‘हिंदुस्तानी ज़बान’ की पूर्व संपादक। संप्रति स्वतंत्र लेखन।
‘मम्मी, कानपुर से पापा ने वाट्सएप पर मेसेज भेजा है।’
‘………….’
‘पूछोगी नहीं कि क्या मेसेज है?’
‘बता।’
‘पढ़ती हूँ, लो सुनो-
प्रिय बेटी श्वेता,
एक युग बीत गया तुमसे जुदा हुए। तुम पूछोगी, क्या कभी मेरी याद आती है पापा? तो बेटा, बस यही बताने के लिए तो पत्र लिख रहा हूँ। तेरी और तेरी माँ की बड़ी याद आती है। कल दूरदर्शन पर तुम्हारी माँ का गाना सुना- रंजिश ही सही… तब से अब तक बहुत सोचा, सोचता ही जा रहा हूँ। अपनी बदसलूकी पर बहुत शर्मिंदा हूँ बेटा। तुमसे मिलने कल लखनऊ पहुंच रहा हूँ सबेरे की ट्रेन से। स्टेशन पर आओगी न बेटी? तुम्हारा पापा, इंद्रनाथ रस्तोगी।
इंद्रनाथ रस्तोगी के इस मेसेज ने दिव्या के मनो-मस्तिष्क को झकझोर डाला। आज जब वह अपनी जिंदगी में कुछ स्थायित्व महसूस करने लगी है, तब इंद्रनाथ फिर क्यों उसकी जिंदगी में प्रवेश करना चाहते हैं। पहली बार प्रवेश किया था अपनी माँ के जरिए। इस बार बेटी के जरिए उसके नजदीक पहुँचने की कोशिश हो रही है। दिव्या की स्मृति के पन्ने फड़फड़ा उठे।
‘गाँव से हो आईं सीता बाई? इस बार बहुत दिन लगा दिए।’
‘क्या करूँ मालकिन, मेरी सास बहुत बीमार है। उसे छोड़ के जल्दी नहीं आ सकी।’
‘अब कैसी है तेरी सास?’
‘पहले से अच्छी है, इसीलिए तो आ पाई। लेकिन कुछ कहा नहीं जा सकता। चलने-चलाने की बेला आ गई है उसकी।’
‘चल, जल्दी-जल्दी काम निपटा ले। साहब ऑफिस से जल्दी आने वाले हैं। भगोने में दाल भिगोया है, उसे भी पीस देना।’
‘क्यों मालकिन! आज कुछ खास बात है क्या?’
‘हाँ, खास बात ही तो है। आज हमारी शादी की सालगिरह है। तेरे साहब को दही बड़े बहुत पसंद हैं। उनके आने से पहले बना लूं तो ठीक रहेगा।’
सीता बाई एक नंबर की बातूनी। दाल पीसते-पीसते उसकी बातचीत का सिलसिला जारी रहा।
‘मेरे गांव का चौधरी है न मालकिन, बड़ा राच्छस है।’
‘क्यों, तेरे साथ कुछ छेड़-छाड़ की थी क्या?’
‘अरे मेरे साथ छेड़छाड़ करे तो में उसे कच्चा नहीं चबा जाऊँ। वह बात नहीं है।’
‘फिर क्या बात है?’
‘चौधरी साहब को गांव में डेयरी खोलनी थी। उसी की इनक्वारी के लिए शहर से इंस्पेक्टर साहब आए थे। गांव में सबसे बड़ी गोशाला उसी चौधरी की तो है।’
‘होने दे, हमें क्या!’
‘रखे न गोशाला, उसे कौन रोकता है! लेकिन जिस घरवाली से उसकी इतनी बढ़ोतरी हुई, उसे भी तो थोड़ी इज्जत दे, ठीक से रहने दे। मालूम मालकिन, वह क्या बोलता था! मैं कोने में खड़ी चुपचाप सुन रही थी। वह बोलता था, गोशाला की गायों पर मैं जान छिड़कता हूँ। उनके ठीक रख-रखाव से ही हमारे पास रुपया-पैसा आता है। घरवाली से हमें क्या मिलता है? उस पर तो हमें कुछ न कुछ खर्चना पड़ता है।’
‘लेकिन वह आपके घर की लक्ष्मी है। घर में इतनी सीलन है!’ इंस्पेक्टर साहब बोले।
‘काहे की घर की लक्ष्मी इंस्पेक्टर साहब! आपको क्या मालूम, घरवाली को तो बदा के रखना चाहिए, सीलन-वीलन से उसका क्या…’
‘बड़ा नीच है।’ दिव्या ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की।
‘हाँ मालकिन, चौधराइन बेचारी मैला–कुचैला पहने रहती हैं। उसकी जिंदगी नरक की जिंदगी है, बल्कि नरक की जिंदगी उससे अच्छी होगी। इतना मारता–सताता है उसे, पर वह चूं तक नहीं करती… मैं उसकी जगह होती तो उसे छोड़ कर दूसरे ही दिन अपने भाई के यहाँ चली जाती।’
दही बड़े बनाते-बनाते बहुत देर हो गई। इंद्रनाथ का मनपसंद लौकी का कोफ्ता और गाजर का हलवा बना कर वह उठी तो अंधेरा हो गया था।
दिव्या ने घर को दुल्हन की तरह सजाया। फूलों से उसका श्रृंगार किया। गुलाब के फूलों की मीठी-मीठी सुगंध वातावरण को बेहद मादक बनाए जा रही थी। आज उसके कार्य-पटु हाथों का लोहा न मानने का इंद्रनाथ को कोई बहाना नहीं मिलेगा।
खाने की मेज पर थाली सजाए दिव्या इंद्रनाथ की प्रतीक्षा करती रही। उसके दिव्य पुरुष ने जब घर में प्रवेश किया, उस समय घड़ी बारह बजा रही थी। उसे प्रतीक्षा करते देख इंद्रनाथ का पारा चढ़ गया।
‘कितनी बार कहा है, मुझे नहीं पसंद कि तुम सती सावित्री की तरह थाली लेकर मेरा इंतजार करती रहो।’
‘कम से कम आज तो जल्दी आ जाते।’
‘आज क्या है?’
‘तुम्हें जैसे याद ही नहीं… आज हमारी शादी की सालगिरह।’
‘तो क्या शादी की सालगिरह मनाने के लिए अपनी फैक्टरी बंद कर दूँ? भावुकता की बातें कहानी-उपन्यास में ही अच्छी लगती हैं दिव्या, वास्तविक जिंदगी की गाड़ी भावुकता के जल से नहीं पैसों की भाप से चलती है।’
दिव्या ने कसम खाई थी, नहीं, आज वह इंद्रनाथ की बातों का जवाब नहीं देगी।
‘अब मेरा मुंह क्या देख रही हो! तुम्हें इतनी सारी सुविधाएं देता हूँ मैं। बोलो! है और किसी के नसीब में?’
‘और किसी के नसीब से बराबरी क्या।’ दिव्या के होंठ बुदबुदाए। इंद्रनाथ की बातों का जवाब न देने की कसम आंखों से बहते आंसुओं के तार के साथ टूट गई।
‘जबान लड़ाती हो?’ तड़ाक से दिव्या के गाल पर उन्होंने चाँटा जड़ दिया।
स्वादिष्ट भोजन रखा रह गया। दिव्या बेडरूम में गई तो इंद्रनाथ खर्राटे ले रहे थे, परंतु उसकी आंखों से नींद कोसों दूर थी। सीता बाई के शब्द उसके उमड़ते आंसुओं में तैर-तैर जाते थे…। उसकी जिंदगी नरक की जिंदगी है, बल्कि नरक की जिंदगी उससे अच्छी होगी।…
‘इतना मारता-पीटता है उसे, पर वह चूँ तक नहीं करती।’ सीताबाई कह रही थी, ‘मैं होती तो दूसरे ही दिन उसे छोड़ कर अपने भाई के यहाँ चली जाती। दिव्या का दिमाग झनझना रहा था… ‘मुझमें और चौधराइन में क्या अंतर है। ऊपर से देखने में तो चौधराइन को वे सारी सुविधाएँ प्राप्त नहीं हैं, जो उसे प्राप्त हैं। परंतु दोनों ही ‘वस्तु’ हैं, बेजान और बेजुबान वस्तु, जिनसे अपने पति के इशारे पर अपनी उपयोगिता साबित करनी है। हाँ, सीताबाई सीताबाई है। वह चौधराइन और दिव्या नहीं हो सकती। क्यों? आखिर क्यों? क्या इसलिए कि वह खुद कमाती है? अपने पैरों पर खड़ी है? और मुझमें इतना साहस नहीं है कि…
दिव्या ने स्वयं को इंद्रनाथ के तौर-तरीके से अभ्यस्त करने के लिए हर कोशिश की। इंद्रनाथ के घर में उनकी जरूरत के अनुसार वह व्यक्ति नहीं, पदार्थ बनी रही, एक सुंदर ‘शो पीस’। इंद्रनाथ दोस्तों को दावत पर बुलाते तो दिव्या घर को ऐसे सजाती कि मेहमानों को रश्क होता। खाना इतना स्वादिष्ट बनता कि मेहमान उँगलियां चाटते रह जाते। इंद्रनाथ की वाणी में अतिरिक्त मिश्री घुली रहती उस दिन। दिव्या को मेहमानों से भरे घर में नाटकीय आचरण की आदत हो चली थी।
दिव्या ने संगीत और मनोविज्ञान में लखनऊ विश्वविद्यालय से डबल एम.ए. किया था। उसके पिता विश्वविद्यालय में वाइस चांसलर थे। विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह के अवसर पर संगीत सम्मेलन का आयोजन था। दिव्या के गाने पर मुग्ध हो इंद्रनाथ की मां ने तय किया कि बहू के रूप में यदि कोई लड़की उनके घर में प्रवेश करेगी तो वह दिव्या ही होगी। ससुराल में उसे सास का दुलार तो मिला, परंतु इंद्रनाथ के संस्कार भिन्न थे। अपनी माँ को उन्होंने पिता के सामने आज्ञाकारी समर्पिता के रूप में देखा था। दिव्या को वे भी सारी सुविधाएं देने को तैयार थे, परंतु उसकी इच्छाओं का आदर करना वे न सीख पाए।
सास जब तक जीवित रहीं, गर्व से कहती थीं, ‘बिलकुल अपने पिता पर गया है। इस खानदान के पुरुष बड़े ही स्वाभिमानी हैं बेटी! उनकी इच्छाओं का आदर करके ही चला जा सकता है।’
‘तो माँ! उनकी इच्छाओं का आदर करने से कौन इनकार करता है। परंतु पत्नी को थोड़ा मान-सम्मान तो मिलना ही चाहिए।’
परंतु दिव्या विद्रोह कैसे कर सकती है? सच, सीताबाई ज्यादा खुशनसीब है? वह ऐसी स्थिति में होती तो जरूर विद्रोह करती। दिव्या की स्मृति में पिछली जिंदगी टुकड़े-टुकड़े उभरती चली गई।
उसकी सास बहुत बीमार थी। घर में वह अकेली… यदि इन्हें कुछ हो गया तो… सोच-सोच कर उसे पसीना छूट रहा था। फोन करके डॉक्टर को बुलाया। अस्थमा की मरीज थीं वह, दरवाजे की ओर एकटक देखती रही थीं। ‘डॉक्टर को बेकार बुलाया बेटी। वह बेचारा क्या कर सकेगा।’ बेटे के इंतजार में उनकी आंखें पथरा गई थीं। इंद्रनाथ ने घर में प्रवेश किया तो उसने स्पष्ट लक्ष्य किया, उनके पैर लड़खड़ा रहे थे। खानदान का तकाजा तो पूरा किया उन्होंने, अपने हिसाब से कुछ अनहोनी नहीं की। की भी हो तो पूछने वाले का साया कुछ ही देर पहले उठ गया था। लाश के सामने दिव्या अकेली बैठी रही, उसने टीका-टिप्पणी व्यर्थ समझी।
इंद्रनाथ को केवल धन–दौलत की हवस थी। अपार धन–दौलत के वशीभूत हो सिरफिरा मनुष्य जो आदतें डाल लेता है उन्होंने उनमें से शायद ही कुछ छोड़ा हो। उनका बैंक बैलेंस अवश्य बढ़ता गया। उसके साथ धीरे–धीरे बड़ी होती गई उनकी एकमात्र संतान श्वेता।
श्वेता का मैट्रिक का परीक्षा फल निकला है। वह अपनी मम्मी के साथ खुशी बांट रही है, परंतु अपनी खुशी में वह पापा को सम्मिलित नहीं कर सकी। उसके पापा को फुरसत कहां है कि उसके बारे में कुछ पूछें। दिव्या सोचती है, यदि श्वेता बेटा होती तो वह उसे कैसे संस्कार देती। क्या वह भी अपनी पत्नी को वस्तु समझने की ट्रेनिंग पाता? माँ की भूमिका बेटे के व्यक्तित्व निर्माण में कुछ होती या नहीं?
दिव्या को तेज बुखार था। इंद्रनाथ को किसी सौदे में भारी मुनाफा होने वाला था। एक पार्टी को उन्होंने रात में खाने पर बुला लिया। सदैव की भाँति दिव्या ने तैयारी की। खाना पकाया, घर को फूलों से सजाया। मेहमानों की अच्छी खातिरदारी हुई। मिस्टर मुखर्जी गाने के बड़े शौकीन थे। उन्होंने इंद्रनाथ से कहा, ‘सुना है यार! तुम्हारी बीवी बड़ा अच्छा गाती हैं।’
‘बेशक! अपने विद्यार्थी जीवन में उसने न जाने कितने पदक जीते हैं।’
सबने दिव्या से गाने की फर्माइश की- ‘गाइए न मिसेज रस्तोगी। आज तो हम आपका गाना जरूर सुनेंगे। आज हम आपका गाना सुने बगैर जाएंगे ही नहीं।’
‘माफी चाहूँगी आप लोगों से। मैं गा नहीं सकूंगी। गाना-वाना बिलकुल भूल गई हूँ। और फिर आज मेरी तबीयत भी ठीक नहीं है।’
दिव्या सचमुच बुखार के कारण गाना गाने की स्थिति में नहीं थी, परंतु उसका इनकार इंद्रनाथ को कैसे सुहाता। मेहमानों के जाने पर वे उबल पड़े, ‘तुम सुना देतीं तो तुम्हारा क्या बिगड़ जाता।’
‘आप जानते हैं, विवाह के बाद मैंने गाना छोड़ ही दिया है। मौका मिलता तो…।’ बुखार की चर्चा उसने व्यर्थ समझी।
‘हाँ, मैंने तुम्हें मौका ही नहीं दिया, यही कहना चाहती हो न? तुम्हें मालूम है, मुखर्जी कितना बड़ा असामी है।’
‘मैं तुम्हारी पत्नी हूँ, कोई वस्तु नहीं कि तुम मनमाने ढंग से उन्हें खुश करने के लिए मुझे अपने असामियों के सामने पेश करते रहो।’
‘क्या बक रही हो। होश में तो हो।’
‘हाँ, हाँ, अभी तक मेरा होश बाकी है। मुझे तुम्हारी ही नहीं, तुम्हारे हर असामी की इच्छा पूरी करनी होगी, चाहे मुझे कितना भी तेज बुखार क्यों न हो। तुम अपने व्यापार के फायदे के लिए मुझे बेच भी सकते हो।’
‘क्या कहा? मैं तुम्हें बेच रहा हूँ।’ तड़ाक-तड़ाक- चाँटे के निशान उसके गाल पर उभर आए। बुखार के कारण उसका तन-बदन तो टूट ही रहा था, इंद्रनाथ ने उसके मन को भी काँच की तरह चकनाचूर कर दिया।
अनजाने ही सीताबाई ने उसके हृदय में विद्रोह की ज्वाला भड़का दी थी। जब भी अपने गांव से लौटती, चौधराइन की यातना के नए-नए किस्सों की उसे जानकारी मिलती।
चौधरी की डेयरी अच्छी चल रही है। उसके बच्चे बड़े हो गए हैं और शहर पढ़ने के लिए चले गए हैं। गांव में उनकी पढ़ाई-लिखाई कैसे होती! चौधराइन का शरीर अत्यंत दुर्बल हो गया है। वे पेट की बीमारी से परेशान हैं। अपनी तकलीफ मुँह खोल कर कहती नहीं। इसलिए ठीक से दवा-दारू भी नहीं हो पा रही है। चौधरी का जुल्म बढ़ता ही जा रहा है… बेचारी चौधराइन… मजबूर आत्मा… ऐसे ही एक दिन दम तोड़ देगी, लेकिन जबान नहीं खोलेगी।
दिव्या के अवचेतन में चौधराइन की मजबूरी उतरती जा रही थी। क्या उसकी जिंदगी चौधराइन की ही तरह छीजती जाएगी। चौधराइन मजबूर है, वह विद्रोह नहीं कर सकती…। लेकिन वह स्वयं क्या कर रही है? क्या वह भी मजबूर है? क्या उसकी नियति में चौधराइन होना ही बदा है?… नहीं वह चौधराइन नहीं है, वह दिव्या है। उसने मन ही मन संकल्प किया…मैं चुप नहीं रहूंगी। मैं मजबूर नहीं हूँ, मैं विद्रोह करूंगी।
श्वेता अपने बाल खोले दिव्या के पास बैठी थी। दिव्या कंघी कर रही थी गुमसुम। श्वेता ने बड़ी मासूमियत से कहा ‘मम्मी!’
‘हाँ बेटा।’
‘तुम मुझे बेटी समझती हो या सहेली।’
‘क्या मतलब?’
‘बेटी समझती हो तो मैं चुप रहूँगी, क्योंकि तुम कहोगी कि बच्चों को बड़ों के मामले में दखल नहीं देना चाहिए, लेकिन अगर सहेली समझती हो तो एक बात पूछने को जी चाहता है।’
‘पूछ ले।’
‘तुम इतना दुख पी रही हो मम्मी, इससे उबरने का कोई रास्ता नहीं?’
‘है बेटी है।’
‘मुझे तो दिखाई नहीं देता। तुम पापा के सामने कुछ बोल ही नहीं पाती।’
‘मुझे विद्रोह करना होगा बेटी…। सीताबाई ने कहा था, वह होती तो कभी का सब कुछ छोड़-छाड़ अपने भाई के यहाँ चली जाती। वह गांव गई है। वह यहाँ होती तो अपनी आंखों से खुद देख पाती कि दिव्या भी कुछ कर सकती है।’
‘सीताबाई ऐसा कहती थी?’
‘हाँ, बेटी। वह बता तो रही थी गांव की चौधराइन की बाबत, लेकिन असल में वह बात मेरे लिए लागू होती है। सीताबाई एक संपूर्ण व्यक्तित्व है और मैं?… मैं मात्र तुम्हारे पापा के घर की एक वस्तु हूं।’
‘मम्मी… ई…ई…ई।’
‘हाँ श्वेता, अब सीमा पार हो गई है। वस्तु से विद्रोही बनना होगा बेटी।… मैं आज ही तुम्हारे मामा से बात करूँगी। लखनऊ के महिला कॉलेज की छात्रा रही हूँ। मुझे वहाँ प्राध्यापक की नौकरी मिल जाएगी तो तुरंत वहाँ चली जाऊंगी। ऐसा करती हूँ, एक आवेदन पत्र भेज देती हूँ, मनोविज्ञान या संगीत, जिसमें पद रिक्त होगा, मैं स्वीकार कर लूंगी। …तेरी जहाँ इच्छा होगी, वहाँ रहना।’
‘मैं तुम्हें छोड़ कर कहीं कैसे रह सकूँगी मम्मी। मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगी।’
‘मेरे साथ ही चलना बेटी। मैंने तुम्हारे पापा को खुश रखने के लिए अपना जीवन होम कर दिया, लेकिन उन्हें खुश न रख सकी। अब मैं आत्महंता नहीं बनूंगी।’
दिव्या ने भाई शिवनाथ से फोन पर बात की। उन्होंने कहा, ‘नौकरी की चिंता छोड़ो दिव्या, वह देखी जाएगी। तुम जल्दी से जल्दी आ जाओ।’
दिव्या ने एक नोट लिखा, ‘मैं आपका घर छोड़ कर जा रही हूँ। श्वेता भी मेरे साथ जा रही है।’ इंद्रनाथ की अनुपस्थिति में दोनों माँ-बेटी ने अपना आशियाना छोड़ दिया।
महिला कॉलेज की मनोविज्ञान की प्राध्यापिका छुट्टी पर जा रही थीं। दिव्या ने प्रिंसिपल को आवेदन-पत्र दिया। उसे अस्थायी नौकरी मिल गई। उसने सोचा, फिलहाल सिर छिपाने को जगह तो मिली। कुछ ही दिनों में पद रिक्त हुआ तो प्रिंसिपल ने उसे स्थायी रूप से कॉलेज में रख लिया। श्वेता को भी उसी कॉलेज में प्रवेश मिल गया।
शिवनाथ ने बहुत जिद्द की कि दिव्या उनके परिवार के साथ रहे, परंतु उसने अलग रहने की ठान ली। बड़ि मुश्किल से उसे एक छोटा-सा मकान मिला, जो उसकी आवश्यकता के अनुकूल था। माँ-बेटी को बहुत दिनों के बाद चैन की जिंदगी नसीब हुई। मम्मी अपनी संगीत-साधना फिर से शुरू कर सके, इसलिए श्वेता ने संगीत सीखना शुरू कर दिया।
दिव्या घर के कलह से मुक्त हुई तो उसने फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा। पंछी ने सोने का पिंजरा छोड़ खुला आकाश स्वीकार कर लिया था। उसने अपनी संगीत साधना फिर से शुरू की। अब संगीत ही उसका प्रणयी था, जिसे उसने एकाधिकार की पूरी छूट दे दी। रियाज करने बैठती तो घंटों गाती रहती। श्वेता अपनी माँ की तपस्या की साक्षी थी। दिव्या सभा–समारोहों में सादर बुलाई जाती, श्रोता उसकी प्रशंसा करते न अघाते।
उस दिन दूरदर्शन के राष्ट्रीय कार्यक्रम में उसने गजल का कार्यक्रम दिया था, ‘रंजिश ही सही…’
श्वेता स्टेशन जाने के लिए तैयार होने लगी, ‘मम्मी! जल्दी करो, आधे घंटे के अंदर स्टेशन पहुँचना है।’
‘पापा आ रहे हैं मम्मी। अब वे ठीक हो जाएंगे। लगता है, उन्हें अपनी गलती का अहसास हो गया है। नहीं तो वे भला क्यों आते!’
‘नहीं श्वेता! तुम अकेले जाओ।’
श्वेता के साथ इंद्रनाथ ने घर में प्रवेश किया तो गृहलक्ष्मी के कार्य कुशल हाथों की करामात उन्हें अभ्यागत की खातिरदारी में सर्वत्र दिखाई दी। दिव्या ने परम स्वादिष्ट भोजन बनाया और बड़े आदर से इंद्रनाथ को खिलाया। श्वेता माँ का हाथ बंटाती रही विस्मय-विमुग्ध। माँ का सलोना चेहरा इसे इतना भा रहा था कि वह उसे अपने पापा की नजर से देखती जा रही थी।
श्वेता इंद्रनाथ के साथ हजरतगंज गई तो उन्होंने माँ-बेटी के लिए खूब सारी वस्तुएँ खरीदीं, एक से एक कीमती। श्वेता मना करती रही, ‘नहीं पापा! मम्मी को यह सब पसंद नहीं आएगा। आप मत खरीदिए। प्लीज पापा! रहने दीजिए।’ लेकिन इंद्रनाथ अपनी शादी के बाद संभवतः पहली बार किसी शो-पीस के लिए नहीं, किसी गरिमापूर्ण व्यक्तित्व के लिए कुछ खरीद रहे थे।
चार दिनों बाद इंद्रनाथ कानपुर लौटने लगे तो उन्होंने बड़ी शालीनता से दिव्या से पूछा, ‘ स्टेशन तक छोड़ने नहीं चलोगी?’
‘क्या फरक पड़ता है?’
‘मान लो, मैं कहूँ, फरक पड़ता है तो चलोगी?’
‘मुझे जरूरी काम से बाहर जाना है। आप श्वेता के साथ चलिए। मैं आपको स्टेशन पर मिलूंगी।’
ट्रेन छूटने के पांच मिनट शेष थे कि दिव्या स्टेशन पहुंची। ट्रेन खुलने लगी तो उसने थैले से एक पैकेट निकाला और श्वेता को देते हुए बोली, ‘अपने पापा को दे दे बेटी।’
इंद्रनाथ को कुछ आशा बंधी। ट्रेन ने जब प्लेटफार्म छोड़ दिया तो उन्होंने पैकेट खोला। उनके सामने वे सारी चीजें मुंह चिढ़ा रही थीं जो उन्होंने दिव्या के लिए खरीदी थीं। दिव्या ने बड़ी निर्लिप्तता से उनका तोहफा लौटा दिया था।
संपर्क सूत्र : डिग्निनी लाइफस्टाइल टाइनशिप, काटेज नं.74, कर्जन-माथेरान मेन रोड, नेरल, रायगढ़ डिस्ट्रिक्ट-410101 (महाराष्ट्र), मो. 9870763878