वरिष्ठ आलोचक और कवि। प्रमुख कृतियाँ : ‘नागार्जुन का रचना संसार’, ‘महादेवी के काव्य का नेपथ्य’। भवानी प्रसाद मिश्र और नंददुलारे वाजपेयी ग्रंथावली का संपादन।
हिंदी साहित्य में 1936 का वर्ष उच्चतम सर्जनात्मकता का माना जाता है। प्रेमचंद का ‘गोदान’ जिसे कई बड़े आलाचकों ने हिंदी का पहला राष्ट्रीय उपन्यास कहा, 1936 में ही प्रकाश में आया। चकित करने वाला सत्य यह है कि ‘राम की शक्ति पूजा’ जैसी कविता भी 1936 में रची गई जो न केवल अपनी विषयानुभूति में बल्कि अभिव्यक्ति प्रकार में काव्य-विदग्धों के लिए चुनौती बनकर खड़ी है कि वे उसे मात्र छायावादी दीर्घ प्रगीत काव्य कहें या फिर खंड काव्यात्मक आख्यानक काव्य अथवा प्रगीत और वीरगीत के सम्मिश्रण से रचित कोई मिश्र काव्य।
प्रगीतात्मकता तो अनिवार्य रूप से उसमें है, पर आख्यानक प्रगीत कहते हुए दस बार यह सोचना पड़ेगा कि कविता का समापन और प्रारंभ जिस रूप में है और कोटि का है, उसमें वीरगीत (बैलेड) की अंतः उपस्थिति की अनदेखी कैसे भी नहीं की जा सकती। फिर भी सुभद्राकुमारी चौहान द्वारा सृजित वीरगीत ‘झांसी की रानी’ जैसी सरल बुनावट और बनावट तो इसकी नहीं है। पर यहां प्रसंग कुछ दूसरा है। 1936 का वर्ष हिंदी वालों के लिए इतना महत्वपूर्ण अगर है तो इसीलिए कि ‘गोदान’ और ‘राम की शक्तिपूजा’ जैसी कृतियां हमें अमूल्य उपहार के रूप में इसी वर्ष उपलब्ध होती हैं।
कई साहित्यिक मित्र इसी रौ में ‘कामायनी’ का प्रकाशन वर्ष भी 1936 मानकर सार्वजनिक रूप से घोषित करते चलते हैं। इसमें कवि प्रसाद के शोधकर्ता और कई युवा कवि और आलोचक शामिल हैं। ‘वागर्थ’ में आयोजित परिचर्चा में एकाध युवा मित्र ने 1936 को ‘कामायनी’ का प्रकाशन वर्ष माना है। यह सचमुच कितना सुखद होता कि 1936 ही ‘कामायनी’ का प्रकाशन वर्ष होता। पर ऐसा हुआ नहीं। प्रमाण के लिए भारती भंडार इलाहाबाद (प्रयाग) के प्रबंधक वाचस्पति पाठक का पत्र इस संदर्भ में अवलोकनीय है-
भारती भंडार
इलाहाबाद
ता.23 फरवरी 1937
आदरणीय प्रसाद जी
सादर नमस्कार!
आपका पत्र यथासमय मिला।…
मैं भी लखनऊ से… बुखार लेकर लौटा। यहां दस दिन पड़ा रहा।
कामायनी 1 हफ्ते में भेजूंगा। पुट्ठा तैयार हो रहा है। सिलाई भी हो रही है। हो सका तो खुद लेकर हाजिर हो जाऊँगा।
आप अपने स्वास्थ्य की खबर फिर दीजिएगा। हमें विश्वास है, आप नियमपूर्वक रहकर उसे बहुत ठीक कर ले गए होंगे। फिर भी चिंता तो है ही, इसलिए पत्र लिखते समय पूर्व विचार के प्रतिकूल जारों से इच्छा हो रही है कि दर्शनों के लिए मार्च में अवश्य पहले सप्ताह में आऊँ।
वाजपेयी जी न जाने क्यों रुष्ट हैं। उन्हें खत भेजा, उत्तर नहीं दे रहे। क्या इस बार काशी ने उन्हें ऐसा उलझा लिया है। मिलें तो मेरी उलाहना उन्हें अवश्य मिल जानी चाहिए।
भवदीय
वाचस्पति पाठक
पाठक जी का इसी संदर्भ में एक और पत्र है जिससे जारि और पुष्ट होता है कि कामायनी मार्च के दूसरे सप्ताह में छपकर प्रसाद जी की आंखों के सामने आई-
आदरणीय बाबू साहब,
सादर नमस्कार,
सोमवार को मैं आपके दर्शन के लिए अत्यंत उद्विग्न हो गया था। मैनेजर साहब ने छुट्टी माँगी। वे उसी दिन लाहौर जा रहे थे, उन्होंने कहा कि मैं लौट आऊं तो तुम जाओ। विवश हो रुक गया।…
वे1 9 तारीख को आ जाएंगे। तभी आ सकूंगा…। कल-परसों में ‘कामायनी’ की कापी बिल्कुल तैयार हो जाएगी।
आप अपने स्वास्थ्य का समाचार कृपाकर अवश्य भेजें।
भवदीय
वाचस्पति पाठक
‘कामायनी’ की रचना कब कैसे शुरू हुई, क्या बाधाएं आती रहीं, प्रूफ-संबंधी कैसी परेशानियां खड़ी हुईं, अंततः आठ बरसों की कठिन साधना और तपस्या के बाद (1927-1935) कैसे वह पूरी होकर प्रेस में गई, इसका विस्तार से वर्णन मैंने अपनी पुस्तक- ‘जातीय अस्मिता के प्रश्न और जयशंकर प्रसाद’ के सातवें अध्याय-‘कामायनी रचना की पृष्ठभूमि’ शीर्षक से किया है।
‘कामायनी’ की रचना कब शुरू हुई, मुक्तिबोध इस संदर्भ में डॉ.राम रतन भटनागर के द्वारा दिए गए वर्ष (1927) को मानते हैं। ‘भारती’ इलाहाबाद के संपादक नंददुलारे वाजपेयी 1932 में ‘कामायनी’ के लिखे जाने का संकेत करते हैं। पुरुषोत्तम दास मोदी द्वारा संपादित ‘अंतरंग संस्मरणों में जयशंकर प्रसाद’ के सहयोगी लेखक गोबर्धन दास मेहरोत्रा प्रसाद जी की बीमारी के बारे में लिखते हुए दर्ज करते हैं- ‘कामायनी’ जैसे महाकाव्य को लिखने में आठ वर्ष का समय लगा, उस दरम्यान भी आपने (यानी प्रसाद खुद- लेखक) स्वास्थ्य पर ध्यान नहीं दिया। फलतः इसी वर्ष (1937) के नवंबर मास में वे परलोक गमन भी कर गए।
उनके परम शिष्य कथाकार विनोद शंकर व्यास के शब्दों में – ‘कामायनी’ के साथ उन्हें कठोर तपस्या करनी पड़ी थी।’ प्रसाद ने व्यास जी से कहा था- ‘कामायानी’ लिखकर मुझे संतोष है।
1.आशय युवा आलोचक नंद दुलारे वाजपेयी–जो प्रसाद जी और निराला जी के प्रिय पात्रों और अंतरंग मित्रों मे रहे।
29 निराला नगर, दुष्यन्त कुमार मार्ग, भोपाल–462003 (मध्य प्रदेश) मो. 9425030392