धार्मिक तनाव बढ़ गए। ऐसा लगता है कि सोशल मीडिया की मदद से, बल्कि कुछ समाचार चैनलों के माध्यम से बहुत ही सुनियोजित ढंग से एक धार्मिक समुदाय को निशाना बनाया गया। विभिन्न माध्यमों से कोरोना वायरस को फैलाने के लिए उसे जिम्मेदार ठहराया गया। साथ ही, इसी धार्मिक समुदाय को तेजी से फैल रही कोरोना महामारी के रोकथाम में सहयोग नहीं करने के लिए भी उत्तरदायी माना गया।

दूसरी तरफ, कुछ बहादुर व्यक्तियों, धार्मिक समूहों एवं संस्थाओं ने हमारे समाज में व्याप्त जाति, वर्ग, धर्म, क्षेत्रीयता और लैंगिक असमानताओं को दरकिनार कर त्रस्त मानवता की मदद के लिए आगे बढ़चढ़ कर काम किया। यहां मैं विशेष रूप से सिक्ख समुदाय के लोगों द्वारा पूरे देश में गुरुद्वारों के माध्यम से किए गए महान कार्यों का उल्लेख करना चाहता हूँ, जिसने लाखों गरीबों को खाना खिलाया और बेघर लोगों को आश्रय प्रदान किया। निश्चित रूप से उनके सहृदयतापूर्ण किए गए महान कार्यों से मानवता के प्रति हमारा विश्वास बढ़ जाता है।

(3) हम किस पारिवारिक जीवन की बात कर रहे हैं? समृद्ध लोगों का परिवारिक जीवन, या मध्यम वर्ग का पारिवारिक जीवन या गरीब लोगों का पारिवारिक जीवन? पुनः, क्या हम मुस्लिम परिवार, हिंदू परिवार या ईसाई परिवार की बात कर रहे हैं? अलग-अलग वर्ग, जाति, क्षेत्र और धर्म के पारिवारिक जीवन भिन्न-भिन्न तरीके से प्रभावित हुए हैं। यहां तक कि एक ही परिवार में पुरुष, स्त्री, अलग-अलग उम्र के लड़के, लड़कियां और बुजुर्ग भी अलग-अलग ढंग से प्रभावित हुए हैं। इस प्रश्न का सामान्य उत्तर यह होगा कि लॉकडाउन में अलग-अलग लोगों का पारिवारिक जीवन अलग-अलग तरीके से प्रभावित हुआ है।

अनेक सारे उदाहरण एवं कहानियां हैं जिनमें देखा गया है कि इस कठिन समय में लोगों ने अपने बूढ़े माँ-बाप को सड़कों पर मरने के लिए छोड़ दिया, जिस समय उन्हें उनकी मदद और देखभाल की ज्यादा जरूरत थी। इस प्रकार की घटनाएँ हमारे सभ्य समाज की क्रूर सचाइयों की कलई खोलती हैं। हालांकि इसका मतलब यह भी नहीं है कि उस समय समाज में आशाएं नहीं बची हुई थीं या मानवीयता समाप्त हो गई थी। हमें ऐसी भी बहुत सारी कहानियां और उदाहरण सुनने को मिले जिनमें लोगों ने अपने परिवार की सहायता की और उन्हें विभिन्न प्रकार की कठिनाइयों से उबरने में मदद की। यहां विशेष रूप से मैं मात्र पंद्रह वर्ष की किशोरी ज्योति कुमारी का उदाहरण देना चाहूंगा। उसने अपने अक्षम पिता मोहन पासवान को साइकिल के कैरियर पर बिठाकर हरियाणा के गुरुग्राम से 1200 किलोमीटर दूर बिहार के दरभंगा जिले तक ले जाने का कठिनतम कार्य किया। निश्चित रूप से इस तरह की ख़बरों ने और इसी प्रकार की अन्य अनेक खबरों ने ऐसे कठिन समय में मानवता के प्रति लाखों लोगों का विश्वास बढ़ाने का कार्य किया और कोरोना महामारी के दौरान अपनी कठिनाइयों का सामना करने में उनके आत्मविश्वास को उजागर किया।

(4) कोरोना महामारी के समय सोशल-मीडिया ने बहुत महत्वपूर्ण और गंभीर भूमिका निभाई। इसने सरकार के महत्वपूर्ण परिपत्रों, सूचनाओं और मार्गदर्शी सिद्धांतों की जानकारी लोगों तक पहुँचाने में मदद की और लगातार बदल रही परिस्थितियों के बारे में देश के बहुसंख्यक नागरिकों को अद्यतन स्थिति से अवगत कराने का कार्य किया। सोशल-मीडिया से हमें यह भी जानकारी मिलती रही कि दूसरे देश किस प्रकार कोरोना का मुकाबला कर रहे हैं और हमें उनकी सफलताओं एवं विफलताओं से सीखने का अवसर भी मिला। इस कठिन समय में सोशल-मीडिया ने लोगों को अपने परिवार के सदस्यों, मित्रों और सहकर्मियों से भी जुड़े रहने में मदद की और वे यथासंभव विभिन्न तरीकों से एक-दूसरे की सहायता भी करते रहे। इसने अलग-अलग उम्र के लोगों को शारीरिक एवं मानसिक दोनों ही रूपों में स्वस्थ रखने से भी मदद की।

दुर्भाग्य से सोशल मीडिया ने समाज में अफवाह फैलाने, विभिन्न प्रकार के अंधविश्वासों को बढ़ावा देने और सांप्रदायिक विद्वेष पैदा करके सद्भाव बिगाड़ने का भी काम किया। इस तरह सोशल मीडिया ने सामाजिक तनाव को फैलाने, अंध-आस्थाओं में लोगों के विश्वास को मजबूत करके हमारे समाज मेें प्रगतिशीलता की जगह मूर्खता  फैलाने का भी काम किया। लेकिन इसने हमें यह भी सिखाया कि तकनीक न तो बुरी है और न अच्छी। वह इस बात पर निर्भर करती है कि हम उसका उपयोग कैसे करते हैं। कोरोना महामारी के दौरान हमें यह समझ में आ गया कि तकनीकी का दुरुपयोग अंधविश्वास, घृणा, हिंसा आदि को फैलाने में भी किया जा सकता है। अतः लोगों को सोशल-मीडिया के दुरुपयोग के प्रति जागरूक करने की जरूरत है।

(5) आर्थिक तौर पर यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि समाज के विभिन्न वर्गों, जैसे छोटे दुकानदारों, सब्जी और फल विक्रेताओं, दैनिक मजदूरों, प्रवासी मजदूरों और अर्ध-कुशल और कुशल श्रमिकों, छोटे किसानों और भूमिहीन मजदूरों एवं गरीब लोगों के लिए यह एक बड़ी त्रासदी है। मध्यम और लघु उद्योगों के मामले में भी यह नहीं कहा जा सकता है कि कोरोना महामारी कोई महान अवसर था। कुछ बड़ी दवा कंपनियों और बड़े उद्योगों के लिए कोरोना महामारी एक बड़ा अवसर भले हो सकता है।

(6) जहां तक कोरोना महामारी से उत्पन्न आर्थिक समस्याओं का प्रश्न है, इस संबंध में अर्थशास्त्री सटीक विश्लेषण कर सकते हैं, पर सामान्य तौर पर देखें तो कोरोना महामारी ने लाखों लोगों से उनकी नौकरियाँ छीन लीं। इसलिए यह हमारी सरकार और समाज की प्रमुख जिम्मेदारी है कि विभिन्न वर्गों के लोगों के लिए बड़े पैमाने पर नौकरी के अवसर पैदा करे। कोरोना महामारी ने समाज के विभिन्न वर्गों की क्रय-क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव डाला। इसलिए, ऐसा प्रतीत होता है कि बाजार में वित्त की कमी है और बाजार में धन के प्रवाह में रुकावट आई है। सरकार को बाजार में धन के प्रवाह को बनाए रखने के लिए आवश्यक कार्रवाई करनी चाहिए, क्योंकि धन का निरंतर प्रवाह ही बाजार को आगे बढ़ने में मदद कर सकता है। संक्षेप में, जन रोजगार का निर्माण और बाजार में धन के निरंतर प्रवाह को बनाए रखना सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए।

(अंग्रेजी से अनुवाद : अवधेश प्रसाद सिंह)

29 राजपुर रोड, विकासशील समाज अध्ययन पीठ (सीएसडीएस), दिल्ली  मो.96128 44327

सेवाराम त्रिपाठी

वरिष्ठ आलोचक। वसुधापत्रिका से जुड़े हुए थे।

तमाम दिखावे के बावजूद यह एक जिजीविषाभरी दुनिया है

कोरोना काल में लेखक ही नहीं तमाम अन्य लोग ऑनलाइन हैं। हर चीज को जानने में गूगल उनकी मदद कर रहा है। क्योंकि गूगल को मार्केट चाहिए और इंटेरनेट को भी। एक महत्वपूर्ण घटना यह है कि हम किताबों की तुलना में ऑनलाइन से ज्यादा चीजें पढ़ रहे हैं। यहां सबकुछ नहीं मिलता, लेकिन काफी चीजें और जानकारियां सुलभ होती हैं। इसका नतीजा यह है कि हम वास्तविकता के बजाय तकनीक के सहारे जीवन की बुनियादी आवश्यकताओं को हल करने में लगे हैं। नई प्रौद्योगिकी और डिजिटल की दुनिया ने हमारी कार्यक्षमता भी बढ़ा दी है और सूचना संज्ञान को भी, जबकि किताबें अलमारियों में कैद हो गई हैं। एक मित्र का कहना मुझे याद आया कि मोबाइल के कारण किताबों ने आत्महत्या कर ली है!

कोरोना एक त्रासदी के रूप में उभरा है। धन, वैभव और असीमित शक्तियां बौनी साबित हुई हैं। विश्व की शक्तियों ने अपने आपको अपाहिज, शक्तिहीन और असमर्थ महसूस किया है। कोरोना की वजह से लॉकडाउन किए गए। लेकिन ये लॉकडाउन सरकारों की अपनी मंशाओं और मनोविज्ञान के तहत ज्यादा थे, लोककल्याण के तहत कम। कोरोना और लॉकडाउन की वजह से अभी तक हमारा जीवन सामान्य नहीं हो पाया है। जहां तक नजर जाती है एक आतंक, एक भय बार-बार नजर आता है। कब क्या हो जाए, कुछ कहा  नहीं जा सकता। दावे निरंतर झूठे साबित हो रहे हैं। इसलिए समाज में अंदरूनी रूप में बड़े परिवर्तन घटित होते हुए दिखाई पड़ रहे हैं। लोग मर जाते हैं और हम चाहकर भी समय पर नहीं पहुंच पाते। शादी-विवाह जैसे उत्सवों में बच-बचाके दूरियां निभाते हुए गिने-चुने लोग शामिल हो पाते हैं। जो लोग रोज मिलते थे, कई-कई महीनों से उनसे मुलाकातें नहीं होतीं। फोन ही मिलने-जुलने के साधन बचे हैं। जिंदगी अभी भी यातनाओं के अंधेरे में है। मुझे लगता है कि कोरोना लंबे समय तक इस धरती पर निवास करेगा। आदमी को अपनी जीवन शैली बदलनी पड़ेगी। ब्रेख्त की कविता की दो पंक्तियां याद आ रही हैं- ‘एक घाटी पाट दी गई है/और बना दी गई है एक खाई।’

साहित्य का काम बहुत जिम्मेदारी से भरी होती है। उसका काम महफिल सजाना या मनोरंजन भर नहीं है। उसका काम लोगों को जागृत करना है। इस दौर में भाषा के तमाम खेल चल रहे हैं और वे आदमी को लगातार छल भी रहे हैं। भाषा का काम हमारी कहन क्षमता को विकसित करना रहा है, छलछद्म खड़ा करना नहीं। बर्टोल्ड ब्रेख्त ने कहा था ‘भाषा ने मुझे कातिलों के हवाले कर दिया है।’ कोरोना काल में हम चुपचाप और निरुपाय हो गए। आदेश पालन कीजिए और अपने-अपने दड़बों में पड़े रहिए। संवेदना का प्रसार दिन-ब-दिन क्षीण होता जा रहा है। क्या यह अंधेरा समय नहीं है? इसमें धुंध ही धुंध है और हमें कुछ भी नहीं दिखाई पड़ रहा। हमारी जिजीविषाएं भी बार-बार ठिठक-ठिठक जाती हैं। क्या ऐसा नहीं लगता कि हम क्रूर, संवेदनहीन और अ-सहयोगी होने की कगार पर हैं? इसलिए यह समय चुनौतियों से भरा है।

कोरोना से पैदा हुई स्थितियों से जूझते नागरिक बेचैन हैं, निराश हैं और अपने आपको ठगा हुआ महसूस         कर रहे हैं। ऐसे माहौल में साहित्य लिखा बहुत जा रहा है। आखिर कौन-सा ऐसा क्षेत्र है जहां साहित्य की दस्तक न हो।

कोरोना ने इस सभ्यता के खोखलेपन को दिखाया है। मानवीय मूल्य तार-तार हुए हैं। अचानक दूसरों के लिए दरवाजे बंद करनेवाली सभ्यता निर्मित हुई है। इस कोरोना ने बहुत-सी गलतियों को आईना दिखाया है और अपना क्रूर चेहरा भी।

अमानवीयता हजार गुना ज्यादा बढ़ गई है। प्रश्न है, क्या लेखक के विचारों को सेन्सेटाइज किया जा सकता है? कोरोना संकट के दौर में भ्रष्टाचार की भी अनेक परतें खुली हैं। इसने समाज के मनोविज्ञान को तार-तार कर दिया है और संपन्न से संपन्न आदमी को मजबूर कर दिया है। फिर भी अच्छी बात है कि कोरोना संकट के कारण हमारे समाज में आत्मनिर्भरता की प्रवृत्ति पनपी है। जैसे-बाइयों के न आने के कारण साफ-सफाई, रख-रखाव और भोजन बनाने जैसी चीजें घर के लोगों ने संपन्न की। सबसे ज्यादा संकट के शिकार हमारे बच्चे हुए हैं जिनकी पढ़ाई-लिखाई निरंतर बाधित है और सोशल वे लगभग अपने घरों में कैद हैं। मैदानों में खेलने वाले बच्चे एक सीमित कमरे में हैं।

कोरोना काल के कुछ उजले पक्ष भी हैं। नदी, तालाब, झरने, वातावरण और हमारा वायुमंडल काफी हद तक प्रदूषण-मुक्त हुआ है। हवाएं स्वच्छ हुई हैं। सुबह, शाम पक्षियों के कलरव सुनाई देने लगे। क्या हम इन चीजों को हमेशा के लिए बचा नहीं सकते हैं? यह प्रश्न विचार करने का है।

कोरोना महामारी को मैं एक भीषण त्रासदी के रूप में देखता हूँ। जो अपने को शक्तिशाली मानते थे, वे घुटनों पर आ गए। शक्तिशाली लीलाएं ढीली और बेकार हो गई हैं। विकास के नारे लगाते-लगाते, बंकर ध्वंस करनेवाली ताकत दिखाते-दिखाते बुलेट प्रूफ की गुहार लगाते-लगाते वे स्वयं निरीह हो गए। एक साथ अस्पतालों में इक्विपमेंट की बेहद कमी थी लॉकडाउन के दौर में। जितना इंतजाम   किया गया, अपर्याप्त साबित हुआ। इलाज महंगा से महंगा होता गया। मनमानी लूट हुई। अफरा-तफरी, भागम-भाग, भूख-प्यास, रहने के बंदोबस्त की मांग, हर तरफ यही सब दिखा। गर्जन-तर्जन कम हुआ, फिर भी आरोप-प्रत्यारोप की मात्रा तेज गति से बढ़ी। अमेरिका, इटली, जर्मनी का गुमान क्यों टूट गया! जो घर जाने के लिए बेचैन हैं, उनके पास इंतजाम नहीं है। बहुत सारे लोग हैं जिनके पास खान-पान और परिवहन के साधन हैं, कपड़े-लत्ते हैं, फिर भी बेबस हैं।

लोक जीवन में सुरक्षा की कामना से कुलदेवी, कुलदेवता के नए-नए सांचे बने। हम अपने जीवन में आश्वस्ति चाहते हैं, सबका कल्याण चाहते हैं। इसलिए इस तरह की तमाम चीजें तलाश कर निश्चिंत होने की ख्वाहिश रखते हैं। धर्म-संरचनाओं में जटिलताएं पनपीं। स्वार्थी तत्वों ने अपने लाभ-लोभ के लिए मनुष्यता को बार-बार रौंदा। हमारी धार्मिक भावनाओं में यदि विवेक न हो तो स्वार्थी तत्व आस्था के नाम पर कितने आवरणों में छिपकर तहस-नहस करते हैं। ग़ालिब का एक शेर इस दुर्दांत समय में सही इशारा करता है- ‘उम्र भर ग़ालिब भूल ये करता रहा/धूल चेहरे में थी, साफ आईना करता रहा।’

प्रश्न है कि हम किसको क्या कहें। इस संकट के समय में कई लोग मंदिर, मस्ज़िद और गुरुद्वारे में उलझे रहे। जनता को टोनों-टोटकों में उलझाए रखा गया और लोग स्वार्थ की सुरंग खोदते रहे। जीवन के असली मुद्दे ध्वस्त होते रहे। देश में ही नहीं, समूची दुनिया में मानवता असली रास्ते से भटकती रही। कोरोना वायरस की महामारी से घिरकर अपाहिज होने और किंकर्तव्य विमूढ़ होने के बाद जब समझ में आया कि हमें कोई नहीं बचा सकता तब हमारा ध्यान स्वास्थ्य संस्थानों, अन्य सेवाओं एवं सुविधाओं की तरफ गया। सरकारी  अस्पताल-संस्थान, डॉक्टर, नर्स, सफाई अमले, पुलिस, फ़ौज और गरीबों को सच्ची मदद करनेवाले समाजसेवी सामने आए। हम जिनको महत्वहीन मानते थे, उनसे ही हमारे जीवन-कल्याण के रास्ते खुलते नजर आए।

कोरोना का मुकाबला करने के लिए देश और दुनिया में कोई दवा नहीं; कोई खास इक्विपमेंट नहीं। हम तो राजनीतिक रोटियां सेंक रहे थे, सरकारें बना बिगाड़ रहे थे। जो पैसा हमने विशालकाय, मूर्तियां गढ़ने में, राजनीति चमकाने में लगाया, काश! हमने स्वास्थ्य संस्थान ठीक किए होते।

अभी भी जहर की खेती जारी है। इस सबके बावजूद जिन्होंने सेवा की, स्वास्थ्य-सेवाएं बड़ी      मेहनत और लगन से कीं, उन्हें हमेशा सलाम करने की बलवती इच्छा बनी हुई है और बनी रहेगी। घृणा फैलाने वाले लोग शृंखला बनाए हुए हैं, उनका अपना धंधा है। फ़िराक़ गोरखपुरी ने कहा है, ‘जब तक न ऊंची हो जमीर की लौ/आंख को रोशनी नहीं मिलती।’ हम विपत्तियों से जूझ रहे हैं और वे जहर की फैक्ट्री खोलकर बैठे हैं।

कोरोना वायरस के काल में जितना उत्पादन राजनीति के इलाके में हुआ, उतना ही उमड़- घुमड़कर कविता और साहित्य लिखा गया। लॉकडाउन के दौर में निराशाएं भी उपजीं। मैं देश के लोगों के धैर्य को बहुत इज्जत के साथ देखता हूँ। काफी लंबा लॉकडाउन, खेती-किसानी ठप्प।      छोटे-छोटे लोग यानी रोज-रोज कमाने-खाने वाले बड़ी मुश्किल से जी रहे हैं।  सभी लोग चिंता के भंवर में हैं। हम केवल उम्मीद कर रहे हैं। कहना यह है कि सत्ता के नशे के बावजूद एक दुनिया है। तमाम दिखावे के बावजूद एक जिजीविषा भरी दुनिया है। कोरोना ने सबको अपनी असली जमीन दिखा दी। उसने यह भी संदेश दिया कि ज्यादा न उड़ो; संसार की वास्तविकता के इलाके का अनुभव करो।

इस त्रासदी के पीछे शासन-प्रशासन की सभी तरह की नाकामयाबियां छुप जाएंगी या छुपा ली जाएंगी- बेरोजगारी, शिक्षा का पतन, हत्याएं, मनमानी, लोगों की जिंदगी और आशाओं से खिलवाड़। प्रशासन अब एक तरह से जादू ही है। महंगाई, गरीबी और न जाने क्या क्या है, नागरिकता के मुद्दे ठिकाने लगा दिए जाएंगे। एक ही राग समूचे वातावरण को छेंक लेगा। कोरोना है तो सब मुमकिन है।

मुझे एक चीज पर ताज्जुब है कि कोरोना के संदर्भ में भी लोग दर्शन और आध्यात्मिकता की तलाश कर रहे हैं। हमारा जीवन दांव पर लगा हुआ है और लोग प्रलोभन के झंझावातों में बह रहे हैं। हम सभी जीवन खोज रहे हैं। इसलिए सब कुछ राजनीति के चश्मे से मत देखिए। राष्ट्र हमारी आत्मा का अमूल्य दर्पण है। वह राज सिंहासन की सीढ़ी नहीं है। जीवन का उत्कर्ष मानवता में खोजने की जरूरत महसूस कीजिए, अन्यथा न किसी को वैभव-ऐश्वर्य बचा सकता है, न अहंकार सुरक्षा कवच बन सकता है।

तुलसीदास की एक चौपाई है, ‘परहित सरिस धरम नहिं भाई/पर पीड़ा सम नहिं अघमाई।’ हमारा जीवन एक तपस्या है। वह एक उच्च स्तर की साधना है। घृणा ने हमारा बड़ा नुकसान किया है। शायद कोरोना एक सबक है हम सभी के लिए। पंजाबी कवि अवतार सिंह पाश की एक कविता  है, ‘भारत/मेरे सम्मान का सबसे महान शब्द/ जहां कहीं भी प्रयोग किया जाए/ बाकी सभी शब्द अर्थहीन हो जाते हैं/इस शब्द के अर्थ/खेतों के उन बेटों में हैं/जो आज भी वृक्षों की परछाइयों से/ वक्त मापते हैं/उनके पास, सिवाय पेट के, कोई समस्या नहीं/और वह भूख लगने पर/अपने अंग भी चबा सकते हैं/ उनके लिए जिंदगी एक परंपरा है/और मौत के अर्थ हैं मुक्ति।’ (भारत)। हम वक्तर के ऐसे दौर में हैं, जिसमें धीरे-धीरे सब कुछ अर्थहीन-सा होता चला जा रहा है। साहित्य अपनी जिम्मेदारी निभा रहा है, लेकिन ठिठक-ठिठककर।

रजनीगंधा06, शिल्पी उपवन, अनंतपुर, रीवा486002 (.प्र.) मो. 7987921206