तीन दशक से शीर्ष पत्रपत्रिकाओं में कविताएँ, लेख और संस्मरण प्रकाशित। पहला कविता संग्रह बख़्तियारपुरइसी वर्ष प्रकाशित। झारखंड के सहकारिता विभाग में कार्यरत।

खान बहुरूपिया

अब याद करता हूँ तो वे आजमगढ़ जिले के थे
हमारे इस इलाके में गर्मियों में आते थे
सब उन्हें खान साहब कहते थे

वह बहरूपिया थे- तरह-तरह के भेष धरने वाले!
खेती किसानी के बाद जो समय मिलता था
उसमें उस पुश्तैनी पेशे को उन्होंने जिंदा रखा था

हमने उन्हें जटाधारी शिव, पुजारी, मजनू, पोस्टमैन,
रावण, इनकम टैक्स का अफसर, पागल खूनी
पटवारी और भूत बनते देखा था बरसों!

उनके पीछे सैकड़ों बच्चे होते थे
भागते, उछलते- कूदते!
मैं भी उनमें से एक था

सब जानते थे कि वह बहुरूपिया थे!
फिर भी जब वह पागल मजनू बनकर
गलियों में भागते थे
-क्या आलम होता था
महिलाएं छतों से, बरामदे से
दरवाजे की ओट से उन्हें देखतीं
हंसती और अफसोस करतीं
छोटे बच्चे डर कर रोने लगते
तब वे रुक कर उन बच्चों के गाल थपथपाते
और हाय लैला- हाय लैला करते हुए
यह फिल्मी गीत गाते हुए
‘तेरी बांकी अदा पर मैं हूँ फिदा
तेरी चाहत का दिलबर बयां क्या करूँ’
-गलियों में भागते दिखते!

शाम होती
तो साफ धुले हुए सफेद कुर्ते पाजामे में
और सिर पर सफेद गमछा लपेटे
आंखों में सुरमा डाले
मोहल्ले के बड़े बुजुर्गों के पास बैठे मिलते
वे उनसे अपने देस की
खेती-बाड़ी के बारे में बातें करते
दूसरे शहरों-गांवों के अपने अनुभव सुनाते
लोग उन्हें किस्सागो की तरह देखते
और मुग्ध होते

उन्हें देखकर हम यकीन नहीं कर पाते कि
दोपहर में चिट्ठियां और
मनीआर्डर के लिए आवाज देने वाला पोस्टमैन
यही आदमी था!

पचपन के उस बहरूपिये के चेहरे पर
एक नूर था
वे सबको भले लगते
लोग उन्हें ससम्मान
अपने दरवाज़े पर बैठने को
कुर्सी या मोढ़ा देते
बच्चे उन्हें कौतूहल से दूर से देखते
खान साहब उन्हें पास बुलाते
उनके स्कूल और उनकी कक्षाओं की
जानकारी लेते
फिर कोई पहाड़ा सुनाने को कहते
‘खूब मन लगाकर पढ़ो बबुआ’
-कहकर स्नेह से उनका माथा चूमते

वर्षों तक उनका ठिकाना
मस्जिद के पास रहने वाले
बिलाल मियां का घर रहा
बिलाल मियां ने कभी उनसे
रहने के पैसे नहीं लिए!

कई साल गुजर गए हैं
1986 के बाद वे फिर इधर नहीं आए
जब रामानंद सागर
रामायण लेकर हमारे घरों के भीतर आए
उस साल के बाद इस बहुरूपिये की
हमें कोई खबर नहीं मिली!

सोचता हूँ, अच्छा हुआ खान साहब
आप 1992 के बाद नहीं दिखे!
वरना भगवान शिव के भेष में देखकर
किसी सिरफिरे का ज्ञान जाग सकता था
वह यह पूछ सकता था कि-
तुम जटाधारी कैसे बे?
तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई
जटाधारी शिव बनने की?

मनोरंजन की पारंपरिक दुनिया से
धीरे-धीरे विदा हो गए हैं अब बहुरूपिये भी
अब उन्हें किसी शहर या गांव में नहीं देखा जाता
वे हमारी दुनिया से जा चुके हैं

अगर खान साहब अभी होंगे
तो यकीनन यह बहरूपिया
अपनी 92-93 की उम्र पूरी कर रहा होगा

सोचता हूँ
क्या उन्हें उन जगहों की याद आती होगी
जहां वे अपने जवानी के दिनों में गए होंगे
जहां लोगों ने सामने से उन्हें
खान साहब कहकर इज्जत बख्शी होगी
फिर वे ‘खान बहुरूपिया’ के नाम से
मकबूल हो गए होंगे

खान साहब का नंबर भी मिल जाता
तो पूछता कि
क्या आपको नोनीहाट की याद है?
खेती-बाड़ी कैसी चल रही है?
क्या आपके इलाके में भी बारिश कम हो गई है?

आप आखिरी बार
बहुरूपिया कब बने थे खान साहब?

कवि वह

कविता की छह किताबें उसने
कांख में दबा रखी हैं
जिन्हें लिए फिरता है वह दूसरे शहरों में
इन दिनों उसकी एक किताब
मुकम्मल होने की तैयारी में है
एक प्रेस में है लगभग तैयार बाहर आने को
हावड़ा ब्रिज पर कल दिखा वह
तेजी से चलता हुआ कुछ बेचैन- सा
लेकिन उसने
अपनी बेचैनी छिपाई अपनी विनम्रता में

मैं उससे उस एतिहासिक ब्रिज पर ही
गले लगना चाहता था
गोकि सालों बाद दिखा था
पर वह बहुत हड़बड़ी में था
उसने अपना बरसों से
वही पुराना ढीला हाथ मिलाया और

चौंककर पूछा- यहां कैसे दोस्त?
कई रोज से हावड़ा का मछली बाजार
सपने में आ रहा था
सो देखने चले आया कोलकाता!

अच्छा-अच्छा!
इस तरह से अपने संसार को भी
देखना चाहिए कभी-कभी
यह सब उसने एक आप्त-वचन की तरह कहा

एक बांसुरी वाला हुगली पार करने की
सोच रहा था और खड़ा था

तुम एक बांसुरी ले लो मित्र
तुम्हारी कविताओं में बांसुरी बहुत आती है
नदी और नाव भी

वह हँसा मेरी बात पर
वह जल्दबाजी में था
लगा, यह भेंट निरर्थक थी उसके लिए
किसी अकादमी के दफ्तर में जाना था उसे
अपनी किताब लेकर
या कोई जरूरी मुलाकात छूटती जाती थी

यह मुझे उसके शरीर की
भंगिमाओं से पता चलता था

तो चलूं- कहता हुआ वह कवि
पुल के ढलान के नीचे
उतरता हुआ गुम हो गया
जो मिला था मुझे तीस साल पहले
आकाशवाणी भागलपुर में कविताएं पढ़ते हुए!

कोठरी घर

बहुत थोड़े से अनाज रहते थे उसमें
कुछ पुरखों के समय से संजोये
कांसे-पीतल के बरतन
डालडा और अमूल के पुराने डब्बे
और माँ के ब्याह के समय के फूलदान
अनाज के कनस्तर
उपहार में मिला लोहे का नक्काशीदार बक्शा
और थोड़े कबाड़ जिनके मोह से हम
ताजिंदगी नहीं निकल पाते

हम कोठारी घर कहते थे उसे
छुटपन से ही देवताओं की
कुछ तस्वीरें भी रखी देखीं हमने
इस तरह से वह पूजा घर भी था
पर हमने उसे कोठारी घर ही कहा

मैं चाहता हूँ-
हमारा बच्चा भी उसे
कोठारी घर ही कहे
मां के कमरे को दादी का कमरा कहे!

वह कहीं भी रहे
नोनीहाट को अपना घर कहे!

दीदी

अब तुम्हारा फोन नहीं आएगा
अब तुम्हें छुप-छुपकर
बात करने की जरूरत नहीं
अब तुम्हें डरने की जरूरत नहीं

अब किसी बात का कोई मतलब नहीं रह गया है
अब तुम्हारे दरवाजे से होकर
उस शहर को कैसे जाऊंगा
जो शिव की नगरी कहलाती है
जिसमें इक्कीस साल तक रहीं तुम
अपने ही हत्यारे के साथ

तुमसे मिलने जाते हुए
अब कभी बीच रास्ते में
रुकना नहीं पड़ेगा हमें
फोन की घंटी की आवाज सुनकर
अब तुम्हें समय का अंदाजा नहीं लगाना पड़ेगा
कि तुम्हारे घर तक पहुंचने पर
हमारे लिए बन चुकी होती थी चाय!

मेरी पसंद की वह सब्जी
जिसमें मां के हाथों का स्वाद आता था
जिसे तुमने सीख लिया था
हूबहू मेरे लिए
-अब तुम्हें नहीं बनानी पड़ेगी

अब तुम्हें भैया के स्वास्थ्य की चिंता
नहीं करनी है
और बेटे की पढ़ाई और स्वभाव की चिंता तो
बिलकुल नहीं!

तुम्हारी रिसर्च-पढ़ाई सब बेकार गई
इस बेचैनी से तुमको
तुम्हारे ईश्वर ने कर दिया है मुक्त

अब मैं तुम्हारे शहर से घृणा करता हूँ
जहां तुम्हारे लिए अंतिम समय में
कोई सिरहाने खड़ा नहीं था

किसी ने जगाकर तुमसे यह नहीं पूछा कि
सुबह के साढ़े दस बजे तक तुम क्यों सो रही हो
दीदी, उन किताबों के पन्नों में पढ़ता हूँ तुमको
जिन पर आज भी तुम्हारी उंगलियों
के स्पर्श बाकी हैं

अच्छा हुआ लेता आया तुम्हारी सभी किताबें
किसी कूड़ेदान में जाने से पहले
जिसने नहीं की कद्र
एक धड़कते हुए दिल की
वह क्या जानेगा किताबों के बारे में!
जानता हूँ
अब तुम्हारा फोन कभी नहीं आएगा
उस रूट की सभी लाइनें
अब बंद हो चुकी हैं!