वरिष्ठ कवि और कथाकार।दस कविता संग्रह, दो गीत संग्रह, चार कहानी संग्रह, एक उपन्यास सहित विविघ विधाओं में दर्जनों पुस्तकें प्रकाशित।दो दैनिक पत्रों के संपादन से संबद्ध।
हां, वही थी। सुदीप्ता। सुदीप्ता गांगुली। उसका बदन भर आया था। इसलिए दूर से पहचानने में मुझसे भूल हुई। उसकी आंखों पर सुनहरे फ्रेम में फोटोक्रैमेटिक ग्लास का चश्मा चढ़ा था। मगर हाथों को हिला कर बतियाने का वही अंदाज और होंठों पर खुलकर अंगड़ाई लेती खनकती हुई वही हँसी। हां, सुदीप्ता ही थी, जिसने मुझे कहा था- ‘नमस्कार, दादा!’
वह ड्राइंग रूम के बीचोबीच पहुंच गई थी।
मैंने अपने आश्चर्य को छुपाते हुए संयत स्वर में उत्तर दिया- ‘आओ, बैठो।’
वह पीछे मुड़ रही थी। मैं चकित हो रहा था- ‘अरे, यह क्या! कहां जा रही हो?’
वह दरवाजे तक पहुंच चुकी थी। क्षण भर ठिठकी और सलज्ज मुस्कुराहट के साथ दाएं हाथ की उंगलियों को जूड़े से छुलाती हुई बोली- ‘दादा, मेरे साथ वो भी है। वो…वो नीचे खड़ा है। उसे भी बुला लेते हैं।’
उसके लौटने तक मैं उलझन में पड़ा रहा। कौन है वो जिसे बुलाने वह पायलट ट्रेन की गति से नीचे उतरी। सुदीप्ता के स्वभाव में नाटकीयता अभी तक बनी रह गई है। किसी बात को सीधी-सरल शैली में कहना उसे आता ही नहीं। शोख और नटखट सुदीप्ता अक्सर अपनी उम्र से पांच साल पीछे हट कर पेश आती है। अब वह लौट रही थी। सीढ़ियों पर उसकी सैंडिलों की ठक-ठक शुरू हो गई थी। उसके साथ मरदाना जूतों की एड़ियां कदमताल कर रही थीं। मैंने सोचना बंद किया और दरवाजे की ओर आंखें केंद्रित कर लीं।
वह एक सुंदर सजीला नौजवान था जो सुदीप्ता के पीछे लगभग सटे-सटे ड्राइंग रूम में प्रवेश कर रहा था। गोरा रंग, घुंघराले केश, ऊंची ललाट, क्लीन शेव्ड। वह लड़का नीली जींस और सफेद शर्ट में सुदीप्ता से चार इंच ऊंचा तो रहा ही होगा।
सुदीप्ता का दायां हाथ हवा में मेरी तरफ उठा- ‘सुब्रतो, इनी आमादेर गुरु। मैं जब थियेटर करती थी तो ये ही हमारी टीम के डायरेक्टर हुआ करते थे।’
लड़के ने दोनों हथेलियों को जोड़ते हुए मुस्कुराहट बिखेरी तो सफेद दांतों की पंक्ति कौंध की तरह उभर कर विलीन हो गई।
सुदीप्ता अब मेरी ओर मुखातिब हुई- ‘और दादा, ये है सुब्रतो! ओह सॉरी, मिस्टर सुब्रतो गांगुली… मेरे होने वाले… हस्बैंड।’ क्षण भर के लिए सुदीप्ता ठहर गई, जैसे कोई ज्वार थम रहा हो। उसका स्वर सहज-सपाट हो गया था- ‘दादा, मैं शादी कर रही हूँ।’
सहसा उसकी आवाज थोड़ी टेंस हुई- ‘आई मीन, आइ एम गोइंग टु गेट माइसेल्फ मैरिड।’
सचमुच वह मेरे लिए सरप्राइज का क्षण था। मैंने उठ कर उस लड़के से गर्मजोशी से हाथ मिलाया- ‘कांग्रैचुलेसंस यंगमैन। कांग्रैचुलेशन इन एडवांस।’
वे दोनों मेरे सामने सोफे पर अगल-बगल बैठ चुके थे।
मेरे लिए यह असमंजस का समय था कि मैं सुदीप्ता से क्या कहूं और सुब्रतो से कैसे पेश आऊं! फिर कुछ और नहीं सोच पाया तो सुब्रतो की ओर एक छोटा सा कंप्लीमेंट बढ़ा दिया- ‘सुदीप्ता इज ए फाइन गर्ल। तुम दोनों की जोड़ी खूब जमेगी।’
सुब्रतो मुस्कुरा कर मौन रहा।
मुझे अपने वाक्य का अटपटापन काटने लगा। सुब्रतो को निश्चय ही किसी अनुशंसा की जरूरत नहीं थी। वैसे मैंने गलत कुछ भी नहीं कहा था। रियली, सुदीप्ता वाज ए फाइन गर्ल।
कमरे में कुछ सेकेंड के लिए मौन छा गया। सुदीप्ता अपने बड़े बैग में कुछ खोजने लगी थी। सुब्रतो मेरे पीछे टंगे वाल हैंगिंग को देख रहा था। सुदीप्ता ने एक आमंत्रण पत्र मेरी तरफ बढ़ाते हुए अधिकारपूर्वक कहा- ‘दादा, जरूर आइएगा। कोई इफ-बट नहीं चलेगा। समझ गए न!’ उसकी आवाज फिर चहकने लगी थी। अभी वह अपनी उम्र से पांच-छह साल छोटी हो गई थी। जिद करती मचलती हुई छोटी लड़की।
मैंने झटपट उसे आश्वस्त किया- ‘मैं आऊंगा, श्योर आऊंगा। ऐसा कैसे हो सकता है कि मैं इस मुहूर्त का साक्षी नहीं बनूं! बी श्योर, मैं जरूर आऊंगा।’
मैं अपनी बात को मजाकिया बनाना चाहता था। लेकिन शायद सुदीप्ता ने उसमें कोई दूसरी अनुगूंज पा ली थी। उसका चेहरा निमिष भर के लिए कठोर हो गया, फिर सुस्त और बुझा-बुझा। उसने अपना बैग उठाते हुए अपनी बात दोहराई- ‘दादा, जरूर आइएगा और बउदी को भी साथ लाइएगा।’
सुब्रतो भी खड़ा हो गया था। मैंने हाथ उठा कर उन्हें रुकने का इशारा किया- ‘अरे ये क्या! इतनी जल्दी!’
सुदीप्ता ने इजाजत मांग ली- ‘हां दादा, आज नहीं। आज एकदम नहीं। फिर कभी बैठूंगी आपके पास।’
वह मेरे चेहरे पर नजर डालने से बच रही थी। सुब्रतो ने उसे चलने का इशारा किया तो वह उसके पीछे-पीछे मुड़ गई। सीढ़ियों पर एक बार फिर सुदीप्ता के सैंडिलों की ठक-ठक और उसके साथ कदमताल करते स्पोर्ट्स शूज की चप-चप की आवाज आने लगी। छज्जे से झांक कर मैंने देखा, सुब्रतो यामाहा स्टार्ट कर चुका था और सुदीप्ता बाइक की सीट पर बैठ रही थी। सुब्रतो ने गीयर बदला तो सुदीप्ता ने उसकी कमर में हाथ डाल दिया। उसने भी छज्जे पर मुझे देख लिया था। उसका बायां हाथ हवा में लहराया। वह हिलता हुआ हाथ तेज रफ्तार में दूर होता गया और मोड़ पर पहुंच कर सहसा ओझल हो गया।
चार साल पहले जब सुदीप्ता गांगुली हमारी नुक्कड़ नाटक मंडली में शामिल हुई तो साथी लड़कों में जैसे उत्साह की लहर दौड़ गई थी। उन दिनों टीम ने शहर में जितने नुक्कड़ नाटक किए, उनमें सुदीप्ता की बोल्डनेस की वजह से जान आ गई। तब तक हमारा अनुभव यही था कि स्टेज पर अभिनय करने वाली लड़की जब नुक्कड़ पर उतरती है तो परफॉर्म करते हुए सहज नहीं रह पाती। सुदीप्ता ने यह करिश्मा कर दिया कि अपने चारों ओर दर्शकों की भीड़ उमड़ती देख कर वह जरा भी नर्वस नहीं होती थी, बल्कि उसका अभिनय और जीवंत हो उठता था।
इसके कई महीने बाद टीम लीडर किसलय बताने लगा कि सुदीप्ता की ट्यूनिंग दीपक के साथ ज्यादा दिख रही है जो यूनिट के डिसिप्लिन के लिहाज से ठीक नहीं है। दीपक हमारा पुराना साथी था। मंझोले कद का सुकुमार-सा युवा। पुरुलिया के एक गांव से वकालत की डिग्री के लिए रांची में पढ़ने आया था। लड़कों के एक लॉज में रहता था। टीम से जुड़ने के बाद कुछ ही समय में वह हमारा भरोसे का साथी बन गया था। बैठकों में अक्सर चुप रहता। शुरू में उसे संकोच रहा होगा कि वह हिंदी कम जानता है जबकि हमारे शोज की स्क्रिप्ट ज्यादातर हिंदी में हुआ करती थी। बाद में जब उसने यह दीवार पार कर ली तो अपने धारदार सुझावों के साथ बहसों में हिस्सा लेने लगा। बोलने की जरूरत नहीं हो तो खामोश रहना उसे अच्छा लगता। वही दीपक शायद सुदीप्ता को भा गया था। मुझे न ताज्जुब हुआ, न एतराज। उनकी दोस्ती जब तक टीम के कामों में अड़चन नहीं पैदा करती, किसी को क्यों एतराज हो!
उस साल बरसात में नुक्कड़ नाटकों की तैयारी बंद थी। हमारा आपस में मिलना-जुलना बेहद कम हो गया था। इसकी एक बड़ी वजह यह रही कि हमारी टीम की तमाम गतिविधियों को जोड़ने-बांधने वाला सचिव श्यामल पार्टी के काम से ग्रामीण मोर्चे पर भेज दिया गया था। किसलय सचिव के बतौर नया था जिसे संयोजक की जिम्मेवारी भी दे दी गई थी। उन दिनों हम एक मंच नाटक की तैयारियों में लगे थे। हमारा रिहर्सल ओवरब्रिज के पास बच्चों के एक स्कूल की इमारत में चल रहा था। कई साथियों का सुझाव था कि दीपक को संयोजक बना दिया जाए। लेकिन उन दिनों उसकी सेहत खराब चल रही थी। उसपर बोझ डालना ठीक नहीं समझा गया। लिहाजा उन दिनों टीम की गतिविधियां शिथिल हो गई थीं।
श्यामल चार दिनों के लिए रांची आया तो उसने नाटक मंडली की बैठक रखी। टीम की निष्क्रियता सबको परेशान कर रही थी। वे नवंबर के शुरुआती दिन थे। शाम में स्कूल भवन में सारे साथी जुटने लगे थे। किसलय सचिव होने के नाते वहां पहले से मौजूद था। मैं जब वहां पहुंचा, उस इमारत के बीचोबीच विशाल आंगन जैसी खुली जगह में लोग अलग-अलग टोलियों में गपशप कर रहे थे। ‘हैलो मुकुल दा, नमस्कार मुकुल भाई, आइए दादा, आइए’ जैसे संबोधनों से मेरा स्वागत हुआ। मैंने उन सबसे हाथ मिलाया। मेरी नजरें दीपक और सुदीप्ता को तलाश रही थीं। पिछली कई बैठकों में वे दोनों इकट्ठे पहुंचे थे।
किसी ने छेड़ा- ‘दादा, किसे खोज रहे हैं? आपकी हीरोइन अभी नहीं पहुंची है। और हीरो तो, जानते ही हैं, हीरोइन के साथ ही आता है।’
हो-हो कर कई कंठों की साझी हँसी फूट पड़ी। श्यामल मित्रा ने नकली गुस्से में कहा-‘स्टॉप इट।’
किसी ने हमदर्दी जताई- ‘रियली, इट्स इज पेनफुल।’
तभी दरवाजे पर सुदीप्ता और दीपक दिखाई पड़े। सुदीप्ता ने आसमानी रंग का स्कर्ट और सफेद कमीज पहन रखी थी। हेयरबैंड पर एक सूर्ख गुलाब लगा था। कंधे पर घुटनों तक झूलता कार्यकर्ता झोला। वहीं से उसकी तेज आवाज सुनाई दे रही थी। शायद वह किसी बहस में उलझी हुई थी। दीपक हमेशा की तरह अपनी साइकिल के साथ खामोशी से उसका भाषण सुनता हुआ चला आ रहा था। श्यामल ने ऊंची आवाज में सबको संबोधित किया- ‘साथियो, अब हमें शुरू करना चाहिए। वी आर हाफ एन ऑवर लेट।’
बैठक में श्यामल ने विषय रखा। किसलय ने सचिव की रिपोर्ट पढ़ी। बहस हुई। कई तरह के सुझाव आए और कई फैसले लिए गए। उम्मीद के मुताबिक कुछ खास गरमा-गरमी नहीं हुई। दीपक ज्यादातर चुप रहा। मालूम हुआ, उसके फेफड़े में दर्द है। सुदीप्ता कई बार अपनी आवाज के फुल वॉल्युम तक पहुंची। हवा में हाथ हिलाते हुए उसने टीम के रवैये पर अपना रोष व्यक्त किया। उसका गुस्सा इस बात पर भड़का था कि किसलय दीपक और उसके संबंधों के बारे में अनवांटेड् कमेंट्स करता है। आखिर में वह यह धमकी देकर बैठ गई कि अगर स्थिति नहीं बदली तो वह टीम से अलग हो जाएगी। श्यामल और मैंने उसे समझा-बुझा कर ठंढा किया। किसलय को भी विवाद में पड़ने से मना किया गया।
बैठक के बाद मैं वहां से बाहर निकला। सुदीप्ता सड़क किनारे किसी से बातचीत कर रही थी। मैं उससे मिल कर चीजों को समझना चाहता था। मगर सबके सामने यह इच्छा जताने में मुझे झिझक हो रही थी। इन दिनों दीपक की गिरती सेहत को लेकर वह ज्यादा तुनुकमिजाज हो गई है। ऐसी रिपोर्ट मुझे मिली थी। मैंने मन बनाया था कि अगर वह मिलने आती है तो मैं उससे विस्तार में बातचीत करूंगा। अगर आज अवसर नहीं मिला तो फिर कभी बाद में देखा जाएगा। आज उसके आरोप से किसलय आहत हुआ होगा। अभी सुदीप्ता को खास तरजीह देकर किसलय के दुख को और बढ़ाना ठीक नहीं रहेगा।
अचानक मेरे दाएं कंधे पर एक जोरदार धौल पड़ी और बैंजो के झाले की तरह तेज आवाज मेरे कानों में झनझनाई- ‘क्यों दादा, आप आए नहीं उस दिन? मम्मी कितना इंतजार कर रही थी। और मैं तो इंतजार करते-करते बोर ही हो गई।’
देखा, सुदीप्ता मेरे बराबर पहुंच गई है। ऐसी बेफिक्र मस्ती वाली अदा किसी और की हो भी नहीं सकती। फिर भी मैं थोड़ा संकोच में पड़ गया। यह सुदीप्ता भी कमाल की लड़की है। न समय देखती है, न जगह। छोटे-बड़े का सवाल तो खैर उठता ही नहीं।
मैंने कैफियत देने की कोशिश की- ‘नहीं सुदीप्ता, ऐसी बात नहीं। मैं तो…’
उसने बीच में ही मेरी बात काट दी- ‘ऐसी बात नहीं तो फिर कैसी बात है! आपने प्रॉमिस किया था, आप आए क्यों नहीं? नो-नो, नो एक्सप्लेशन प्लीज।’
मैंने फिर उसे समझाने की कोशिश की- ‘प्लीज सुनो तो…’
सुदीप्ता धुन की पक्की और जिद्दी लड़की बन गई थी- ‘नहीं, आज मैं कुछ नहीं सुनूंगी। आपको मेरे साथ चलना होगा। आज और अभी। इसी वक्त।’
उसने मेरा दायां हाथ पकड़ कर खींचना शुरू कर दिया था। शायद मेरी नजर दो कदम के फासले पर चल रहे दीपक पर नहीं ठहरती तो सुदीप्ता की यह चपलता बुरी नहीं लगती। वह कभी–कभी अपने नटखटपने में मर्यादा की सारी सीमाएं तोड़ देती है। मुझे ध्यान में आ रहा था कि कई साथी मेरी फजीहत का खूब मजा ले रहे होंगे। दीपक पता नहीं क्या सोच रहा होगा!
श्यामल तो उसके मन-मिजाज से खासा परिचित है, फिर भी पता नहीं क्या सोच ले! मैंने बड़े संकोच से, मगर जरा जोर लगा कर, अपनी कलाई को सुदीप्ता की पकड़ से अलग कर लिया। मेरी आवाज में आए खिंचाव को उसने जरूर महसूस किया होगा- डोंट बी सिली सुदीप्ता। मैं आऊंगा। फोन करके आऊंगा। आज एक जरूरी एपॉयंटमेंट है। ओ.के.।
अगले हफ्ते उसका फोन आया। वादे के मुताबिक मैं उसके घर पहुंच गया। मेरे आने का समय तय था, इसलिए वह बाहर मेरा इंतजार कर रही थी। घर का पहला कमरा एक छोटा सा बैठकखाना है। उसे ड्रांइंगरूम नहीं कहा जा सकता। बहुत पहले वहां एक बार मैं आया था। तब सुदीप्ता हमारी टीम में शामिल नहीं हुई थी। मैं उसकी मम्मी के पास किसी चैरिटी शो के टिकट देने गया था। कमरे में पहुंच कर मैंने एक कुर्सी अपने लिए सरकाई तो उसने मुझे रोका- ‘प्लीज, यहां नहीं। मेरी स्टडी में बैठते हैं। यहां तो कोई भी आकर बोर कर सकता है।’
मैं चकराया- ‘क्या मम्मी बाहर नहीं आ सकती हैं?’
उसने बतााया- ‘मम्मी तो घर पर नहीं हैं।’
मैं चिंतित हुआ- ‘और पापा?’
उसका सपाट उत्तर था- ‘वो भी नहीं। वो तो टूर पर हैं। डैडी हमेशा टूर पर रहते हैं। मैं और मम्मी दोनों उनका इंतजार करते-करते बोर होते रहते हैं।’
बैठकखाने के ठीक पीछे एक बड़ा कमरा था। तरह-तरह के उपयोगी और सजावटी सामानों से भरा हुआ। कोने में एक टेबुल, दो कुर्सियां और किताबों की एक बड़ी सेल्फ। सुदीप्ता ने बताया- ‘यही मेरा स्टडी रूम है। बैठिए।’ उसकी आंखों में शरारत झलक रही थी- ‘आपको डर तो नहीं लग रहा कि मेरे मम्मी-डैडी कोई घर में नहीं हैं और आप यहां मेरी स्टडी में बैठे हैं!’
वह किलकती हुई बोली- ‘आप बैठिए। मैं चाय लेकर आती हूँ। मम्मी भी आती होंगी।’
वह सामने झूलते परदे के अंदर अदृश्य हो गई। आज वह बड़ी लग रही थी। धानी जमीन पर सफेद धारियों की चौड़े पाढ़ की सूती साड़ी। गहरे धानी रंग का ब्लाउज। हेयरबैंड से बंधे, पीठ पर छितराए घने केश। यह वह सुदीप्ता नहीं थी जो स्कर्ट-ब्लाउज में रिहर्सल में आती, जींस या बेल बॉटम में सड़कों पर बिंदास घूम लेती या नुक्कड़ नाटकों में किसी चैरस्ते पर विद्रोह से भरी किसी औरत की चीख बन जाती थी। मैं सोचने लगा, सुदीप्ता को कभी-कभी क्या हो जाता है! कभी जरूरत से ज्यादा मॉड और बिना जरूरत एग्रेसिव बन जाती है।
वह ट्रे में चाय के प्याले और मिठाई-बिस्कुट की प्लेट लेकर वापस आ गई थी- ‘मैं आपको सरप्राइज देना चाहती हूँ।’
मैंने पूछ लिया- ‘कैसा सरप्राइज! समझा कर कहो न!’
उसने ट्रे को तिपाई पर रखा। दोनों प्लेटों को टेबुल पर जमाया और चाय का कप मुझे थमाती हुई बोली- ‘आज मेरा जन्मदिन है। मैं इसे सादगी से सेलिब्रेट करना चाहती हूँ। कोई भीड़-भाड़ नहीं, गिफ्ट पैकेट का चक्कर नहीं। बस यहां सिर्फ चार लोग उपस्थित रहेंगे। आप आ गए हैं, दीपक पहुंच रहा होगा, मम्मी को थोड़ी देर हो सकती है। वे एक सीजैरियन केस निबटा कर आएंगी।’
मेरा तनाव ढीला पड़ गया- ‘तो ये बात है! यानी तुमने मुझे बेवकूफ बनाया।’
‘दादा, मैं तो आपको अपना गुरु मानती हूँ। और गुरु को कोई बोका बनाता है क्या!’
मैंने लाड़ जताया- ‘बहुत बोलना सीख गई हो तुम। अच्छा, एक बात तुमसे पूछूँ? सुदीप्ता ने चकित होकर कहा- ‘पूछिए। जरूर पूछिए।’
मैं अब भी झिझक रहा था- ‘वो बात बिलकुल पर्सनल है सुदीप्ता। तुम बुरा तो नहीं मानोगी?’
‘दादा, आपसे बुरा नहीं मानूंगी। बी श्योर। आई ऐम एनफ फ्रैंक।’
मैंने अपना सवाल सीधे रख दिया- ‘तो दीपक और तुम्हारे बीच कोई अफेयर चल रहा है? चल रहा है या नहीं?’
वह गंभीर हो गई- ‘दादा, आपको यह किसने बताया?’
मुझे प्रतिप्रश्न की आशा नहीं थी। इसलिए उसे टालने की कोशिश की- ‘यह जान कर तुम क्या करोगी? मैं सही बात जानना चाहता हूँ। और वो भी तुमसे। इसलिए कि किसी और से सुनकर मुझे तुम्हारे बारे में राय नहीं बनानी पड़े।’
उसकी आवाज में कड़वाहट चली आई थी- ‘जरूर किसलय ने बताया होगा। स्टूपिड। आई हेट हिम। दादा, ही इज ए जेलस।’ आगे उसे शब्द नहीं मिल पा रहे थे।
मुझे यह चिंता सताने लगी कि अगर ठीक इसी वक्त दीपक या सुदीप्ता की मम्मी आ जाएं तो उसे इतना उत्तेजित देख कर जाने क्या सोचने लगें। मैंने उससे कहा- ‘शांत हो जाओ सुदीप्ता। आई ऐम वेरी वेरी सॉरी फॉर माई वर्ड्स। आई हैड नो इंटेंशन टु हर्ट योर सेंटीमेंट्स।’
सुदीप्ता सहज सामान्य हो गई। उसका सेंस ऑफ ह्यूमर लौट आया था- ‘तो क्या उसी अंदाज में कनफेस करना पड़ेगा जैसे कठघरे में करना पड़ता है- मैं गीता की कसम खाकर कहती हूँ कि…’
हम दोनों की हँसी छूट गई। कुहरा छंट गया था और आसमान में चंद्रमा पूरे शबाब में था। वह फिर बोलने लगी थी- ‘दादा, आपसे मिथ्या कथा नहीं कहूंगी। पूरा सच कहूंगी और कुछ छिपाऊंगी भी नहीं। यूं भी, आई नेवर फील एशेम्ड फॉर ह्वाट आई डू। रियली, आई एम इन डीप लव विद दीपक।’
मैेंने पूछ लिया- ‘तुम्हारी मम्मी को यह मालूम है?’
उसका उत्तर था- ‘यस, ह्वाइ नॉट। शी नोज दिस वेल।’
‘और डैडी को?’
सुदीप्ता ने सिर हिलाया- ‘मैं नहीं जानती।’
अब कुछ पूछने-जानने को नहीं रह गया था। शायद कहने-सुनने को भी कुछ बाकी नहीं था। सुदीप्ता ने जूठे बरतनों को ट्रे में जमा किया और सामने वाले परदे के पीछे एक बार फिर अदृश्य हो गई। अचानक मुझे ध्यान आया कि मेरे सिर के ऊपर एक पंखा तेज रफ्तार से घूम रहा है। शायद इसलिए कि मेरा दिमाग चक्कर खा रहा था। सुदीप्ता ने जिस सीधे-सादे ढंग से अपनी प्रेम भावना को स्वीकार किया था, वह दूसरों के बयान में चिली सॉस का मजा क्यों देता है! अपनी टीम के साथी भी चटखारे लेकर एक-दूसरे को बताया करते हैं कि आज अमुक जगह, अमुक समय इन दोनों को ऐसे-ऐसे देखा। किसलय ने मुस्तैद डाकिए की तरह एक-एक खबर को घर-घर तक पहुंचा दिया।
सुदीप्ता कमरे में लौटी तो उसके होंठों पर एक बात थी– ‘मुझे पता है कि वह क्या अफवाह उड़ा रहा। मैं उसे छोड़ूंगी नहीं। दादा, मेरे सामने उसका नाम नहीं लीजिए। वह डबल गेम खेल रहा है। मैं सब समझती हूँ। बच्ची नहीं हूँ। नाउ आइ एम ग्रोन अप।’
मुझे कहना पड़ा– ‘मैं तुम्हारा मतलब नहीं समझा। यू कैन मेक मी अंडरस्टैंड इफ यू लाइक।’
सुदीप्ता सम्हल कर बैठ गई। उसने एक नजर बाहरी दरवाजे की ओर डाली। दीपक या उसकी मम्मी अब किसी भी क्षण वहां पहुंच सकते थे। शायद इसीलिए उसने अपनी आवाज मद्धिम कर ली- ‘आप नहीं जानते। वह यहां बराबर आता है। कोई आने के लिए कहे या नहीं कहे। हफ्ते में कम से कम एक बार तो जरूर आता है। मेरे पास मेरी प्रशंसा करता है। मम्मी के छोटे-मोटे कामों में मदद करता है। कोई भी जवाबदेही लेने के लिए हमेशा तैयार दिखता है। और अगर मैं घर में नहीं रहूं तो मम्मी के कान भरता है। हां, सिर्फ डैडी के सामने उसकी दाल नहीं गलती।’
मेरी उत्सुकता वास्तव में बढ़ गई थी- ‘वह तुम्हारी मम्मी को क्या बताना चाहता है?’
दरवाजे की ओर लगातार देखती हुई वह अपनी बचीखुची बात समेट रही थी- ‘यही कि अभी मैं नादान हूँ। अपना भला-बुरा नहीं समझती। आदमी तक नहीं पहचानती कि कौन कैसा है! फिर यह भी बताता है कि दीपक फटेहाल जिंदगी जी रहा है। लॉज में पढ़ाई के नाम पर किसी तरह वक्त काटे जा रहा। टीम की बैठकों में सिगरेट पर सिगरेट फूंकता रहता है, जबकि सभी जानते हैं कि उसे फेफड़े की बीमारी है।… वह मुझे फंसा रहा है।… यही सब, और क्या!’
यह पूछना मुझे जरूरी लगा- ‘तुम्हारी मम्मी उसे लिफ्ट क्यों देती है?’
‘वो सिर्फ इसलिए कि वे मेरी सर्किल के बारे में खुद कुछ नहीं जानतीं।… दादा, दीपक आ गया है।’
उस जन्मदिन के बाद सुदीप्ता से महीनों तक मेरी भेंट नहीं हुई। श्यामल की कोशिशों के बाद भी टीम दोबारा सक्रिय नहीं हो पाई। किसलय ने इस्तीफा दे दिया था। उन्हीं दिनों मुझे यूजीसी का एक प्रोजेक्ट मिला तो मैंने उसे स्वीकार कर लिया था। दो महीने फील्ड वर्क के सिलसिले में टूर करता रह गया। वहां से लौटा तो कामकाजी व्यस्तताओं में फंसा रहा। इस दौरान किसलय कभी-कभी मिलने आ जाता था। उसके पास सब तरफ की खबरें होती थीं। शहर में कौन सा ग्रुप कौन सा प्ले कर रहा है। इस बार कौन-कौन सी टीमें इलाहाबाद, पटना, डेहरीऑनसोन के फेस्टीवल में जा सकती हैं। कौन सा आर्टिस्ट अपने ग्रुप को छोड़कर दूसरे ग्रुप में गया या जाने वाला है। और अंत में वह यह बताना नहीं भूलता कि सुदीप्ता और दीपक किस काम में आजकल बिजी रहते हैं।
दीपक आजकल बीमार चल रहा। पूजा की छुट्टियों में लॉज के अधिकतर लड़के अपने-अपने घर चले गए थे। उसके लॉज का मेस बंद था। उसे खाने-पीने में भी दिक्कत हो रही थी। बुखार की हालत में भी वह बिना खाए-पिए दिन-दिन भर अपने कमरे में अकेला पड़ा रहता। इंजेक्शन और बाकी दवाएं भी समय पर नहीं लेता। शायद पुरुलिया से मनीऑर्डर आने में हो जाने वाली देर से उसकी परेशानी बढ़ गई थी। लॉज के एक लड़के ने सुदीप्ता को बता दिया कि पिछले दिनों दीपक को खून की उल्टियां हुई हैं।
दीपक सुदीप्ता को लॉज में आने से मना कर चुका था। साथ के लड़के बेपर की उड़ानें भरते हैं। दीपक से दोस्ती होने के बाद वह दो बार लॉज में उसे खोजने चली गई थी। उसके पहुंचने से वहां का वातावरण असहज हो जाता। किसी कमरे का दरवाजा बंद होने लगता। कई खिड़कियां खुलने लगतीं। दबे गले से हँसने, फुसफुसाने या चोर निगाहों से टटोलने में जैसे सारा लॉज शरीक हो जाता। दीपक कभी बिना बताए चार-चार दिन रिहर्सल से गायब हो जाता तो सुदीप्ता उसका हाल जानने के लिए बेचैन हो जाती। पता नहीं घर से मनीऑर्डर आया या नहीं। दीपक ने दवाएं खरीदीं या नहीं। कभी सोचती, उसकी खांसी बढ़ गई होगी। फेफड़े में दर्द बढ़ा होगा। बुखार से जरूर तप रहा होगा उसका बदन। सुदीप्ता अपनी स्टडी में किताबों पर झुकी-झुकी आंसुओं में खत लिखती और हवा में उनकी चिंदियां बिखेर देती। उसे अपनी बेचैनी से बाहर आने का रास्ता नहीं सूझता था।
सुदीप्ता यह सब झेलती थी, फिर भी लॉज में जाने का साहस नहीं जुटा पाती थी। दीपक बुखार में तपता रहे, खून की उल्टी करता रहे, और वह लोक-लाज के डर से अपने कमरे में बैठ कर ईश्वर से उसकी सलामती की दुआ मांगती रहे, यह हमेशा नहीं हो सकता। उस दिन सुदीप्ता उसी लड़के के बाइक में बैठ कर लॉज में पहुंच गई। दीपक का माथा गर्म तवे की तरह तप रहा था। आंखें नहीं खोल पा रहा था वह। पूरा कमरा कबाड़ की टाल बना हुआ था। सुदीप्ता सहज भाव से उसके बिस्तरे पर बैठ गई। उसके सिर को प्यार से सहलाया और पूछा- ‘तुमने मुझे पहले क्यों नहीं बताया? तुम डॉक्टर के पास चल सकते हो? आज कुछ खाया है या नहीं?’ वह सबकुछ चुपचाप सुनता रहा। सुदीप्ता को लगा कि उसके यहां आने से वह नाराज हो गया है। दीपक के चेहरे पर झुक कर उसने पूछ लिया- ‘मेरे यहां आने से तुम नाराज हो गए?’
दीपक के होंठों पर हरकत हुई। उसकी आंखों में आंसू छलक आए। सुदीप्ता ने अपने आंचल से उसके चेहरे को साफ कर दिया। लॉज का वह लड़का अब तक कमरे की अकेली कुर्सी पर बैठा हुआ था। सुदीप्ता ने उसे थी्रह्वीलर लाने का अनुरोध किया। इस हाल में दीपक को बाइक पर कहीं नहीं भेजना चाहिए। फिर वह भी तो है उसके साथ।
डॉक्टर घोषाल ने जांच के बाद बताया कि मरीज की हालत चिंताजनक है। लगता है, इसने दवाओं का कोर्स ठीक से पूरा नहीं किया। अभी तपेदिक का तीसरा चरण है। सावधानी से देखभाल की जरूरत है। दीपक उस समय भी लॉज में लौट जाना चाहता था। साथ वाले लड़के की राय थी कि जल्दी से जल्दी दीपक के घरवालों को यह खबर मिलनी चाहिए। आखिरी फैसला सुदीप्ता ने किया। वह उसे अपने घर ले जाएगी। बाद में उसकी मम्मी की अनुभवी आंखों ने दीपक को पेशेंट की तरह देखा तो वह सहमत हुई कि सुदीप्ता ने सही निर्णय लिया है।
उसी दिन दीपक के माता-पिता को तुरंत आने का संदेश भेजा गया। पुरुलिया के उस गांव में तब फोन सुविधा नहीं थी। इसलिए टेलीग्राम करना पड़ा। दूसरे दिन एक्सप्रेस लेटर भी भेजा गया, कि उनको पहले जो मिल जाए। पांच दिन बाद दीपक के पिता आए तो उनसे मालूम हुआ कि चिट्ठी पहले मिली और तार संदेश उसके एक दिन बाद। इस बीच दीपक की हालत में तेजी से सुधार दिखने लगा था। इस सप्ताह वह सुदीप्ता के घर में ही रहा था। अभी तुरत उसे सेनिटोरियम में एडमिट करने की जरूरत किसी को नहीं लग रही थी।
सुदीप्ता ने मम्मी से बिनती की- ‘प्लीज मम्मी, इसे अपने पास यहीं रोक लो। तुम तो डॉक्टर हो, सब समझती हो। यहां तो मैं भी इसकी देखभाल ठीक से कर सकूंगी।’
उसने दीपक से भी कहा- ‘कुछ दिन और यहीं रुक जाओ दीपक। जब कुछ ठीक लगे तब जाना।’
दीपक के पिता ने सुदीप्ता के मम्मी-डैडी को बार-बार धन्यवाद दिया और कृतज्ञता प्रकट की। दीपक उनकी कृपा से बच गया। परदेस में यह सहारा सबको नहीं मिल पाता। अब वे उसे गांव ले जाना चाहते हैं। मां-बहनें सब उसका इंतजार कर रही हैं। वहां की खुली हवा-हरियाली उसकी सेहत जरूर बेहतर कर देंगी।
डॉ. घोषाल ने यात्रा की अनुमति दे दी। मगर एक महीने बाद चेकअप के लिए बुलाया भी। दीपक चुप रहा। सुदीप्ता से किसी ने कुछ नहीं पूछा।
मम्मी ने सहायता की। एक डॉक्टर होने के नाते उन्होंने दीपक के पिता को समझाया कि गांव में इमरजेंसी होने पर दीपक को तुरंत यहां ले आइएगा। वहां देखभाल तो होगी, लेकिन ऊंचे दर्जे की डॉक्टरी सहायता शायद नहीं मिल सके। मां-बहनों से मिलने के लिए वह पांच-छह दिन वहां रह ले। लेकिन उसे जल्दी लौट आना चाहिए। हमलोग यहां उसकी जरूरी मदद करेंगे। लॉज छोड़ कर वह कुछ समय के लिए यहां रह सकता है। घर से कोई यहां आना चाहे तो वह भी आ जाए।
दीपक दस दिन गांव में बिता कर अकेले लौट आया। लेकिन लॉज छोड़ कर सुदीप्ता के घर रहने के लिए तैयार नहीं हुआ। सुदीप्ता ज्यादा जोर नहीं दे पाई। पिछली बार कई रोज वह यहां रह गया था तो मम्मी के नजदीकी लोग तरह-तरह के सवाल उठाने लगे थे। उस लड़के को अस्पताल में क्यों नहीं भरती करा दिया? वह कौन है? क्या करता है? तुम लोग से क्या सरोकार है उसका? सुदीप्ता तक हर बात पहुंचती रही। इस बार दीपक को अपने पास रोक लेने का साहस उसे नहीं हुआ। तय यह हुआ कि हर दिन वह आएगा और खा-पी कर शाम को अपने लॉज में लौट जाएगा।
एक दिन सुबह-सुबह किसलय का फोन मेरे पास आया- ‘दादा, बहुत बुरी खबर है।…कल रात दीपक की डेथ हो गई।’
‘अरे…यह कैसे?…उसकी डेड बॉडी कहां है?’
‘शायद सुदीप्ता के घर। पूरा डिटेल मुझे नहीं मालूम। आप जल्दी वहां पहुंचिए।… मैं वहीं जा रहा हूँ।’
सुदीप्ता के घर कोई भीड़-भाड़ नहीं थी। दीपक के लॉज के तीन-चार लड़के दिखे। हमारे थियेटर ग्रुप के कई साथी वहां पहुंच गए थे। मालूम हुआ, डेड बॉडी सुबह छह बजे पुरुलिया भेज दी गई है। उस गाड़ी में लॉज के दो लड़के और सुदीप्ता का एक कजिन भी है।
हम सब उस घर के बाहर अहाते में खड़े थे। लॉज का एक लड़का बोल रहा था कि दीपक को दो रोज सें बुखार था। खांसते हुए खून जैसा कुछ निकल रहा था। उसने किसी को पहले कुछ नहीं बताया। छुट्टियों के कारण लॉज में लड़के कम थे। लगातार दो दिन वह सुदीप्ता के घर खाने के लिए नहीं पहुंचा तो उसे बुलाने के लिए सुदीप्ता ने किसी को भेजा था। तब हमें दीपक का हाल मालूम हुआ। दीपक की हालत नहीं सुधरी तो शाम को सुदीप्ता उसे अपने घर ले गई। उस समय लॉज के दो लड़के भी उनके साथ गए थे। उसके तीन-चार घंटे बाद, शायद रात के नौ बजे, दीपक की डेथ हो गई।
घर के अंदर जाने के लिए पांव नहीं उठ रहे थे। हिम्मत नहीं जुट रही थी। बाहर तक सुदीप्ता के बिलखने की आवाज आ रही थी। किसलय अंदर से निकलकर बाहर आया- ‘सुदीप्ता को चुप कराना चाहिए। रो-रो कर उसका बुरा हाल हो गया है। सर, आपकी बात वह बहुत मानती है। उसे अंदर चल कर समझाइए न!’
लॉज के लड़के वापस चले गए थे। ग्रुप के सिर्फ चार लोग वहां बच रहे थे। हम सब बैठकखाने में घुसे। भीतर से सुदीप्ता की सिसकियों के साथ टुकड़े-टुकड़े शब्द यहां साफ सुनाई देने लगे थे। लग रहा था, कई महिलाएं उसे तरह-तरह से समझाने की कोशिश कर रही थीं। वह चुप हो जाती थी। मगर थोड़ी देर में ही जैसे कोई हूक उठने लगी हो, उसके बिलखने और सिसकने का रुका हुआ सिलसिला फिर शुरू हो जाता था। हम चारों वहां कुर्सियों पर बैठ गए। अंदर सिर्फ किसलय गया।
कुछ देर बाद किसलय के साथ सुदीप्ता की मम्मी आईं। उनका हमेशा दमकने वाला चेहरा तनाव से काला पड़ गया था। मैं उठ खड़ा हुआ। वे धीरे-धीरे बताने लगीं- ‘मुकुल जी, सुदीप्ता बहुत शॉक्ड है। मैं उसे कंट्रोल नहीं कर पा रही हूँ। उसके डैडी भी यहां नहीं हैं। आपका वह बहुत सम्मान करती है। प्लीज, उसे समझाइए।’
साहस करके मैंने पूछ लिया- ‘मैडम, यह सब हुआ कैसे?’
वे एक स्टूल खींच कर बैठ गईं और कहने लगीं– ‘कल शाम मैं घर में नहीं थी। सुदीप्ता को मालूम हुआ कि दीपक सीरियस है तो वह उसे घर ले आई। उन दोनों ने मेरा बहुत इंतजार किया। सुदीप्ता उसे कहती रही– चलो, डॉक्टर घोषाल को दिखा लें। उन्हें सारा डेवलपमेंट तुरंत बताना चाहिए। आठ बजे तक मैं घर नहीं पहुंची तो सुदीप्ता उसे डॉक्टर घोषाल के पास ले गई।
‘घोषाल ने देखते ही कहा- ऑक्सीजन की जरूरत है। इसे तुरंत हॉस्पीटल ले जाओ।
‘घोषाल के स्टाफ ने गाड़ी का इंतजाम कर दिया। मुहल्ले के दो मददगार लड़के मिल गए। मगर दीपक अस्पताल नहीं पहुंच सका। रास्ते में ही खून की उल्टी हुई और… डेथ हो गई।’
‘फिर?’
‘मैं जब घर पहुंची तो वे लोग डेड बॉडी को गाड़ी से उतार रहे थे। मैं उसे बैठकखाने में रखवाना चाह रही थी। लेकिन सुदीप्ता हिस्टीरिकल हो गई थी। जिद करके डेड बॉडी को उसने अपने स्टडी में रखवा लिया। रात भर वहीं उसके पास बैठी रही। कुछ बोलती नहीं थी। पड़ोस से कई जेंट्स और लेडीज पहुंच गए थे। उनकी सलाह पर तय किया कि डेड बॉडी को जल्दी से जल्दी उसके गांव भेज दिया जाए। लॉज के दो लड़के गाड़ी में साथ जाने को तैयार हो गए थे। मेरा एक भतीजा भी उनके साथ गया। उस समय सुदीप्ता डेड बॉडी को जाने देने के लिए तैयार नहीं हो रही थी। बड़ी मुश्किल से यह काम हुआ।’
मैंने पूछ लिया- ‘अब वो कैसी है?’
उन्होंने उठते हुए कहा- ‘मैं क्या बताऊं मुकुल जी! आप खुद चल कर देख लीजिए।’
मैं उनके पीछे हो लिया।
सुदीप्ता की स्टडी में सबकुछ उलट-पलट चुका था। शायद दीपक की लाश को अंदर लाने के समय जल्दी-जल्दी में फर्नीचर को जहां-तहां सरका दिया गया था। अंदर ड्राइंग रूम में सुदीप्ता जमीन पर अस्तव्यस्त हाल में बैठी थी। कई महिलाएं उसके आसपास बैठी थीं। मैंने उसकी सहेली सुनंदा को पहचाना। सुदीप्ता की मम्मी बोलने लगीं- ‘सुदीप्ता बेटी, देखो, कौन आया है! तुम्हारे मुकुल दा आए हैं।’
वह मेरी तरफ पलटी। पहले उसने छलछलाती आंखों से मुझे घूरा। फिर अचानक चिल्लाने लगी-‘अब आए हैं दादा, जब मेरा दीपक चला गया। दादा, ये लोग उसे मुझसे छीन कर ले गए। मुझे धोखा दिया। सबने मुझको धोखा दिया।’
मैंने उसे समझाने की कोशिश की- ‘अपने को सम्हालो सुदीप्ता। देखो, तुम्हारी मम्मी कितना दुखी हैं। कितना परेशान हैं।’ सुदीप्ता ने मुझे टोक दिया- ‘दादा, मैं भी बहुत परेशान हूँ। दुखी हूँ। लेकिन मेरी कोई नहीं सुनता। कल मैं दीपक से बोली, चलो, जल्दी डॉक्टर से दिखा लो। लेकिन उसने मेरी बात नहीं मानी। मुझसे बार-बार कहता रहा- तुमि आमाके सोमय दिले ना! मैं क्या करूं दादा? मम्मी ने उसकी डेड बॉडी भेज दी। मुझे साथ नहीं जाने दिया।’
सुदीप्ता जोर-जोर से रोने लगी थी।
तभी उसकी मम्मी नजदीक आ गईं। सुदीप्ता के केश सहलाते हुए प्यार से बोलीं- ‘बेटा, देखो, डॉक्टर अंकल आए हैं। मैंने नहीं बुलाया। ये खुद आ गए।’
कई दिनों तक सुदीप्ता को नींद की गोलियों पर रखा गया। उसे नींद नहीं आती थी। बीच-बीच में काफी दिनों तक उसे डिप्रेशन के दौरे आते रहे। बहुत दिनों तक इलाज चलता रहा।
मैं छज्जे से ड्राइंग रूम में लौटता हूँ। सोफे के पास सेंटर टेबुल पर सुदीप्ता और सुब्रतो के ब्याह का आमंत्रण पत्र दिखता है। सुदीप्ता ने कभी सोचा नहीं होगा कि उस निमंत्रण पत्र पर दीपक का नाम नहीं लिखा रहेगा।
मैं खुद से कह रहा हूँ- मैं आऊंगा सुदीप्ता। जरूर आऊंगा। तुम्हारे जीवन के इंटरवल का साक्षी बनकर मुझे आंतरिक खुशी होगी।
संपर्क :द्वारा श्री नीरज कुमार, गेट नंबर १, सरला बिरला यूनिवर्सिटी कैंपस,महिलौंग, टाटीसिलवे, रांची–८३५१०३/ मो.९९५५१६१४२२