युवा लेखिका। विभिन्न पत्र–पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित।
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ ने लगभग सभी आधुनिक विधाओं में लेखन का कार्य किया है। उन्होंने कला-साहित्य, समाज-संस्कृति, आधुनिकता तथा व्यक्ति-स्वातंत्र्य जैसे विषयों पर स्वतंत्र चिंतन किया है। वे अपने जीवन में विभिन्न विचारधाराओं और व्यक्तियों से प्रभावित हुए थे। उन्हें जहां से भी ज्ञान और विचार मिले, उन्होंने ग्रहण किया, लेकिन उनका प्रयोग अपने मौलिक चिंतन के आधार पर ही किया। उनके चिंतन के केंद्र में व्यक्ति की स्वाधीनता के साथ उसकी स्वायत्तता, मानवीय अस्मिता तथा सृजनात्मकता जैसी चीजें हैं।
अज्ञेय लिखते हैं, ‘मेरी रुचि सदैव व्यक्ति में रही है।’ (आत्मनेपद)। प्रश्न उठता है कि वह मानव, जो उनके चिंतन के केंद्र में रहा है, क्या उसकी स्वतंत्रता को लेकर वे प्रारंभ से जाग्रत थे या विभिन्न प्रभावों के फलस्वरूप उनका यह दृष्टिकोण विकसित हुआ।
इस संबंध में हम देखते हैं कि वे प्रारंभ से ऐसे खास व्यक्तियों के चिंतन से प्रभावित थे जिन्होंने उनके विचारों के विकास और उन्हें दिशा देने का कार्य किया। इस क्रम में मानवेंद्र नाथ रॉय का नव-मानववादी चिंतन सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। निर्मल वर्मा अपने लेख ‘अज्ञेय : आधुनिक बोध के पीड़ा’ में लिखते हैं, ‘एम. एन. रॉय का राजनैतिक चिंतन उनकी आरंभिक प्रेरणाओं में प्रमुख रहा। गांधी जी ने शायद उन्हें कभी उद्वेलित नहीं किया, वह असली अर्थों में नेहरू युग के प्रतिनिधि लेखक माने जा सकते हैैं।’
अज्ञेय के राजनीतिक विचारों का प्रारंभ सशस्त्र क्रांति के विचार से हुआ। वह भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद के क्रांतिकारी दल के सदस्य थे और क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण जेल भी गए थे। जेल से निकलने के पश्चात अज्ञेय मेरठ के किसान आंदोलन और दिल्ली में फासिस्ट विरोधी सम्मेलन में सम्मिलित हुए। वह तब प्रगतिशील लेखक संघ को समर्थन दे रहे थे। इस बीच अज्ञेय, एम. एन. रॉय के संपर्क में आ चुके थे, जब वे 1937-38 में ‘विशाल भारत’ के संपादक होकर कलकत्ता गए। राजनीति के क्षेत्र में एम. एन. राय की विचारधारा का उनपर काफी प्रभाव पड़ा।
‘तार सप्तक’ और 1947 में ‘प्रतीक’ के संपादन के साथ अज्ञेय और वामपंथियों के मध्य वैचारिक मतभेद शुरू हुआ था। इसकी पुष्टि कृष्णदत्त पालीवाल अपनी पुस्तक ‘अज्ञेय : अलीकी का आत्मदान’ में करते हुए लिखते हैं, ‘सैद्धांतिक चिंतन को लेकर मौलिक मतभेद उभरे। इसी बीच अज्ञेय पर मानवेंद्र रॉय के ‘रैडिकल ह्युमेनिज्म’ का प्रभाव गहराया और उनमें फासिस्टवाद का विरोध प्रबल हुआ। ‘फासिस्ट-विरोधी सम्मलेन’ (1942) का आयोजन करने वाले अज्ञेय ने समय के मिजाज को समझते हुए कम्युनिस्टों का साथ दिया, लेकिन अज्ञेय और कम्युनिस्टों का साथ दूर तक चला नहीं।’ धीरे-धीरे उनका झुकाव मार्क्सवाद से हटकर नव-मानववाद की ओर बढ़ा। इसमें ततकालिक स्थितियों और सिद्धांतों की भूमिका प्रमुख थी।
मानवेंद्र नाथ रॉय आधुनिक भारत के एक प्रतिभाशाली राजनीतिक विचारक और क्रांतिकारी थे। उनका पूरा जीवन विविध क्रांतिकारी गतिविधियों से भरा रहा जिससे उनका ज्ञान, अनुभव और चिंतन गहन हुआ। अपने जीवन के प्रारंभिक वर्षों में उन्होंने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध क्रांति करने का प्रयत्न किया। उसके पश्चात वे साम्यवादी विचारधारा से जुड़े। साम्यवादी विचारधारा से उनके जुड़ाव का प्रमुख कारण मनुष्य की स्वतंत्रता और गरिमा की कामना थी। रॉय मानवीय स्वतंत्रता पर किसी प्रकार का राजनीतिक, आर्थिक व धार्मिक नियंत्रण नहीं चाहते थे। प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात रॉय जापान और चीन होते हुए 1917 में मास्को पहुंचे, जहां वे लेनिन के निकट सहयोगी रहे। फिर कम्युनिस्ट चिंतनधारा की त्रुटियों की आलोचना के कारण वे विवाद के केंद्रबिंदु बने।
1930 में भारत लौटकर वे कांग्रेस में शामिल होकर यहां की स्थितियों का विश्लेषण किया। उन्होंने देखा कि प्रत्येक पार्टी में विभिन्न दल व उपदल बनाए जाते हैं। फिर इन दलों में आपस में ही गलाकाट प्रतिस्पर्धा चलती है। इन दोषों से बचने के लिए आगे चलकर रॉय ने एक नए सिद्धांत ‘नव-मानववाद’ का प्रतिपादन किया जो इनकी ख्याति का प्रमुख आधार बना। ‘नव-मानववाद’ को ‘वैज्ञानिक मानववाद’, ‘क्रांतिकारी मानववाद’ या ‘उत्कट मानववाद’ की संज्ञा भी दी गई। यह सिद्धांत इनके 22 सूत्रीय विचारों पर आधारित है जिनका मूल स्वर ‘मनुष्य की स्वतंत्रता’ है जो उसकी सृजनात्मक शक्तियों के प्रयोग में निहित है।
रॉय मनुष्य को सभी वस्तुओं का मापदंड मानते हैं। उन्होंने कहा कि व्यक्ति वास्तविक इकाई है समाज नहीं, क्योंकि विभिन्न प्रकार के अनुभव व्यक्ति को होते हैं समाज को नहीं। समाज में व्यक्ति स्वातंत्र्य की अवहेलना नहीं की जा सकती, क्योंकि समाज के सदस्यों की स्थिति उस समाज की प्रगति या सफलता नापने का वास्तविक मापदंड है। अतः मानव को किसी बाह्य या अतिप्राकृतिक सत्ता का आश्रय नहीं लेना चाहिए।
रॉय मानते हैं कि मनुष्य स्वभाव से विवेकपूर्ण और नैतिक है। इसलिए वह एक उन्मुक्त और न्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था के निर्माण में समर्थ है। इनका प्रमुख कार्य जनता को लोकतांत्रिक मूल्यों – स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व व परस्पर सहयोग के प्रति जागरूक बनाना है ताकि वह नैतिक मूल्यों पर आधारित समाज का निर्माण कर सके। कुमार विमल कहते हैं, ‘मानववाद संस्कृति को एक नैतिक आधार देना चाहता है, जिस प्रकार मार्क्सवाद उसे एक आर्थिक आधार देना चाहता है।’
एम. एन. रॉय की तरह अज्ञेय की यह धारणा है, ‘नव-मानववाद पूरे विश्व के लिए भारत का एक ऐसा संदेश है, जो संपूर्ण मनुष्यता के उत्थान हेतु एक नवजागरण- एक नूतन पुनर्जागरण का संचार करेगा।’ (अज्ञेय गद्य रचना-संचयन) प्रचलित मान्यता यह थी कि मनुष्य किसी लोकोत्तर या सामजिक बाध्यता के कारण नैतिक व्यवहार करता है, लेकिन रॉय उसका संबंध मनुष्य के विवेक से जोड़ते हैं। उनके अनुसार नैतिकता मानवीय स्वभाव का एक आवश्यक पहलू है और वह मनुष्य की बुद्धिमत्ता से जुड़ा है। उसमें नैतिकता तभी हो सकती है, जब वह विवेकी हो। उनकी नैतिकता धर्माश्रित न होकर भौतिकता-आधारित है। उनका विचार है कि नैतिकता भौतिकवादी दर्शन में ही संभव है, क्योंकि धार्मिक नैतिकता बस आदेश-पालन मात्र की नैतिकता रह जाती है। उसमें स्वतंत्र चिंतन के लिए स्थान नहीं रहता और बिना स्वतंत्र चिंतन के मानव की प्रगति असंभव है।
अज्ञेय के विचारों पर नव-मानववादी दर्शन के प्रभाव पड़ने के कुछ कारण हैं। एक तो यह दर्शन प्रायः अज्ञेय के युग में विकसित हुआ और दूसरा इस दर्शन की सार्थकता ने अज्ञेय को बहुत आकृष्ट किया। अज्ञेय ने अनुभव किया था कि ये नैतिक मूल्य हैं जिनके आधार पर एक स्वस्थ समाज का निर्माण किया जा सकता है। स्वातंत्र्य की खोज और सत्य का अन्वेषण जन्मजात मानवीय प्रवृत्तियां हैं। ज्ञान की प्रगति मनुष्य को अधिकाधिक स्वतंत्र और प्रगतिशील बनने में मदद करती है। देखा जाए तो सही मायने में नव-मानववादी दर्शन ही यह स्वतंत्रता उसे प्रदान करती है- ‘अज्ञेय स्वाधीनता को मानव का चरम मूल्य मानते हैं और यह घोषित तौर पर कहते हैं कि स्वाधीन जाति ही स्वाधीन व्यक्ति को जन्म दे सकती है। जो जाति ही पराधीन है वह स्वाधीन व्यक्ति और स्वाधीन चिंतन को जन्म देने में असमर्थ है।’ (कृष्णदत्त पालीवाल, आलोचक अज्ञेय की उपस्थिति)। रॉय और अज्ञेय दोनों ही समाज की प्रगति तथा उन्नति के लिए व्यक्ति-स्वातंत्र्य तथा मानवीय विवेक को अनिवार्य मानते हैं।
एम. एन. रॉय ने नव-मानववाद संबंधी विचार प्रस्तुत करते हुए तर्क दिया कि राजनीतिक चिंतन की प्रत्येक परंपरा चाहे वह उदारवादी हो, रूढ़िवादी हो या समाजवादी-कम्युनिस्ट हो या फासिस्ट, वह मनुष्य के अस्तित्व को जनपुंज में विलीन कर देती है। इस तरह वह किसी विशेष राजनीतिक प्रणाली के वर्चस्व को स्थापित करके मनुष्य को नगण्य बना देती है। रॉय के अनुसार- ‘सभी प्रचलित विचारधाराएं और व्यवस्थाएं मनुष्य की स्वतंत्रता के इस चरम उद्देश्य को अपनी प्रक्रिया में भुला ही नहीं देतीं, बल्कि स्वयं उसके विरुद्ध हो जाती हैं।’ (अनुवादक – नंदकिशोर आचार्य, एम. एन. रॉय, नव-मानववाद : एक घोषणापत्र)। नव-मानववाद ऐसी प्रत्येक परंपरा अथवा विचार का खंडन करता है जो मनुष्य के स्वतंत्र विकास में बाधक हो।
अज्ञेय के विद्रोह के पीछे किसी वाद का बंधन नहीं था, अपितु मानव व्यक्तित्व की सर्जनशीलता का आग्रह था। इसी कारण उनका विद्रोह उन सभी प्रकार की वर्जनाओं और सिद्धांतों के प्रति है जो व्यक्तित्व के विकास में बाधा उत्पन्न करते हैं। नव-मानववादी दर्शन में निहित व्यक्ति के महत्व, स्वाधीनता के महत्व तथा वैश्विक भ्रातृत्व जैसे मूल्यों ने अज्ञेय को आकृष्ट किया। इसके कारण अज्ञेय के चिंतन के केंद्र में व्यक्ति की स्वाधीनता का प्रश्न सदैव बना रहा।
उनके व्यक्ति संबंधी विचार के विषय में रघुवीर सहाय लिखते हैं– ‘अज्ञेय में व्यक्ति की स्वाधीनता और उसके ऊपर आए हुए संकट की गहरी समझ थी और वे मानव सभ्यता के रचनात्मक मूल्यों की पहचान करते और कराते रहते थे। वे हर तरह की वैचारिक जकड़बंदी के विरुद्ध थे।’ (संपा – डॉ. नीलम ऋषिकल्प, अज्ञेय – स्मृतियों के झरोखे से)।
अज्ञेय अपने लेखन में इन मूल्यों का सदैव निर्वहन करते रहे। उनकी रचनाओं के अधिकतर पात्र समाज की जड़ मर्यादाओं के विरुद्ध हैं। वे उन सीमाओं को चुनौती देते हैं जो उनके स्वतंत्र विकास में बाधक हैं। उनके चरित्र परंपरागत पात्रों की अपेक्षा स्वतंत्र, सक्षम, तर्कपूर्ण, बौद्धिक, विद्रोही और अपनी मौलिक सोच के साथ एक आधुनिक मनुष्य के रूप में हमारे सम्मुख आते हैं।
रॉय ने मार्क्सवाद के आर्थिक नियतिवाद का खंडन करते हुए कहा था कि क्रांति का ध्येय समाज का आर्थिक पुनर्गठन मात्र नहीं है, बल्कि उसे स्वतंत्रता तथा सामाजिक न्याय के लिए नए जगत का निर्माण करना चाहिए। उनका मानना है, ‘नए समाज की संस्कृति का विकास वैयक्तिक स्वतंत्रता और नैतिकता के वातावरण में होगा। राज्य का कार्य वैज्ञानिक और कलात्मक विकास का नियमन नहीं बल्कि ऐसी स्थितियों का निर्माण होगा जो सृजनात्मक उद्यम के सभी रूपों के लिए अधिकतम अवकाश और प्रोत्साहन दे सकें।’ रॉय मानव की सभी स्तरों की स्वतंत्रता और सृजनात्मक क्षमता पर बल देते हैं, क्योंकि मनुष्य का बौद्धिक पुनर्जागरण, राजनीतिक और सामाजिक पुनर्जागरण की आवश्यक शर्त है।
अज्ञेय पर रॉय के इन विचारों का काफी प्रभाव पड़ा। वह आर्थिक क्रांति को ही केंद्र में रखकर की जाने वाली क्रांति और मात्र सर्वहारा वर्ग के शासन को महत्व देने के कारण मार्क्सवादी विचारों से नहीं जुड़ पाए।
अज्ञेय मानते थे कि क्रांति का आधार मात्र आर्थिक नहीं होना चाहिए, सुधार सभी स्तरों पर आवश्यक है। इसके साथ वे प्रत्येक मनुष्य की वैयक्तिक स्वतंत्रता के पक्षधर होने के कारण अपने समय की इस प्रचलित विचारधारा से वैचारिक सामंजस्य स्थापित नहीं कर सके और एम. एन. रॉय के ‘रैडिकल ह्युमैनिज्म’ अथवा ‘न्यू ह्युमैनिज्म’ की ओर बढ़े। इस दर्शन की मूलभूत विचारधारा फासीवाद का विरोध और व्यक्ति की सर्वोपरिता का समर्थन करती है। इसकी प्रधानता हमें रॉय और अज्ञेय दोनों के यहां स्पष्ट दिखाई देती है।
रॉय के विचारों से प्रभावित होकर ही अज्ञेय इनके ‘रैडिकल डेमोक्रेटिक मूवमेंट’ से जुड़े थे और द्वितीय विश्व युद्ध के समय दोनों ने फासिस्ट देशों का विरोध किया- ‘दोनों जानते थे कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता व आधुनिकता का सबसे बड़ा दुश्मन फासिज्म है।’ (अज्ञेय-स्मृतियों के झरोखे से)। यह कहना अनुचित नहीं होगा कि 1943 में ब्रिटिश सरकार और मित्र देशों का पक्षधर बनकर सैनिक रूप में अज्ञेय का कोहिमा फ्रंट पर जाना इसी विचारधारा का प्रभाव माना जा सकता है।
नव-मानववाद मनुष्य को और मानववादी नैतिकता को राजनीति के केंद्र में रखता है। इस सिद्धांत का मुख्य आधार स्वतंत्रता, समानता तथा बंधुत्व जैसे मूल्य हैं। ‘एम. एन. रॉय एक ऐसे राजनीतिक तंत्र और अर्थ – व्यवस्था का प्रस्ताव करते हैं जिसमें सत्ता के किसी भी रूप का हस्तांतरण और केंद्रीकरण न हो सके और व्यक्ति अपनी संप्रभुता का वास्तविक भोग कर सके।’ (एम. एन. रॉय, नव मानववाद : एक घोषणापत्र)। वे मानते हैं कि वर्तमान परिस्थिति में सत्ता व संपत्ति के केंद्रीकरण ने शासक को तानाशाह बना दिया है। इस कारण यह विचारधारा शक्तियों के केंद्रीकरण के विरुद्ध, साझेदारी के लोकतंत्र का समर्थन करती है।
अज्ञेय, गांधी की अपेक्षा नेहरू के विचारों से ज्यादा प्रभावित थे और नजदीक भी थे। लेकिन आजादी के कुछ वर्षों के बाद नेहरू के आर्थिक विचारों व सिद्धांतों के कारण वे उनके विरोधी हो गए। ओम थानवी अपनी पुस्तक ‘अपने-अपने अज्ञेय’ में लिखते हैं कि ‘एम. एन. राय के बाद वे नेहरू के बजाय राममनोहर लोहिया से ज्यादा प्रभावित दिखाई देते हैं। वे नेहरू के आजादी से पहले के संघर्ष और ‘खतरनाक जीवन’ के खयाल से जरूर प्रभावित थे। लेकिन आजादी के बाद नेहरू के आर्थिक विचारों, खासकर विशाल पैमाने के उत्पादन और केंद्रीकरण के विरोधी हो गए।’ इस संबंध में वह रॉय से साम्य रखते हुए मानते थे कि केंद्रीकरण के कारण शासक वर्ग शक्तिशाली होगा जिससे समाज और व्यक्ति की संप्रभुता बाधित होगी।
अज्ञेय का स्पष्ट मानना था कि आधुनिक विकास की अवधारणा यांत्रिक विकास की अवधारणा में सीमित है, जो बुनियादी रूप से मनुष्यों का हित नहीं, अहित साधती है। अज्ञेय इसके प्रभावस्वरूप उत्पन्न आर्थिक समस्या के साथ- साथ सांस्कृतिक समस्या की ओर भी ध्यान दिलाते हुए कहते हैं, ‘हम लोगों में से जो यंत्रयुग की बुराइयों पर ध्यान देते हैं वे प्रायः उसे एक आर्थिक संकट के रूप में देखते हैं – बेकारी की समस्या के रूप में। लेकिन प्रश्न आर्थिक से बढ़कर सांस्कृतिक है। मशीन से केवल रोजगार नहीं मारा जाता, मशीन से मानव का एक अंग मर जाता है, उसकी संस्कृति नष्ट होती है और उसका स्थान लेनेवाली कोई चीज़ नहीं मिलती।’ अर्थात मशीनीकरण आर्थिक से बड़ा एक सांस्कृतिक संकट है, जो जीवन के बने-बनाए ढांचे को नष्ट करता है।
इन अर्थों में अज्ञेय, रॉय के उन विचारों का प्रतिनिधित्व करते दिखते हैं जहां मनुष्य की आर्थिक व्याख्या को महत्वपूर्ण मानते हुए भी वे उसे अधूरा मानते हैं। साथ ही वह हमें गांधीवादी विचारों के निकट जाते दिखाई देते हैं। ध्यातव्य है कि गांधी की दृष्टि मूलतः आध्यात्मिक तथा रॉय की बुद्धिवादी तथा भौतिकवादी होने के बावजूद दोनों ही मनुष्य की स्वतंत्रता, उसके नैतिक उत्कर्ष और मानव मूल्यों को अपना लक्ष्य मानते हैं।
अज्ञेय हमेशा लोकतांत्रिक व्यवस्था के पक्षधर थे। वे सरकार की उन नीतियों का विरोध करते रहे जो जनता के पक्ष में नहीं थी। वह आजीवन किसी एक विचारधारा से नहीं जुड़े रहे, बल्कि व्यावहारिक राजनीति को लेकर उनके विचारों में बदलाव आता रहा, हालांकि स्वतंत्रता और समता में उनकी मूल्यगत आस्था हमेशा कायम रही।
अज्ञेय के इस वक्तव्य में उनकी लोकतांत्रिक विचारधारा की झलक हमें साफ दिखाई देती है- ‘सैद्धांतिक रूप से मैं लोकतंत्र को कम्युनिज्म से अच्छा समझता हूँ। लोकतंत्र को बुनियादी (रेडिकल) अथवा प्राथमिक (प्राइमरी) रूप दिया जा सके, ऐसी चेष्टा का अनुमोदन करता हूँ। एम. एन. राय के विचारों की यही दशा थी, विनोबा भावे के विचारों की भी यही है, जयप्रकाश नारायण की भी।’ (ओम थानवी, अपने अपने अज्ञेय, भाग एक)। रॉय के पश्चात अज्ञेय राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण के विचारों के करीब आए और उनके विचारों से प्रभावित हुए। जेपी के विचारों में वह एम. एन. रॉय की छाया देखते थे। उन्होंने जेपी को भले ही कोई पुस्तक समर्पित न की हो, लेकिन उनकी एक महत्वपूर्ण पुस्तक ‘स्त्रोत और सेतु’ जेपी का नाम है। गांधीवादी विचारों के विरोध में रहने वाले अज्ञेय अपने जीवन के अंतिम वर्षों में गांधी को वैचारिक रूप से सही और उनके नैतिक बल को आवश्यक मानने लगे थे।
अज्ञेय और एम. एन. रॉय के इन विचारों में हमें कई स्तरों पर साम्य दिखाई देता है। चाहे वह विचार मानव अथवा मानव की स्वतंत्रता संबंधी हो या नैतिकता, संस्कृति, राजनीति, स्वाधीनता जैसे मूल्यों पर आधारित हो। ‘कहीं-कहीं तो अज्ञेय ने एम. एन. रॉय का नामोल्लेख किए बिना उनके विचारों को अपनी सधी हुई भाषा में इस अंदाज में लिख दिया है कि वे सभी विचार अज्ञेय के मौलिक विचार मालूम पड़ते हैं। उदाहरणार्थ, अज्ञेय ने वैज्ञानिक मानवतावाद, नवमानवतावाद तथा समाज और व्यवस्था पर जो महत्वपूर्ण अवधारणाएं प्रस्तुत की हैं, वे सभी एम. एन. रॉय द्वारा निरूपित उन बाईस विचार-सूत्रों के भावानुवाद हैं, जो उन्नीसवें विचार सूत्र को किंचित संशोधित कर ‘रैडिकल डेमोक्रैटिक पार्टी’ (स्थापना वर्ष – दिसंबर 1940) के बंबई अधिवेशन में स्वीकार किए गए थे।’ (कुमार विमल, अज्ञेय गद्य रचना- संचयन)।
प्रगतिशील लेखक संघ से मोहभंग के पश्चात अज्ञेय, रॉय के संपर्क में आए और उनके संघ के सक्रिय सदस्य भी रहे थे। इसके साक्ष्य मौजूद हैं। इनमें पहला साक्ष्य उनका ‘अखिल भारतीय रैडिकल ह्युमेनिस्ट एसोसिएशन’ के द्विवार्षिक सम्मलेन का स्वागत भाषण है और दूसरा ‘एम. एन. रॉय की जीवनी, पार्टी और साहित्य के विशेषज्ञ’ पुस्तक में शिवनारायण राय ने इस रचनावली में अज्ञेय का चित्र सहित उनका उल्लेख उनके मित्र के रूप में किया है।
अज्ञेय ‘अखिल भारतीय रैडिकल ह्युमैनिस्ट एसोसिएशन’ के द्विवार्षिक सम्मलेन में स्वागत भाषण देते हुए कहते हैं, ‘हम आज की राजनीति के बोझ से दबे हुए हैं : यह भी कह सकते हैं कि आज के मानव जीवन के गले में राजनीति का तौक-सा बंधा हुआ है।’ अर्थात हम एक ऐसे काल में जी रहे हैं, जहां हमारा देश और शायद संपूर्ण संसार ही इस संकट से गुजर रहा है।
अज्ञेय लिखते हैं- ‘समग्र परिवेश की चिंता राजनीति का मानवीयकरण कर देती है, राजनीति के केंद्र में सत्ता न रहकर मानव प्रतिष्ठित हो जाता है। इतना ही नहीं, समग्र परिवेश के विचार से हम अनेक ‘राजनैतिक’ कामों के प्रति नई विवेक-सम्मत दृष्टि पा लेते हैं।’ अज्ञेय ऐसी राजनीति की वकालत करते हैं जिसके केंद्र में मानव हो न कि सत्ता। यह उनकी मानववादी दृष्टि का ही परिचय देता है।
अज्ञेय के चिंतन के विकास में भारतीय और पश्चिम की अनेक विचारधाराओं का योग है। इन प्रभावों ने प्रेरणाओं का रूप ग्रहण किया और अज्ञेय के मस्तिष्क में ऐसी प्रश्नाकुलताओं को जन्म दिया जिनसे उनके आत्ममंथन की शुरुआत हुई। एम. एन. रॉय के नव-मानववादी दर्शन ने उन्हें जीवन के प्रति एक नया दृष्टिकोण निर्मित करने का उद्देश्य व मार्ग प्रदान किया। वैयक्तिक स्वाधीनता को परम मूल्य के रूप में प्रतिष्ठित करने वाले अज्ञेय के अवदान के निरंतर मूल्यांकन की आवश्यकता है।
सी–1906 मंत्री सेलेस्टिया, विप्रो सर्कल के पास, वित्तीय जिला– नानकरामगुडा, हैदराबाद 500032 मो: 9695638817
बहुत ही सुंदर और गहन विश्लेषण! अज्ञेय पर एम.एन. रॉय के प्रभाव को आपने बहुत ही रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है। पढ़कर नई दृष्टि मिली। शुभकामनाएँ!